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मुमुक्षुः- माताजी! वह पुरुषार्थ करना कैसे?
समाधानः- स्वयं लगन लगानी, बाहरमें कहीं रुचि न लगे, आत्माका स्वरूप कैसे प्राप्त हो? ऐसी रुचि यदि जागृत हो तो फिर उसका चित्त उस ओर मुडे। शास्त्र स्वाध्याय, तत्त्व विचार, गुरुकी वाणी सुननी। गुरु विराजते थे तब उनकी वाणी मिलती थी। गुरुने जो कहा उस प्रकारके शास्त्र पढे, विचार करे, उसकी लगन लगाये। देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, गुरुने क्या कहा है, आत्माका स्वरूप कैसे प्राप्त हो, उसके विचार करे। उस प्रकारका वांचन करे, उस प्रकारकी महिमा करे। बाहरकी रुचि कम करे।
.. जन्म-मरण, जन्म-मरण (चलते रहता है)। राग हो उसे ऐसा लगे, बाकी जन्म- मरण संसारका स्वरूप ही है। बडे चक्रवर्ती चले जाते हैं, दूसरोंका क्या? लाख पूर्वका आयुष्य हो तो भी आयुष्य पूरा हो जाता है। सागरोपमका आयुष्य पूरा हो जाता है। तो इस पंचमकालमें तो आयुष्य कितना है? जन्म-मरण देखकर वैराग्य करने जैसा है। आत्माका स्वरूप समझे। किसीके सम्बन्ध एकसमान निश्चित होते ही नहीं। कोई कहाँ-से आता है, कोई कहाँ-से आता है। ... फिर उसके आयुष्यका जितना मेल हो उतना रहे, फिर चले जाते हैं।
... आत्माकी रुचि की, वैसा सब किया ऐसा मानकर शान्ति रखनी। देव-गुरु- शास्त्र पर... शरणरूप आत्मा ही है। देव-गुरु-शास्त्र शुभभावमें और अंतरमें आत्मा ज्ञायक, वही करने जैसा है। पुरुषार्थ स्वयंसे करना है। जिसे लगन लगी हो वह स्वयं ही (करता है)। करना वही है, जीवनकी सार्थकता (उसीमें है)।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- स्व-परकी एकत्वबुद्धि है। एकत्वबुद्धि तोडकर अपनमेमें (एकत्वबुद्धि करे)। परके साथ एकत्वबुद्धि है, वह स्वकी ओर एकत्वबुद्धि करके परसे विभक्त होना वह करनेका है। ... परन्तु दृष्टि तो अंतरमें ... द्रव्य पर दृष्टि करनी है। उसका ज्ञान, उसमें लीनता वह करना है। पुरुषार्थ तो स्वयंको ही करना पडता है। उसकी लगन लगानी, महिमा करनी। चैतन्यके मूलमें जाकर उसे ग्रहण करना, वह करना है। ... उसकी ओर उसकी लगन लगनी चाहिये तो होता है।
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मुमुक्षुः- लगन लगायी है, परन्तु जैसे ही भेदज्ञान करते हैं, वैसे..
समाधानः- बार-बार उस ओर पुरुषार्थ, ज्ञान, उस ओर दृष्टि, उस ओर परिणति बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। ... स्वयं किये बिना रहता ही नहीं। बाहरकी ... स्वयं ही करता है।
मुमुक्षुः- ... जैसा पुरुषार्थ उठना चाहिये उस प्रकारका नहीं उठता है।
समाधानः- स्वयंकी क्षति है।
समाधानः- ... सिद्ध भगवान जैसा स्वरूप प्रगट करना हो तो आत्मा सिद्ध भगवान जैसा है। तो वह सब विकल्पसे छूटकर आत्माको पहचाने तो भवका अभाव हो। शुभभाव आये उससे पुण्यबन्ध हो तो देवलोक मिले। ... अंतरमें आत्माकी स्वानुभूति हो वह मोक्षका उपाय है। अंतरमें दृष्टि करके अंतरमेंसे मुक्तिका मार्ग (प्रगट होता है)।
पहले आंशिक मोक्षका स्वरूप आंशिकरूपसे स्वानुभवमें आता है। फिर विशेष- विशेष अन्दर लीनता करते-करते मुनिदशा आयेे, उसमें केवलज्ञान होता है। मोक्षका उपाय वही है। आत्माको पहिचाने। मैं चैतन्य ज्ञायक आत्मा जाननेवाला अन्दर तत्त्व है उसे पहिचाने। उसमें आनन्द, उसमें सुख है। उसके लिये तत्त्वविचार, वांचन, स्वाध्याय आदि करे। उसे सर्व प्रकारकी आसक्ति टूट जाती है, बाहरकी रुचि छूट जाय, छूट जाती है। उसे सबका त्याग हो जाता है ऐसा नहीं, परन्तु उसे अंतरमेंसे सब रस छूट जाता है और आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करे तो अंतरमें मोक्ष है। मोक्ष बाहरसे नहीं होता है। शुभभावनाओंसे पुण्यबन्ध होता है।
मुमुक्षुः- मेरा यह कहना है कि जो मन्दिर, मूर्ति और ये जो सब करते हैं, उसमें अपनी भावना तो शुभ होती है,...
समाधानः- हाँ, वह तो शुभ (भाव है)। पुण्य बन्धता है।
मुमुक्षुः- पुण्य बन्धता है और जो मन्दिर हम बनवाते हैं, उसके एक अन्दर आज सुबह मैं बैठा था, वहाँ एक भाई बैठे थे, इसमें पैसे देते हैं, ... उन लोगोंको पुण्यानुबन्ध पाप आता है? वहाँ जानके बाद ...
समाधानः- पुण्य ही बन्धता है। दूसरे लोग चाहे जो करते हों, परन्तु जो मन्दिर बँधवाता है, उसकी तो शुभभावना होती है। उसे श्रद्धा तो वही रखनी है कि ये तो शुभभाव है। मोक्ष तो अन्दर स्वानुभूतिसे होता है। उसे श्रद्धा तो यही रखनी है। परन्तु बीचमें शुभभावनाएँ आये बिना नहीं रहती। इसलिये मन्दिर बँधवाये उसमें कोई कुछ भाव करे, कोई कुछ भाव करे, वह तो उसकी स्वतंत्रता पर है। उसके साथ कुछ नहीं है। स्वयं अपने शुभभाव करता है। दूसरे लोग क्या करते हैं, वह दूसरे पर निर्भर करता है। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र हैं। दूसरे लोग क्या करते हों, कोई शुभभाव
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करे, कोई क्या करे, क्यों करे, वह उस पर निर्भर करता है।
मुमुक्षुः- जो व्यंतर देव गिनते हैं... वे लोग कैसे जाते हैं?
समाधानः- सच्चे देव तो अरिहंत, गुरु और शास्त्र। अरिहंतके सिवा कोई देवको माने नहीं। सच्चे सुदेव, सुगुरु और सुशास्त्रके सिवाय किसीको (माने नहीं)। कुगुरु, कुदेवको माननेवाले तो... वह तो तारनेवाले नहीं है। .. हर जगह घुमते रहे ऐसे देव ही थोडे ही होते हैैं। अपने बाप-दादाको ऐसे मान लेना कि वह सब देव होते हैं और उसको इच्छा रहा करती है,... सब बाप-दादा ऐसे ही होते होंगे? कोई अच्छी गति, ऊँची गतिमें नहीं जाते होंगे, ऐसा क्यों मान लेना? सब वैसे ही देव होते हैं। उसका भव वैसा ही होता है ऐसा कैसे मान लेना? .. वह क्यों नहीं हो? और ऐसे सुरधन ही होते होंगे सब? देवलोकके देवसे किसीका उद्धार नहीं होता। वह तो भगवान अरिहंतदेवसे उद्धार होता है, भगवानकी वाणीसे उद्धार होता है। देवलोकके देवसे किसीका उद्धार नहीं होता। देवलोकके देव तो भगवानकी सेवा, पूजा करने आते हैं। वह देव किसीका उद्धार नहीं करते, उस देवसे किसीका उद्धार नहीं होता। वह किसीको तारते नहीं। ... जूठी भ्रमणा और मान्यताएँ हैं।
मुमुक्षुः- जो .. वह कौन है?
समाधानः- वह सब भ्रमणा है।
मुमुक्षुः- .. आते हैं, वह कोई भी आत्मा होगा।
मुमुक्षुः- पहले देवलोकमें यह और दूसरे देवलोकमें इस प्रकारसे वहाँ आयुष्य है। वहाँ इस प्रकारसे...
समाधानः- भले ही हो, जो भी हो। अपने तो आत्माका करना है न। देवलोकमें तो देवकी ऋद्धि है तो उसमें सब होता है। देवको सब होता है। देवोंकी ऋद्धि ज्यादा होती है। देवोंको खाना-पीना नहीं है। उनको तो ऊच-नीच जातिके देव होते हैं।
मुमुक्षुः- तो बडे देवोंकी छोटे देव सेवा करे।
समाधानः- हाँ, ऐसा होता है। छोटे देव, बडे देव ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- ..वर्तमानमें पंचम काल चलता है।
समाधानः- मोक्ष भले न हो, परन्तु आत्माको पहिचाना जा सकता है।
मुमुक्षुः- आत्माको पहिचाना ऐसा कब ख्यालमें आये?
समाधानः- वह तो स्वयं अपना जान सकता है। स्वयं अपना जान सकता है।
मुमुक्षुः- पंचमकालमें जब तक केवलज्ञान न होता, तब तक मोक्ष नहीं होता। तो पंचमकालमें केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि पंचमकाल चलता है। इसलिये पंचमकालमें कभी केवलज्ञान नहीं होता।
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समाधानः- सम्यग्दर्शन होता है, मोक्षका प्रारंभ होता है, मोक्षका अंश प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन होता है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन अर्थात क्या?
समाधानः- आत्माकी स्वानुभूति। आत्माको अंतरमें पहिचानकर, आत्माको अंतरसे निराला प्रगट कर स्वयं आत्माका अनुभव कर सकता है। इस शरीरके अन्दर आत्मा है। आत्मा विकल्पसे भिन्न, विकल्पकी जालसे भिन्न आत्माका अनुभव कर सकता है। वह सम्यग्दर्शन है। सिद्ध भगवान है, उसका अंश जिसे प्रगट होता है वह सम्यग्दर्शन, वह स्वानुभूति।
मुमुक्षुः- लोग जो आज तीर्थयात्रा करते हैं..
समाधानः- पुण्य बन्धता है, दूसरा कुछ नहीं है। पुण्य बन्धता है।
मुमुक्षुः- उसके बजाय वह घर बैठकर अपने आत्माका कल्याण करे तो ज्यादा अच्छा मान सकते हैं?
समाधानः- आत्माका करे तो। नहीं तो जिसको जो ठीक लगे वह करे। आत्माकी जिज्ञासा करके आत्माको पहिचाने तो ज्यादा अच्छा है।
मुमुक्षुः- आत्माको पहिचाननेके लिये शुभकर्मकी जरूरत है?
समाधानः- आत्माको पहिचाननेका कार्य करे उसमें शुभकर्म साथमें आ ही जाते हैं। मनुष्यपना प्राप्त किया, ... आत्माकी जिज्ञासा जागे उसमें शुभभावना साथमें आ ही जाती है। .. पहले यह विचारने जैसा है। जिसमें बहुभाग आत्माकी बात आये वह आगम है। आगम किसे कहना वह करने जैसा है। ये सब आगम हैं उसमें आत्माकी बात कितनी आती है, यह विचारने जैसा है। जो शास्त्रमें, जिसमें आत्माकी बातें आती हैं, आत्माका मोक्ष कैसे हो, द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रुव ऐसी जो सूक्ष्म-सूक्ष्म आत्माकी स्वानुभूतिकी बात आये वह आगम है। यह सब आगम है या नहीं, इसका विचार करने जैसा है।
मुमुक्षुः- मैं वही पूछता हूँ, आगम हैं और आप विचार करने जैसा है ऐसा आप कहते हो, इसलिये मैं कहता हूँ...
समाधानः- हाँ, विचारने जैसा है। आगम किसे कहना वह विचारने जैसा है।
मुमुक्षुः- जिसमें आत्माकी बातें आती हो...
समाधानः- आगम किसे कहते हैं, यह विचारने जैसा है, विचार करके नक्की करने जैसा है।
समाधानः- भगवानका समवसरण होता है, ऐसे शक्तिशाली जीव ही होते हैं। बीस हजार सिढीयाँ चढकर भगवानके समवसरणमें वाणी सुनने ऊपर जाते हैं। देवोंमें
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और मनुष्योंमें इतनी शक्ति होती है। वर्तमान जैसे शरीर उसके नहीं होते। उसके शरीरमें चढ जाय ऐसी शक्ति (होती है)। अभी आप कोई चींटीको कहो तो वह कैसे चल सके, उसके जैसी बात है। वर्तमानकालके मनुष्योंके शरीर और चौथे कालके मनुष्योंके शरीरमें फर्क होता है। वह पुण्यशाली जीव होते हैं। उनका आयुष्य बडा होता है, उनका शरीर अलग होता है।
मुमुक्षुः- महावीर भगवानके समयकी बात है न यह तो?
समाधानः- महावीर भगवानके समयमें वह चतुर्थ काल था।
मुमुक्षुः- काल चतुर्थ परन्तु सबका आयुष्य..
समाधानः- भले आयुष्य नहीं था, परन्तु शरीर अलग थे। सब सुनते हैं। तिर्यंच सुनने जाते हैं, मनुष्य जाते हैं। ... यथार्थ है, भगवानकी वाणी सुनने सब जाते थे। वह यथार्थ है। भगवानकी वाणी सुननेका, सबका उस प्रकारका पुण्य था। वह पुण्य अभी खत्म हो गये हैं।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- सबमें तारतम्यतामें फर्क था। सब अल्प-अल्प था। अभी वर्तमानमें बहुत बढ गया है। अभी सम्यग्दर्शन प्राप्त करना दुर्लभ है। उस समयमें तो क्षणमात्रमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करते थे और मुनिदशा भी क्षणमात्रमें प्राप्त कर लेते थे। थोडी देरमें अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त कर लेते थे। उस प्रकारके लोग आत्माका वैसा पुरुषार्थ करते थे।
... आत्माको पहिचानना, आत्माका कल्याण करना। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माका कल्याण करना।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- अभी यथार्थ नहीं हुआ है। सचमूचमें दुःख लगे तो सुखका मार्ग खोजे बिना रहे नहीं। सच्चा दुःख अभी नहीं लगता है। खरी रुचि लगे, अंतर विचार करे, वांचन करे..। बडे-बडे चक्रवर्ती भी सब छोड देते हैं। क्योंकि उसमें उसे सुख नहीं लगा है। जिनके पास देव हाजिर होते थे, ... चक्रवर्ती और तीर्थंकरोंने भी सब छोड दिया था। तब आत्मामें कुछ विशेषता होगी इसलिये छोड दिया था। उन सबको आत्मामें विशेषता लगी। जिन्हें पुण्यका कोई पार नहीं था, बाह्य अनुकूलताका पार नहीं था, ऐसे पुण्यशाली जीव थे। चतुर्थ कालमें ऐसे राजा, ऐसे चक्रवर्ती सबने छोड दिया। इसलिये अंतर आत्मामें सुख भरा है। बाहरमें व्यर्थ प्रयत्न करना वह जूठी भ्रान्ति है। बडे तीर्थंकरों, जिनकी देव सेवा करते थे, तो भी छोडकर आत्माकी साधना (करने चल पडे)। आत्मामें ही सब भरा है। ऐसी श्रद्धा करके अन्दरसे विकल्पजाल (तोडकर)
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भेदज्ञान करके ज्ञायक आत्माको पहिचान लिया।
मुमुक्षुः- .. आत्माकी पहिचान होती नहीं है, आत्माकी बातें सुनते हैं,...
समाधानः- अन्दर पुरुषार्थकी क्षति है, रुचिकी कमी है। मार्ग पकडमें (नहीं आता है)। जो गुरु और शास्त्रमें.. जो गुरुने कहा है, उसका विचार करना। किस मार्ग पर जाया जाता है? उसका मार्ग क्या है? आत्माका क्या स्वभाव है? मैं कौन हूँ? मेरा स्वभाव क्या है? वह सब विचार करना और बाहरकी रुचि छोड देनी।
मुमुक्षुः- तो आत्माका अनुभव होता है?
समाधानः- तो होता है, हाँ, तो होता है।
मुमुक्षुः- रुचि लगनेकी आवश्यकता है।
समाधानः- अंतरसे रुचि लगनी चाहिये। रुचि लगे तो विचार आये तो उसका वांचन हो, उस ओर अंतरसे झुके तो होता है। बिना रुचिके नहीं होता। बाहरकी रुचि लगी हो तब तक (नहीं होता)। अन्दरकी रुचि लगनी चाहिये, उतनी लगन लगनी चाहिये।
... गुरुदेवने कहा उसी मार्ग पर जाने जैसा है। वही रुचि और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। आत्मा ज्ञायकको पहिचानना और देव-गुरु-शास्त्रकी जैसे महिमा हो वैसे करने जैसा है। जिनेन्द्र देवकी पूजा करनी, जिनेन्द्र देवकी महिमा, गुरुकी महिमा, शास्त्र महिमा वह सब करने जैसा है। अंतर आत्माको पहिचाननेके लिये ज्ञायक आत्मा कैसे पहिचानमें आये? ध्येय एक है। आपके माता और पिताको वह रुचि थी और वह सबको करने जैसा है। हसमुखभाई तो...
मुमुक्षुः- यहाँ तो एक-एक रजकणमें गुरुदेवके स्मरण भरे हैं।
समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। जिनेन्द्र देव, गुरु, गुरु क्या कहते हैं, गुरुने मार्ग बताया उस मार्ग पर चलने जैसा है। शास्त्रमें भी वही आता है कि आत्मा ज्ञायक है, जाननेवाला है, वह सब आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और ज्ञायक आत्माको कैसे पहिचानना। आत्मा भिन्न है, यह शरीर भिन्न है। आत्माको पहिचाननेके लिये देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा.. अन्दर आत्मा कोई अपूर्व चीज है। गुरुदेव कहते थे, उनकी वाणीमें अपूर्वता था। यह कोई अलग ही वस्तु है। स्वानुभूति कैसे प्रगट करनी? उसके लिये भेदज्ञान करना, ये विकल्प, संकल्प-विकल्प अपना स्वभाव नहीं है। उससे आत्माको भिन्न करके आत्मा कैसे पहचाना जाय? वह महिमा, वह रुचि आदि करने जैसा है। और शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा जो हो वह करने जैसा है।
मुमुक्षुः- दूसरी कोई जगह ऐसा नहीं है।
समाधानः- नहीं, सब तुच्छ है। यही एक करने जैसा है, सच्चा यह है। पहलेसे
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इनको रुचि है।
मुमुक्षुः- पिताजीको बहुत थी न।
समाधानः- पिताजीको, माताजीको सबको। चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।