Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 144.

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ट्रेक-१४४ (audio) (View topics)

समाधानः- ... स्वानुभूतिका स्वरूप बताया। सबको कोई अलग ही दृष्टि दे दी कि, इस मार्ग पर जाओ। उस मार्ग पर जाने जैसा है।

मुमुक्षुः- सोनगढ-सोनगढ करते थे, मुझे सोनगढ जाना है।

समाधानः- ... चैतन्य कैसे पहिचाना जाय, उसे पहचानकर भवका अभाव (हो), जन्म-मरण टलकर आत्मा स्वयं अपना सुख अंतरसे प्राप्त करे, सुखका धाम आत्मा है, वह कैसे हो, बारंबार उसका अभ्यास और रटन करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माका अन्दर कैसे गहराईसे अभ्यास हो, अंतर संस्कार कैसे पडे, वह करने जैसा है। बाकी तो कल बहुत कहा है।

ऐसे प्रसंग बहुत कम बनते थे और थोडे बने तो वैराग्यको प्राप्त हो जाते। थोडे फेरफार देखकर वैराग्य होता था। थोडा (सफेद) बाल देखकर वैराग्य आता था कि बस! शरीर ऐसा है? ऐसे वैराग्य आता था। शरीरमें रोग देखकर वैराग्य आता था। उनको कहा कि तेरे शरीरमें रोगकी शुरूआत हुई है तो वैराग्य आ जाता।

... पहले तो दृष्टि पलटनी। सम्यग्दर्शन ... उसमें तो दृष्टि बदल जाती थी इसलिये एकदम सब छोड देते थे। कितनोंको तो सम्यग्दर्शन, चारित्र सब साथमें हो जाता था। भगवानके समवसरणमें बैठे हो, वहाँ वाणी सुने, वहाँ सम्यकत्व, वहाँ मुनिपद। चौथे कालमें सब ऐसा होता था। अंतर्मुहूर्तमें ... छोटे-छोटे बालक, गजसुकुमाल कैसे थे! घडी-घडीमें पलट जाय। चौथे कालमें भगवान साक्षात विराजते हों और वाणी छूटती हो वह बात अलग है।

.. वाणी छूटे, सबके हृदयका परिवर्तन हो जाय। यहाँ पंचमकालमें सब क्रियामें पडे थे। दृष्टि बदलनी मुश्किल थी। धर्म ही दूसरेमें मान लिया था। धर्मके मार्ग पर चढना मुश्किल (हो गया था)। सच्चा धर्म मिला वही महाभाग्यकी बात है। दृष्टि गुरुदेवने सबको दी कि इस रास्ते पर जाओ। रास्ता बताया। रास्ते पर जाना महादुर्लभ था। उसमें तो भगवानकी वाणी छूटती इसलिये इसी रास्ते पर सबको जाना था। इसलिये मुनि बन जाते। कितनोंको तो सम्यग्दर्शन, चारित्र सब एकसाथ हो जाता। एकदम परिवर्तन हो जाता था।


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मुमुक्षुः- वह वैराग्य कैसा होगा!

समाधानः- एकदम वैराग्य आ जाता था। तो भी इस पंचमकालके हिसाबसे, गुरुदेवके प्रतापसे तो भी काल अच्छा है। दूसरी जगह देखो तो लोग कहाँ पडे होते हैं। यहाँ आकर वह प्रश्न पूछते थे, कहाँ सब पडे हैं। सुरधन और यह-वह। कहाँ- कहाँ पडे हैं। गुरुदेवने कहाँ आत्माके मार्ग पर लाकर रख दिया है। करना यह है। ज्ञायक चैतन्य कैसे पहिचानमें आये? ज्ञायक कैसे पहचाना जाय? मार्ग वह है।

मुमुक्षुः- उसमें तो ऐसा लगे, ओहो! मैंने बहुत किया, ऐसा किया, ऐसा लगे।

समाधानः- करना बाकी है। अन्दर चैतन्यको प्रगट करना, भेदज्ञान प्रगट करना, स्वानुभूति प्रगट करनी ऐसा तो रहे न। पुण्य हो, उसमें दूसरा कुछ दिखाई दे तो एकदम वैराग्य आ जाता। यहाँ तो पंचमकालके अन्दर तो अनेक जातके प्रकार बनते रहते हैं। उसमेंसे जीवको वापस मुडना... गुरुदेवने यह मार्ग बताया। भगवानके समवसरणमें कोई मुनि बन जाय, अन्दर आत्मामें शक्ति (प्रगट हो जाय), अन्दरमें ज्ञान प्रगट हो जाय, किसीको कुछ प्रगट हो जाय, अनेक प्रकार (बनते हैं)। केवलज्ञान किसीको प्रगट हो जाय, कोई मुनि बन जाय।

मुमुक्षुः- अनादि कालसे उसको अपने स्वभावकी तरफ ध्यान ... और स्वभावमें जाता है तो वहाँ ... और पहली बात तो स्वभावकी जानकारी नहीं है और जानकारी मिली तो वापिस उसमें स्थित होना बहुत ... होता है। तो अनादि कालसे विषयोंकी तरफ जो मुड रहा है तो इसके पीछे भी क्या स्थिति बनी है?

समाधानः- अनादि कालसे ज्ञायक स्वभाव... आत्माका तो ज्ञायक स्वभाव-जानना है। अनन्त गुण उसमें है, अनन्त शक्ति है। परन्तु विभावमें रुचि लगी है, इसलिये नहीं जा सकता। पुरुषार्थकी मन्दता है, रुचि नहीं है, परपदार्थमें रुचि करता है, परकी महिमा करता है इसलिये वहाँ टिक जाता है। परन्तु जो अपनी रुचि लगे, अपनी महिमा लगे तो अपनेमें पुरुषार्थ करे तो हो सकता है। वह ज्ञायक है-जाननेवाला है। मैं ज्ञायक जाननेवाला महिमावंत कोई अदभुत पदार्थ है। परपदार्थ तो कुछ जानता नहीं है। जाननेवाला कोई अलग है। उसमें संकल्प-विकल्पकी जाल भी उसका स्वभाव नहीं है। ये तो शरीर है, संकल्प-विकल्पकी जाल वह आत्माका स्वभाव नहीं है। आत्मा तो जैसे सिद्ध भगवान हैं, वैसा आत्मा है। प्रत्येक द्रव्य अनादि अनन्त शुद्धात्मा है। परन्तु विभावकी ओर दृष्टि जाती है, पुरुषार्थ मन्द है इसलिये वहाँ रुक जाता है। परन्तु यदि अपने स्वभावमें दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो हो सकता है, परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह बाहरमें रुक जाता है।

पुरुषार्थ करे, आत्माको पहचाने, भीतरमेंसे पीछाने। जैसा स्फटिक निर्मल है, वैसा


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ही निर्मल है। उसमें जो लाल-पीला प्रतिबिम्ब उठता है वह स्फटिकका स्वभाव नहीं है। इसलिये आत्मा निर्मल है, उसमें विभावकी पर्याय आत्माका स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। परसे एकत्वबुद्धि तोडकर स्वमें एकत्वबुद्धि करे। आत्मामें एकत्वबुद्धि करे, परसे विभक्त भेदज्ञान करे। ऐसे यदि पुरुषार्थ करे तो हो सकता है।

अनन्त कालमें बहुत आत्मा ऐसा भेदज्ञान करके, स्वमें एकत्वबुद्धि करके और स्वानुभूति प्रगट करके अनन्त जीवने आत्माके स्वरूपको प्रगट किया है और अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं। इसलिये पुरुषार्थ हो सकता है, परन्तु अपनी कमजोरीके कारण वह अनादि कालसे रुक जाता है। बारंबार-बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। बाहर दौडता है तो भी बारंबार उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। सुखका धाम है, ज्ञानका धाम आत्मा है। उसको बारंबार...

सम्यग्दृष्टि गृहस्थाश्रममें रहता है तो भी उसको न्यारा-न्यारा रहता है। उसने आत्माको पहचाना है, वह न्यारा रहता है। आत्माका ध्यान करके आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन होता है। ऐसे गृहस्थाश्रममें भी हो सकता है। फिर विशेष पुरुषार्थ करे तो विशेष विरक्ति आये और आत्माका निराला विशेष पुरुषार्थ करके करे तो मुनि हो जाता है और बारंबार क्षण-क्षणमें आत्माकी स्वानुभूतिमें लीन होता है और केवलज्ञान प्रगट करता है। पुरुषार्थसे हो सकता है। रुचि अपनी बाहरमें लगी है उसको तोडकर आत्माके स्वभावको पीछाने, यथार्थ ज्ञान करे तो हो सकता है।

यथार्थ ज्ञान, यथार्थ ध्यान। सच्चे ज्ञान बिना सच्चा ध्यान नहीं हो सकता है। पहले सच्चा ज्ञान करे। मैं आत्मा हूँ, मेरा स्वभाव कोई जुदा है, मैं ज्ञायक स्वभावी हूँ। भीतरमेंसे पीछन करके। कोई कल्पना, धोख ले ऐसा नहीं, परन्तु स्वभावको पहचानकरके उसका भिन्न भेदज्ञान करे।

मुमुक्षुः- शब्दोचारणसे कुछ नहीं होता। अन्दरकी तरफ प्रवेश करे तो अंतरकी अनुभूतिका आनन्दका अनुभव करे तो कुछ पुरुषार्थकी तरफ...

समाधानः- हाँ, भीतरमेंसे अंतर दृष्टि करके स्वानुभूति प्रगट करे तो हो सकता है। ऐसे धोखनेसे नहीं होता है। जब तक नहीं होवे तब तक तत्त्व विचार, शास्त्र स्वाध्याय ऐसा होता है। परन्तु ऊपर-ऊपरसे नहीं होता है। भीतरमें अंतर दृष्टि करे, अंतरमें स्वानुभूति करे तो हो सकता है। यह एक उपाय है-स्वानुभूति प्रगट करना। ऐसे बाहर क्रिया करता है, शुभभाव करता है तो पुण्यबन्ध होता है, तो देवलोक होता है, परन्तु भवका अभाव तो एक शुद्धात्मा निर्विकल्प तत्त्व है उसको पहचाननेसे भवका अभाव होता है और चैतन्यका स्वानुभव होता है। शुभभाव बीचमें आता है, परन्तु वह पुण्यबन्धका (कारण है)।


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मुमुक्षुः- शुभभाव पुण्यबन्धका ही कारण है।

समाधानः- पुण्यबन्धका ही कारण है।

मुमुक्षुः- शुद्ध भाव अथवा अनुभूति जो है वह..

समाधानः- वह मुक्तिका कारण है। अभ्यास तो विभावका हो गया है। ऐसा स्वभावका अभ्यास करे, बारंबार करे तो हो सकता है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- छाछमेंसे मक्खन निकलता है न? ऐसे मंथन करनेसे मक्खन करनेसे मक्खन ऊपर आ जाता है। ऐसे बारंबार अभ्यास करना। चैतन्य तो निराला है। परन्तु निराला प्रगट करना वह बारंबार करनेसे होता है। ऐसे अंतर्मुहूर्तमें तो चौथे कालमें किसीको होता है, परन्तु वैसे तो पुरुषार्थ करनेसे बारंबार अभ्यास करनेसे होता है।

... कितने साल हो गये। आता है न? "अशुचिपणुं विपरीतता ए आस्रवोना जाणीने, वळी जाणीने दुःखकारणो एनाथी जीव पाछो वळे।' दुःख और दुःखका फल, दुःखका कारण है। अशुचिपना, विपरीत स्वभाव सब आस्रव है, दुःखस्वरूप है, दुःखका कारण है, दुःखका फल है। उससे वापस मुडे। आत्मा सुखस्वरूप है। सुखका कारण है, सुखका फल है, सब उसीमें है।

स्वयंको अपना स्वभाव अनुकूल है, पवित्रस्वरूप है। ज्ञानस्वरूप है वह अपनेआपको विपरीत नहीं है, परन्तु स्वयं अपनेको सानुकूल स्वभाव है। पवित्रका धाम है, सुखका धाम है, सुखका कारण है, सुखका फल उसमेंसे प्रगट होता है। उससे जीव वापस मुडे, भेदज्ञान करके वापस मुडे। एक द्रव्यकी दो क्रिया नहीं होती, एक द्रव्यको दो कर्ता नहीं होते, तो भी जीव अनादि कालसे मैं परद्रव्यको करता हूँ और परद्रव्य मेरी क्रिया है, ऐसा ही मान बैठा है। स्वयं अपने स्वभावका कर्ता और स्वभावकी परिणतिरूप क्रिया वह अपनी क्रिया है। विभावकी क्रिया वह तो अज्ञान आश्रित है, परन्तु परद्रव्य जडकी क्रिया मैं करता हूँ, ऐसा मानता हूँ, वह उसका भ्रम है। कर कुछ नहीं सकता है, मात्र अज्ञान करता है।

कैसा उसका स्वभाव, कैसा सुखका धाम तो भी अनन्त काल ऐसे ही बाह्य दृष्टिमें गंवाया है। स्वभाव दृष्टि करे तो सादि अनन्त काल (सुखमें रहे)। अनन्त काल उसका पूरा होता है और सादि अनन्त सुखका काल (चालू होता है)। सुखका धाम अनन्त काल उसका नाश ही नहीं होता, परन्तु स्वयं वापस मुडे तो उसकी शुरूआत होती है। वापस मुडना उसे दुःष्कर हो जाता है।

गुरुदेव मिले और सबको एक जातकी दृष्टि दी। अंतर दृष्टिकी कोई अलग बात है, परन्तु यह दिशा बतायी है कि इस दिशामें जाओ। अंतर दृष्टि प्रगट करनी वह


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अपने हाथकी बात है। दिशा बतायी कि इस मार्ग पर जाओ। जैसे हाथ पकडकर अंगूली पकडकर दिशा बताये कि इस दिशामें जाओ। सबको दिशा बतायी।

सुखधाम अनन्त सुसंत चही, दिन रात्र रहे तदध्यान मही। सुखका जो धाम है, उसे सुसन्त इच्छते हैं। अनन्त सुखका धाम। दिन-रात उसके ध्यानमें रहते हैं। प्रशान्ति अनन्त सुधामय जे। जो प्रशान्ति सुधामय अमृतसे भरी जो सुधामय शान्ति। प्रणमुं पद ते वरते जयते। वह पद प्रणमन करुं, उस पदको नमन करे। वह प्रधानरूप है, ध्येयरूप है। प्रशान्ति अनन्त सुधामय जे। सुधामय प्रशान्ति बरस रही है। अमृतसे भरी हुयी शान्ति सुधामय।

पहले तू उसमें दृष्टि कर और उसमेंसे भेदभाव, विभावभाव आदि कुछ तेरेमें नहीं है। वह आता है न? वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श ... कुछ नहीं है। गुणस्थान तेरी साधक दशामें आते हैं, परन्तु एक बार दृष्टिसे, पूर्ण दृष्टिसे देख। पूर्णतासे देख। द्रव्यको पूर्ण शुद्ध देख ले। फिर पर्याय कैसे है, उसका ज्ञान कर, उसका विवेक कर। उसका विवेक कर तो अनन्त शान्ति प्रगट होगी। अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द, सब अनन्त है। सब गुण अनन्त-अनन्त शक्तिसे भरा है। अनन्तासे भरा ऐसा सुख स्वरूप आत्मा (है)। सब गुणसे (भरा) ऐसा अदभुत आत्मा है। उसे तू देख और उसकी साधना कर, तो पर्यायमें भी अनन्त सुखका धाम तेरे वेदनमें प्रगट होगा।

मुमुक्षुः- ... समय-समयके परिणमनमें मानों कोई वस्तु ही न हो, ऐसा..

समाधानः- हाँ, ऐसा हो जाता है। समय-समयके परिणाममें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें पलटता रहे। मानों पलटता हो वह मैं हूँ, ऐसे। पलटता ही रहता है। और एक स्वरूप, एकरूप ज्ञायक हूँ, वह पकड नहीं सकता है। पूर्ण ज्ञायक है। शक्तिरूपसे तो पूर्ण ज्ञायक है।

... आबाल-गोपालको अनुभवमें आ रहा है। आबाल-गोपालको क्या अनुभवमें आ रहा है? ऐसे ही पूछा करते हैं। अनुभवमें आ रहा है वह सत्यरूपसे (अनुभवमें नहीं आता है)। वह तो उसका अस्तित्व कि मैं यह चैतन्य हूँ, ऐसा उसका ज्ञानस्वभाव उसे अनुभवमें आ रहा है। उसको विशेष शुद्धात्मा कहाँ अनुभवमें आ रहा है? उसे तू पकड सके इस तरह अनुभवमें आ रहा है। वह जड नहीं है। तेरी चैतन्यता चैतन्यरूपमें तुझे अनुभवमें आ रही है। द्रव्य-गुण-पर्याय चैतन्यरूप है। चैतन्यका अस्तित्व चैतन्यरूपसे तुझे ख्यालमें आये, ऐसा अस्तित्व तूझे अनुभवमें आ रहा है। द्रव्य अनुभवमें आता है, गुण अनुभवमें आता है, पर्याय अनुभवमें आती है, ऐसा कहते रहते हैं।

ज्ञान स्वभावका अस्तित्व, द्रव्यका अस्तित्व कहो, गुणका कहो, पर्यायका कहो वह तुझे अनुभवमेंं आ रहा है। अनुभवमें आ रहा है अर्थात वह तुझे शुद्धात्मा रूप,


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शुद्ध परिणतिरूप अनुभवमें आ रहा है, ऐसे नहीं, परन्तु तुझे अनुभवमें आ रहा है, ऐसा कहते हैं। जड नहीं है, चैतन्यता चेतनरूप तुझे अनुभवमें आ रही है। यथार्थताकी यहाँ कोई बात नहीं की है। आबाल-गोपालको अनुभवमें आ रहा है। जड नहीं है, तू स्वयं चैतन्य है, ऐसे तुझे चेतन चैतन्यरूप ख्यालमें आ रहा है। पुरुषार्थ होता नहीं इसलिये ऐसा कहते रहे।

मुमुक्षुः- सच्ची रीत पकडमें नहीं आती इसलिये.. समाधानः- .. अनुभवमें आ रहा हो, तो वैसे अनुभवमें नहीं आ रहा है। तेरा स्वभाव ग्रहण हो उस तरह अनुभवमें आ रहा है। यथार्थरूप अनुभव, मुक्तिका अंश प्रगट हुआ हो उस तरह अनुभवमें नहीं आ रहा है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!