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समाधानः- ... परन्तु उसमें दूसरा फेरफार नहीं होता। धूल, मिट्टी एवं पानीसे नहीं होता। उसका रसकस, आगे जाना आदि कम होता है, बाकी वस्तुमें फर्क नहीं पडता। अन्दरसे अनेक प्रकारकी निर्मलता होती थी, ऋद्धियाँ और शक्ति प्रगट होती थी, ऐसा नहीं होता। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानके साथ जो उसके साथ सम्बन्धवाले गुण हो, वह बाहरमें भी होते ही हैं।
मुमुक्षुः- जिसे आत्माकी स्थिरता हुयी है, श्रद्धान तो हुआ ही है, परन्तु अस्थिरता भी जिनकी दूर हुयी है।
समाधानः- आत्माकी श्रद्धा होती है, अस्थिरताकी बात अलग है। तो उसे मुनिदशा नहीं होती। यदि उतनी स्थिरता न हो तो मुनिदशा नहीं होती। जिस जातकी दशा हो वैसा बाहर होता है। सबको ऐसा लागू नहीं पडता कि अन्दरमें हो वह बाहर हो। यह तो मुनिदशाके साथ सम्बन्ध है। बाहर पकडमें आये, नहीं आये, परन्तु जो अन्दर हो उसे कोई बाहरसे पकड नहीं सकता। बाहरमें गृहस्थाश्रमवालेको व्यवहार सब अलग होता है। जो अंतरमें हो वह बाहरमें दिखाई नहीं देता। परन्तु यह तो मुनिदशाके गुणके साथ सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवकी तो बहुत ऊँची वर्तना थी। उन्होंने मुनिदशा अंगीकार नहीं की। तो क्यों नहीं ली?
उत्तरः- मुनिदशा अन्दरकी अलग होती है। मुमुक्षुः- अन्दर तो मुनिदशा नहीं थी? मुमुक्षुः- .. आती है वह बराबर तात्त्विक नहीं है। वैश्य वेष, निर्ग्रंथ भाव हो उसे वैश्य वेष नहीं होता। वैश्य वेषे निर्ग्रंथ भाव....
मुमुक्षुः- ... एक जन्म करके मोक्षमें जायेंगे।
समाधानः- वह बराबर, एक जन्म करके मोक्षमें जायेंगे, वह बराबर। बादमें दूसरे भवमें मुनि बन जायेंगे। निर्ग्रंथ भाव तो है, परन्तु निर्ग्रंथ दशा अभी नहीं है। जो गृहस्थाश्रकी दशा है, मुनिदशा बादमें दूसरे भवमें आयेगी। स्थिरताका मेल करना, उसका विचार करे तो बैठे ऐसा है।
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मुमुक्षुः- .... मुनि होकर पेशन्टको ट्रिट नहीं करते।
समाधानः- श्रद्धा हो, भेदज्ञान हो उसे अवश्य भवका अभाव होता है। उसे अवश्य चारित्र आता है, उसे अवश्य मुनिदशा आती है, परन्तु वर्तमानमें उसे मुनिदशा नहीं होती।
मुमुक्षुः- नग्नभाव, मुंडभाव सह अस्नानता।
समाधानः- .. आत्माकी सेवा करनेका गुरुदेवने बताया है। आत्माका विचार करना, आत्माकी जिज्ञासा, तत्त्वका विचार करना। आत्मा कौन है? उसका स्वरूप क्या है? वह ज्ञानस्वभाव है, आनन्दस्वभाव है। उसका आत्माका विचार करना। देव-गुरु- शास्त्रकी महिमा शुभभाव है, परन्तु अन्दर शुद्धात्मा भिन्न है। शुद्धात्माका विचार करना। उसका भेदज्ञान कैसे हो? यह सब विभावभाव है, उससे भिन्न होकर न्यारा कैसे हुआ जाय? यह सब विचार करना। द्रव्य-गुण-पर्यायका (विचार करना), शास्त्रमें क्या आता है? गुरुदेवने क्या बताया है? यह सब विचार करना।
मुमुक्षुः- मात्र विचारसे नहीं होता।
समाधानः- आत्माको ग्रहण करना। विचार करके नक्की करना। आत्माको ग्रहण करना कि यह आत्मा है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं। यह ज्ञायक स्वभाव है वही मैं हूँ, दूसरा कुछ मेरा स्वरूप नहीं है। ज्ञायकको ग्रहण करना, उसे भिन्न करनेका प्रयत्न करना, एकत्वबुद्धि है उससे भिन्न होकर क्षण-क्षणमें मैं भिन्न हूँ, उसकी भावना, जिज्ञासा और उस प्रकारका प्रयत्न परिणतिमें कैसे ऊतरे? जो विचारसे नक्की करे वह परिणतिमें कैसे ऊतरे? उसका प्रयास करना। वह करनेका है। वह सहजरूप कैसे हो? विचारमें निर्णय किया लेकिन वह परिणतिरूप कैसे हो? उसका प्रयास करना। विचारसे नक्की करके फिर आगे जाना है। परन्तु जबतक अन्दर सहजरूपसे ग्रहण न हो, तबतक विचार, वांचन आदि सब आता है। शास्त्र स्वाध्याय, उसके विचार, मनन (आदि होता है)। आगे कैसे बढना? स्वानुभूति कैसे हो? वह सब जिज्ञासा करनी। करना तो एक ही है, भवका अभाव कैसे हो? और ज्ञायक कैसे ग्रहण हो? और आत्माकी स्वानुभूति कैसे हो? करना तो यह एक ही है।
ज्ञानस्वभाव नक्की करके फिर उसे ग्रहण करके आगे बढा जाता है। परन्तु पहले नक्की करनेमें ही उसे यथार्थ प्रतीति, विचार करके बराबर यथार्थ जैसा है वैसा नक्की करके आगे बढा जाता है।
मुमुक्षुः- ऐसा आता है न कि, ज्ञानलक्षणसे पहचानकर। यानी जहाँ ज्ञान है वहीं आत्मा है।
समाधानः- ज्ञानस्वभाव है वही मैं हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ। वह लक्षण उसका
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ऐसा मुख्य लक्षण है, वह उसका असाधारण लक्षण है। इतना सत्य परमार्थ है, इतना सत्य कल्याण है कि जितना यह ज्ञायक-ज्ञानस्वभाव है। जो ज्ञानस्वभाव है उसीमें तू रुचि कर, उसमें प्रीति कर, उसमें संतुष्ट हो। उसीमें सब भरा है। ज्ञान माने मात्र जानना इतना ही नहीं है, परन्तु पूर्ण ज्ञायक है। पूर्ण ज्ञायक महिमावंत भरा है।
ज्ञानस्वभाव-जितना ज्ञान ऊतना ही तू है, अन्य कुछ तू नहीं है। जितना जाननेवाला है उतना ही तू है। उसे नक्की करके उसमें स्थिर होनेसे तुझे तृप्ति होगी, संतोष होगा, आनन्द आयेगा, सब उसीमें होगा। कहीं और नहीं है। ज्ञानस्वभाव रूखा नहीं है, वह महिमावंत है। ज्ञान यानी मात्र शुष्कतासे जानते रहना, ऐसा नहीं है। ज्ञानस्वभाव तू महिमासे ग्रहण कर। वह ज्ञानस्वभाव कोई अलग है।
उतना सत्यार्थ कल्याण है, उतना ही परमार्थ है कि जितना यह ज्ञान है। उस ज्ञानको ही ग्रहण कर। तुझे संतोष होगा, उसमें तृप्ति होगी। कहीं और संतोष और तृप्ति होगी नहीं। जो स्वभावमेंसे संतोष होगा और तृप्ति होगी, वह कहीं और नहीं आयेगी। उसीमें आनन्द आयेगा। विकल्पसे छूटकर उसमें स्थिर हो जा, उसीमें सब भरा है।
(जबतक यह न हो) तबतक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अनेक जातकी महिमा, प्रभावना आदिके प्रसंगमें जुडता है। बाहर यह शुभभाव और अन्दरमें शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये, यह करनेका है। सम्यग्दर्शन हो तो भी अभी पूर्णता नहीं हुयी है, तबतक शुभभाव आते हैं। केवलज्ञान नहीं होता तबतक शुभभाव आये बिना नहीं रहते। मुनिओंको भी आते हैं। छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। मुनि हो तो भी जब बाहर आते हैं तब शास्त्र लिखते हैं। उपदेश आदि, भगवानके दर्शन आदि सब मुनिओंको आता है। परन्तु बाहर आये तो शुभमें और अन्दरमें छठ्ठे-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। मुनिओंको दूसरा सबकुछ गौण हो गया है। वह सब तो है या नहीं ऐसा हो गया है।
अन्दर प्रगट करनेके लिये क्षण-क्षणमें लगन लगाये, भावना भावे। शुभभावमें, जिन्होंने प्रगट किया है ऐसे भगवान, जिन्होंने पूर्णता प्रगट की, जो साधना कर रहे हैं ऐसे गुरु और शास्त्रमें जा आये, उसे तू हृदयमें रकखर उसकी महिमा लाकर वहाँ खडा रहना। अन्य अशुभभावमें मत खडे रहना। बाहर आवे तो वहाँ खडे रहना है। अंतरमें शुद्धात्माकी लगन। बाहरमें सर्वस्व आ नहीं जाता, अन्दर शुद्धात्मा अंतरमें रह जाता है।
मुमुक्षुः- विश्रान्ति लेनी हो तो देव-गुरु-शास्त्र...
समाधानः- हाँ, देव-गुरु-शास्त्र। अन्दर शुद्धात्मा। जिन्होेंने स्वभाव प्रगट किया है ऐसे भगवान और जो साधन कर रहे हैं, ऐसे गुरु। शास्त्रमें सब वर्णन आता है।
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मुमुक्षुः- इस मर्यादासे आगे नहीं जाना है।
समाधानः- उस मर्यादासे आगे जायेगा तो अशुभभावमें जायेगा, वहाँ नहीं जाना है। अन्दरमें तेरी जिज्ञासा, लगन तो यही रखनी है, श्रद्धा तो यही रखना कि यह शुद्धात्मा कैसे ग्रहण हो? बाहरमें देव-गुरु-शास्त्र।
.. न कर सके तो श्रद्धा तो बराबर करना, शास्त्रमें आता है। श्रद्धा बराबर रखना कि मार्ग तो यही है। इन सबसे भिन्न आत्मा शुद्धात्मा (है)। उसका द्रव्य- गुण-पर्यायका स्वरूप पहचाननेसे, उसे ग्रहण करनेसे, उसमें लीन होनेसे प्रगट होता है। बाकी बीचमें कोई परका आश्रय (लेना) वह आत्माका स्वरूप नहीं है। अन्दर तेरे आत्माका आश्रय लेना। श्रद्धामें यह रखना है। वह नहीं हो सके तो बाहरमें देव- गुरु-शास्त्रका आश्रय होता है, व्यवहारसे।
देशनालब्धि होती है उस वक्त भगवान और गुरुकी वाणीका निमित्त होता है। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध (है)। करना स्वयंको है, परन्तु निमित्तमें देव और गुरु साक्षात होते हैं।
मुमुक्षुः- .. निर्णय तक। उसमें भी यह ... समय-समयमें तू भिन्न पडनेका, अनुभव करनेका प्रयत्न कर कि मैं तो ज्ञायक ही हूँ, मैं तो ज्ञायक ही हूँ। अर्थात उपयोग भी उसके पास है और विषय भी उसके पास है। फिर भी वह इतना कठिन पडता है, इस अभ्यासके कारण, कि वहाँसे छूटकर अनुभव करनेमें, विकल्पात्मक अनुभव करनेमें भी उतना ही समय लगता है और इतना कठिन लगता है।
समाधानः- यह अभ्यास बहुत हो गया है न। अनादिका। उससे भिन्न पडनेमें, परिणतिमें उसे छोडनेमें दिक्कत होती है। विचारसे नक्की किया हो तो भी उसे भिन्न करनेके कार्यमें उसे कठिन पडता है। क्योंकि अनादिकी परिणति उसे साथ-साथ चली आ रही है।
(समझ) पीछे सब सरल है। वह भिन्न पडे तो फिर उसकी पूरी लाईन सरल है। परन्तु प्रथम भूमिका उसे विकट है। क्योंकि अनादिकी उसे एकत्वबुद्धि हो रही है। स्वयं अपनेआप प्रयत्न करते-करते, आत्मा स्वयं ही अन्दरसे मार्ग कर देता है। जिसे खरी जिज्ञासा और लगन होती है उसे।
... निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। कोई किसीका कर्ता नहीं है। देशनालब्धि होती है तब भगवानका, गुरुका निमित्त होता है और अपने उपादानकी तैयारी (होती है), ऐसा सम्बन्ध सर्व प्रथम बार, साक्षात देव और गुरुका योग होता है, परन्तु निमित्त निमित्तमें (रहता है)। निमित्त प्रबल है। निमित्त निमित्तमें, उपादान उपादानमें। एक-एक परमाणु सब स्वतंत्र है, सब स्वतंत्र हैं, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। एक परमाणुके द्रव्य-
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गुण-पर्याय स्वतंत्र। सबके द्रव्य-गुण-पर्याय स्वतंत्र।
मुमुक्षुः- मामाको बात करी कि अभी कठिन लगती है परन्तु साथमें ऐसा भी बैठता है कि इसके सिवा छूटकारा नहीं है और यही उपाय है। ऐसा अनुभव करनेसे सरल हो जायगा और ऐसे सरल होने पर निर्विकल्प होनेका अवकाश ऐसे ही आयेगा, यह बात माताजी! बराबर बैठती है। अभी जरूर कठिन लगता है ऐसा प्रयास करना।
समाधानः- विकल्प भी वही है, उसे भिन्न करके, एकत्वबुद्धि तोडकर ज्ञायककी धारा प्रगट करनी। एक ही उपाय है। द्रव्यको ग्रहण किया, द्रव्य पर दृष्टि की परन्तु दृष्टि करके उसे टिकाना, उसे भिन्न करना यह कार्य (करना है)। जो मान्यतामें लिया कि मैं भिन्न हूँ, यह विभाव स्वभाव मेरा नहीं है। मैं भिन्न हूँ। भिन्न नक्की किया तो वह सत्यरूपसे नक्की कब कहा जाय? कि उस रूप कार्य हो तब। भिन्न है वह भिन्न ही है। तो फिर एकत्वबुद्धि हो रही है। उसे सत्य नक्की करके उसे अन्दर भिन्न करनेका प्रयत्न हुए बिना रहता नहीं। अन्दर प्रयास करनेपर सत्य तो यही है, मार्ग यही है।
श्रद्धारूप परिणति जिसे कहते हैं, वह श्रद्धा जो विचारसे श्रद्धा करे वह अलग, उसमें तो श्रद्धाकी परिणति होती है। दृष्टि और भेदज्ञानकी परिणति। वह अभी श्रद्धारूप है। लेकिन वह श्रद्धा कैसी? परिणतिरूप होती है। परिणतिका कार्य करती है वह। विशेष चारित्र होता है वह अलग। यह तो श्रद्धाके साथ अमुक प्रकारकी लीनता (होती है)। उसमें अनन्तानुबन्धि साथमें छूट जाता है। इसलिये अमुक प्रकारकी परिणति हो जाती है।
मुमुक्षुः- अनुभव होनेसे पहले ऐसा सहज निर्विकल्पपने हो, अनुभव पहले भी ऐसा विकल्पात्मक सहजपने...?
समाधानः- सहजपने, उसे परिणति सहज होती जाती है। उसमें उसे स्वानुभूतिका अवकाश है। किसीको थोडे प्रयत्न बिना एकदम हो जाता है, वह अलग बात है। किसीको एकदम नक्की हुआ और तुरन्त भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो जाती है, वह एक अलग बात है। ऐसे भी कोई जीव होते हैं। जैसे शिवभूति मुनि जैसे एकदम पलट गये। परिणति एकदम पलट गयी।
मुमुक्षुः- माताजी! आज धन्य घडी, धन्य भाग्य हमारे कि आज हमें आपको हीरेसे वधानेका सौभाग्य प्राप्त हुआ। मोक्षमार्गके प्रणेता पूज्य माताजी! अनन्त कालसे परद्रव्य और रागका भजन इस जीवने अनादि कालसे किया है। तो अब आपके प्रतापसे आत्माका भजन कैसे करें कि जिससे सादिअनन्त मोक्षसुखको प्राप्त करें?
समाधानः- जैसी जीवको बाह्य दृष्टि है, उसका अनादिसे भजन करता आ रहा
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है। गुरुदेवने बहुत किया है कि तू ज्ञायकको देख, ज्ञायकका स्मरण कर, ज्ञायकको लक्ष्यमें ले, ज्ञायकका ही तू बारंबार रटन कर। बाहरका रटन छोडकर ज्ञायकका रटन कर। ज्ञायकका लक्षण पहचाने। उसका ज्ञानलक्षण जो असाधारण लक्षण है, उस लक्षणसे वह पहचानमें आता है और उस लक्षण द्वारा लक्ष्य अर्थात वस्तुको पहचानकर बारंबार उसीका रटन, मनन एवं बारंबार उसमें निर्णय करके उसे ग्रहण करके उसका आश्रय ले। बारंबार करे तो वह प्रगट हो ऐसा है।
अनादिसे जो किया है, राग और विकल्पोंका स्मरण उसे बारंबार होता है। परन्तु आत्माका स्मरण करता नहीं है, ज्ञायकका स्मरण नहीं करता है। उसे बारंबार ज्ञायकका स्मरण हो ऐसी जिज्ञासा, रुचि, ज्ञायकमें ही सर्वस्व है, बाहर कहीं नहीं है ऐसी ज्ञायककी श्रद्धा हो। ज्ञायकमें ही सब भरा है, बाहर कहीं नहीं है। ऐसा ज्ञायकका विश्वास आये। ज्ञायकमें आनन्द है, बाहर कहीं नहीं है, ऐसा विश्वास आये तो वह ज्ञायकका रटन करे और वही करने जैसा है। बारंबार ज्ञायक, ज्ञायकदेवका स्मरण करे। वह न हो तबतक देव-गुरु-शास्त्रका स्मरण करे। अंतरमें ज्ञायकदेवका स्मरण करे। ज्ञायक कैसा है, उसकी प्रतीति करे। ज्ञायक कोई अदभुत है, अनुपम है। उसका लक्षण पहचानकर बारंबार निश्चय करे तो हो सके ऐसा है। परन्तु वह भेदज्ञान द्वारा होता है। ज्ञायकका लक्षण पहचानकर होता है।
भेदज्ञान द्वारा होता है। परन्तु उतनी स्वयंकी जिज्ञासा और रुचि हो तो करता है। उसे भिन्न करे, उसे बारंबार भिन्न करनेका प्रयत्न करे तो होता है। लक्षण पहचानकर उसे प्रज्ञाछैनी द्वारा भिन्न करे तो होता है। बाकी अनादिका अभ्यास है इसलिये मुश्किल हो गया है, दुर्लभ हो गया है। परन्तु अपना स्वभाव है इसलिये सुलभ है, दुर्लभ नहीं है। परन्तु स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है।
मुमुक्षुः- लगता है कि आत्मामें ही आनन्द भरा है, परन्तु जीव मानता नहीं है। विश्वास आना चाहिये कि उसके बिना मुझे एक क्षण भी नहीं चलेगा, उसके लिये जो पुरुषार्थकी निरंतर जागृति चाहिये, वह नहीं रहती।
समाधानः- वह स्वयं करे तो ही हो सके ऐसा है। कोई उसे कर नहीं देता। इतना विश्वास अन्दरसे स्वयं लावे तो ही हो सके ऐसा है। उसका विश्वास लाकर अनन्त जीव मोक्षमें गये हैं, अनन्त जीवोंने आत्माका स्वरूप प्रगट किया है। वह स्वयं करे तो हो सके ऐसा है। वह किसीसे हो ऐसा नहीं है। स्वयं करे तो ही होता है। वह विश्वास स्वयंको ही लाना है। जल्द या देरसे स्वयं ही विश्वास लाये, स्वयंको उसकी जरूरत लगे, स्वयंको ही करना है।
देव-गुरु-शास्त्र महा निमित्त हैं, परन्तु करना स्वयंको ही है। ऐसा पुरुषार्थ करके
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अनन्त जीव मोक्षमें गये हैं, अनन्त मुनि मोक्षमें गये हैं। यह मार्ग एक ही है, भेदज्ञान करके ज्ञायकको पहचानना। उसकी श्रद्धा-प्रतीति दृढ करके, वैसी परिणति करके उसमें लीन हो जाय वही एक मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। विश्वास स्वयंको ही लाना है। प्रयत्न स्वयंको करना है। सबकुछ स्वयंको करना है। श्रद्धा प्रगट करनी, सम्यग्दर्शन करना, उसमें लीनता करनी वह सब स्वयंको ही करना है। स्वयं स्वतंत्र है। जल्द या देर, परन्तु स्वयं करे तो ही होता है। दूसरा कोई उसमें कर दे ऐसा नहीं है।
गुरुदेवने मार्ग बताया है, स्वयंको करना बाकी रहता है। एकदम आसान कर दिया है। चारों ओरसे मार्ग बताया है। द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप (समझाया है)। निमित्त- उपादान, अनेक-अनेक प्रकारका सूक्ष्म-सूक्ष्म रूपसे सब समझाया है। स्वयंको करना बाकी रह जाता है।