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मुमुक्षुः- उसका कारण क्या और उसके लिये क्या करना?
समाधानः- अपने गाँव जाय तो अपनी क्षति है उसमें। यह तो गुरुदेवका स्थान है, इसलिये सब ... ज्यादा सत्संग करना। स्वयंको पुरुषार्थकी मन्दता हो जाय तो ज्यादा सत्संग करना। कैसे रुचि प्रगट हो? यह रखना। ज्यादा वांचन, विचार करना। उसे देव- गुरु-शास्त्रकी महिमामें चित्त लगाना। जहाँ अपने आत्माको ज्यादा लाभ हो वहाँ आना- जाना ज्यादा रखना। कल्याण कैसे हो? आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा ज्ञायक है, आत्मा अपूर्व है। गुरुदेवने कहा है उसे बारंबार याद करना। रुचिको मन्द नहीं पडने देना, वह सब अपने हाथकी बात है।
समाधानः- ... इसलिये अंतरमें जाना उसे अत्यंत मुश्किल हो जाता है। अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे रुका है। अपनी भूलके कारण। "कर्म बिचारे कौन, भूल मेरी अधिकाई'। मेरी भूलके कारण, अपनी भूलके कारण स्वयं रुका है, कोई उसे रोकता नहीं है। कैसे करना? क्या करना? विचार करने पर भी स्वयं अंतरमें जिस प्रकारका पुरुषार्थ करना चाहिये वैसा करता नहीं है। स्वरूपका आश्रय ग्रहण नहीं करता है। अंतरमें श्रद्धा करके चैतन्यका आश्रय ग्रहण करना चाहिये, वह आश्रय ग्रहण नहीं करता है। बाहर उसे अच्छा लगता है, अनादि कालसे। अन्दरमें उसे ऐसा लगता है कि मेरा करना है, लेकिन पुरुषार्थ नहीं करता है। अन्दर उतनी लगी नहीं है। "तरणा ओथे डुंगर रे, डुंगर कोई देखे नहि'। पर्वतको कोई देखता नहीं। स्वयं देखता नहीं है, इसलिये दिखाई नहीं देता। अन्दर आत्मा तो है, परन्तु स्वयं वहाँ दृष्टि करके देखता नहीं है। इसलिये दिखता नहीं है।
मुमुक्षुः- कल ही चारित्रका दोष और श्रद्धाका दोष आपके श्रीमुखसे सुननेके बाद बहुत आनन्द आया।
समाधानः- वास्तवमें तो श्रद्धा और चारित्र तो, वह स्वयं भिन्न पडे तब उसकी श्रद्धाकी परिणति भिन्न होती है ज्ञायककी और चारित्रकी अस्थिरता रहती है। अतः अस्थिरताका दोष और श्रद्धामें दोष कब आता है और ज्ञायककी परिणतिमें चलाचलता हो तो वह श्रद्धाका दोष। खरा श्रद्धाका दोष तो सम्यग्दर्शन होनेके बाद ही उसे सहजरूपसे
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भेदज्ञान होकर एकत्व परिणति छूटे तब होता है। उसके पहले वह विकल्पसे करे तो उसमें श्रद्धा और चारित्रकी एकत्व परिणति है। इसलिये उसे श्रद्धा एवं चारित्र दोनों साथ-साथ चलते हैं।
इसलिये उसे मुख्यपने तत्त्वकी बातमें शंका पडे तो वह श्रद्धाका दोष है। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र और तत्त्व, तत्त्वमें उसे फेरफार हो, वह श्रद्धाका दोष है। और दूसरे कषाय हैं, वह अस्थिरताके हैं। वह तत्त्वको लागू नहीं पडते। तो भी मुमुक्षुकी भूमिका तो ऐसी होनी चाहिये कि यह अस्थिरता है और यह कषाय लौकिक है, इसलिये वह कैसे भी हो, उसमें कोई दिक्कत नहीं है, उसमें श्रद्धाका दोष कहाँ है? ऐसे नहीं। मुमुक्षुकी भूमिकामें उसके योग्य अमुक प्रकारकी कषायोंकी मन्दता तो उसे होनी चाहिये। लौकिकमें भी उसकी पात्रतामें होना चाहिये। यह तो चारित्रका दोष है, यह तत्त्वको कहाँ लागू पडता है? ऐसा उसे नहीं होता। उसकी पात्रतामें भी अमुक प्रकारकी मन्दता उसे होती है।
मुमुक्षुः- एक-एक स्पष्टकीरण माताजी! आपसे प्राप्त होते हैं तो सब पहलू इतने स्पष्ट हो जाते हैं कि किसी नयकी हानि नहीं होती और फिर भी जितना स्पष्टीकरण जिस प्रकारसे आना चाहिये, वह सब स्पष्टीकरण आपसे प्राप्त हो जाता है।
अस्तित्व ग्रहण करना है कि यह मैं हूँ। बस, इतना तुझे करना है। उसमें गुणभेद या पर्यायभेद, जिस प्रकारसे ज्ञान सम्यकज्ञानमें जानता है वैसा ही वस्तुका स्वरूप है। मात्र तुझे उन सबमेंसे प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एकको ग्रहण कर लेना है।
समाधानः- एक अस्तित्व ग्रहण करना है और दृष्टिके विषयमें एक चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। मैं हूँ ज्ञायक, बस। फिर ज्ञान और श्रद्धा दोनों मैत्रिभावसे हैं। यह ऐसा कहे और वह वैसा कहे, ऐसा नहीं है। एक आश्रय ग्रहण कर लिया, बस, उसमें दृष्टिमें गुणभेद, पर्यायभेद गौण हो गये। विभाव स्वभाव अपना नहीं है। यह शरीर तो जड है, विभावस्वभाव अपना नहीं है। और गुणभेद, पर्यायभेद आदि किस प्रकारसे उसके भेद है, वह सब ज्ञानमें आता है। दृष्टि अपना अस्तित्व ग्रहण करती है। अस्तित्व ग्रहण करती है, उसमें गुणभेद पर्यायभेद सब गौण हो गया। एक अस्तित्वका जोर है और मुख्य है।
उसे सहज नहीं है, इसलिये विकल्पमें ऐसा आता है कि अस्तित्वमें गुणभेद, पर्यायभेद नहीं है, ज्ञानमें है। उसे ऐसे विकल्प आते रहते हैं इसलिये दोनों विरूद्ध जैसा लगता है। उसमें सहज हो... एक अस्तित्व ग्रहण कर लिया। उसमें गुणभेद, पर्यायभेद सब ज्ञानमें ज्ञात होते हैं। फिर उसकी दृष्टिके विषयमें वह सब गौण हो जाता है। एक अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। सामान्य अस्तित्व ग्रहण कर लेता है।
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मुमुक्षुः- ज्ञानगुण और ज्ञानकी पर्याय अपना कार्य करती रहती है, श्रद्धागुणका कार्य अस्तित्वको ग्रहण करना इतना ही है। सम्यक अथवा मिथ्या।
समाधानः- अस्तित्व ग्रहण करती है। एक सामान्य पर जोरसे श्रद्धा रखे कि यह मैं हूँ, यही मैं हूँ, अन्य कुछ नहीं। मुख्य स्वरूप मेरा यह है। मैं चैतन्यरूप ज्ञायकरूप हूँ। यह सब विभाव या भेद आदि सब मेरे मूल स्वभावमें नहीं है। वह सब लक्षणभेदसे भले ही हो, परन्तु मूल स्वभावमें (नहीं है)। वह उसका जोर है-श्रद्धा एवं अस्तित्वका। उसने अस्तित्व ग्रहण किया है। उसका दृष्टिका विषय ऐसा जोरसे है। उसे श्रद्धा कहो, दृष्टिका विषय कहो।
ज्ञानमें वह आता है कि एक अस्तित्व होनेके बावजूद, वह चैतन्य किस स्वरूप है? उसमें ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है, वह सब ज्ञानमें आता है। लेकिन वह सब टूकडेरूप नहीं है। वह सब ज्ञानमें आता है। दोनों मैत्रिभावसे रहते हैं। इस अपेक्षासे है और दूसरी अपेक्षासे नहीं है। ज्ञानमें दोनों (आते हैं)। ज्ञान दृष्टिको, अस्तित्वको ग्रहण करता है और बाकी सब भी ग्रहण करता है। ज्ञानमें सब आता है।
मुमुक्षुः- श्रद्धाका कार्य क्या? कि श्रद्धा किसीका स्वीकार नहीं करती, ज्ञान जैसा है वैसा...
समाधानः- ज्ञान जैसा है वैसा जानता है।
मुमुक्षुः- अस्तिसे श्रद्धा मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा स्वीकार करती है। साथ-साथ ज्ञान नास्तिमें, यह मैं नहीं हूँ, ऐसा जान लेता है।
समाधानः- यह मैं हूँ, यह नहीं, दोनों। ज्ञानमें सब आता है। किस अपेक्षासे है, किस अपेक्षासे नहीं है। सामान्य-विशेष सब ज्ञानमें आता है। (ज्ञान) विवेकका कार्य करता है, श्रद्धा एक पर जोर रखती है कि स्वंयको ग्रहण कर लिया है कि यह मैं हूँ। मूल अस्तित्व, उसका जो असली अस्तित्व है, वह उसने ग्रहण कर लिया है। लेकिन उसे ग्रहण किये बिना मुक्तिका मार्ग होता नहीं। ज्ञानमें सब जाना, लेकिन एक पर जो जोर न आये तो वह आगे नहीं बढ सकता। जोर एक पर आना चाहिये।
इस अपेक्षासे गुणभेद, पर्यायभेद है। यह विभावस्वभाव मेरा नहीं है। किस अपेक्षासे है, ऐसा जाना, लेकिन जोर एक पर-यह मैं हूँ-फिर उसमें यह गुण है, पर्याय है, सब ज्ञानमें जाननेमें आता है। कल कहा न? भगवान कोई दिव्यस्वरूप (है)। भगवानका आश्रय लिया कि मुझे भगवानके दर्शन करने हैं। एक भगवानका अस्तित्व कि यह भगवान हैं, फिर भगवान कैसे हैं, वह सब विस्तार ज्ञानमें होता है। लेकिन आश्रय करनेवाला एक भगवानको ग्रहण करता है। उसमें एक अस्तित्व ग्रहण करता है। वह तो बाहरका है, यह तो अंतरका है।
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... यह गुरु। यह गुरु है। अपने गुरु हैं। बस, एक गुरुको ग्रहण किया फिर उसके विचार (करता है कि) गुरु कैसे हैं? वह तो उसने नक्की कर लिया कि यह गुरु हैं, उनकी अंतरमें दशा कोई अलग है। यह गुरु अलग है। नक्की करके श्रद्धा करी कि यह गुरु। फिर उसमें बार-बार विचार नहीं आते हैं। एक गुरु हैं, ऐसे आश्रय लिया। एक आश्रय ले लिया। किस अपेक्षासे गुरु हैं, वह नक्की कर लिया, फिर श्रद्धा हो गयी कि यह गुरु हैं। फिर ज्ञानमें जानता है कि गुरु कैसे हैं। फिर बार-बार विचार नहीं करता। एक अस्तित्व गुरुका ग्रहण कर लिया है। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण कर लिया।
वैसे ज्ञायकको ग्रहण कर लिया। जो जड नहीं है, परन्तु चैतन्य है। ... सब ज्ञानसे नक्की करनेके बाद श्रद्धा की कि, यह ज्ञायक सो मैं। एक अस्तित्व ग्रहण कर लिया। श्रद्धाका जोर उसी पर रखा। शक्ति अपेक्षासे है, प्रगट तो हुआ नहीं है। फिर ज्ञानमें सब विवेक करके उस ओरका जोर रखकर उसका पुरुषार्थ चालू होता है।
मुमुक्षुः- अस्तित्व ना माताजी?
समाधानः- सामान्य अस्तित्व। अनन्त गुण मण्डित आत्मा, उसका सामान्य अस्तित्व। गुण पर दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक सामान्य पर है। पर्यायोंका वेदन होता है। पर्यायें पलटती हैं। वह सब ज्ञानमें जानता है। जो स्थिर हो, उसीका आश्रय लिया जाता है। जो पलटता रहे उसका आश्रय नहीं होता, जो स्थिर होता है उसका आश्रय लिया जाता है। पर्यायें पलटती रहती हैं, उस पर दृष्टि (नहीं करते), उसका आश्रय नहीं लिया जाता, जो स्थिर हो उसका आश्रय लिया जाता है। पर्यायें पलटती हैं। जो गुण हो, उसका कार्य आये बिना रहता ही नहीं। पलटनेका स्वभाव भी है आत्माका।
मुमुक्षुः- दृष्टिका इतना जोर आनेके बाद उसका अभ्यास होता है। प्रत्येक प्रसंगमें मैं तो भिन्न हूँ, मैं तो भिन्न हूँ, यह जो आपने बताया, वह दृष्टिका जोर आनेके बाद उसका बारंबार अभ्यास करना?
समाधानः- बारंबार अभ्यास करना। मैं तो भिन्न ही हूँ। यह शरीर सो मैं नहीं हूँ। मैं तो एक ज्ञायक ही हूँ। यह विभावरूप परिणमन हो रहा है, वह भी मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ।
मुमुक्षुः- जिस द्रव्यके आलम्बनसे सम्यग्दर्शन होता है, उस द्रव्य सम्बन्धित... द्रव्य तीनों कालमें जात्यांतर नहीं होता।
समाधानः- तीनों कालमें जात्यांतर (अर्थात) उसकी जाति बदलती नहीं। जो द्रव्यके आश्रयसे सम्यग्दर्शन हो, वह द्रव्य.. ऐसा है न? द्रव्य जात्यांतर नहीं होता। जात्यांतर यानी उसकी जाति बदलती नहीं। एक स्वभाव ही रहता है। अनन्त काल गया तो भी जीव तो वही का वही है। निगोदमें गया तो भी वह है, देवमें गया तो भी
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वैसा ही है। नर्कमें गया तो भी वैसा है, तिर्यंचमें गया तो भी वैसा है। जीव तो वही का वही है। जात्यांतर नहीं होता। जीव बदलकर जड नहीं होता। जीव तो जीव, चेतन तो चेतन ही रहता है। चेतन सो चेतन तीनों कालमें, जड वह जडरूप है। दोनों भिन्न-भिन्न वस्तुएँ हैं। उस चैतन्यको ग्रहण करना, वही आत्माको सुखका कारण है, अन्य कुछ भी सुखका कारण नहीं है। वह स्वभाव ग्रहण करना, वही सर्वस्व है। वही द्रव्य है। कोई अलग द्रव्य है, आश्चर्यकारी द्रव्य है।
मुमुक्षुः- अशुद्ध परिणमन जो होता है, उसे जात्यांतर हुआ कहा जाय?
समाधानः- किसका परिणमन?
मुमुक्षुः- अशुद्ध परिणमन।
समाधानः- जात्यांतर नहीं है। अपना स्वभाव छोडकर उसका परिणमन होता ही नहीं। स्वयं स्वयंरूप ही रहता है। जात्यांतर अर्थात विभावरूप जो होता है, वह पर्याय अपेक्षासे दूसरी जाति है। परन्तु अपने स्वभावसे मूल वस्तुको नहीं छोडता। निमित्तकी अपेक्षासे कहा जाता है कि स्फटिक स्वयं निर्मल है, परन्तु जो लाल-पीले रंग है वह दूसरी जातिके हैं। वह उसका मूल स्वभाव नहीं है। स्वभावका रंग नहीं है। परन्तु वह विभाव पर्याय-विकृत है। चैतन्यकी विभावपर्याय है, स्वभावपर्याय नहीं है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन तो विकृति रहित द्रव्य है।
समाधानः- सम्यग्दर्शन विकृति रहित द्रव्य है, जो एक स्वभावरूप है, सहज स्वभावस्वरूप है, पारिणामिकरूप है। उसके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। पर्यायके आश्रयसे सम्यग्दर्शन नहीं होता। द्रव्यके आश्रयसे ही होता है। किसी भी प्रकारका विभाव- विकृति हो, उसके आश्रयसे सम्यग्दर्शन नहीं होता या शुभभावके आश्रयसे नहीं होता। अन्दर शुद्धके आश्रयसे सम्यग्दर्शन होता है। तो वह शुद्धात्माके आश्रयसे होता है। शुद्ध पर्यायके आश्रयसे भी नहीं होता। शुद्ध पर्याय तो प्रगट होती है। वह हमेशा नहीं होती। शुद्धात्माके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। कोई शुभभावके आश्रयसे या शुद्ध पर्यायके आश्रयसे स्वयं शुद्धात्मा द्रव्य है, उसके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। उसीका आलम्बन लेना, उसीमें स्थिर होना, उसकी श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसका चारित्र, बस, उसके आश्रयसे ही पूरा मुक्तिका मार्ग यहाँसे शुरू होता है। द्रव्यके आश्रयसे।
द्रव्यको जीवने ग्रहण नहीं किया है। पर्यायकी ओर दृष्टि की है, विभावकी ओर दृष्टि करके शुभभाव कुछ करे तो, मैंने मानो बहुत किया, ऐसा उसे लगता है। परन्तु करनेका अंतरमें बाकी रह जाता है। अनन्त कालसे जो किया वह कुछ किया ही नहीं है। अंतरमें जो करनेका है वह अलग ही है। बाहरसे करे इसलिये मानों मैंने बहुत किया। परन्तु श्रद्धा तो ऐसी ही होनी चाहिये कि मेरे चैतन्यके आश्रयसे ही सब
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होता है।
मुमुक्षुः- शुद्ध द्रव्यके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है, ऐसा कहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है, द्रव्यके आश्रयसे ही सम्यग्दर्शन होता है। दोनों एक ही वस्तु है। पर्यायको गौण करके।
समाधानः- पर्यायको गौण करे तो आत्माके आश्रयसे ही होता है।
मुमुक्षुः- वह शुद्ध ही रहा।
समाधानः- वह शुद्ध ही है। उसमें कोई अशुद्धता है ही नहीं। शुद्धात्माके आश्रयसे ही होता है। शुद्धात्मा और अशुद्धात्मा, वह तो एक बोलनेकी पद्धति है। अशुद्धात्मा पर्याय अपेक्षासे कहनेमें आता है। आत्मा तो शुद्ध ही है।
मुमुक्षुः- यह जो .. बात की, कि पर परिणामरूप परिणमे नहीं, उसका अर्थ क्या?
समाधानः- पररूप परिणमता नहीं। पर परिणामरूप यानी जडरूप परिणमता नहीं। जो आत्मा है, वह विभावरूप मूल रूपसे परिणमता नहीं। पर्याय अपेक्षासे परिणत है।
मुमुक्षुः- द्रव्य स्वभाव है, वह वैसाका वैसा रहता है।
समाधानः- वह वैसाका वैसा रहता है। स्फटिक वैसा ही रहता है, पानीकी शीतलता जाती नहीं। जो वस्तुका मूल स्वभाव हो, वह वैसा ही रहता है। वह निगोदमें जाय तो भी वैसा ही रहता है। उसमें कोई फेरफार नहीं होता। उसीका आश्रय लेना। उसीसे होता है।
अपना कल्याण करना, अपनी शुद्ध पर्याय प्रगट करनी है। वह अन्य किसीके आश्रयसे होता नहीं। स्वयंको अन्दर वेदन और शुद्धता-निर्मलता प्रगट करनी है तो निर्मलके आश्रयसे निर्मल होता है। स्वयं ही है और स्वयंको ही ग्रहण करना है। दूसरा कुछ नहीं है।
मुमुक्षुः- .. स्वपनेका त्याग कर सकता नहीं। वह बात तो आ गयी...
समाधानः- हाँ, द्रव्य स्वपनेका त्याग कर सकता नहीं। द्रव्य स्वयं स्वयंको छोडता नहीं। स्वयंको छोडकर अन्य रूप नहीं होता। अपना स्वपना छोडता नहीं। वस्तु स्वभावसे छोडता नहीं। पर्याय अपेक्षासे छोडता है, ऐसा कहनेमें आता है। वस्तु स्वभावसे छोडता नहीं।
ज्ञायककी परिणति प्रगट हो, स्वानुभूति प्रगट हो तो उसे ज्ञायककी दशामें वह ज्ञाताकी धारा छोडता नहीं। उसे चाहे जैसी विभाव पर्याय उदयमें हो, तो भी वह ज्ञायककी धारा छोडता नहीं। उसकी भेदज्ञानकी धारा गृहस्थाश्रममें हो तो ऐसे ही चालू रहती है। पर्याय अपेक्षासे छोडता नहीं। पहले कहा वह द्रव्य अपेक्षासे छोडता नहीं। उसकी पुरुषार्थकी धारा ऐसी होती है। बाहर विभावमें एकत्वबुद्धिरूप परिणमता नहीं। उसकी
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स्वभावकी धारा चालू ही रहती है। प्रतिक्षण चालू रहती है।
मुमुक्षुः- अनादि मर्यादारूप वर्तता है, ऐसा एक बोल है।
समाधानः- अनादि मर्यादारूप ही वर्तता है, नियमरूपसे उसकी मर्यादा छोडता नहीं। उसकी मर्यादासे बाहर जाता नहीं। जैसे समुद्र अपनी मर्यादा छोडता नहीं, वैसे आत्मा मर्यादा छोडता नहीं। समुद्रका पानी बाहर नहीं आ जाता।
वैसे चैतन्य अनन्त गुणसे भरा आत्मा, वह अपनी मर्यादा छोडकर अपना द्रव्य बाहर आकर दूसरेके साथ मिश्र हो जाय, ऐसा होता नहीं। उसके गुण और उसकी परिणति अन्य किसीके साथ मिश्र हो जाय, उस प्रकारसे वह उछलकर अन्यमें मिश्र नहीं हो जाता। उसका तल ऐसा नहीं है, समुद्र मर्यादा छोडता नहीं, वैसे चैतन्य (अपनी मर्यादा छोडता नहीं)। यह तो दृष्टान्त है। स्वयं मर्यादा (छोडता नहीं)। स्वयं स्वयंमें ही रहता है। पर्याय अपेक्षासे बाहर गया, ऐसा कहनेमें आता है। मर्यादा छोडता नहीं है, ऐसी श्रद्धा करके उस रूप पुरुषार्थ करे तो वह बराबर है।
मुमुक्षुः- तो उसे काममें आये।
समाधानः- हाँ, तो उसे वह समझ काममें आये। बाकी श्रद्धा करे, भले बुद्धिसे श्रद्धा करे तो भी वह हितका कारण है।
मुमुक्षुः- पहले तो ज्ञानमें यथार्थता हो, उसके बाद ही ... होता है न? समाधानः- ज्ञानमें यथार्थ हो। विचारसे नक्की करे तो श्रद्धा होती है। विचार तो बीचमें आये बिना नहीं रहते। तत्त्वके विचारसे श्रद्धा होती है, परन्तु श्रद्धा मुक्तिके मार्गमें मुख्य है। श्रद्धा सम्यक होती है, इसलिये ज्ञान सम्यक कहनेमें आता है। परन्तु ज्ञान बीचमेें आये बिना नहीं रहता। ज्ञानसे नक्की करता है। व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता।