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समाधानः- ... विकल्प सहित आनन्द होवे, वह आनन्द किसी भी प्रकारका हो, परन्तु विकल्प टूटकर आनन्द आवे, अपने आश्रयमेंसे आवे, चैतन्यमेसे उत्पन्न हुआ आनन्द हो, विकल्प टूटकर, जो विकल्पकी आकुलता है, आकुलता टूटकर अंतरमेंसे विकल्प छूटकर जो आनन्द आवे, वह आत्माके आश्रयसे आता है। कोई विकल्प खडे हो और जो आनन्द आवे, वह आनन्द कोई दूसरे प्रकारका है।
मुमुक्षुः- सच्चा आनन्द नहीं है।
समाधानः- कोई उल्लास आवे, आनन्द आवे वह अलग है। उसमें शुभभाव साथमें रहा है। इसमें तो विकल्प टूटकर स्वभावका आनन्द आवे, भेदज्ञान करता हुआ, ज्ञाताकी धाराकी उग्रता करता हुआ, उसमें विकल्प छूटकर जो आनन्द आवे वह आनन्द अलग होता है। स्वभावमेंसे प्रगट होता हुआ आनन्द है।
विकल्पसे पार होना बहुत मुश्किल, दुर्लभ है। उसका अभ्यास करते-करते होता है। पहले उसकी श्रद्धा होती है कि मैं विकल्पसे भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी पहले श्रद्धा हो, बादमें विकल्प टूटनेका प्रयत्न बादमें होता है, अभ्यास करते-करते। किसीको होता है तो अंतर्मुहूर्तमें होता है, नहीं होता है उसे अभ्यास करते-करते होता है।
मुमुक्षुः- अभ्यासमें भी विकल्प द्वारा ही अभ्यास होता है।
समाधानः- अभ्यासमें भी विकल्प तो साथमें है। जब तक विकल्प छूटा नहीं, तब तक विकल्प तो साथमें रहा ही है। परन्तु विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है, उसकी श्रद्धा भिन्नताकी रखकर अंतरसे जो प्रयत्न हो वह अलग होता है। मेरा स्वरूप नहीं है, यह मेरा स्वरूप नहीं।
मुुमुक्षुः- निर्विकल्प आनन्दकी अनुभूति होती है वह कितनी देर टिकता है? कोई कहता है, बीजलीके चमकारे जितना रहता है। मालूम कैसे पडे? बिजलीके चमकारेकी भाँति होता हो तो मालूम नहीं पडे। ऐसा होता है?
समाधानः- ऐसे स्वयंको मालूम पडता है। उसे मालूम नहीं पडता ऐसा नहीं होता। उसे स्वयंको स्वानुभूतिमें मालूम पडता है कि यह स्वानुभव है। उसका काल अंतर्मुहूर्तका है, छोटा-बडा कैसा भी हो, अंतर्मुहूर्तका काल है।
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मुमुक्षुः- यानी एक-दो मिनिट...?
समाधानः- उसका अमुक काल है, परन्तु वह पकड सकता है। किसीको थोडा ज्यादा होता है, किसीको थोडा कम होता है, परन्तु वह पकड सके ऐसा होता है। पकड न सके ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- हाँ, नहीं तो उसका प्रयोजन क्या?
समाधानः- यदि पकड नहीं सके तो... ऐसे ही चला जाय तो स्वयं पकड नहीं सकता है।
... पुरुषार्थकी गति हो उस अनुसार होता है। और गृहस्थाश्रममें जैसा उसका पुरुषार्थ हो वैसा होता है। मुनिओंकी तो बात ही अलग है, वे तो अंतर्मुहूर्तमें क्षण-क्षणमें होती है। लेकिन गृहस्थाश्रममें जैसी उसकी पुरुषार्थकी गति हो, उसकी सहज धारा हो वैसे होता है। उसका कोई नियम नहीं होता। फिर श्रावककी दशामें उससे विशेष होता है। जिसे देशव्रत होते हैं, उसकी अंतरकी स्थिरता बढती है, उसे ज्यादा होता है। चतुर्थ गुणस्थानमें अमुक प्रकारसे होता है। परन्तु सबको पुरुषार्थकी गति एक समान हो ऐसा नहीं है। उसकी पुरुषार्थकी गतिकी जो सहज धारा हो, उस अनुसार होता है।
मुमुक्षुः- एक बार किसीको अनुभव हो गया, फिर दो-चार सालके बाद भी न हो, ऐसा बनता है?
समाधानः- ऐसा नहीं बनता। दो-चार साल निकल जाये, ऐसा नहीं बनता।
मुमुक्षुः- तो भ्रमणा ही हुयी है न? कोई ऐसा मानता हो कि मुझे सम्यग्दर्शन हो गया है, दो-चार साल तक (अनुभव) नहीं होता, ऐसा शास्त्रमें...
समाधानः- दो-चार सालकी (बात नहीं है)। .. समयमें उसे होता ही है। दो- चार वर्षका (अंतर नहीं पडता)। सबको यही करनेका है।
मुमुक्षुः- ... बहुत कम काल तो रहता है न? सम्यग्दृष्टि हो और भले...
समाधानः- एकदम गति है न? इसलिये मुनिओंकी गिनती...
मुमुक्षुः- इसलिये ऐसा है। बाकी सम्यग्दृष्टिको...
समाधानः- उसका ऐसा कोई नियम नहीं है। सम्यग्दृष्टिको पौन सेकण्ड ही रहे ऐसा नियम नहीं है। अंतर्मुहूर्तका उसका नियम है। मुनिओंको एकदम गति होती है इसलिये।
.... ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। मैं यह चैतन्य हूँ, वह उसे ग्रहण होना चाहिये, स्वयंकी प्रज्ञासे कि मैं यह चैतन्य हूँ, ऐसे ग्रहण होकर बादमें उसमें एकाग्रता होती है। तो ज्ञानपूर्वकका ध्यान (होता है)। अपने स्वभावको पहचानकर ध्यान, अपना
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अस्तित्व ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। समझे बिनाका ध्यान करे अपना तो वह ध्यान नहीं करता है। परन्तु अपना अस्तित्व ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। (अपना अस्तित्व) ग्रहण होना चाहिये।
समाधानः- ... परको नहीं जानता है, ऐसा नहीं है। स्वपरप्रकाशक ज्ञान है। परका ज्ञान उसमें नहीं आता है, ऐसा नहीं है। उस शब्दका आशय ग्रहण करनेका दूसरेके हाथमें रहता है। दूसरा ऐसा ही कहे कि, जैसा अपने मानते हैं वैसा ही कहते हैं। वह तो व्यवहार है, ऐसा करके निकाल दे। परको जानना व्यवहार है, वह निश्चय है। जिस प्रकारसे अर्थ करना हो वैसे कर सकता है।
निश्चय-व्यवहारकी सन्धि ऐसी है कि परको जानता ही नहीं है ऐसा नहीं है। परके साथ एकत्वबुद्धि करके परको जानना, ऐसा कोई मुक्तिका मार्ग नहीं है। स्वयं स्वप्रकाशक पूर्वक उसमें पर आ जाता है। वस्तु स्थिति ऐसी है कि स्वको जानते हुए पर ज्ञात होता है। कोई ऐसा खीँचे कि स्वको जानता है... .. सन्धिका मेल नहीं आता है, वह... ... गुरुदेव भी कहते थे, लेकिन वजन कहाँ देना? और किस लाईन पर...
मुमुक्षुः- माताजी! थोडी और स्पष्टता षटकारक...
समाधानः- षटकारक अपनेमें है। पर्याय कोई स्वतंत्र वस्तु दुनियामें नहीं है। अखण्ड एक द्रव्य है, पर्याय द्रव्यके आश्रयसे है। फिर भी उसे स्वतंत्र कहनेमें आता है, वह कोई अपेक्षासे कहनेमें आता है। जैसे द्रव्यमेंसे अनन्त-अनन्त भाव, अनन्त पर्यायें प्रगट होती है, वैसे पर्यायमेंसे अनन्त, एक पर्यायमेंसे अनन्त पर्यायें नहीं होती। पर्याय तो एक क्षणके लिये है। उसके षटकारक कहनेमें आता है, वह सब अपेक्षासे कहनेमें आता है। षटकारक जो द्रव्यमें लागू पडते हैं, वह अलग प्रकारसे लागू पडते हैं। पर्यायमें लागू पडते हैं, वह दूसरे प्रकारसे लागू पडता है। उसकी अपेक्षा समझनी चाहिये।
पर्यायको एकदम निकाल दोगे तो पर्यायका वेदन ही नहीं रहेगा। पर्यायका वेदन होता है, पर्याय क्षणिक है, पर्यायको स्वतन्त्र माननी और पर्यायको द्रव्यके आश्रयवाली माननी, उसकी सन्धि करनी, वह सब मुक्तिके मार्गमें यथास्थित होता है। द्रव्यदृष्टि मुख्य रखकर उसमें पर्याय साथमें आती है। उस पर्यायको द्रव्यका आश्रय है, नहीं है ऐसा नहीं। पर्यायको स्वतंत्र भी कहते हैं। क्योंकि वह क्षणके लिये स्वयं उत्पन्न होती है, स्वयं नाश होती है। लेकिन उसे आश्रय द्रव्यका है। दोनोंकी सन्धि करनी चाहिये। सन्धि न करे तो स्वयं भूला पडता है। उसमें फर्क कहाँ पडता है? वजन कहाँ देना वह समझनेवाले पर आधार रखता है। बात एक ही होती है कि द्रव्यदृष्टि मुख्य रखकर उसके साथ पर्यायकी बात करते हैं। जबकि दूसरा, द्रव्यदृष्टि मुख्य करके उसमें स्वयं
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निषेध कहाँ करता है, वह पकड नहीं सकता है। परको जानता ही नहीं है, ऐसा निषेध भाव आता है, उसे स्वयं पकड नहीं सकता है। उसका निषेध भाव नहीं आना चाहिये और उसकी एकत्वबुद्धि नहीं होनी चाहिये। अपने ज्ञाताकी मुख्यता रखकर उसमें परप्रकाशक आता है। परन्तु परप्रकाशक कहते हुए कोई निषेध करता है, कोई उसे खीँचता है। अब, उसमें कैसे सन्धि करनी (वह) अपनेको (करनी पडती है)। इसीलिये गुरुदेव चर्चाकी बातमें पडते ही नहीं थे। वादविवाद जहाँ हो, वहाँसे गुरुदेव निकल जाते थे।
पालीतानासे निकल गये। चर्चा करो। तो वह बोले, चले गये, चले गये। गुरुदेवने कहा, भले चले गये, सात बार चले गये। हमें चर्चा नहीं करनी है। इसलिये गुरुदेव चर्चामें पडते ही नहीं थे। निश्चय-व्यवहारकी सन्धि ही ऐसी है। किसे कहाँ खीँचना वह उसके हृदय-आशय पर आधार रखता है।
वहाँ शांतिप्रसाद साहूने, गजराजजीके घर पर कहा, चर्चा करो। गुरुदेव चर्चामें पडना ही नहीं चाहते थे। वे तो अपने मार्ग पर ही चलते थे। किसे कहाँ कैसे खीँचना वह अपने हाथकी बात है। एक पक्ष बातको खीँच ले, तो यहाँ ऐसी बात हो कि परको नहीं जानता है, ऐसा नहीं है। तो फिर सामनेवाले ऐसे चलते हैं कि वे लोग परको जानता है, परको जानता है, ऐसा कहते हैं। ऐसे लेते हैं। ऐसा होता है।
क्षेत्र भेदके लिये (ऐसा कहते हैं), टूकडे मानते हैं। टूकडे नहीं है, ऐसी अपेक्षा कहते हैं तो ये लोग व्यवहारकी (बात) करते हैं, स्वतंत्रता (नहीं मानते हैं)।
मुमुक्षुः- व्यवहाराभासी हो गये।
समाधानः- हाँ, व्यवहारभासी हो गये। किसीको आशय समझना नहीं है और खींचातानी करनी है। ऐसा है। मुक्तिके मार्गमें निश्चयपूर्वक व्यवहार है। उसमें व्यवहारकी नास्ति नहीं आनी चाहिये और व्यवहारकी पकड भी नहीं होनी चाहिये, ऐसे दोनों समझना चाहिये। व्यवहारको पकडे ... नास्ति भी नहीं आनी चाहिये, तो मुक्तिका मार्ग ही नहीं रहेगा, व्यवहारका निषेध होगा तो। निश्चय-व्यवहारकी सन्धिका ... है। निश्चय- व्यवहारकी सन्धि कैसे करनी? निश्चय-व्यवहारकी सन्धिमें ही उलझ जाते हैं।
गुरुदेवकी निश्चयकी धून चढी थी तो निश्चयसे कहते थे, परन्तु उनका आशय वैसा नहीं था। उनका आशय अन्दर सब सन्धिपूर्वक था। कोई बहुत खीँच लेता तो गुरुदेव उसे कोडे मारते थे। ऐसा था। बहुत खीँच ले तो उन्हें पसन्द नहीं आता था। .. समझना मुश्किल है। बात तो एक ही होती हो। कोई ऐसा कहे कि हम कहते थे वैसा ही कहते हैं। कोई इस ओर खीँचता हो तो ऐसी बात करे तो कोई उस ओर खीँचे तो... लाभके कारण कहते हैं। परन्तु समझना कि निश्चयको मुख्य रखकर व्यवहार
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साथमें होता है। व्यवहारका निषेध... दृष्टि वैसा निषेध करे, परन्तु व्यवहारका निषेध ऐसा नहीं होना चाहिये कि पर्याय आत्मामें सर्वथा है ही नहीं।
पर्याय न हो तो वेदन किसका? मोक्षमार्ग किसका? साधक दशा कैसी? सब कैसा? आगे बढना क्या? कुछ भी नहीं रहता। मुनि चारित्रमें आगे बढते हैं। वीतरागदशा प्रगट करते हैं। कब वीतरागता हो? कब हो? गृहस्थाश्रममें सम्यग्दृष्टि ऐसी भावना भाते हैं। इसी क्षण वीतरागता होती हो तो यह कुछ (नहीं चाहिये)। दृष्टिके जोरमें ऐसा नहीं कहते हैं कि दृष्टिके जोरमें वह सब आ गया। वह तो होगा, जब होना होगा। ऐसा नहीं कहते। कब ऐसी पर्यायकी शुद्धि होगी? कब ऐसा पुरुषार्थ होगा? कब ऐसी पर्याय प्रगट होगी? ऐसी शुद्ध निर्मल पर्यायें कब प्रगट होगी? ऐसी पुरुषार्थकी धारा मुझे कब शुरू होगी? ऐसी पुरुषार्थकी भी भावना भाते हैं। द्रव्यदृष्टि प्रगट हो गयी, अब क्या पुरुषार्थ (करना)? द्रव्यदृष्टिमें पुरुषार्थ आ गया। वह तो एक द्रवयदृष्टिकी बात है। परन्तु पुरुषार्थकी भावना भी साथमें ऐसी रहती है। कब वीतरागता होगी? कब यह सब छूट जाये? कब मैं मेरे आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन हो जाऊँ? बाहर नहीं आऊँ, ऐसा दिवस मुझे कब आयेगा? ऐसी भावना भाते हैं। क्षण-क्षणमें ऐसी भावना उसे बहुत बार आ जाती है। सर्वथा निषेध नहीं होना चाहिये। उसकी मुख्यता-गौणता होती है, उसका निषेध नहीं आना चाहिये। उसका प्रयोजन .... समझना चाहिये। परको जानता ही नहीं, तो-तो ज्ञान और ज्ञेय, सब उसमेंसे निकल जाता है।
मुमुक्षुः- माताजी! द्रव्य और पर्यायके भेदज्ञानके लिये, द्रव्य और पर्यायके बीच भेदज्ञानके लिये, यह पर्याय इस गुणकी अथवा यह पर्याय इस ..की है, इतना रखकर पर्याय प्रतिक्षण अपने षटकारकसे परिणमति है, वह कथन है या वास्तवमें वस्तुस्थिति है? वस्तुस्थिति अर्थात द्रव्य-पर्याय मिलकर एक पूरी वस्तु है, उसका स्वीकारपूर्वक द्रव्य और पर्यायका भेदज्ञान करना हो, तब यह पर्याय इस द्रव्यकी है, अथवा ज्ञानकी पर्याय ज्ञानगुणकी है, इतना रखकर पर्याय अपने षटकारकसे परिणमति है, ऐसा कहना और पर्यायका कर्ता वास्तवमें द्रव्य ही है। यह तो एक अपेक्षासे कहनेमें आता है। इन दोनोंमें वास्तविकता क्या है?
समाधानः- पर्यायका कर्ता द्रव्य...?
मुमुक्षुः- स्वतंत्रपने अपने षटकारकसे परिणमती है? अन्दरके भेदज्ञानका जब विचार करें, परद्रव्यकी अपेक्षासे तो ऐसा कहें कि द्रव्य पर्यायका कर्ता है, पर्यायका करण है आदि षटकारक द्रव्य और पर्यायके अभेद कहे। और जब अन्दर-अन्दर भेदज्ञानका विषय करना है, तब द्रव्य कूटस्थ है और पर्यायके षटकारकसे पर्याय स्वयं स्वतंत्रपने परिणमति है, ऐसा जो कहनेमें आता है, स्वतंत्र परिणमे उसमें इतनी अपेक्षा तो रखी
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है कि यह पर्याय इस द्रव्यकी है और यह पर्याय इस गुणकी है। (पर्याय) अपने षटकारकसे परिणमति है, वह वास्तवमें वस्तुस्वरूप है या प्रयोजनकी सिद्धिके लिये कहनेमें आता है?
समाधानः- वह ज्ञानमें जाने कि इस गुणकी यह पर्याय है और इस गुणकी यह पर्याय है, ऐसा जाने। परन्तु वास्तवमें वह पर्यायका करण और पर्याय कर्ता, पर्याय संप्रदान, पर्याय अपादान वह यथार्थमें तो द्रव्यमें लागू पडता है। पर्याय स्वतंत्र (है)। पर्यायको गुणका आश्रय है और पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। स्वयं द्रव्यदृष्टि करके मैं शुद्धिरूप पुरुषार्थ करके उसका परिणमन करुँ, कैसे स्थिरताकी निर्मलता वृद्धिगत करुँ, कैसे स्वानुभूतिकी ओर जाऊँ, इस तरह अपनी पर्यायकी निर्मलता प्रगट करनेकी भावना रहती है।
यदि वैसे पर्याय स्वतंत्र हो जाय, पुरुषार्थका उसे आधार न हो और वह स्वतंत्र हो जाय तो उसकी भावना कैसे रहे कि मैं यह पुरुषार्थ करुँ? पर्यायकी निर्मलता (कैसे प्रगट करुँ)? केवलज्ञान कैसे प्रगट हो? उसमें पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका ही है। पर्याय स्वतंत्र परिणमे तो भी पुरुषार्थ तो स्वयंको करनेका है। स्वतंत्र है भी और स्वतंत्र नहीं भी है। उसको पुरुषार्थका आश्रय रहता है, द्रव्यका आश्रय रहता है। द्रव्यके आश्रय बिना वह पर्याय ऊपर-ऊपर नहीं होती। उसे आश्रय तो द्रव्यका है।
स्वयंकी द्रव्यदृष्टि है, उस द्रव्यदृष्टिका बल बढने पर वह पर्याय स्वतंत्र, परिणमती है स्वयं, परन्तु द्रव्यदृष्टिके बलसे परिणमती है। द्रव्यके आश्रय बिना तो प्रगट नहीं होती है। उसे आश्रय तो द्रव्य और गुणके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है। प्रगट होती है इसलिये उसे प्रगट की, (ऐसा कहते हैं)। पर्याय एक स्वतंत्र वस्तु है, और वह अपनेसे परिणमती है। परन्तु उसकी शक्तियाँ जो हैं पर्यायरूप परिणमनेकी वह द्रव्यमें और गुणोंमें भरी है। उसमेंसे वह प्रगट होती है, अवस्थाएँ प्रगट होती है। अन्दर खजाना भरा है, द्रव्य और गुणोंमें है, उसमेंसे वह प्रगट होती है। अतः उसे आश्रय तो द्रव्यका है। इसलिये मूल वस्तु गुण और द्रव्य, उसमेंसे वह परिणमती है।
स्वयं कर्ता, स्वयं करण... स्वयं उसमें स्वभावसे कुछ दूसरा नहीं कर सकता है या उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता है। उसका जो पर्यायका स्वभाव है, उस प्रकारसे वह परिणमती है। उसकी हानि-वृद्धि, उसका तारतम्यता वह कैसी, उसमें स्वतंत्र है। उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता। उसके पुरुषार्थको द्रव्यदृष्टिके बलसे उसमें जो स्वभाव हो उस रूप परिणमती है। उसमें वह फेरफार नहीं कर सकता है। इसलिये वह स्वतंत्र है। कर्ता, करण, संप्रदान, अपादान। इस तरह उसका जो स्वभाव है, ज्ञानका ज्ञानरूप, दर्शनका दर्शनरूप, चारित्रका चारित्ररूप उसमें वह फेरफार नहीं कर सकता। उसकी हानि, उसकी वृद्धि, उसके अविभाग प्रतिच्छेद, वह सब कैसे परिणमे, वह स्वतंत्र है। लेकिन
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उसमें आश्रय द्रव्यका है। द्रव्यके आश्रयसे वह परिणमती है। ऊपरसे नहीं आती है। द्रव्यके खजानेमें वह भरा है, उसमेंसे वह आती है।
मुमुक्षुः- उस अपेक्षासे द्रव्य ही कर्ता है, द्रव्य ही करण है, ऐसा जो कहनेमें आता है वह भी यथार्थ है।
समाधानः- हाँ, वह यथार्थ है। द्रव्यके खजानेमें ही वह सब भरा है। अनन्त- अनन्त शक्तियाँ अनन्त काल पर्यंत परिणमे, वह द्रव्यकी शक्तिमें सब भरा है। उसमेंसे पर्याय परिणमती है। लेकिन पर्यायका फेरफार (नहीं कर सकता है)। उनके जैसे स्वभाव हैं कि, ज्ञानका ज्ञान, दर्शनका दर्शन, चारित्रका चारित्र, उसके अविभाग प्रतिच्छेद, उसकी हानि-वृद्धि, उसकी तारतम्यता वह सब स्वतंत्र पर्याय परिणमती है। उसमें कोई फेरफार नहीं कर सकता। लेकिन जो प्रगट होता है वह द्रव्यमेंसे प्रगट होता है। द्रव्यके बाहरसे नहीं प्रगट होता। उसे द्रव्यका आश्रय है। इसलिये वह द्रव्यदृष्टिके बलसे, लीनताके बलसे, सम्यग्दर्शनके बलसे निर्मल पर्यायें प्रगट होने लगती है।
जबतक दृष्टि बाहर थी, तबतक विभाव पर्याय परिणमती थी। दृष्टि अपनेमें गयी इसलिये स्वभाव पर्यायें परिणमने लगी। जो अपने स्वभावमें भरी है, वह सब पर्यायें प्रगट होने लगी। वीतराग दशा होती है, वहाँ केवलज्ञान आदि प्रगट होता है। वह स्वयं प्रगट होता है, परन्तु उसे आश्रय (द्रव्यका है)। द्रव्यमें केवलज्ञानकी शक्ति है, उसमेंसे वह प्रगट होता है। द्रव्यमें शक्ति है, ज्ञानगुणमें शक्ति है। वह सब गुण द्रव्यमें ही अभेदरूप रहे हैं। एक-एक गुण भले है स्वतंत्र, परन्तु द्रव्यमें अभेदरूपसे रहे हैं। उसमेंसे पर्याय प्रगट होती है। इसीलिये उसे उसका वेदन होता है। पर्याय भिन्न, गुण भिन्न और उसका वेदन भिन्न (ऐसा नहीं है)। गुण अपेक्षासे, पर्याय अपेक्षासे, संज्ञा अपेक्षासे भेद है। परन्तु वह सब शक्तियाँ द्रव्यमें है, द्रव्यमेंसे वह पर्यायें प्रगट होती है। अतः वास्तविक रीतसे द्रव्यमेंसे (प्रगट होती है), इसलिये द्रव्य उसका कर्ता, करण, संप्रदान द्रव्य है। परन्तु स्वतंत्र पर्याय परिणमती है। वह परिणमित होकर जो बाहर आती है, वह स्वयं स्वतंत्र परिणमती है। इसलिये वह स्वयं कर्ता, करण इस तरह पर्यायको स्वतंत्र लागू पडती है। कैसी निर्मलता, कैसे अविभाग प्रतिच्छेद, कैसी तारतम्यात, इस तरह स्वतंत्र है।