Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 14.

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ट्रेक-०१४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- कर्मका नाश करना चाहते हैं, परन्तु बन्धते ही जाते हैं, बन्धते ही जाते हैं, उसका अंत कहाँ है?

समाधानः- कर्म बन्धते ही जाते हैं उसमें स्वयंका कारण है। स्वयं एकत्वबुद्धि करके अटका है। अन्दर जो राग और द्वेष (होते हैं), उसके साथे एकत्वबुद्धि की है। कर्मको स्वयं बान्धने नहीं जाता है, कर्मको स्वयं छोडने नहीं जाता। परन्तु स्वयं अन्दर जो विकल्पकी जालमें फँसा है, अन्दरमें एकत्वबुद्धि करके अन्दरसे स्वयं भिन्न पडता है इसलिये कर्म छूटते नहीं है। स्वयं अन्दरसे विकल्पसे छूट जाये और उससे मैं भिन्न हूँ, ऐसे अपने तत्त्वको ग्रहण करे तो अन्दरसे स्वयं छूट जाता है, तो कर्म छूट जाते हैं। स्वयं अन्दरसे छूटता नहीं है, इसलिये कर्म भी नहीं छूटते हैं।

मुमुक्षुः- वह कैसे?

समाधानः- स्वयं अन्दरसे भिन्न पडना चाहिये कि मैं तो आत्मा हूँ, मैं तो चैतन्य जाननेाला हूँ। यह शरीर मैं नहीं हूँ। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि (हो रही है)। भले उसे अभी एकदम नहीं छूटे, अन्दरसे ज्ञान करके, विचार करके मैं तो चैतन्य ज्ञायक हूँ, यह जड शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ, यह राग-द्वेष मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो जाननेवाला आनन्दसे भरा आत्मा हूँ। इसप्रकार बारंबार विचार करके उसका स्वभाव पहचाने और बारंबार उससे निर्लेप रहनेका प्रयत्न करे, उससे भिन्न रहनेका प्रयत्न करे। बारंबार अन्दरसे यदि स्वयं निर्लेप रहे और भिन्न रहनेका प्रयत्न करे तो स्वयं भिन्न ही है। परन्तु अन्दर स्वयं फँसा है कि मैं बन्धा हूँ, राग-द्वेष और शरीर मैं, शरीर मैं और मैं शरीर, ऐसी एकत्वबुद्धि हो गयी है। यह शरीर है वही मैं हूँ और शरीर ही मेरा स्वरूप है, ऐसी एकत्वबुद्धि और यह कल्पनाकी जाल होती है वह सब मैं ही हूँ, उससे मैं भिन्न हूँ ऐसा ज्ञान करे तो छूट सकता है।

स्वयं अन्दरसे भिन्न पडे तो कर्म छूट जाते हैं। स्वयं भिन्न पडता है इसलिये कर्म बन्धते जाते हैं। शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो जाननेवाला हूँ। अन्दर विचार करे तो ख्याल आये कि मैं तो जाननेवाला हूँ। इससे मैं भिन्न ही हूँ, इसप्रकार स्वयं भिन्नताकी भावना करे, उसका प्रयत्न करे तो छूट सकता है। स्वभावसे भिन्न ही है, परन्तु बन्ध गया


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हूँ ऐसा मान लिया है कि मैं बन्ध गया हूँ।

पहले प्रयत्न करके भिन्न होवे, भावना करे, लेकिन द्रव्य तो भिन्न ही है। लेकिन स्वयं ऐसी परिणति करे, भिन्नता रूप स्वयं परिणमन करता जाये तो फिर भिन्न पड जाता है। कर्म छूट जाते हैं, भवका अभाव हो जाता है, अन्दरसे छूट जाये।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शनको ही ध्येय रखना या गौणरूपसे दूसरा भी कोई ध्येय पडता है?

समाधानः- सम्यग्दर्शन यानी आत्माकी प्राप्ति करनी वही एक ध्येय रखना है। दूसरा ध्येय क्या? दूसरा कोई ध्येय रखने जैसा नहीं है। उसमेंसे उसे कोई आत्माकी सिद्धि, सुख नहीं मिलने वाला है। बाहरका तो सब पुण्याधीन है, वह अपने हाथकी बात नहीं है। बाहरसे मैं पैसे प्राप्त करुँ, दूसरा कोई कार्य करुं या दूसरेका कुछ करुँ, वह अपने हाथकी बात नहीं है। वह तो स्वयंके पुण्य अनुसार, दूसरेके पुण्य अनुसार होता रहता है, दूसरेके पापके उदयके कारण जैसा होना हो वैसा होता रहता है। स्वयंके पुण्य-पापके उदय अनुसार होता रहता है, वह कुछ नहीं कर सकता। मात्र भाव करता है, राग करता है, द्वेष करता है, वह सब करता है, बाकी कुछ नहीं कर सकता। एक ही कार्य कर सकता है कि स्वयं आत्मा है, उस आत्माकी प्राप्ति कर सके। दूसरा बाहरका कुछ नहीं कर सकता, मात्र मानता है कि मैं बाहरका कर सकता हूँ।

मुमुक्षुः- जीवनमें एक ही ध्येय रहा कि स्वरूप समझना।

समाधानः- एक आत्माकी ही प्राप्ति। जिसे आत्मा चाहिये, उसके लिये आत्माकी प्राप्ति। नहीं चाहिये उसके लिये तो संसार तो है ही। वह तो अनादिका है। जिसे आत्मा चाहिये, आत्मदेवके दर्शन जिसे करने हैं, उसके लिये उसे ध्येय रखना है। जिसे वह नहीं है, जिसे उसकी इच्छा नहीं है, उसे संसार है ही। उसके लिये तो संसारके सभी कार्य है ही। वह तो अनादिसे है ही। शुभाशुभ दोनों है।

.. जबतक नहीं हो तबतक भावना करे, विचारादि सब करे। शुभभावमें देव- गुरु-शास्त्रको उसके हृदयमें रखे। जिनेन्द्रदेव, गुरु, शास्त्र, जो आत्माको दर्शानेवाले हैं, जिसने आत्माकी साधना की है, जो पूर्ण हो गये हैं, जो मुनि साधना करते रहते हैं, जो आत्माकी साधना करते हैं, शास्त्रमें जो आत्माकी बातें आती हैं, उन सबकी महिमा रखे। वह शुभभाव है। परन्तु ध्येय तो एक आत्म-प्राप्तिका रखना।

मुमुक्षुः- ... उस परिणतिमें निर्विकल्प हो। विकल्प चलते हैं तबतक तो वास्तविक रूपसे तो भिन्न नहीं पड सकता।

समाधानः- विकल्प होते हैं तबतक भिन्न नहीं पडता है, परन्तु उस ओर दृष्टि


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करे, उसकी प्रतीत करे, उसकी भावना करे और उसके मार्ग पर चलनेका प्रयत्न करे। ऐसा सब पहले करे। वास्तविक रूपसे तो जब निर्विकल्प होता है तब भिन्न पडता है। पहले प्रतीतमें भिन्न पडे, निर्विकल्प स्वानुभूतिमें भिन्न पडे। परन्तु वास्तविक तो जब सम्यग्दर्शन होता है तब ही भिन्न पडता है। परन्तु उसके पहले उसकी भावना करे, प्रयास करे, लगनी लगाये, वह सब कर सकता है। उसके समीप जानेका प्रयत्न करे, उसे पहचाननेका प्रयत्न करे।

मुमुक्षुः- माताजी! जब समझाते हो उस वक्त तो इतना सरल लगता है कि मानो सब समझमें आ गया है, सब ख्याल आता है। जब प्रयोगमें रखनेका पुरुषार्थ करते हैं तब ऐसा लगता है कि दिन बीतते हैं परन्तु कुछ होता नहीं।

समाधानः- स्वयंके पुरुषार्थका कारण है, स्वयंकी मन्दताके कारण आगे नहीं बढ सकता है, इसलिये ऐसा लगता है। पुरुषार्थ करे उसे क्षणमें होता है, नहीं करे तो उसे कुछ समय लगता है, परन्तु भावना, जिज्ञासा तो उसे करने जैसा है। उसे उस मार्ग पर चलने जैसा है, उसे छोडने जैसा नहीं है। उसमें थकने जैसा नहीं है कि प्राप्त नहीं होता है, इसलिये उसके लिये थकान लगाने जैसा नहीं है। निरंतर करते ही रहना है। लगनी, जिज्ञासा, विचार, वांचन आदि।

स्वभावसे तो भिन्न ही है, परन्तु परिणतिमें उसे प्रगट करना वह अनादिका उसे दुर्लभ हो गया है। क्योंकि अनादिका पूरा प्रवाह उसे बाहरका हो गया है। अंतर दृष्टि करनी, अंतरमें जाना उसे दुर्लभ हो गया है। क्योंकि अनादिका पूरा प्रवाह बाहरका हो गया है। इसलिये बारंबार प्रयास करके स्वयंकी ओर लाये तो होता है। निरंतर करता ही रहे।

मुमुक्षुः- ... छोडना नहीं है, वही प्रयास, लगनी करते ही रहना है, अवश्य प्राप्ति होगी।

समाधानः- बहुत बार कहते हैं, मन्दरके द्वार पर टहेल लगाता रहे, मन्दिरके द्वार नहीं खुलते इसलिये छोडना नहीं। वहीं (प्रयत्न करता रहे)। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, मैं आत्मा हूँ उसके द्वार पर निरंतर टहेल लगाता रहे। उसे छोडना नहीं। उसकी महिमा, उसकी प्रतीत, विचार करके मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसा बारंबार नक्की कर।

मुमुक्षुः- आपकी आज्ञाका पालन हो तो अवश्य प्राप्त होगा।

समाधानः- उसे अंतरसे महिमा हो तो प्राप्त हुए बिना नहीं रहे। सच्ची जिज्ञासा हो उसे प्राप्त हुए बिना नहीं रहता।

मुमुक्षुः- गुरुकी आज्ञाभक्ति लेनी पडे?

समाधानः- उसमें आज्ञा आ जाती है। सच्ची जिज्ञासा हो, उसमें आज्ञा साथमें


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आ जाती है।

मुमुक्षुः- सच्ची जिज्ञासा है वही आज्ञाका पालन है।

समाधानः- जिज्ञासा हो उसमें साथमें आज्ञा आ जाती है। जो मार्ग गुरुदेवने बताया है, उस मार्गको अन्दर विचार करके ग्रहण करे, उसमें ही गुरुदेवकी आज्ञा है। अंतरमें ज्ञायकका द्वार छोडना नहीं और बाहरसे सच्चे देव-गुरु-शास्त्र जो मिले, उस देव-गुरु-शास्त्रकी, सच्चे देव जिनेन्द्र देव जिन्होंने पूर्ण स्वरूपकी प्राप्ति की, गुरुदेव जो साधन कर रहे हैं और शास्त्रमें जो तत्त्वकी बात आये, बाहरमें उसकी आराधनामें रहे और अन्दरमें ज्ञायककी आराधनामें रहे। गुरुदेवने जो मार्ग बताया है, उस मार्गको तू ग्रहण करता रह, यही उनकी आज्ञा है।

गुरुदेवने कहा, तू इस मार्ग पर जाना। तेरे द्रव्य-गुण-पर्याय तुझमें है, दूसरेके दूसरेमें है। दोनों तत्त्व अत्यंत भिन्न हैं। तू स्वतंत्र है, तेरे पुरुषार्थसे तू आगे जा सकता है। गुरुदेवने बहुत कहा है। गुरुदेवने जो मार्ग बताया, उस मार्गको स्वयं विचार करके उस मार्ग पर चलना वही उनकी आज्ञा है। जिज्ञासाके साथ वह आज्ञा रही है कि गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है, उस मार्गको लक्ष्यमें रखकर स्वयं उस अनुसार आगे बढे, उसमें साथमें आज्ञा आ जाती है। देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं, उसका आशय ग्रहण करके आगे बढना वह आज्ञा है।

... उसमें भवका अभाव नहीं होता है। भवका अभाव तो आत्माकी रुचि करे, आत्माका स्वरूप पहचाने, भिन्न पडे। अनादिसे भिन्न ही है, परन्तु भेदज्ञान करके भिन्नता करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है, अन्यथा नहीं होता। अंतरकी रुचि लगानी चाहिये। गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट करके समझाया है। पूरा मार्ग स्पष्ट कर दिया है।

इस पंचमकालमें आत्माकी रुचि लगाकर आत्माका स्वरूप पहचाननेकी लगनी, जिज्ञासा लगानी। उसका वांचन, उसके विचार आदि करना चाहिये। संसारका रस कम हो जाये, आत्माकी ओरका रस बढ जाये। जबतक नहीं हो तबतक जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र... शास्त्रका चिंतवन करे, गुरु (एवं) देवकी महिमा करे। वह शुभभाव है, परन्तु शुद्धात्मा भिन्न है, उस शुद्धात्माको पहचाननेका अंतरमें प्रयत्न करे। (द्रव्य-गुण-पर्याय) आत्माके क्या है, पुदगलके क्या है, (उसका) विचार करके पहचाने, उसका स्वरूप पहचाने।

समाधानः- ... यह संसार तो निःसार है। पुण्यके योगसे यह सब मिला है, बाकी अन्दर आत्मामें जो सुख है वह अनुपम है। उसके लिये बारंबार उसका विचार करना, चिंतवन करना, शास्त्र पढने, गुरुदेवके प्रवचन पढना। पढनेसे कुछ विचार चलें। लगनी लगानी, विचार करना, बाहरमें जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र, शास्त्रका चिंतवन, देव- गुरुकी महिमा रखनी। वह सब शुभभावमें (जाता है)। बाकी तो संसारके भाव, सब


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विकल्प तो संसारकी जाल है। वह सब तो अशुभ विकल्प है। बाकी अन्दर उन सबसे भिन्न शुद्धात्मा है। उसे पहचाने तो भवका अभाव होता है। बाकी शुभभाव जीवने अनेक बार किये, (उससे) पुण्यबन्ध होता है, परन्तु भवका अभाव नहीं होता।

भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है, परन्तु उसे पहचाननेके लिये उसका विचार, वांचन, लगनी लगाये, जिज्ञासा लगाये तो होता है। नहीं होता तबतक करते रहना। उसकी महेनत और बारंबार उसका मंथन करते रहनेसे अन्दर आत्मा प्रगट होता है। आत्मा तो शुद्ध ही है, शक्तिमें जैसे पूर्ण चरपराई भरी है, वैसे आत्मामें सुख और शांति, ज्ञानादि अनन्त गुणसे भरा है, परन्तु उसका उसे अनुभव नहीं है। अनुभव नहीं है तो बारंबार उसका घूटन करता रहे, बारंबार विचार, उसका मंथन आदि करता रहे तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहता। छोटीपीपरकी भाँति। बारंबार करते रहना, जबतक नहीं होता तबतक थकना नहीं, उसका ही विचार, वांचन, लगनी, जिज्ञासा, भावना उसकी ही करनी, थकना नहीं।

द्वार बन्ध हो तो टहेल मारते रहना, परन्तु थकना नहीं, तो भगवानके द्वार खुले, यदि स्वयंकी भावना हो तो। वैसे चैतन्य आत्मा भी भगवान है। बारंबार उसके विचार, वांचन सब करता रहे। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बारंबार उसका मंथन, टहले मारते रहना। थकना नहीं। तो प्रगट होता है। बारंबार, जबतक नहीं होता तबतक, चाहे जितने समय तक करते रहना पडे तो करते रहना। (गुरुदेव) बारंबार दृष्टान्त देते थे, छोटीपीपरको घिसनेसे पूर्ण चरपराई प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ... तबसे मेरे पिताजीके साथ मैं जाता था।

समाधानः- बहुत सुना है, सभीको शांति रखनी। विचारोंको बदल कर शांति रखनी। आत्माका ही करने जैसा है। गुरुदेवने बहुत कहा है। यह शरीर कहाँ आत्माका है, रोग भी आत्मामें नहीं है, वेदना आत्मामें नहीं है, उससे भिन्न आत्मा है। उसे, आत्मा मैं जाननेवाला हूँ, ये रोग होते हैं वह मेरेमें नहीं है। लेकिन उसे शरीर पर राग है इसलिये उसमें एकत्वबुद्धिसे जुड जाता है, परन्तु अन्दर शांति रखनी कि मैं तो जाननेवाला हूँ। ऐसा बारंबार विचार करना। उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे कि मैं तो भिन्न हूँ। सदा ही भिन्न हूँ। बाहरके जो उदय आये वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं उससे भिन्न हूँ। उसमें शांति रखनी।

गुरुदेवने कहे हुए तत्त्वका विचार करना, आत्माका स्वरूप विचारना, देव-गुरु-शास्त्रको हृदयमें रखकर मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विचार करना। मैं ज्ञायक आत्मा हूँ, यह रोग भिन्न है, मैं भिन्न हूँ। आकूलता अन्दर हो तो मैं तो आत्मा हूँ, यह मेरा स्वरूप नहीं है। शांति रखनी। बारंबार उसे याद करना-ज्ञायक आत्माको। शरीरमें रोग तो आता रहता


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है, रोग शरीरमें आता है, आत्मामें नहीं आता।

(शांति) रखे कि मैं तो जाननेवाला हूँ, यह रोग मेरेमें नहीं है। ऐसे भिन्न जाने तो होता है। ये सब मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो भिन्न हूँ। सब उदय आते हैं, मैं तो भिन्न हूँ। गुरुदेवने कहा है, गुरुदेवके वाक्योंको याद करना। मैं भिन्न आत्मा हूँ। रोग तो शरीरमें आता है। सनतकुमार चक्रवर्ती थे, उन्हें भी रोग हुआ तो मुनि हो गये। अन्दर आत्मामें लीन रहते थे। रोग आये तो उसमें शांति रखनी। देवोंने कहा, मैं रोग मिटा दूँ। रोग क्या मिटाना? मेरा जो उदय है, उस उदयको कौन बदल सकता है? उन्हे स्वयंको लब्धि थी। थूक लगाये तो रोग मिट जाये। नहीं, जो रोग आया उस रोगको.... कर्म खिर जाते हैं। उतनी अन्दर शांति रखते थे। वे तो सम्यग्दृष्टि मुनि थे और आत्मामें छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते थे। रोग तो कहीं भी आता है, किसीको भी आता है। उदय तो उदयका काम करता है, परन्तु अन्दरसे मैं स्वयं ज्ञायक जाननेवाला भिन्न हूँ। शांति रखे।

... घरमें बैठकर जो हो सके वह करना। घरमें बैठकर भी हो सकता है। बाहर जानेका प्रसंग, सत्संगकी इच्छा हो, सब सुननेकी इच्छा हो, परन्तु वह नहीं बन पाये तो घरमें बैठकर भी हो सकता है। अच्छे विचार करना, वांचन करना, जो हो सके वह करना। घरमें बैठकर भी भाव अच्छे रख सकते हैं। सत्संगकी इच्छा हो, परंतु शरीर काम नहीं करे तो क्या हो सकता है? घरमें बैठकर हो सकता है।

मुमुक्षुः- खास लाभ लेने आये, लेकिन एक महिनेसे बिस्तर पर ही हूँ।

समाधानः- ... देव-गुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें आनेकी इच्छा हो, लेकिन नहीं हो तो क्या हो सकता है? अन्दर आत्मामें अच्छे विचार करना। शांति रखनी। उलझन हो जाय तो बारंबार शांति रखनी, बारंबार विचार बदलना, बारंबार विचार बदलना। उलझन हो तो भी विचार बदल देना।

समाधानः- .. जितना करे उतना कम है। गृहस्थोंको शुभभाव तो आता है। शुभभाव आये बिना नहीं रहता। शुद्धात्माके ध्येयपूर्वक, जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा, भक्ति सब गृहस्थोंको आता है। पद्मनन्दि आचार्य कहते हैं, श्रावक बडे उत्सव आदि करते हैं। गृहस्थाश्रममें उसे शुभभाव होते हैं।

... तीर्थंकरका द्रव्य-गुरुदेव यहाँ पधारे। पंचमकालमें यहाँ पधारे, महाभाग्यकी बात है। गुरुदेव यहाँ कैसे? महाभाग्यकी बात है। गुरुदेव पधारे, सबको उपदेश मिला, उनकी वाणी कोई अलग थी, कोई अतिशयता युक्त, सबको जागृत करे ऐसी वाणी थी। अनन्त कालमें ऐसा योग मिलना महामुश्किल है।

मुमुक्षुः- उनकी भेंट ही कहाँ-से हो?


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समाधानः- कहाँ-से हो? तीर्थंकर भगवान मिले कहाँ? उनकी अपूर्व वाणीने सबको जागृत किया। उसमें इस पंचमकालमें..

मुमुक्षुः- प्रत्यक्ष हमको सुनने मिला। उत्तरः- प्रत्यक्ष। उन्होंने सच्चा मार्ग बताया। सब कहाँ अंधकारमें पडे थे, उन्होंने मार्ग बताया।

... जिन प्रतिमा जिन सारखी, कहते हैं। जिनेन्द्रकी प्रतिमा स्थापे। बनारसीदास कहते हैं। "अल्प भव स्थिति जाकी, सो ही जिनप्रतिमा, परमाणे जिन सारखी।' जिसकी अल्प भवस्थिति है, वह भावकी बात है। ऐसा भाव आये। जो भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है, स्वयंको पहचानता है वह भगवानको पहचानता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- .. उपादान तैयार हो उसे भवका अभाव हुए बिना नहीं रहता। ... उसे भगवानकी वाणी या गुरुकी वाणी मिलती है। भले स्वयं स्वतंत्र करता है, ऐसा निमित्त-उपादानका निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। ऐसा निमित्त, यहाँ उपादान तैयार होता है।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!
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