Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 143.

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ट्रेक-१४३ (audio) (View topics)

समाधानः- ... दृष्टि ऐसी हो गयी है। ज्ञायककी-ज्ञाताकी धारा, जिसे सब छूट गया है, इसलिये उसे बाहर कहीं रुचता नहीं है। विभावका सब रस टूट गया है। अकेला आत्मा ही रुचता है। आत्माकी ओर परिणति हो गयी है। अकेले ज्ञायकके सिवा उसे कुछ रुचता नहीं। ज्ञायककी परिणति जैसे-जैसे प्रगट होती है, उसकी लीनता प्रगट हो वही उसको रुचता है, दूसरा कुछ नहीं रुचता। उसे अंतरकी इतनी श्रद्धा, रुचि, परिणति और लीनता अमुक प्रकारसे हुयी है और विभावका अनन्त रस टूट गया है और आत्मामें जो अनन्तता है, उस पर दृष्टि जम गयी है, उसे कहीं रुचता नहीं है।

अनन्त-अनन्त शक्ति जो आत्मामें है, वह उसे रुचती है, दूसरा कुछ रुचता नहीं है। परन्तु अभी उसे अस्थिरता है, पूर्ण केवलज्ञान नहीं है। पूर्ण लीनता नहीं हुयी है। श्रद्धा अपेक्षासे उसे कहीं रुचता नहीं है। परन्तु लीनता अधूरी है इसलिये बाहर जुडना पडता है। जुडता है, लेकिन उसे ज्ञाताकी धारा छूटती नहीं है। उसमें एकत्वतता नहीं होती, उससे भिन्न रहता है। अल्प अस्थिरता होती है अतः बाहर जुडना पडता है। वह बाहरके सब कायामें जुडता है, परन्तु अंतरसे उसे उदासीन धारा और ज्ञाताकी धारा ऐसे ही चलती रहती है। स्वयं भिन्न निराला रहता है।

उसे आंशिक ज्ञायककी धारा, ज्ञान और अमुक प्रकारकी परिणति, लीनता उसकी चालू ही है। उसे बाहर कहीं रुचता नहीं है। और वही करने जैसा है। क्योंकि ज्ञायक चैतन्य अदभुत है। अदभुत है वही महिमायोग्य है और वही आदरणीय है। दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। सबको वही करने जैसा है।

गुरुदेवने वह बताया है। वही अपूर्व मार्ग प्रगट करने जैसा है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो तो ही मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। और वह स्वानुभूति प्रगट होनेसे अंश- अंशमें लीनता बढती जाय, तो उसीमें उसकी पूर्णता और केवलज्ञान उसीमें प्रगट होता है। इसलिये वही करने जैसा है। इसके अलावा दूसरा कुछ आदरणीय नहीं है। आलम्बन तो एक आत्माका, दूसरा बाहरका आलम्बन वह आलम्बन नहीं है, वह तो विभावका आलम्बन है। स्वभावका आलम्बन ही सुखरूप है। वही स्वाधीनरूप है और उसीमें


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सुख है, वही करने जैसा है, दूसरा कुछ करने जैसा नहीं है।

जब तक अल्पता है, तब तक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, अमुक प्रकारसे वह बाहर जुडता है, परन्तु उदासीन भावसे जुडता है। गृहस्थाश्रमके कायामें जुडता है, परन्तु वह भिन्न-निराला रहकर जुडता है।

मुमुक्षुः- ... अनादि कालसे स्वरूपका फल नहीं आनेसे बार-बार ... लक्ष्य अन्दर नहीं रहता है।

समाधानः- अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। उतनी स्वयंको रुचि नहीं है, उतनी लगन नहीं है, इसलिये अन्दर स्वयं पुरुषार्थ करता नहीं है। किसीका कारण नहीं है, अपना ही कारण है। अपनी आलसके कारण स्वयं आत्माको खोजता नहीं है, उसके दर्शन नहीं करता है। अपनी आलस है।

गुरुदेव कहते थे, "निज नयननी आळसे रे, निरख्या न हरिने'। अपनी आलसके कारण स्वयं पहचानता नहीं है। पुरुषार्थ करना अपने हाथकी (बात है)। अनादि कालसे जो परके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है, उसे तोडकर स्वमें एकत्वता करके परसे भिन्न पडकर भेदज्ञान करे, वही करने जैसा है।

कल्याण स्वरूप सत्यार्थ वही है, जितना यह ज्ञायक-ज्ञान है वही कल्याणरूप और मंगलरूप और सत्यार्थ है। बाकी सब कल्याणरूप नहीं है, वह सब विभाव है। विभाव है सो आकुलता है। वह दुःखका कारण है। सुखका कारण हो तो आत्मा स्वयं है। वह सुखस्वरूप है, सुखका धाम है और सुख उसमेंसे ही प्रगट होता है। सुख बाहरसे कहींसे नहीं आता है। वह सुखका धाम है, वह ज्ञानका धाम है। उसमेंसे ज्ञान प्रगट होता है, उसमें सुख प्रगट होता है। सब उसीमेंसे प्रगट होता है, बाहरसे कहीं नहीं आता है। परन्तु वह अनादि कालसे बाहरमें व्यर्थ प्रयत्न करता है, वह उसकी भूल है। और स्वयंका प्रमाद है। अपने प्रमादके कारण बाहर अटक रहा है।

चैतन्यकी ओर उतनी रुचि हो, उतना वेग अपनी ओर हो और परसे विरक्ति हो। स्वभावकी ओर उसे उतनी लीनता जमे। स्वयंको अंतरसे पहिचाने, उस ओर दृष्टि करे, ज्ञान करे, लीनता करे तो वह सब अपने हाथकी बात है। "एमां ज नित्य विहार कर, नहीं विहर परद्रव्य विषे'। परद्रव्यमें विहार मत कर। "आमां सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट...' इसमें प्रीतिवंत बन, इसमें संतुष्ट हो। वही सुखरूप है। "आनाथी बन तू तृप्त, तुझने सुख अहो उत्पन्न थशे...' इससे तू तृप्त हो। उसीमें उत्तम सुख मिले ऐसा है, वही सुखका धाम है। बाहर कहीं नहीं है। वही करने जैसा है। गुरुदेवने वही बताया है।

मुमुक्षुः- ..


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समाधानः- दुःख न लगे तो उसकी भूल है। अनुकूल-प्रतिकूलता दोनों दुःखरूप है, अपना स्वभाव नहीं है। स्वभाव सुखका धाम आत्मा है। अनुकूलता तो पुण्य है। वह तो पुण्यका प्रकार है। उसमें जीव अनादि कालसे अटक जाता है। पुण्यमें और शुभभावमें उसे मीठास लगती है, उसमें अटक गया है। वह सुखका कारण नहीं है, वह तो आकुलतारूप है, विभाव है। वह शुभभावमें (अटक गया है)। बीचमें शुभभाव आये, परन्तु वह दुःख और दुःखका कारण है। उससे भिन्न आत्माको पहिचान लेना। अनुकूलता भी दुःखरूप और प्रतिकूलता दुःखरूप, सब बाह्य संयोग है। वह संयोग आत्माको सुखकर्ता नहीं है। सुखकर्ता अपना आत्मा निराला है, उसमेंसे सुख प्रगट होता है। बाहरसे कहींसे नहीं आता है। सुख, ज्ञान और अनन्त गुण उसमेंसे प्रगट होते हैं। वही करने जैसा है।

.. रुचि प्रगट करनी, उस ओर उपयोग जाय ऐसा करना। वह सब अपने हाथमें है। रुचि करनी, रुचि लगे बिना मुक्तिके मार्गमें कहाँ जा सके ऐसा है? जिसे रुचि नहीं है वह मुक्तिके मार्गमें जा नहीं सकता। जिसे परमें रुचि है, जिसे आत्मा नहीं रुचता है, वह मुक्तिके मार्ग पर जा नहीं सकता। अंतरकी रुचि प्रगट हो तो ही वह स्वयं अंतरमें जा सके ऐसा है। रुचि प्रगट करनी अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- क्यों क्या, कारणका कोई कारण नहीं होता। अकारण द्रव्य है। रुचि कैसे प्रगट करनी वह अपने हाथकी बात है। जिसे परमें सुख लगता है उसे रुचि नहीं होती। जिसे परमेंसे सुखबुद्धि ऊड जाय उसे अपनी रुचि जागृत होती है। अपनेमें सुख लगे उसे परकी रुचि ऊड जाती है। उसमें मन्दता, तीव्रता, पुरुषार्थ मन्द, तीव्र रुचि, मन्द रुचि अपने हाथकी बात है। उसमें किसीका कारण नहीं है। अकारण पारिणामिक द्रव्य वह स्वयं करे तो हो सके ऐसा है।

... यह मनुष्यभव तो मुश्किलसे मिलता है। अनन्त जन्म-मरण करते-करते यह मनुष्यभव मिला। उसमें गुरुदेवने यह मार्ग बताया है। उसकी-आत्माकी रुचि करने जैसी है। आत्मा कैसे (पहचाना जाय)? आत्मा तो शाश्वत है। वह कोई अपूर्व अदभुत वस्तु है, चैतन्यतत्त्व। यह शरीर और आत्मा दोनों भिन्न है। आत्माको पहिचाननेका प्रयत्न करना। उसकी रुचि करनी, उसकी महिमा करनी, वह करने जैसा है।

गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। बाकी संसारका तो सब ऐसे ही चलते रहता है। इस संसारमें आत्माकी कुछ रुचि हो तो अच्छी बात है। उसका वांचन, विचार अथवा देव-गुरु-शास्त्रकी ओर महिमा हो और आत्मा कैसे पहिचाना जाय? आत्माकी रुचि हो वह करने जैसा है। जन्म-मरण टालनेका उपाय गुरुदेवने मार्ग बताया। कोई


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जानता नहीं था। सब बाह्य क्रियामें पडे थे। कोई ऐसा करनेसे धर्म होगा (ऐसा मानते थे)। गुरुदेवने कहा, अंतरमें दृष्टि कर और आत्माको पहिचान तो धर्म हो सके ऐसा है। इसलिये आत्माको पहिचानने जैसा है। आत्मा शाश्वत अंतरमें विराजता है। वह करने जैसा है।

... जो उन्होंने लाभ लिया, साथमें रहे। मन्दिर जाते थे और ... यहाँका मौसम उन्हें अनुकूल है, इसलिये यहाँ रहते हैं। ... अन्दर आत्मामें जो उन्होंने संस्कार बोये वह साथमें गये। उनको तो यहाँका बहुत था। गुरुदेवका कितना लाभ लिया है। संसारका तो ऐसा है। क्षणमें आयुष्य पूरा हो जाता है। आत्मा कहीं और (चला जाता है)। आत्मा तो शाश्वत है जहाँ जाय वहाँ। यह शरीर छोडकर दूसरा शरीर धारण कर लेता है।

.. राजाओंके आयुष्य पूर्ण हो जाते हैं। आत्माका स्वरूप आत्मा शाश्वत है। आत्माका ध्यान करे, आत्माका करनेके लिये सब छोड देते थे। सम्यग्दर्शन था, परन्तु चारित्रदशा लेकर केवलज्ञान प्रगट करनेके लिये चक्रवर्ती जैसे भी सब छोडकर आत्माका करते थे। आत्माका ही करने जैसा है। संसार तो ऐसा ही है। अनन्त जन्म-मरण, ऐसे कितने अनन्त हुए हैं। अनन्तको स्वयंने छोड दिया और स्वयंको छोडकर अनन्त चले गये। ऐसा कितना हुआ है। अतः आत्मा शाश्वत है, उसकी आराधना कैसे हो (वह करने जैसा है)। ... थोडा कुछ देखे, बिजलीका चमकारा, बिजली देखकर वैराग्यको प्राप्त होते थे। पानीका बुलबुला देखकर एकदम वैराग्यको प्राप्त होते थे कि संसार तो ऐसा ही है।

मुमुक्षुः- वसंत ऋतुका .. सुख रहे हैं, खीरता तारा..

समाधानः- तारा खीरता है, ऐसा चित्रमें है। वह देख-देखकर तीर्थंकर और राजा सब वैराग्यको प्राप्त होते थे। वसंत ऋतु खीली है और एकदम ऐसा हो जाता है। थोडा प्रसंग बने तो वैराग्य आ जाता था। पहलेके जीव इस प्रकार वैराग्यको प्राप्त होते थे। फिर भगवानकी वाणी सुनकर समवसरणमें जाय, एक क्षणमें वैराग्यको प्राप्त होकर मुनि बनकर चले जाते।

.. अनन्त जन्म-मरण किये। आकाशके एक-एक प्रदेशमें, कोई खाली नहीं रखा। जगतके कितने द्रव्य अनन्त बार ग्रहे और छोडे। उतने परिवर्तन द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके किये, उतना किया। वैसेमें इस पंचमकालमें गुरुदेव मिले और ऐसी वाणी मिली और ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया, स्वानुभूति प्रगट करनेका, वह महाभाग्यकी बात है। गुरुदेवने मार्ग बताया, उसकी रुचि हो और उसके कुछ संस्कार बोये, उसकी आराधन हो तो वह जीवनमें करने जैसा है। उन्होंने वह सब संस्कार डाले हैं, सबको वह करने जैसा है।


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.. आत्मा शाश्वत है। देह तो छूटकर ग्रहण होता है। तो ऐसा कुछ कर लेना कि आत्मा शाश्वत है, फिर भवका अभाव हो, भव ही प्राप्त न हो, ऐसा आत्मा शाश्वत है। मुक्तिका पंथ प्रगट हो और मुक्ति हो कि शरीर ही प्राप्त न हो। ऐसे भाव कर लेने जैसे हैं। गुरुदेवने मार्ग बताया है, भवका अभाव होनेका।

.. भूतकालमें कितनी माताका दूध पिया, कितनी माताओंको रुलाया, ऐसे अनन्त- अनन्त जन्म-मरण हुए हैं। उसमें इस पंचम कालमें गुरुदेव मिले वह महाभाग्यकी बात है। गुरुदेवने यह मार्ग बताया और जैसे-तैसे भी उस मार्गकी आराधना करनी और स्वानुभूतिका पंथ अन्दरसे ग्रहण करने जैसा है। मुक्तिका अंश प्रगट हो, आत्माको ग्रहण करना। .. लेकिन उसे मुक्तिकी पर्याय कैसे प्रगट हो, वह करने जैसा है। वहाँ उनका देह छूटनेवाला होगा तो वहाँ गये।

मुमुक्षुः- एक महिना पूरा हुआ।

समाधानः- आयुष्य पूरा हो तब ऐसे हो जाता है। आत्मा उसकी गति करके चला जाता है। उतना राग होता है इसलिये दुःख होता है, लेकिन पलटे बिना छूटकारा नहीं है। संसार तो ऐसा ही है। याद आये तो ... उसका कोई उपाय नहीं है। जहाँ आयुष्य पूरा हो, वहाँ किसीका उपाय नहीं चलता है। शान्ति रखनी वह एक ही उपाय है। जितना सम्बन्ध हो और जिस जातका राग हो वह राग अन्दरसे आये, परन्तु परिणामको बदले बिना (छूटकारा नहीं है)। शान्ति रखनी वही उसका उपाय है। शान्ति ही समाधान है। गुरुदेवने कहा है। क्योंकि प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। आयुष्य पूरा होता है, इसलिये जन्म-मरण तो होते ही रहते हैं। उसे कोई रोक नहीं सकता। कोई इन्द्र या चक्रवर्तीओंके आयुष्य पूर्ण होते हैं, कोई रोक नहीं सकता। सागरोपमका देवोंका आयुष्य (होता है)। उसकी माला मुरझाती है, अब आयुष्य पूरा होनेवाला है। उसे दूसरी गतिमें जाना होता है, कोई ऐसे देव हो तो आक्रंद करते हैं, अच्छे देव होते हैं तो वह तो समझता है संसारका स्वरूप ही ऐसा है। आयुष्य तो पूरा होता है। गुरुदेवने भवका अभाव करनेका जो मार्ग बताया है, उसी मार्गकी आराधना करने जैसी है कि भव ही न हो, ऐसा मार्ग बताया। जन्म-मरण टलकर आत्मा शाश्वत है, वह शाश्वत स्वरूपको ग्रहण करना।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।


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चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!