Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 113.

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ट्रेक-११३ (audio) (View topics)

घोर जंगलमें सिंह, बाघ दहाडते हो, ऐसे घोर जंगलमें खडे हैं। दिन और रात। नहीं निद्रा ली है, ऐसे ... हैं, नहीं पानी पीया या नहीं आहार लिया। कैसे अडिग होते हैं!

मुमुक्षुः- वनमें भी कैसा लगता होगा? कामदेव...

समाधानः- कोई देव खडे हैं ऐसा लगे। .. जैसे स्तंभ खडा हो ऐसा दूसरोंको लगे।

.. उतना विकल्प है इसलिये थोडा-थोडा ज्ञान थोडा-थोडा बढता जाय ऐसा नहीं है कि थोडा-थोडा ज्ञान बढता जाय। एक सूक्ष्म विकल्प है इसलिये थोडा ज्ञान बाकी रहता है। जितना सूक्ष्म, जितना यहाँ रुका उतना वहाँ ज्ञान बाकी रहे ऐसा नहीं है। इतना विभाव कम हो गया इसलिये जितना कम हुआ, जितनी वीतरागदशा हुयी उतना यहाँ केवलज्ञान एवं प्रत्यक्ष ज्ञान हुआ और अब थोडा एक विकल्प रहा इसलिये थोडा बाकी है, ऐसा नहीं है। इतना बाकी है, उतना अंश बाकी है तो वहाँ सब बाकी है। वहाँ इतना हुआ ऐसा नहीं होता। तबतक परोक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता।

... उपयोग है, वह अंतर्मुहूर्तका उपयोग है इसलिये समयका... उतना ही(विभाव) बाकी है तो अब उतना ही ज्ञान बाकी है, ऐसा नहीं है। यहाँ इतना विभाव रुक गया तो वहाँ पूरा (बाकी रहा है)। (विभाव) इतना ही (बाकी) है, वहाँ तो पूरा केवलज्ञान बाकी है।

... सम्यग्दर्शनमें भी ऐसा है। सर्व प्रकारसे यथार्थ श्रद्धा पूर्ण नहीं होती है तो थोडा मन्द पडता गया है उतना सम्यग्दर्शन होता है, ऐसा नहीं है। जितना अभी बाकी है, पूर्णरूपसे स्पष्ट नहीं हो जाता, तबतक सम्यग्दर्शन नहीं होता।

... केवलज्ञान हो, बस वह तो एक ... तबतक कुछ काम आये ऐसा नहीं है। ऐसे अन्दर विभाग नहीं पडते। थोडा प्रत्यक्ष और थोडा नहीं। श्रद्धा और आचरण है, लेकिन ज्ञानका उपयोग ... है। लेकिन वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं कहलाता। उसे तो उसके साथ उतना ही सम्बन्ध है कि इतना बाकी है तबतक प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता। ... तो सम्यग्दर्शन नहीं होता है। वह तो आचरण है। पूरा बाकी रह जाता है। जिस


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क्षण वीतरागदशा (होती है), उसी क्षण केवलज्ञान (होता है)। जबतक वीतरागदशाकी क्षति, तबतक केवलज्ञान नहीं (होता)।

... अंतर कम होता जाय तो थोडा-थोडा सम्यग्दर्शन होता जाय, ऐसा नहीं है। जिस क्षण उसे छूटकर यथार्थ हो उसी क्षण (सम्यग्दर्शन होता है)। थोडा-थोडा होता जाय ऐसा नहीं है। उसके पहले विचाररूप, भावनारूप श्रद्धा कहते हैं। सम्यक कहलाता नहीं, सम्यक परिणति नहीं कहलाती। जबतक सम्यकतामें क्षति है, वह स्पष्ट सम्यक नहीं कहलाता। वहाँ पर आचरणकी क्षति है। आचरणकी क्षति है तबतक दूसरे आचरणमें रुका है ... पूर्णता नहीं है। उसमें पूर्णता नहीं है तो उसमें पूर्ण ज्ञान भी नहीं है। अटका है।

समाधानः- ... करने जैसा यही है, दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है। संसारमें किसी भी प्रकारका विभावमें सुख नहीं है। बाहरमें कहीं सुख नहीं है, परपदार्थमें सुख नहीं है। अन्दरमें स्वयंको ऐसा नक्की हो और आत्माकी रुचि हो कि आत्मामें ही सब है, सर्वस्व है, कैसे पहचानमें आये? आत्माकी ओर रुचि हो तो उसके साथ तत्त्व चिंतवन, आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्माका क्या स्वरूप है? आत्मा किस स्वरूप है? द्रव्य क्या है? गुण क्या है? पर्याय क्या है? उसे कैसे पहचानूँ? उसकी रुचि हो तो तत्त्व चिंतवन चले। तत्त्व चिंतवनके लिये अन्दरकी रुचि चाहिये। और तत्त्व चिंतवन ज्यादा नहीं चले तो शास्त्र स्वाध्याय करे और उसमेंसे विचार करे। गुरुदेवने क्या कहा है? क्या मार्ग बताया है? उस मार्गका स्वयं विचार करे, तत्त्व चिंतवन करे। आत्माका क्या स्वरूप है? द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? यह विभाव क्या है? स्वभाव क्या है? मोक्ष क्या है? मोक्ष कैसे प्रगट हो? गुरुदेवने क्या कहा है? इस प्रकार तत्त्व चिंतवन स्वयंको रुचि हो और पहचाननेकी स्वयंको लगन हो तो तत्त्व चिंतवन होता है। तत्त्व चिंतवन अन्दर बिना रुचिके नहीं होता। रुचि बढाये तो तत्त्व चिंतवन भी साथमें चले। और उसके लिये गुरुदेवने कहा है, विचार करे, शास्त्रका स्वाध्याय करे तो उसमेंसे विचार चले।

करनेका मार्ग तो एक ही है कि भेदज्ञान करके कैसे आगे बढना? आत्माका क्या स्वभाव है? विभाव अपना स्वभाव नहीं है। उससे स्वयंको भिन्न करनेका प्रयत्न करे। परन्तु आत्माको पहचाने तो तत्त्व चिंतवनसे हो। वह नहीं हो तबतक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है। अंतरमें शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाय? उसकी रुचि होनी चाहिये। शुद्धात्मा तो भिन्न ही है। शुद्धात्मा भिन्न है, निर्विकल्प स्वरूप है, वह कैसे पहचानमें आये? उसका विचार करे तो होता है।

मुमुक्षुः- ...


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समाधानः- प्रमोद भी स्वयंको आत्माकी महिमा आये तो होता है। बाहरमं कहीं महिमा नहीं है। कोई चीज, वस्तु बाहरकी कोई महिमा करने योग्य नहीं है। बाह्य पदार्थ कोई आश्चर्यभूत नहीं है। यह देवलोक आदि बाह्य पदार्थ अनन्त बार प्राप्त हुए हैं। वह कोई नवीन नहीं है। नवीन तो एक आत्मा ही महिमावंत है। ऐसा स्वयंको नक्की हो तो आत्माकी महिमा आये।

अनन्त कालमें जीवको सब प्राप्त हो गया है, एक आत्मा नहीं प्राप्त हुआ है, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। सम्यग्दर्शन ही कोई अलग अपूर्व वस्तु है। ऐसा स्वयंको नक्की होना चाहिये। देवलोकके देव,... वहाँ अनन्त बार जन्म धारण किया है, बाहरमें राजा आदि हुआ है, वह सब कोई सुखरूप नहीं है, वह कोई महिमारूप नहीं है। वह तो सब परपदार्थ है। ऐसा स्वयं नक्की करके आनन्द आत्मामें ही भरा है। आत्मा कोई आश्चर्यकारी वस्तु है, ऐसा नक्की करे तो होता है। सम्यग्दर्शन अनादि कालसे प्रगट नहीं हुआ है। वह कोई अपूर्व वस्तु है। स्वयं नक्की करे तो होता है।

मुमुक्षुः- वह कैसे हो?

समाधानः- उसकी लगन लगे तो पहचान होती है। विचार करे। गुरुदेवने क्या कहा है? उसका विचार करे, प्रयत्न करे तो होता है। उसे नक्की करना चाहिये कि यह शरीर तो भिन्न ही है, कुछ जानता नहीं है। अन्दर जाननेवाला कोई अलग ही है। अन्दर जाननेवाला तत्त्व एक वस्तु है। यह विभाव सब आकुलतारूप है। सब भाव आकुलस्वरूप है। उससे (भिन्न) निराकुल तत्त्व अन्दर जाननेवाली कोई वस्तु है। उसमें आनन्द भरा है। उसकी पहचान, स्वयंको उसकी जिज्ञासा हो तो होती है। जिज्ञासाके बिना नहीं होती। तदर्थ शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या कहा है? सबका विचार करे तो होता है। जाननेवाला तत्त्व अन्दर कोई अलग है। वह जाननेवाला है। सिर्फ ज्ञानमात्र नहीं है, अनन्त महिमासे भरी ज्ञायक वस्तु है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- प्रतिकूलताके समय विचार करना कि मैं तो आत्मा हूँ। यह प्रतिकूलता मेरे आत्मामें नहीं है। मैं तो एक चैतन्य हूँ। प्रतिकूलता मेरे आत्माको कोई नुकसान नहीं करती है। वह तो बाह्य पुण्य-पापका (उदय है)। अनुकूलता, पुण्यका उदय हो तो अनुकूलता होती है, पापके उदयसे प्रतिकूलता होती है। अनुकूल-प्रतिकूल सब बाह्य संयोग है। अन्दर आत्मा तो भिन्न है। वह प्रतिकूलता आत्माको अडचनरूप नहीं है। चाहे जैसी प्रतिकूलता हो, चाहे कुछ भी हो तो भी आत्मा अन्दरसे भिन्न रहकर शान्ति रख सकता है। स्वयं स्वतंत्र है। मैं जाननेवाला ज्ञायक हूँ। मेरे आत्मामें वह नहीं है। अन्दर राग-द्वेष होते हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है तो बाह्य प्रतिकूलता मेरा स्वभाव


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कैसे हो सकता है?

मुनिओं, चाहे जैसे उपसर्गमें शान्ति रखकर आत्माका ध्यान करके आत्मामें आगे बढकर केवलज्ञानकी प्राप्ति करते हैं। वह प्रतिकूलता आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्मा उससे भिन्न है, ऐसा विचार करना।

मुमुक्षुः- भक्ति करते वक्त आत्माका काम साथमें कैसे हो?

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति करते वक्त आत्माका काम साथमें होता है। जो जिनेन्द्र देवने किया है, जो आत्माका स्वरूप महिमावंत है उसे भगवानने प्राप्त किया है। गुरु उसकी साधना करते हैं। और शास्त्रमें उसका स्वरूप आता है। उसकी महिमा आये कि करने जैसा तो यही है। जो भगवानने प्रगट किया है, जो गुरु साधना करते हैं, इसलिये वही आदरने योग्य है। जिसे गुरुकी महिमा आये उसे आत्माकी महिमा आये बिना नहीं रहती।

जैसा गुरु करते हैं, वैसा मुझे कैसे प्राप्त हो? ऐसी रुचि हुए बिना नहीं रहती। साथमें आत्माका होता है। गुरु क्या कह गये हैं? गुरु ऐसा कहते हैं कि तू तेरे आत्माको पहचान। तू भगवान जैसा है। गुरुकी आज्ञाका पालन किया कब कहा जाय? कि गुरु जो कहे उसका अन्दर विचार करे तो। अनादि कालसे अनन्त कालका यह परिभ्रमण करते हुए यह मनुष्य देह मिलता है। उसमें ऐसे गुरु पंचमकालमें मिले, (जिन्होंने) मार्ग बताया। देशनालब्धि अनन्त कालसे... ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। अनन्त कालमें जीव प्रथम बार सम्यग्दर्शन प्राप्त करे तो कोई जिनेन्द्र देव अथवा गुरु साक्षात मिलते हैं, तब उसे अन्दर देशना प्राप्त होती है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। करता है स्वयंसे, उपादान स्वयंका है। उसके साथ आत्माका हो सकता है। उनकी भक्ति आने पर विचार करे कि मैं भी उनके जैसा हूँ। जैसे भगवान हैं, वैसा मैं हूँ। भगवान ऐसा कहते हैं कि तू मेरे जैसा है। तू अन्दर देख। भगवानके उपदेशमें भी ऐसा आता है।

गुरुदेव भी ऐसा ही कहते थे कि तू भगवान जैसा है। तू पहचान। तू शरीरसे भिन्न जाननेवाला ज्ञायक है। ऐसे गुरुका उपदेश क्या है, गुरुका उपदेश ग्रहण करे तो अंतरमें स्वयं अपने आत्माको पहचान सकता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भक्ति करे तो नहीं हो ऐसा नहीं है। देव-गुरुकी महिमा उसका साधन बनता है। वह निमित्त और उपादान अपना है। वह तो महा प्रबल साधन है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, सच्चे देव-गुरुकी महिमा प्रबल निमित्त है। आत्माको प्राप्त करनेका महा साधन है। उपादान स्वयं करे तो होता है।

समाधानः- .. ऐसा है, ज्ञानियोंकी जो निश्चय दृष्टि हुयी है, उन्हें जो उदयकाल होता है, वह उदयकाल उन्हें मर्यादामें होता है। उनके उदयकाल ऐसे नहीं होते हैं


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कि उनकी सज्जनता छोडकर उनके उदयकाल नहीं होते हैं। उनके उदयकाल अमुक मर्यादित होते हैं। जिसे आत्माकी लगी, जिसे अन्दरसे स्वानुभूति और ज्ञायक दशा प्रगट हुयी, भेदज्ञान (हुआ), उनके उदयकाल ऐसे होते हैं कि गृहस्थाश्रममें हो तो उनकी सज्जनता छोडकर ऐसे उदयकाल नहीं होते। और उसमें पुरुषार्थ काम नहीं करता है अर्थात वह विशेष आगे नहीं जा सकते। परन्तु उसका पुरुषार्थ वे स्वयं करते हैं, उसके ज्ञाता रहते हैं। परन्तु उन्हें खेद रहता है कि मैं आगे नहीं बढ सकता हूँ। बाकी उनकी सब परिणति मर्यादाके बाहर नहीं होती।

जो लौकिकमें शोभा न दे ऐसा उनका वर्तन नहीं होता। ऐसा नहीं होता। उनका वर्तन एकदम वैरागी वर्तन (होता है)। उन्हें खेद होता है कि इस उदयमें मैं खडा हूँ। लेकिन इसी क्षण छूटा जाता हो तो मुझे यह कुछ नहीं चाहिये। चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें रहते थे, परन्तु उन्हें अन्दरसे खेद, वैराग्य होता था कि मैं छूट नहीं सकता हूँ। यह उदयकाल (ऐसा है)। बाकी उसमें पुरुषार्थ काम नहीं करता है ऐसा नहीं। उनकी दशा ऐसी होती है कि वे हठ करके आगे नहीं जाते हैं। उनका सहज पुरुषार्थ चले, उस पुरुषार्थसे ही आगे बढा जाता है। परन्तु वह पुरुषार्थ चलता नहीं है, इसलिये ऐसा कहते हैं कि यह परद्रव्य है, मेरा स्वरूप नहीं है। बाकी उनकी अन्दरसे एकदम वैराग्य दशा और विरक्ति होती है। उनके उदयकाल लौकिकमें शोभा न दे ऐसे उदयकाल उनके नहीं होते। ऐसा नहीं होता है। उन्हें भीतरमें...

श्रीमद राजचंद्र, उनका गृहस्थाश्रमका वर्तन मर्यादित होता है। उन्हें अन्दरसे कितनी उदासीनता और बातमें आत्माकी पुकार करते हैं। अन्दर ज्ञायक.. ज्ञायक.. करते हैं। ऐसा उनका वर्तन होता है। उनका स्वच्छन्द जैसा वर्तन नहीं होता है। आप किसीकी भी बात करते हो, वस्तुस्थिति यह है।

सज्जनको गृहस्थाश्रममें शोभा न दे ऐसे उनके कार्य नहीं होते हैं। उनका जीवन एकदम अलग, उनका हृदय अलग होता है। अंतरसे उन्हें मैं आत्मा भिन्न और यह सब मेरा स्वरूप नहीं है। यह मैं कहाँ खडा हूँ? इसी क्षण यदि छूट जाता हो और स्वरूपमें लीनता होती हो तो मुझे यह कुछ नहीं चाहिये। ऐसा उनका हृदय होता है। आगे नहीं बढ सके अथवा स्वरूपमें विशेष लीनता न हो तो उसे ज्ञायक रहता है। अन्दरसे भिन्न और न्यारे रहते हैं। लौकिकमें शोभा न दे ऐसे उदयकाल उन्हें नहीं होते हैं। पुरुषार्थ काम नहीं करता है ऐसा नहीं है, परन्तु उनकी सहज दशासे पुरुषार्थ विशेष आगे नहीं बढता हो, परन्तु ऐसे उदयकाल, लौकिकमें शोभा न दे ऐसे उदयकाल उनके नहीं होते।

मुमुक्षुः- निश्चयनयका आलम्बन लेकर स्वच्छन्दका पोषण कर रहे हैं ऐसा कहा


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जाय?

समाधानः- निश्चयनयका आलम्बन लेकर बाह्य स्वच्छन्द तो होना ही चाहिये। आत्मार्थीका ऐसा लक्षण नहीं होता।

मुमुक्षुः- जिसे निश्चयनयका यथार्थमें आलम्बन हो उसे स्वच्छन्द नहीं हो सकता।

समाधानः- स्वच्छन्द नहीं होता।

मुमुक्षुः- अथवा तो उसे स्वच्छन्द... वास्तवमें अन्दरमें आलम्बन नहीं है, परन्तु मात्र उसकी धारणा है कि कथा करता है।

समाधानः- कैसा उसका उदयकाल वह अपने मालूम नहीं पडता। परन्तु उसके उदयकाल ऐसे नहीं होते। लौकिकसे बाहर नहीं होते।

मुमुक्षुः- माताजी! उसकी मान्यतामें ऐसा भी नहीं होता कि पुरुषार्थसे हो सकता है, फिर भी अमुक मर्यादासे आगे नहीं बढ सकता हो, वह अलग बात है, हठपूर्वक नहीं जाता..

समाधानः- पुरुषार्थसे नहीं हो सकता है, ऐसा उसे अभिप्राय नहीं होता है। पुरुषार्थसे नहीं हो सकता है, ऐसा अभिप्राय नहीं होता। मेरा पुरुषार्थ मन्द है, मुझसे हो नहीं सकता है, मैं आगे नहीं बढ सकता हूँ, इसलिये इसमें खडा हूँ, मेरी जो सहज पुरुषार्थकी धारा चलनी चाहिये वह नहीं चलती है, वह मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। पुरुषार्थसे नहीं हो सकता है, ऐसा उसका अभिप्राय नहीं होता।

मुमुक्षुः- फिर भी हठ नहीं होती।

समाधानः- फिर भी हठ नहीं होती। हठसे जबरन करना ऐसा नहीं होता। परन्तु उसे मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है, इतना तो उसके अभिप्रायमें होना चाहिये। पुरुषार्थकी मन्दता है और यह उदय है, बस, ऐसा होना चाहिये। पुरुषार्थसे हो ही नहीं सकता, ऐसा अभिप्रायमें नहीं होना चाहिये।

मुमुक्षुः- इसमें तो उसने वास्तवमें पुरुषार्थको उडाया।

समाधानः- पुरुषार्थको उडाया। पुरुषार्थसे नहीं हो सकता है, ऐसा नहीं होना चाहिये। मेरे पुरुषार्थकी मन्दता है। खेद है कि मैं आगे नहीं बढ सकता हूँ, मैं इसमें खडा हूँ। इसी क्षण यदि यह छूट जाता हो तो मुझे किसी भी प्रकारका रस नहीं है। मुझे आत्माके अतिरिक्ति कुछ नहीं चाहिये, ऐसा उसके दिलमें होना चाहिये, उसके वर्तनमें, उसकी वाणीमें ऐसा होना चाहिये। अभिप्राय हो ऐसी उसकी भाषा भी... चारों पहलूका उसे होना चाहिये।

मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्यकर्मके पुदगलका स्वाद आता है। द्रव्यकर्मके उदयके वक्त क्रोधका स्वाद आता है और क्रोधरूप अज्ञानी परिणमता है। तो अज्ञानी जैसे उस


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रूप परिणमता है और ज्ञानी भी क्रोधरूप परिणमते हैं, तो उन दोनोंमें क्या फर्क है?

समाधानः- अज्ञानी परिणमता है, उसे एकत्वबुद्धि है। उसे आत्मा भिन्न ज्ञात नहीं होता है और एकत्वबुद्धि (है)। क्रोधरूप, मैं क्रोधरूप हो गया, मानरूप हो गया, मायारूप हो गया, ऐसे एकत्वबुद्धिमें परिणमता है।

ज्ञानीकी ज्ञानदशा होनेके कारण वह भिन्न रहता है कि यह क्रोध मेरा स्वरूप नहीं है, मैं तो भिन्न ज्ञायक हूँ। मेरा स्वरूप, मैं तो क्षमास्वरूप ज्ञायक हूँ। परन्तु यह मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे यह जो क्रोधका उदय आया है, उस क्रोधमें जुडना हो जाता है। क्रोध मेरा स्वरूप नहीं है। इसलिये उसकी जुडनेमें अमुक मर्यादा (होती है), उसके रसमें मर्यादा होती है। उसकी क्रिया पर नहीं, उसके रसमें मर्यादा होती है। उसके क्रोधमें उसका रस अन्दरसे मन्द होता है।

और (अज्ञानीको) एकत्वबुद्धिका रस होता है। एकत्व है इसलिये उसका रस नहीं छूटता। वह भिन्न रहकर जुडता है, ज्ञानी है वह। उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। कोई भी कार्यमें जुडे भिन्न रहता है। मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे यह जो उदय आते हैं उसमें जुड जाता हूँ। परन्तु यह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसा उसके ज्ञानमें ऐसा ही वर्तता है। उसे ज्ञायककी धारा चलती है।

मुमुक्षुः- ज्ञान और रागका भेदज्ञान तो है, वैसे यह पुदगलका राग और यह मेरा राग, ऐसा भेदज्ञान है?

समाधानः- पुदगलका राग और मेरा राग यानी पुदगलका निमित्त है। पुदगलके (निमित्तसे) चैतन्यमें परिणति (होती है)। पुदगल पर उसका ध्यान नहीं है। यह राग मेरा स्वरूप नहीं है। यह राग अन्यके निमित्तसे होता है। उसे बार-बार यह पुदगल और यह जीव ऐसा नहीं (करना पडता)। यह जो रागकी परिणति होती है वह मेरा स्वरूप नहीं है। वह पुदगलके निमित्तसे होती है। यानी सिर्फ जड है ऐसा भी नहीं है। वह तो मेरी परिणतिमें होता है, मैं जुड जाता हूँ। जड मुझे नहीं कहता है कि तू जुड जा। रागकी परिणतिरूप स्वयं जुड जाता है, परन्तु यह मेरा स्वरूप नहीं है, उससे भिन्न हूँ। मेरा द्रव्य, मेरा स्वभाव भिन्न है। इसलिये वह मुझसे भिन्न है। मेरा स्वभाव भिन्न है इसलिये भिन्न है, परन्तु मेरी परिणति उस रूप होती है, मैं उससे भिन्न हूँ। मेरी पर्याय वर्तमान ऐसी होती है, परन्तु मैं मेरे स्वरूपमें रहता हूँ, मैं भिन्न हूँ। भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। स्वयं भिन्न रहता है। ऐसी उसकी ज्ञायककी पुरुषार्थकी धारा निरंतर रहती है। साधकको प्रत्येक कार्यमें पुरुषार्थ साथमें होता है। पुरुषार्थ नहीं हो सकता है ऐसा नहीं है। उसका स्वामी नहीं होता। यह मेरा स्वरूप नहीं है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!