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मुमुक्षुः- माताजी! अनन्त-अनन्त कालके परिभ्रमणके दुःखोंसे मुक्त होनेके लिये ही आप हमें मिले हैं, ऐसा हमें अंतरसे लगता है। तो इस संसारसे मुक्त होकर शाश्वत सुखकी प्राप्ति कैसे हो?
समाधानः- एक ही मार्ग है-शुद्धात्माको ग्रहण करना वही है। शुद्धात्माको ग्रहण करे। शुद्धात्माको ग्रहण करे तो शुद्ध पर्याय प्रगट होती है, अशुद्धको ग्रहण किया तो अशुद्ध पर्याय होती है। अशुद्धकी ओर दृष्टि है तो उसे अशुद्धताकी पर्यायें होती है। एक शुद्धात्मा, मैं शुद्ध स्वरूप हूँ। यह पर्यायमें मलिनता है, मेरे मूल स्वरूपमें नहीं है। "जे शुद्ध जाणे आत्माने ते शुद्ध आत्मा ज मेळवे'। एक शुद्धात्माको ही ग्रहण करना।
जो मोक्षमें गये वे सब शुद्धात्मामें प्रवृत्ति करके मोक्ष गये हैं, यह एक ही मोक्षका मार्ग है, दूसरा कोई नहीं है। शुद्धात्माको पहचानना। शुद्धात्माको पहचाने तो सब शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं। मैं एक शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ। यह मलिनता मेरेेमें नहीं है। वह मेरा स्वरूप नहीं है। पुरुषार्थकी कमजोरीसे वह मलिनता होती है, परन्तु मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ।
जैसे पानी स्वभावसे निर्मल है, वैसे निर्मल हूँ, शीतल स्वभावी हूँ। परन्तु यह सब कीचड निमित्तके कारण यानी स्वयं वैसा मलिन होता है, निमित्त करता नहीं है। अपनी परिणतिमें स्वयं पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण मलिनता होती है, परन्तु वह मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसा शुद्ध स्वरूप स्वयंका है, उसकी श्रद्धा करके और शुद्ध स्वरूपकी ओर जाय। उसे ग्रहण करे तो उसमेंसे शुद्ध पर्यायें प्रगट होती हैं। अशुद्धताकी ओर दृष्टि है तो अशुद्ध पर्यायें अनादि कालसे होती रहती है। एक के बाद एक अशुद्ध पर्यायोंकी श्रृंखला चलती है। शुद्धात्माको ग्रहण करे तो शुद्धताकी पर्यायें प्रगट होती है। एक ही मार्ग है। इस मार्गका सेवन करके अनन्त मोक्षमें गये हैं। सब इसी रीतसे गये हैं। निर्वाणका मार्ग एक ही है, दूसरा नहीं है। शुद्धात्माप्रवृत्ति लक्षण, बस एक ही।
मुमुक्षुः- ... हमें शाश्वत आत्मा बताया, सबके तो ऐसे पुण्य कहाँसे हो? तो आप हमें ऐसा सरल मार्ग बताईये कि गृहस्थाश्रममें रहकर दुर्लभ...
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समाधानः- गृहस्थाश्रममें भी यह हो सकता है। उतनी स्वयंकी रुचि, जिज्ञासा और तैयारी हो तो गृहस्थाश्रममें भी होता है। पूर्वके सब जीव-भरत चक्रवर्ती आदि चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें रहकर भिन्न रहते थे। गृहस्थाश्रममें भी स्वयंकी उतनी भिन्न रहनेकी तैयारी हो तो हो सकता है। शुद्धात्माको पहचाना जाता है, शुद्धात्माका निश्चय, विश्वास किया जा सकता है। उसमें परिणति हो सकती है, सब कर सकते हैं, कोई किसीको रोक नहीं सकता। स्वयं अन्दरसे निर्लेप रहे तो गृहस्थाश्रममें सब हो सकता है। आत्माकी रुचि, आत्माका विचार, वांचन सब हो सके ऐसा है। आत्माका स्वभाव कैसे ग्रहण करना, वह सब हो सके ऐसा है। देव-गुरु-शास्त्र शुभभावमें, अंतरमें शुद्धात्मा। अंतरमें उसकी लगन, उसकी लगनके अतिरिक्त कुछ रुचे नहीं। गृहस्थाश्रममें सब हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- माताजी! ... गृहस्थाश्रममें थोडी दुर्लभता लगती है। यहाँ तो सब सहज- सहज .. आपकी वाणीका योग, आपके दर्शनका योग...
समाधानः- सत्संग तो सबको सरल निमित्त है। सत्संगकी तो अलग बात है, परन्तु सत्संग नहीं हो तो स्वयं तैयार रहना। स्वयंको तैयारी रखनी चाहिये, वैसे संयोगमें। सत्संगमें तो आसान होता है, सरल होता है, परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना है।
मुमुक्षुः- ... उसमें अनन्त गुण .. तो केवलज्ञानका अंश कैसे?
समाधानः- सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन है। केवलज्ञानका अंश है। मति-श्रुत केवलज्ञानका अंश है। मतिज्ञान है न? जो ज्ञायक स्वरूप आत्मा है, ज्ञानस्वरूप आत्मा है उसका जो सम्यकज्ञान अंश प्रगट हुआ है। ज्ञानका अंश प्रगट हुआ इसलिये उसमें केवलज्ञान आ गया। प्रगट केवलज्ञान नहीं है, उसका अंश प्रगट हुआ है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- हाँ। केवलज्ञान है उसका भेद निकाल देना। ज्ञानका सम्यक अंश प्रगट हुआ, (वह) केवलज्ञानका अंश है। मति-श्रुत केवलज्ञानको बुलाता है। आता है न? केवलज्ञान शक्तिरूप है, परन्तु सम्यकरूप परिणमा है। केवलज्ञान, ऐसा उसका भेद निकाल दो (तो) ज्ञानका अंश है वह केवलका ही अंश है। सम्यक अंश जो प्रगट हुआ वह केवलका अंश है। शक्ति अपेक्षासे केवलज्ञान है, अनेक प्रकारके श्रीमदमें शब्द आते हैं न? इच्छा अपेक्षासे, मुख्यनयके हेतुसे केवलज्ञान है।
मुमुक्षुः- ज्ञानमें स्वभावका अंश रहा है?
समाधानः- स्वभावका अंश जो प्रगटरूप हुआ, जो परिणति अपनी ओर (गयी कि) ज्ञायकस्वरूप-ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसमें सम्यकरूप परिणति स्वानुभूतिका अंश अंतरमें प्रगट हुआ। जो स्वयंको जाननेवाला अंश प्रगट हुआ वह केवलका ही अंश है। मुख्य नय, जो सम्यक नय प्रगट हुयी, सम्यक अंश प्रगट हुआ वह केवलज्ञानका
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अंश है। द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी और उस ओर जो ज्ञान गया, वह ज्ञान भी सम्यकरूपसे केवलका अंश है। मति-श्रुतका भेद निकाल देना। एक ज्ञायक।
"आ ज्ञानपद परमार्थ छे, ते...' वह ज्ञानपद। उसका जो अंश प्रगट हुआ वह केवलका अंश है। केवलज्ञान भी ज्ञानका एक भेद है। ज्ञानका अंश है। जो अंश प्रगट हुआ वह पूर्णता लायेगा।
मुमुक्षुः- जो अंश प्रगट हुआ वह पूर्णता भी लायेगा और वर्तमानमें जो स्वभाव है, उसे...
समाधानः- जो स्वभाव है वह पूर्ण है। उसने पूर्णको दृष्टिमें लिया है और ज्ञानमें लिया है। पूर्णको दृष्टिमें लिया है, पूर्णको ज्ञानमें लिया है। भले प्रत्यक्ष नहीं है, परन्तु परोक्षमें उसे ज्ञानमें लिया है। उसका वेदन प्रत्यक्ष है। उसका ज्ञान भले प्रत्यक्ष नहीं है, परन्तु परोक्षमें उसने पूर्णको ज्ञानमें ले लिया है। .. नहीं है, परन्तु परिणतिरूप है।
मुमुक्षुः- ऐसे तो उसे केवलज्ञान हाथमें आ गया, ऐसा कोई अपेक्षासे..?
समाधानः- केवलज्ञान हाथमें आ गया है। दृष्टि अपेक्षासे, ज्ञान अपेक्षासे केवलज्ञान हाथमें आ गया है। उसकी विशेष परिणति करनी बाकी है, बाकी तो उसके हाथमें आ गया है। भेदज्ञानकी धारा प्रगट हुयी, ज्ञायककी धारा प्रगट हुयी, स्वभावकी ओर दृष्टि गया, स्वभावकी ओर ज्ञान गया, उसकी स्वानुभूति हुयी, इसलिये केवलज्ञान उसके हाथमें-हथेलीमें आ गया है। पूर्णता, पूर्ण स्वरूप उसके ज्ञानमें और दृष्टिमें आ गया है। उसके वेदनमें उसका अंश आ गया है।
मुमुक्षुः- माताजी! मुनि महाराज श्रेणि लगाये उस वक्त तो निर्विकल्प दशा होती है। उपयोग अन्दर रहे और केवलज्ञान हो तब क्या फर्क पडा?
समाधानः- श्रेणि लगाये तो निर्विकल्प दशाकी उग्रता है। केवलज्ञान होता है तब वीतरागता पूर्ण होती है और ज्ञानकी परिणति प्रत्यक्ष परिणति हो जाती है, केवलज्ञान होता है तब। उसकी ज्ञानकी जो परिणति थी वह परोक्षरूप थी, वह प्रत्यक्षरूप हो जाती है। उसका जो मनका थोडा अवलम्बन था वह भी छूटकर, केवलज्ञान होनेसे ज्ञान परिणति प्रत्यक्ष हो गयी। वीतरागदशा प्रत्यक्षरूपसे वेदनमें आ जाती है। वीतरागदशाकी क्षति थी। जब श्रेणी लगायी तब निर्विकल्प दशा थी, परन्तु वीतराग दशाकी क्षति थी। ग्यारहवें गुणस्थानमें उपशांत है। सब शांत हो गया है। क्षीणमोहमें क्षय होता है। परन्तु वीतरागदशाकी क्षति है। केवलज्ञान होता है तब वीतरागदशा पूर्ण हो जाती है। एकदम वीतरागदशाकी पूर्णता होती है, चारित्र पूर्ण हो जाता है। अब रागका अंश उदभव नहीं होनेवाला है। अबुद्धिमें भी नहीं है। अबुद्धिमेंसे छूट जाता है। इसलिये अबुद्धिमें राग रहता नहीं, ऐसी वीतरागदशाकी पूर्णता (हो जाती है)। एकदम अन्दर गया तो बाहर
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नहीं आता है। ऐसी वीतरागदशाकी पूर्णता हो जाय, उस वीतरागदशाके साथ ज्ञान भी पूर्ण हो जाय, ऐसा उसे सम्बन्ध है।
वीतरागदशाकी पूर्णता और ज्ञानकी पूर्णता। ज्ञान उपयोगात्मकरूपसे प्रत्यक्ष परिणमन करने लगता है, जहाँ वीतरागता होती है वहाँ। पूर्ण वीतरागता। सब क्षय हो जाता है। रागका एक भी अंश उत्पन्न नहीं होता है। श्रुतके चिंतवनकी ओर जाता था, उपयोग तो उसमें अबुद्धिपूर्वक है, तो भी वह छूटकर भी एकदम वीतरागदशा हो जाती है। एकदम शांतरस हो जाता है। उसके साथ ज्ञान भी प्रत्यक्षरूप हो जाता है। बाहर कहीं देखने नहीं जाते। परन्तु ज्ञानस्वरूप जो आत्मा है वह प्रगट उपयोगात्मकपने सहज हो जाता है। देखने नहीं जाते। वीतरागदशाकी पूर्णता इसलिये केवलज्ञान पूर्ण हुआ। ज्ञान पूर्ण हो जाता है। उसके साथ सब पूर्ण हो जाता है। जिन-जिन गुणोंकी अल्पता थी वह सब पूर्ण हो जाते हैं। परम अवगाढता हो जाती है। परम अवगाढ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब पूर्ण हो जाते हैं। अनन्त चतुष्ट पूर्ण हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- जो उपयोग अन्दर रखा वह तो अन्दर ही गया?
समाधानः- अन्दर ही रह गया, उपयोग बाहर ही नहीं आया। अन्दर जम गये। जम गये सो जम गये, बाहर ही नहीं आये। अन्दर ही रहा। श्रेणि लगायी वहाँ अबुद्धिपूर्वक विकल्प थे, बाकी उपयोग अन्दर ही था। उसकी विशेष स्थिरता होते-होते उसे अंतर्मुहूर्तमें श्रेणी चढ गये और वीतरागदशा पूर्ण (हुयी तो) उपयोग अन्दर ही रह गया। वह उपयोग जो स्वानुभूतिमें कार्य करता था, वह स्वानुभूतिमें सब प्रत्यक्षपने, उसे सब प्रत्यक्ष हो गया, वीतरागदशाकी पूर्णता हो गयी। उसे देखनेकी कोई इच्छा नहीं है। वीतरागदशाकी पूर्णता और प्रगट उपयोगात्मक ज्ञान हो जाता है। एक-एक ज्ञेयको जानने नहीं जाना पडता। सहज प्रत्यक्ष हो जाता है।
मुमुक्षुः- उपयोग अन्दर ही रहता है, लोकालोक ज्ञात हो तो...
समाधानः- उपयोग बाहर नहीं रखना पडता, लोकालोकको जाननेके लिये। उपयोग तो अन्दर स्वानुभूतिमें लीन हो गया। उपयोग बाहर नहीं जाता है। स्वानुभूतिमें उपयोग लीन है। उसमें प्रत्यक्ष परिणति हो जाती है। जो परोक्षरूप थी वह प्रत्यक्ष हो जाती है। वीतरागदशाकी पूर्णता और ज्ञानकी पूर्णता। जैसा आत्मासे स्वभावसे है, वैसा ही आत्मा वैसाका वैसा रह जाता है। जो बाहर जाता था वह बाहर जाना छूट गया। जैसा आत्मा है वह प्रगटपने परिणमनरूप प्रत्यक्ष हो जाता है। जैसा है वैसा चैतन्यब्रह्म आत्मा ब्रह्मस्वरूप आत्मा जैसा है वैसा स्वयं प्रगटरूपसे परिणमता है।
अनन्त गुण-पर्यायमें स्वयं परिणमता है। अनन्त आनन्द, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बल, जो अनन्त-अनन्त गुण है, उस रूप स्वयं प्रत्यक्षपने परिणमते हैं। लोकालोक
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यानी बाहरका जाने, इसलिये उसकी विशेषता है, ऐसा नहीं है। स्वयं स्वयंमें लीन हो जाते हैं। फिर तो उसका स्वभाव है इसलिये सहज ज्ञात होता है। एक समयमें सब जान ले ऐसा उपयोग हो जाता है। जो अंतर्मुहूर्तका उपयोग था, जो अंतर्मुहूर्तमें ज्ञात होता था, उसके बजाय एक समयमें जाने ऐसा उसका उपयोग हो जाता है। एक समयमें ज्ञात हो जाय ऐसा उपयोग हो जाता है। अबुद्धिपूर्वकमें मन साथमें आता था इसलिये उसे अंतर्मुहूर्त जाननेमें समय लगता था। मन छूट गया, सहज ज्ञान हो गया इसलिये एक समयमें सब ज्ञात हो जाता है। अपना स्वरूप स्वानुभूतिमें जिस स्वरूप स्वयं परिणमता है, प्रत्यक्षपने उसे उपयोगात्मकपने ज्ञानमें आ जाता है। और दूसरे बाह्य ज्ञेय भी साथ-साथ आ जाते हैं।
अनन्त सिद्ध, अनन्त साधक, अनन्त संसारी जैसे हैं वैसे अनन्त जड द्रव्य सब सहजपने ज्ञात हो जाता है। उसमें उसे कोई विकल्प नहीं है। स्वानुभूति प्रधान अपना उपयोग है। वह सब उसमें ज्ञात होता है। आता है न? अणु रेणु वत। कहाँ है लोकालोल, वह अणुकी भाँति है। उसे कोई बोझ नहीं है, कुछ नहीं है। उसकी उसे कोई महत्ता नहीं है। स्वयं स्वानुभूतिमें प्रत्यक्षरूपसे वीतरागदशारूप परिणमित हो जाते हैं।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- अनन्त गुना आनन्द बढ जाता है। फिर पलटता नहीं, बाहर जाता नहीं, उसे उपयोगका फेरफार होता नहीं। अनन्तगुना बढ जाता है। जो है सब अनन्त है। वीतरागदशा अनन्ती, आनन्द अनन्त, ज्ञान अनन्त, सब अनन्त है। उसकी परिणति अनन्तगुनी हो जाती है। जो स्वभाव था उस रूप अनन्त अनन्तता प्रगट हो जाती है।
मुमुक्षुः- ... अन्दर निर्विकल्प उपयोग ज्यादासे ज्यादा कितना रहता होगा?
समाधानः- ऐसा कोई कालका नियम नहीं आता है। श्रेणि लगानसे पहले न? वह तो अंतर्मुहूर्तका उसका काल है। फिर कितना अंतर्मुहूर्त वह कुछ शास्त्रमें आता नहीं है। अंतर्मुहूर्तका काल है। क्षण-क्षणमें जाता है-आता है, जाता है-आता है। आता है न? हजारों बार आते हैं, जाते हैं।
मुमुक्षुः- ज्यादा समय स्थिर नहीं हो सकते हैं?
समाधानः- एकदम उपयोगमें वेग आ जाता है, श्रेणि लगाते हैैं। एकदम अन्दर स्थिर हो जानेका वेग है। एकदम उपयोग त्वरासे हजारों बार आता है-जाता है।
मुमुक्षुः- वेगसे कैसे आता है?
समाधानः- श्रेणी लगानेसे पहले। ऐसा शास्त्रमें आता है। बाकी मुनिओंका आता है, हजारों बार आते हैं-जाते हैं, ऐसा शास्त्रमें आता है। वह तो शास्त्रमें जैसा हो
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उस अनुसार (मान लेना)। वह तो कालकी बात है न। शास्त्रमें हो उस अनुसार मान लेना। मुनिओंकी दशाकी बात है।
मुमुक्षुः- श्रेणी लगानेवाले हों, उससे पहले वेग बढने लगता है, ऐसा.. समाधानः- ऐसा शास्त्रमें आता है। मुमुक्षुः- ... समाधानः- वह कुछ शास्त्रोंमें नहीं आता है। जितना शास्त्रोंमें आवे इतना मानना। मुनिकी बात है। अबुद्धिपूर्वक है। वह तो जो केवलज्ञानीने जो कहा हो उस अनुसार माननेका होता है। वह तो तर्कमें अमुक प्रकारसे बिठा सकते हैं। क्योंकि वह तो एकदम अंतर्मुहूर्तका उपयोग सूक्ष्म उपयोग होता है।