Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 140.

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ट्रेक-१४० (audio) (View topics)

समाधानः- .. भेदज्ञान करना, महिमा करनी। ज्ञायकमें सब भरपूर भरा है, उसको पहचानना। बाहरमें कुछ नहीं है, भीतरमें सब कुछ है। ज्ञायक अनन्त गुणसे भरपूर अनन्त- अनन्त खजाना, अनन्त शक्तियाँ ज्ञायकमें भरी है। उस पर दृष्टि करनेसे, ज्ञान करनेसे, परिणतिकी लीनता करना वही करना है। वही जीवनका कर्तव्य है। शास्त्र अभ्यास, तत्त्व विचार ये सब करके अपने आत्माको पीछानना। ध्येय वह रखना, वही करनेका। आचार्यदेवकी क्या बात! गुरुदेवने उपकार किया है, अपूर्व मार्ग बताया। सब शास्त्रके रहस्य गुरुदेवने खुल्ले किये हैं। पारिणामिकभाव आदि सबका स्वरूप गुरुदेवने बताया है। अनादिअनन्त आत्मा पारिणामिकभाव स्वरूप है, उसमें ज्ञायकता भरी है। ज्ञायकता भी पारिणामिकभावस्वरूप (है)।

अनादिअनन्त .. स्वरूप शुद्धात्मा, पारिणामिकभावस्वरूप, वही लक्ष्यमें लेने योग्य, वह पूजनीय और महिमायोग्य स्वरूप है। जिसने आत्माके स्वरूपको प्रगट किया है, वह देव-गुरु-शास्त्र भी पूजनीय है। और शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, भीतरमें ज्ञायक भगवान परमपारिणामिकभावस्वरूप पूजनीय है, उसको पहचानना।

मुमुक्षुः- माताजी! जिस जाननक्रियामें आत्मा जाननेमें आती है, वह जाननक्रिया किसके आधारसे प्रगट होती है?

समाधानः- वह जाननक्रिया आत्माके-ज्ञायक-ज्ञाताके-आधारसे जाननक्रि/या होती है, कोई परके आधारसे नहीं होती है। जो ज्ञायक ज्ञाता है, इस ज्ञातामेंसे ज्ञानकी क्रिया प्रगट होती है। जाननक्रिया। अनन्त कालसे कर्तृत्वबुद्धि, परका मैं कर्ता हूँ, पर मेरा कार्य है, विभावका कर्ता हूँ। स्वभावका कर्ता होवे, ज्ञायकता प्रगट होवे तो उसमें जानन क्रिया प्रगट होती है। मैं जाननेवाला आत्मा हूँ। उसकी जाननक्रिया, जाननक्रियारूप परिणति आत्मा ज्ञायकके आधारसे प्रगट होती है। कर्तृत्वबुद्धि... अस्थिरता अल्प रहती है, उसकी कर्तृत्वबुद्धि स्वामीत्वबुद्धि छूट जाती है और ज्ञायकता प्रगट होती है। ज्ञाताधारा जाननक्रिया प्रगट होती है। स्वरूप परिणति, स्वरूपकी स्वानुभूति प्रगट होती है। उसमें जाननक्रिया निरंतर चलती है।

मुमुक्षुः- स्वानुभूतिकी मुख्यता तो सुखकी...?


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समाधानः- उसमें आनन्द गुणकी मुख्यता है। अनन्त गुण, सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सर्व गुणका अंश शुद्धरूप परिणमित होता है। आनन्दकी मुख्यता होवे तो भी अनन्तासे भरा हुआ आत्मा, उसका वेदन उसमें आ जाता है।

मुमुक्षुः- माताजी! जिस जाननक्रियामें आत्मा जाननेमें आता है, वह जाननक्रिया विभावको क्या परज्ञेय तरीके जानती है? जैसे भीँत जुदी है, ऐसा राग जुदा है, ऐसे वह ज्ञप्तिक्रिया जानती है?

समाधानः- भीँत तो परद्रव्य है। राग तो अपनी विभाविक परिणति है। विभाव परिणति है, वह कोई अपेक्षासे पर है। और विभावकी परिणति अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे होती है। इसलिये वह तो स्वभावभेद है। वह मैं नहीं हूँ। भीँत मैं नहीं हूँ, ऐसे राग मैं नहीं हूँ। स्वभावका भेद करती है। परन्तु राग होता है अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे। वह जानता है कि पुरुषार्थकी मन्दतासे वह राग होता है। परन्तु जानता है कि वह स्वभाव नहीं है, भेदज्ञान करता है। जैसे यह पर है, वैसे यह भी पर है। परन्तु वह पुरुषार्थकी मन्दतासे अशुद्ध परिणति होती है, ऐसे जानता है।

जिसका जैसा कार्य है, वैसा वह जानता है। जाननक्रिया जानती है कि यह पर है, मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसा ज्ञानमें रहता है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे (होता है)। संपूर्ण वीतरागता हो जाय, वीतराग दशा हो जाय तो रागकी क्रिया भी छूट जाती है। रागका मैं कर्ता नहीं हूँ तो भी अस्थिरता होती है, पुरुषार्थकी कमजोरीसे होती है। वह कोई कर नहीं देता है। होता है, अपनी मन्दतासे होता है, ऐसे जानता है।

मुमुक्षुः- है तो अपनी पर्यायमें परिणमन, पर अंतर्मुख हुआ ज्ञान उसमें व्यापता नहीं है, अवगाहन करता नहीं है।

समाधानः- ... नहीं है, इसलिये उसका भेद करता है कि राग मैं नहीं हूँ, ज्ञान मैं हूँ, राग मैं नहीं हूँ, ऐसा भेद करता है। परन्तु जानता है, वह होता है पुरुषार्थकी मन्दतासे। वह मेरा स्वभाव नहीं है, इसलिये वह पर है। पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है।

मुमुक्षुः- अंतर्मुख ज्ञानमें अनाकुल ज्ञानका स्वाद और आकुलित विभावका स्वाद एक समयमें .... से भासित होता है? जुदा-जुदा।

समाधानः- जुदा-जुदा। जितने अंशमें अनाकुलता प्रगट हुयी, सविकल्प दशामें, स्वानुभूतिके बाद जो सविकल्प धारा रहती है, उसमें आंशिक अनाकुलता रहती है और आकुलता, अस्प अस्थिरता आकुलता भी रहती है। दोनोंको जानता है। दोनों वेदन होते हैं। अनाकुलता और आकुलता। जितने अंशमें निराकुलता है, शान्तिका वेदन है, उसको शान्ति, समाधि, निराकुलता उसको भी वेदन करता है और अल्प राग है उसको


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भी जानता है। दोनों-ज्ञानधारा और उदयधारा एकसाथ चलती है।

मुमुक्षुः- कभी कहते हैं कि माताजी! वेदनमें आये वही आत्मा है, कभी कहते हैं, त्रिकाली द्रव्य वही आत्मा है। वेदनमें आये वह आत्मा, द्रव्य वह आत्मा नहीं।

समाधानः- वह तो अपेक्षासे कहते हैं। वेदनमें आता है इसलिये वह जैसा है वैसा वेदनमें आता है। ऐसे पर्याय अपेक्षासे (कहनेमें आता है)। बाकी अनादिअनन्त जो ज्ञायक स्वभाव है वही आत्मा है।

मुमुक्षुः- व्यवहारनयसे कथनी कही?

समाधानः- पर्यायका वेदन और द्रव्य (कहा वह) दूसरी अपेक्षासे (कहनेमें आता है) कि अनादिअनन्त आत्मा है वह द्रव्य।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः मतलब उसमें ... क्या होनो चाहिये?

समाधानः- उसमें रमणता नहीं हुई न। ज्ञायककी दृष्टि की, ज्ञान की। उसकी रमणता, उसकी चारित्रकी दशा-वीतरागता प्रगट होनी चाहिये। सम्यग्दर्शन प्रगट हुआ, ज्ञान किया बादमें रमणता प्रगट होती है, स्वरूप रमणता। वीतराग दशा प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र प्राप्त करनेके बाद भी यह जरूरी है कि ...

समाधानः- पूर्ण प्राप्ति हो जाय बादमें तो कुछ नहीं रहता। बादमें नहीं रहता। अल्प चारित्र है, अल्प स्वरूप रमणता है।

मुमुक्षुः- अभी स्वामीजी तो हमारे सामने नहीं है, लेकिन कहते हैं कि जब कोई तीर्थंकर हों या ... जैसे कि हम लोग बोलते हैं कि कानजीस्वामी मोक्षगामी जीव थे। कानजीस्वामीको कैसे मालूम पडा कि वह मोक्षगामी जीव हैं? जैसे अपने पुराणमें आया कि उन्होंने दर्पणके सामने देखा तो उनको अपने पूर्व भवका जन्म दिखायी दिया। वैसे कानजीस्वामीको कब अनुभव हुआ कि वह मोक्षगामी जीव है?

समाधानः- कानजीस्वामीको अंतर स्वानुभूति हुई।

मुमुक्षुः- मगर कभी उसका एक पर्यायार्थिक समय आता है, अभी जैसे कोई भी मोक्षगामी जीव तो हो सकता है, कोई भी हो सकता है, हम भी हो सकते हैं, ये भी हो सकते हैं, ये भी हो सकते हैं, मगर उनका एक काल आयगा-अक समय आयगा तभी उनको महेसूस होगा, नहीं तो ऐसे नहीं हो सकता।

समाधानः- पुरुषार्थ करके उसको स्वानुभूति होती है, वह जान सकता है कि मैं मोक्षगामी हूँ।

मुमुक्षुः- ये तो निश्चित है कि कानजीस्वामी गुरुदेव मोक्षगामी जीव थे। ये तो


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निश्चित है। उनके जानेके बाद उन्होंने कभी कोई मार्गदर्शन दिया। उनके जानेके बाद, मतलब वे हमारे बीचमें नहीं है, उसके बाद। ... उसके बाद कभी उन्होंने कुछ भी चाहे वह पोझिटि साईड हो या नेगेटिव साईड हो, वह पूछना है, वह जाननेका..

समाधानः- परंपराकी क्या बात है? उपदेश उन्होंने दिया, उन्हें जाना..

मुमुक्षुः- मगर माताजी! आप लोगोंके सम्बन्ध तो पुराने भी है तो हो सकता है कि हर इन्सानसे गलती होती है, चाहे वह तीर्थंकर हो, और मार्गदर्शन उनको गुरुओंसे मिलता है। ..

समाधानः- गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य था। उन्होंने सबको मार्ग बताया है।

मुमुक्षुः- मैं आपको यह बता रहा हूँ कि उनके जानेके बाद कोई चीजमें ऐसा..?

समाधानः- .. उनको कोई इच्छा ही नहीं थी। गुरुदेवको कोई इच्छा नहीं थी।

मुमुक्षुः- उनके अनुसार उनका भी एक वाक्य है, यह उन्होंने बोला कि मैं दीक्षा इसलिये नहीं दिलाता हूँ कि मैं इस रूपमें नहीं आया हूँ, मतलब तीर्थंकर रूपमें नहीं आया हूँ। मतलब उनका वह पार्ट तो बाकी है न?

समाधानः- उनको कोई इच्छा बाकी नहीं थी। वे तो अपना कार्य करते थे। वाणी छूटती थी, सबको लाभ मिलता था।

मुमुक्षुः- फिर उन्होंने आपके लिये..

समाधानः- उनको कोई इच्छा नहीं थी, बाहर कोई इच्छा नहीं थी। सब जीव मोक्ष प्राप्त करे, ऐसा प्रशस्त राग आता है तो वाणी छूट जाती है। बादमें उनको वह विचार नहीं आता है।

मुमुक्षुः- आपके पास उसके बाद कभी नहीं आये? किसी भी रूपमें-सपनेके रूपमें, साक्षात रूपमें, किसी भी रूपमें।

समाधानः- स्वप्न आये तो उसमें क्या है?

मुमुक्षुः- मोक्षगामी जीवका स्वप्न आये तो उसमें बहुत .. इन लोगोंको स्वप्नमें ही बोलते थे। उनको कोई सामाने आकर नहीं बोलता था। सपनेमें बोलते थे। माताको सोलह स्वप्न आये, उसके बाद त्रिशला माता..

समाधानः- वह तो एक आगाही होती है कि सपना देखकर यह तीर्थंकरका जीव आया है।

मुमुक्षुः- वही मतलब है मेरा।

समाधानः- यह पूछनेका क्या मतलब है?

मुमुक्षुः- बहुत लाभ है। अपनेको यह लाभ है कि अपनी परिपाटी कीधर चलनेवाली है। क्योंकि इसके बाद जो मैं ... वह ये है कि आज जो हम स्थिति देखते हैं,


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वास्तविक स्थिति देखते हैं, मैं दिगम्बर हूँ, मगर मैं...

मुमुक्षुः- .. सपना आयेगा वह मानेंगे? ... आप भी नहीं मानते हैं। सपना तो मनोकल्पना है, ऐसा कहेंगे। उसमें कुछ नहीं है। आत्माकी करो, ऐसी कोई झंझटमें मत पडो।

समाधानः- गुरुदेवने जो किया, बहुतोंको जागृत किये हैं। हिन्दुस्तानके लोगोंको अध्यात्मकी ... परिणति बहुत लोगोंकी हो गयी है। (जिसकी) नहीं हुयी, उसकी योग्यता। बाकी जिसकी लायकात थी, तो बहुत लोगोंको अध्यात्म, आत्माका विचार करनेवाले बहुत हो गये। बहुत साल पहले तो सब क्रियाकांडमें थे। ऐसा थोडा कर लिया, शुद्धि कर ली, अशुद्धि कर ली, इतना पाठ पढ लिया, ऐसा कर लिया, इसमें सब पडे थे। गुरुदेवके प्रतापसे अध्यात्मके शास्त्र, अध्यात्मका वांचन, अध्यात्म स्वरूप.. ऐसा बहुत करने लग गये। बहुत लोगोंका परिवर्तन हो गया।

मुमुक्षुः- एक जगह कहनेमें आता है कि, पर्याय अपने षटकारकसे उत्पन्न होती है और एक जगह कहनेमें आता है कि, अपने द्रव्यके आधारसे उत्पन्न होती है। तो इन दो निर्णयमें कौन-सा निर्णय जोरदार है जिसमें हम आत्माका लक्ष्य कर सके?

समाधानः- आत्माका लक्ष्य करना। तो पर्याय उस ओर आ जाती है। आत्माकी द्रव्यदृष्टिके आश्रयसे पर्याय उसमें आ जाती है। शुद्ध पर्याय उसमें प्रगट होती है। वह पर्याय स्वतंत्र, अमुक अपेक्षासे स्वतंत्र है। बाकी द्रव्य तो अनन्त सामर्थ्यसे भरा है तो जितना वह द्रव्य स्वतंत्र है, उतनी ही पर्यायको स्वतंत्र कहना वह तो अपने स्वभावसे है अथवा अमुक अपेक्षासे उसके षटकारक कहनेमें आते हैं, तो भी पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो रहता है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो है। जिस ओर द्रव्यकी परिणति होती है उस ओर पर्याय पलट जाती है। दृष्टि बाहर जाती हो तो उस ओर पर्याय जाती है। दृष्टि शुद्धात्मामें जाती है तो उस ओर पर्याय जाती है। इसलिये द्रव्यका आश्रय तो पर्यायमें रहता है। जितना द्रव्य स्वतंत्र है, पर्यायमें उतना फर्क है कि षटकारक है तो भी द्रव्यका आश्रय पर्यायमें रहता है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय तो रहता है।

मुमुक्षुः- लक्ष्य द्रव्यका होता है? समाधानः- लक्ष्य तो द्रव्यका होता है, पर्यायका लक्ष्य नहीं होता। मुमुक्षुः- और उत्पत्तिकी अपेक्षासे द्रव्यके साथ पर्यायकी उत्पत्ति होती है? समाधानः- जिस ओर द्रव्यकी दृष्टि, उस ओर पर्याय होती है। पर्याय स्वतंत्र उस अपेक्षासे (कहते हैं कि), पर्यायका स्वरूप स्वतंत्र है। इसलिये पर्याय स्वतंत्र है। बाकी पर्यायमें आश्रय तो द्रव्यका रहता है। ऊपरसे पर्याय होती है किया? ज्ञानकी पर्याय, दर्शनकी पर्याय, चैतन्यकी चैतन्यरूप पर्याय, वह पर्याय ऊपरसे उत्पन्न नहीं होती।

Paryay Dravya se Utpan hoti Hai To Jis Tarah Se Dravya SWATANTRA hai
usi Tarah PARYAY bhi SWATANTRA hai (Dravya se Utpan Hone Ke Kaaran).

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उसे द्रव्यका आश्रय है।

इसलिये द्रव्यकी स्वतंत्रता और पर्यायकी स्वतंत्रतामें फर्क है। उसके षटकारक और इसके षटकारकमें फर्क है। द्रव्य स्वतंत्र स्वतःसे है। वैसे पर्यायको तो द्रव्यका आश्रय है। उसके षटकारक समझना है तो उस प्रकारसे समझना कि द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय ऊपरसे नहीं होती।

मुमुक्षुः- चन्दुभाईने कहा कि ऊपरसे राग होता है। मुमुक्षुः- .. आत्माका भी नहीं सकते और पुदगलका भी नहीं कह सकते, स्वयंने नया खडा किया है।

समाधानः- स्वयं नया है। अपना स्वभाव नहीं है। स्वयं जुडता है। आकाशके फूलको कोई आश्रय नहीं है, ऐसे नहीं। ... पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। फर्क है। पर्याय है (उसको) द्रव्यका आश्रय होता है। रागकी बात अलग है। अपना स्वभाव नहीं है।

मुमुक्षुः- पर्यायका वेदन होता है, आलम्बन नहीं होता। और ध्रुवका आलम्बन होता है, द्रव्यका वेदन नहीं होता।

समाधानः- उसका आलम्बन है, पर्यायका वेदन है।

मुमुक्षुः- सब विद्वानोंको, पण्डितोंको सबको बहुत सरल भाषामें बोल दिया। उपकार है, माताजी! अनन्त उपकार है।

मुमुक्षुः- सिद्ध भगवानको जो अव्याबाध आनन्द प्रगट हुआ, चौथे गुणस्थानमें क्या सिद्ध जैसा ही सुख प्रगट होता है?

समाधानः- चतुर्थ गुणस्थानमें सिद्ध भगवान जैसा ही सुख (प्रगट होता है)। आंशिक सिद्ध भगवान जैसा। जाति तो एक है। सिद्ध भगवानको पूर्ण प्रगट हुआ है, वह अंश है। जाति तो जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है, वैसा अंश प्रगट होता है। द्रव्य तो सिद्ध भगवान जैसा है। सिद्ध भगवानका जो स्वभाव है, वैसा ही स्वभाव आत्माका है। परन्तु प्रगट होता है वह अंश प्रगट होता है।

मुमुक्षुः- आनन्दका स्वाद आंशिक रूपमें आता है। समाधानः- अंश आता है, परन्तु सिद्ध भगवान जैसा ही है। भेदज्ञानकी धारा भीतरमें प्रगट कर क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक चैतन्य हूँ, ये मैं नहीं हूँ, ऐसी धारा प्रगट करते-करते विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। (उसमें) सिद्ध भगवानकी जातिका अंश प्रगट होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!