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मुमुक्षुः- ज्ञायक ज्ञायकी ही है आत्मा।
समाधानः- ज्ञायक स्वरूप ही है। ज्ञायकतासे भरा है। कोई परका कर्ता नहीं हो सकता। अपना स्वभाव ज्ञायक स्वभाव है। ज्ञायकका स्वभाव पहचाने, उसकी श्रद्धा करे, उसमें लीनता करे तो कोई नवीनता, अनादि कालसे जो विभावपर्याय हो रही है, उससे (भिन्न) कोई नवीन पर्याय प्रगट होती है। नवीन होवे वह नवीनता सत्यार्थ रूपमें नवीनता है। नूतन वर्ष तो व्यवहार है, परन्तु अंतरमेंसे नवीनता, कोई नवीन पर्याय प्रगट होवे तो वास्तविक नवीनता है।
मुमुक्षुः- सबको जानता है।
समाधानः- जाननेवाला है। स्वपरप्रकाश। स्वयंको जानता हुआ सबको जानता है। स्वको जाननेमें पर सहज ही जाननेमें आ जाता है। जो स्वको जाने वह परको यथार्थ जानता है। अनादि कालसे मात्र परको जानता है वह स्वको भी नहीं जानता है और परको भी नहीं जानता है। जो स्वयंको जानता है वह परको जानता है। जो स्वयंको नहीं जानता है, वह परको भी नहीं जानता है।
मुमुक्षुः- उसमें आया था, जो ज्ञात होता है, परन्तु जानता नहीं।
समाधानः- ज्ञात होता है। विकल्प करके जानने नहीं जाता, एकत्वबुद्धिसे। स्वको जानते हुए पर ज्ञात होता है। परन्तु स्वपरप्रकाशक स्वभाव है। विकल्प करके परका कर्ता नहीं होता, उसमें एकत्वबुद्धि नहीं करता है। स्वको जानते हुए पर ज्ञात हो जाता है।
मुमुक्षुः- भूतकालकी पर्याय और भविष्य कालकी पर्याय अपनी ज्ञानकी अपेक्षासे अविद्यमान होने पर भी सबको जानता है, ऐसा स्वभाव है।
समाधानः- ऐसा स्वभाव है। विद्यमान नहीं है तो भी जानता है। ऐसा ज्ञानका कोई अचिंत्य स्वभाव है। अनन्त-अनन्त अगाध ज्ञानशक्ति कोई अपूर्व अचिंत्य है। जो भूतकालमें बीत गई और भविष्यमें होनेवाली है, उन सभी पर्यायोंको आत्मा प्रत्यक्ष जाने ऐसा उसका स्वभाव है। केवलज्ञानमें प्रत्यक्ष जानता है। केवलज्ञानी सब प्रत्यक्ष जानते हैं। अपने आत्माकी अनन्त पर्याय और परकी अनन्त पर्याय, सब जानता है।
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स्वयं अपनेमें रहकर जानता है। स्वभावमें रहकर जानता है।
मुमुक्षुः- जो पर्याय प्रगट नहीं हुई है, उसे भी योग्यतारूप जानते हैं या प्रत्यक्ष जानते हैं?
समाधानः- प्रत्यक्ष जानते हैं। यह प्रगट होनेवाली है, ऐसे प्रत्यक्ष जानते हैं। किस प्रकार, कब प्रगट होगी सब प्रत्यक्ष जानते हैं।
मुमुक्षुः- भगवान महावीरको तेरहवें गुणस्थानमें केवलज्ञान था और सिद्ध हो गये, तो उनकी सिद्धपर्यायको भी जानते हैं?
समाधानः- सिद्धपर्यायको भी जानते हैं और स्वयं केवलज्ञानी थे वह भी जानते हैैं, सिद्धपर्यायको भी जानते हैं, सब जानते हैं। भविष्यमें ऐसा होनेवाला है, यह हुआ है, ऐसे वर्तमान, भविष्य सब जैसा है वैसा जानते हैैं। ऐसा कोई ज्ञानका अपूर्व अगाध स्वभाव है। स्वभाव कोई अपूर्व है। अनन्त.. अनन्त.. अनन्त लोकालोक जाने तो भी उसमें कोई वजन या दूसरा कुछ होता नहीं, परन्तु अनन्त सहज जानता है। शास्त्रमें आता है न? अणुरेणुवत। मानों एक अणु हो वैसे। उससे भी अनन्त लोकालोक हो तो भी जाने, ऐसी आत्मामें जाननेकी शक्ति है।
... उसकी भावना करे, उसकी जिज्ञासा करे। देव-गुरु-शास्त्र, जिन्होंने वह स्वानुभूति प्रगट की, जो उसकी साधना करते हैं उसकी महिमा करे। उसे ध्येय एक आत्माका है कि मुझे ज्ञायक कैसे प्रगट हो? एक आत्माका ध्येय है और ध्येयपूर्वक शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र, अंतरमें ज्ञायक। शुभाशुभ विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसी ज्ञायककी भावनापूर्वक एक अंश प्रगट करके स्वानुभूति... वह अंश स्वानुभूतिमें प्रगट होता है, बादमें केवलज्ञान प्रगट होता है। जीवको करना वही है और वही सत्य सुप्रभात है। वह प्रभात प्रगट होनेसे केवलज्ञान उत्पन्न होता है, पूरा सूर्य प्रगट होता है।
... दृष्टि करे। सब जानने जाय, परन्तु जो स्वयंको नहीं जानता है, वह वास्तविकरूपसे दूसरेको सत्य नहीं जानता है। स्वयंको जानने पर अन्य सहज ज्ञात हो जाता है। स्वयंको जाने उसमें दूसरा सहज आ जाता है।
मुमुक्षुः- जैसा सूर्य है वैसा आत्माका स्वरूप है? जैसे सूर्यमें मलिनता नहीं है, वैसे आत्मामें भी मलिनता नहीं है।
समाधानः- सूर्यमें मलिनता नहीं है, वैसे आत्मामें नहीं है। वह तो दृष्टान्त है। जैसे सूर्य मलिनता रहित है, वैसे आत्माका निर्मल स्वभाव है, उसमें कोई मलिनता नहीं है। वस्तुमें मलिनता नहीं है, पर्यायमें (है)। पर्यायकी शुद्धि, द्रव्य पर दृष्टि करे तो पर्याय निर्मल होती है।
... जैसे एक हजार किरणोंसे प्रकाशित होता है, वैसे आत्मा तो अनन्त किरणोंवाला
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है, परन्तु शक्तिरूप है। उसका लक्ष्य करे तो प्रगट होता है, उसकी दृष्टि करे, ज्ञान करे तो प्रगट होता है। ऐसा शक्ति-स्वभाव है।
... उसमें विभाव नहीं है। शुद्ध स्वरूप अनादिअनन्त (है)। वह शुद्धात्मा है। वह अनादिअनन्त स्वतःसिद्ध एक तत्त्व है। मुक्तिका मार्ग है। शुद्धात्माको अनादि कालसे पहिचाना नहीं है। दृष्टि बाहर विभाव पर है। मानों मुझे परसे लाभ होता है और पर ऊपर दृष्टि है। शुद्धात्माको पहिचानना। शुद्धात्मा अनादिअनन्त, अनन्त गुणओंसे भरपूर, अनन्ते शक्तिओंसे भरपूर है। उसमें विभावका अन्दर प्रवेश नहीं हुआ है। परन्तु मैं विभावयुक्त हो गया, मैं विभाववाला, दुःखवाला, मलिनतावाला ऐसा हो गया, ऐसी मान्यता है। बाकी अनादिअनन्त शुद्धात्मा मूल स्वभावसे जैसा है वैसा है। उसे पहचाने तो भवका अभाव हो, तो स्वानुभूति हो, उसमें पुरुषार्थ करे, उसमें लीनता करे, उसमेें परिणमन करे वही मुक्तिका मार्ग है। और गुरुदेवने वह बताया है, वही करनेका है। उसमें आनन्द है। आनन्दसे भरपूर है आत्मा तो।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- कठिन काल कोई आडे नहीं आता, स्वयं पुरुषार्थ करे तो प्रगट हो ऐसा है। काल उसमें आडे नहीं आता। अपने पुरुषार्थकी मन्दतासे कार्य प्रगट नहीं होता है। इस कालमें केवलज्ञान प्रगट नहीं होता है, परन्तु आत्माकी स्वानुभूति तो प्रगट होती है, परन्तु स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता है। अंतरमें मैं ज्ञायक हूँ, मैं चैतन्य हूँ, यह विभाव मैं नहीं हूँ, ऐसा भेदज्ञान (करे)। स्वयं अपनेमें एकत्वबुद्धि और परसे विभक्तता करे तो स्वानुभूति प्रगट हो ऐसी है।
आचाया, मुनिवरों सब इस कालमें हो गये हैं। निरंतर झरता आस्वादमें आता ऐसा चैतन्यदेव प्रगट हुआ है, ऐसा आचार्य कहते हैं। स्वयं अंतरमें अपनी योग्यता तैयार करे।
... गहरे संस्कार वह प्रगट होते हैं। स्वयंने जो तैयारी की हो उस जातकी योग्यता चैतन्यमें होती है। इस प्रकार संस्कार रह जाते हैं।
मुमुक्षुः- ... पर्यायके साथ ऐसा कोई जुडान रहता होगा? पर्याय पर्यायके बीच?
समाधानः- जुडान नहीं, परन्तु ऐसी चैतन्यमें योग्यता होती है कि जो योग्यता अन्दर यथार्थपने हो, वह पूर्व भवमें उसे नैसर्गिकरूपसे प्रगट होते हैं, उस जातका पुरुषार्थ करे।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! इस भवमें जो यह धर्म प्राप्त किया, उसमें गत भवके कोई संस्कार होंगे? पूर्व भवमें कोई संस्कार डाले होंगे?
समाधानः- संस्कार तो होते हैं पूर्वके, परन्तु सबको हो ही ऐसा नहीं होता।
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बहुतोंको पूर्व भवके संस्कार होते हैं। बहुतोंको नहीं होते हैं। जब करता है तब सर्वप्रथम होता है। पूर्वमें जब तैयारी की तब सर्वप्रथम ही था। उसमें कोई कमी रहे तो दूसरे भवमें आये तो पूर्वके संस्कारसे प्रगट हुआ ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु जब करे तब तो सर्वप्रथम ही होता है। जब करे तब पहला होता है। पूर्वमें पूरा नहीं हुआ इसलिये दूसरे भवमें आता है तो उसे पुरुषार्थ शीघ्रतासे होता है अतः पूर्वके संस्कार हैं, ऐसा कहनेमें आता है। शीघ्रतासे होता है इसलिये ऐसा कहनेमें आता है कि पूर्वके संस्कार हैं।
जिसे करना हो उसे तो पहली तैयारी होती है। प्रथम जीव अनादि कालसे जन्म- मरण करता आ रहा है, उसमें कोई देव अथवा गुरुकी वाणी मिले, परन्तु जब तैयारी करनी हो तो प्रथम ही तैयारी (होती है), कहीं भी करे तब पहली तैयारी होती है। इस भवमें की हुयी तैयारी... पूर्वभवमें उसे विशेष तैयारी हो तो पूर्वके संस्कार है, ऐसा कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- आत्माके पास साधन है ऐसा नहीं है?
समाधानः- साधन कोई नहीं है, स्वयं ही है, आत्मा स्वयं ही है, स्वयं ही अपना साधन है। स्वयं अपनी तैयारी (करे)। अपनेमें जिस प्रकारकी योग्यता होती है उस प्रकारकी पर्यायें प्रगट होती है। स्वयं ही स्वयंका साधन है।
मुमुक्षुः- बहिर्लक्षी ज्ञानोपयोग हो और अज्ञानीका बहिर्लक्षकी ज्ञानोपयोग हो, उसमें कोई अंतर होता होगा?
समाधानः- उसमें फर्क है। अज्ञानीको एकत्वबुद्धि है बाह्य उपयोगमें। आत्माका ज्ञान नहीं है और एकत्वबुद्धि है। मैं कौन और पर कौन, यह मालूम नहीं है। परके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। ज्ञानीको भेदज्ञान वर्तता है। अपना स्वपदार्थ ज्ञायकके साथ एकत्वबुद्धि है और परके साथ विभक्त है कि ये परपदार्थ सो मैं नहीं हूँ, ऐसी उसे परिणति वर्तती है कि मैं यह चैतन्य ज्ञायक भिन्न हूँ और ये परज्ञेय भिन्न हैं। ऐसी भेदज्ञानकी परिणति प्रगट होती है और भेदज्ञानकी परिणतिके साथ उसका उपयोग बाहर होता है। परन्तु परिणति तो उसकी चलती ही रहती है कि मैं ज्ञायक हूँ और यह भिन्न है। उसमें उसकी दृष्टि और उसकी परिणतिमें पूर्व और पश्चिम जितना अंतर है। स्वरूप सन्मुख है और ज्ञेयको जानता है। और उसकी (-अज्ञानीकी) तो दिशा ही परसन्मुख है।
मुमुक्षुः- ... उसमें नारियलमें जैसे गोला अलग है, ऐसा कुछ होता होगा?
समाधानः- स्वयं भिन्न पड जाता है। चैतन्यतत्त्व अकेला निराला स्वयं अपनी स्वानुभूति करता है। स्वयं अपने आनन्दादि अनन्त गुणोंका वेदन करता है। एकदम निराला
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हो जाता है। चैतन्यगोला भिन्न पडकर चैतन्य स्वयं स्वयंको अनुभवता है। ये अनुभव जो वेदन है, विभावका वेदन है वह छूट जाता है और चैतन्यका वेदन अंतरमेंसे प्रगट होता है। एकदम निराला हो जाता है।
.... मैं चैतन्य ही हूँ। चैतन्यके आनन्द स्वरूपको वेदता है। उपयोग बाहर आये तब यह शरीर भिन्न और मैं ज्ञायक भिन्न हूँ, ऐसी भिन्नताकी परिणति वर्तती है। अंतरमें गया तो शरीर कहाँ है उसका भी ख्याल नहीं है। मैं चैतन्य ही हूँ। विकल्प भी छूट जाते हैं। विकल्पकी ओर उपयोग नहीं है। अकेले चैतन्यका वेदन है। अकेली आनन्दकी धारा आनन्दका स्वरूप प्रगट होता है। आनन्दादि अनन्त गुणोंकी पर्यायें प्रगट होती हैं।
मुमुक्षुः- लोगोंको मरते हुए देखते हैं तो हमें ऐसा नहीं लगता है कि अपना भी कभी भी ऐसा मरण होनेवाला है, तो क्या एकत्वबुद्धिका दोष होगा?
समाधानः- एकत्वबुद्धि है। शरीरके साथ एकत्वबुद्धि है। जन्म-मरण तो चलते ही रहते हैं। जिसने शरीर धारण किया, इसलिये देह और आत्मा भिन्न पड ही जाते हैं। एकत्वबुद्धि, उतना शरीरके साथ एकत्वबुद्धिका राग है। चैतन्य तो शाश्वत है। चैतन्यमें जन्म-मरण लागू नहीं पडते। वह तो शाश्वत है। जहाँ जाय वहाँ शाश्वत है। एक देह छूटकर दूसरा देह धारण करता है। आत्मा तो शाश्वत है। परन्तु एकत्वबुद्धिके कारण उसे ख्याल नहीं आता है।
मुुमुक्षुः- पूर्व भवकी लेन-देनके कारण दूसरे भवमें सब व्यक्ति इकट्ठे होते हैं, क्या यह बात सच है?
समाधानः- किसीको पूर्व भवका कोई सम्बन्ध हो और लेन-देन हो इसलिये भी मिलते हैं, बाकी पूर्व भवमें कहीं मिले नहीं हो और कुछ परिणामोंका और ऐसे कर्मके संयोगका ऐसा मेल बैठ जाय और मिल जाते हैं। कभी कोई कहाँ-से आया हो, कोई कहाँ-से आया हो और मिल जाते हैं। कोई किस गतिमेंसे, कोई किस गतिमेंसे आकर मिल जाते हैं। परिणाम और कर्मके उदयका ऐसा मेल खा जाय और मिल जाते हैं। और किसीका पूर्व सम्बन्ध हो, पूर्वमें साथमें हो और मिल जाय, ऐसा भी बनता है।
समाधानः-.. सब स्थूल दृष्टिमें क्रियामें पडे थे। कहाँसे गुरुदेव सबको ऊपर ले आये। कोई देव-देवीको नहीं मानते हों, परन्तु क्रियामें तो पडे ही थे। उपवास करें तो धर्म होगा, ऐसी सब मान्यता। ... स्थानकवासीमें तो सब ऐसा था। ज्ञायकको पहचाननेका मार्ग कहाँ था? कौन जानता था? अंतर दृष्टि करनी और मोक्ष अंतरमें आंशिकरूपसे होता है, वह मोक्ष बादमें होता है। और यह मोक्ष अंतरमें होता है, यह बात कहाँ थी?
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ये सब कहते हैं, पंचमकालमें केवलज्ञान नहीं है। पंचमकालमें केवलज्ञान नहीं है, परन्तु सम्यग्दर्शन है। सम्यग्दर्शन यानी क्या, यह भी कोई समझता नहीं था। मोक्ष यहाँ सम्यग्दर्शनमें आंशिकरूपसे हो जाता है, यह भी कोई समझता नहीं था।
.. इसलिये अपने परिणाम हैं, वह तीव्र कलुषितता अथवा कैसे तीव्र हों, वह अपने हाथकी बात है। उसमें शान्ति रखनी, आत्माको पहिचानना, वह सब अपने हाथकी बात है। बाह्य संयोग कैसे हो, वह (अपने हाथकी बात नहीं है)। किसीको अच्छा लगे, किसीको बूरा लगे, स्वयं कुछ भी करे तो भी दूसरेको खराब ही लगे। ऐसा कोई उदय हो तो वह सब उदयकी बात है। शान्ति रखनी अपने हाथकी बात है। इसलिये आत्माको पहिचानना और शान्ति रखनी। बाह्य संयोग (अपने) हाथकी बात नहीं है।
मुमुक्षुः- सहजतासे प्राप्त कर लिया। तो आत्म-स्वरूप प्राप्त करना ऐसा सहज है?
समाधानः- पुरुषार्थ करे तो सहज है और पुरुषार्थ न करे तो कठिन है। अनन्त काल गया, परन्तु यदि स्वयं पुरुषार्थ नहीं करता है तो कठिन हो जाता है और पुरुषार्थ करे तो सहज होता है। उसमें पूर्वके संस्कार किसीको निमित्त बनते हैं और कोई करता है तो प्रथम बार होता है।
... हाँ, अपने पास है। अनन्त शक्ति (है)। निगोदमेंसे निकलकर अंतर्मुहूर्तमें जो प्रगट करते हैं, वह शक्ति कहाँ-से (आयी)? इसलिये उतना पुरुषार्थ चैतन्यमें है। अनन्त कालसे निगोदमें थे और फिर ... हुए हैं, उसके बाद राजाके कुंवर हुए हैं, और फिर एकदम मुनि बन गये। वह शक्ति कहाँसे (आयी)? अपने चैतन्यमें है। पूर्वमें कहीं सुनने नहीं गये थे। सर्व प्रथम भगवानके घर राजकुमार होकर दीक्षा लेते हैं। भगवानकी वाणी सुनते हैं। एकदम पुरुषार्थ अंतर्मुहूर्तमें जागृत हो। जीवमें स्वयंमें अनन्त शक्ति है। राजकुमार कितने... एकदम दीक्षा लेकर चल पडते हैं।
मुमुक्षुः- वह इस शक्तिकी ही बात है न? समाधानः- हाँ, अनन्त शक्ति। जैसे भगवान हैं, वैसी अनन्त शक्ति तेरेमें है, ऐसा गुरुदेव कहते थे।