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समाधानः- गुरुदेव तो महान एक तीर्थंकर जैसा काम किया। वह तो तीर्थंकरका द्रव्य था। गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। जीव कहाँ थे और कहाँ रख दिये हैं। कोई क्रियामें और शुभभावमें धर्म मानते थे। उसके बजाय अंतर दृष्टि करनेका गुरुदेवने सीखाया है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञानका विषय कहीं सुनने नहीं मिलता था। वह अपने समक्ष लाये।
समाधानः- समक्ष लाये, कितना सरल स्पष्ट कर दिया है। जा सकते हैं, देवमें तो जानेकी शक्ति होती है। देव तो भगवानके समवसरणमें जाते हैं। .. जाते हैं, मन्दिरोंमें जाते हैं, देव सब जगह जाते हैं।
मुमुक्षुः- गुरुदेवका विरह हमें सताता है। यहाँ आते हैं, उनकी गुँज सुनायी देती है, फोटोके समक्ष जाते हैं तो लगता है कि सिंहनाद गुँजता था।
समाधानः- गुरुदेवका विरह तो सबको लगता है, परन्तु कुुदरतके आगे कहाँ (चलती है)? ऐसा द्रव्य जगतमें शाश्वत रहे, शाश्वत बिराजे ऐसी सबको भावना हो परन्तु कुदरतके आगे कोई उपाय नहीं है। सबको गुरुदेवका विरह तो लगाता है। गुरुदेव तो गुरुदेव थे।
मुमुक्षुः- हाँ जी, मार्ग तो वे ही दर्शा रहे हैं।
समाधानः- मार्ग तो गुरुदेव दर्शा रहे हैं। मुख्य तो गुरुदेव ही सब मार्ग दर्शा रहे हैं। चारों ओर प्रचार (हुआ है)।
मुमुक्षुः- अध्यात्मका प्रवाह चारों ओर पहुँचा है। गुरुदेवका और आपका महान उपकार है।
समाधानः- ... अन्दर पुरुषार्थ कैसे करना? सबको एक ही प्रश्न उत्पन्न होता है। बहुत कहा है, स्पष्ट किया है। कहीं किसीको प्रश्न उत्पन्न हो ऐसा नहीं है, इतना स्पष्ट कर दिया है।
मुमुक्षुः- जब सम्यग्दर्शनका विषय द्रव्यदृष्टि करनेमें आती है, तब पर्याय द्रव्यसे भिन्न है, ऐसा कहनेमें आया। तो द्रव्य और पर्यायकी जो भिन्नता है, इस विषयमें गुरुदेवका कहनेका आशय क्या है? यह हमें विस्तारसे समझाइये।
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समाधानः- द्रव्यदृष्टिकी मुख्यतामें पर्याय गौण हो जाती है। पर्यायकी द्रव्य पर जहाँ दृष्टि हुयी वहाँ पर्याय लक्ष्यमें नहीं आती। पूरा द्रव्य सामान्य जहाँ लक्ष्यमें आया, उसमें पर्याय गौण होती है। पर्याय पर लक्ष्य नहीं रहता है। इस अपेक्षासे पर्याय और द्रव्य (भिन्न कहनेमें आता है)। बाकी पर्याय है वह द्रव्यकी पर्याय है। द्रव्यसे ऊपर- ऊपर नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि करनेमें आती है, वहाँ पर्याय गौण होती है। और वह पर्याय पर लक्ष्य, दृष्टिका लक्ष्य पर्याय पर नहीं होता है। दृष्टिका विषय अकेला द्रव्य है।
मुमुक्षुः- दूसरी बात यह की कि, जब पर्यायमें राग होता है, तब रागकी मलिनता है वह बाहर रह जाती है और पर्याय अंतर्लीन होती है, वह परमपारिणामिकभावरूप हो जाती है। तो ध्रुव है वह निष्क्रिय है और पर्यायका जो राग है वह राग बाहर रह जाता है और पर्याय स्वयं अंतर्लीन होती है-भूतकालकी पर्याय, तब परमपारिणामिकभावरूप हो जाती है, इस विषयमें क्या (समझना)?
समाधानः- राग बाहर रह जाता है अर्थात वह राग तो अस्थिरताका राग है। पर्याय अन्दर जाय तो शुद्ध पर्याय अन्दरमें प्रगट होती है। पर्याय शुद्धरूप होती है, पर्याय बाहर रह जाती है अर्थात... जहाँ भेदज्ञान होता है, वहाँ अस्थिरता अल्प होती है। वह अल्प अस्थिरता रहती है। बाकी बाहर रह जाय, उसका क्या अर्थ है?
मुमुक्षुः- पर्यायमें जो राग होता है वह राग बाहर रह जाता है और पर्याय...
समाधानः- पर्याय परमपारिणामिकरूप हुई.... द्रव्य स्वयं पूरा पारिणामिकभावरूप ही है। पर्याय उसमें लीन होती है अर्थात पारिणामिकभावरूप द्रव्य परिणमता है। द्रव्यमें ऐसी योग्यता होती है। भूत, वर्तमान, भविष्यकी पर्यायको द्रव्य कहनेमें आता है। वह पर्यायरूप नहीं, परन्तु पारिणामिकभाव द्रव्यरूप रहता है। पारिणामिकभावरूप रहती है। राग अन्दर नहीं आता। राग तो मलिन पर्याय है। द्रव्य स्वयं शुद्धतारूप अनादिअनन्त रहता है। परमपारिणामिकभावरूप रहता है।
मुमुक्षुः- अमुक अपेक्षासे भिन्नता बताते हैं इसलिये समझनमें थोडी उलझन होती है।
समाधानः- अपेक्षा समझ लेनी, उसमें कोई उलझन नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि करनेसे मुक्तिका मार्ग शुरू होता है। मुक्तिका मार्ग द्रव्य पर दृष्टि करनेसे शुरू होता है और भेदज्ञान करनेसे मुक्तिका (मार्ग शुरू होता है)। स्वमें एकत्व और परसे विभक्त ऐसी चैतन्यकी परिणतिकी धारा प्रगट करनेसे मुक्तिका मार्ग शुरू होता है। शुभाशुभ विकल्प सो मैं नहीं हूँ, मैं उससे भिन्न चैतन्यतत्त्व हूँ। क्षणिक नहीं हूँ, परन्तु मैं तो शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणके भेद, पर्यायके भेद दृष्टिमें नहीं आते, परन्तु ज्ञान सब जानता है। ऐसा
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दृष्टि विषय करके ज्ञान सब जानता है। परिणति स्वयं स्वकी ओर ढले। विकल्प तोडकर स्वानुभूति हो, निर्विकल्प दशा हो, मुक्तिका मार्ग (प्रगट होता है)। उसमें उलझन होनेका कोई सवाल नहीं है। किस अपेक्षासे है, वह अपेक्षा समझ लेनी। उसमें मुक्तिकी पर्यायको बाधा नहीं पहुँचती। अपेक्षा समझ लेनी। दृष्टिको मुख्य करके, ज्ञानमें जानकर पर्यायकी शुद्धता प्रगट करनी वही मुक्तिका मार्ग है।
मुमुक्षुः- ... उसमें असमाधान होता है। भिन्न-भिन्न विरोधाभासी वचन देखकर ऐसा होता है कि यहाँ तो ऐसा कहा है और इससे विरूद्ध ऐसा कहा, पुनः इससे विरूद्ध यह कहा, पुनः इससे विरूद्ध ऐसा कहा। ऐसे विरोधाभास...
समाधानः- उसकी अपेक्षा समझमें नहीं आती है। किस अपेक्षाको मुख्य करनी, कौन-सी अपेक्षा गौण करनी यह समझमें नहीं आता, इसलिये उसीमें रुकता है। परन्तु मुक्तिका मार्ग द्रव्यदृष्टिसे होता है और उसमें पर्यायकी शुद्धता प्रगट करनी है। मुक्तिके मार्गमें जाना है और उसीमें गोथे खाना, उसके बजाय उसकी अपेक्षा समझ लेनी। उसकी उलझनमें रहनेके बजाय।
चैतन्य द्रव्य सामान्य तत्त्व है। उसमें गुणके भेद, पर्यायके भेदको दृष्टि स्वीकारती नहीं है। ज्ञान सबको जानता है। द्रव्यमें अनन्त गुण है। ज्ञानमें सब है। द्रव्य-गुण- पर्यायसे भरा तत्त्व है। उसे पहचान लेना। और दृष्टि एक सामान्य पर करनी। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त ऐसी भेदज्ञानकी धारा, द्रव्य पर दृष्टि करके विकल्प तोडकर शुभाशुभ विकल्पजालसे भिन्न निर्विकल्प तत्त्व है, उसे पहचानकर स्वानुभूतिके मार्ग पर जाना। फिर यह अपेक्षाभेद क्या है, उसका विचार करके, समझकर समाधान करना।
किसको मुख्य करना और किसको गौण करना, वह क्या है? उसमें एकान्त करके वस्तुका स्वरूप क्या है, यह समझ लना। द्रव्य अखण्ड त्रिकाल है, पर्याय क्षणिक है। उसे वह स्पर्शता नहीं।
मुमुक्षुः- गुणभेदको भी नहीं स्पर्शता, इसलिये जब तक भेद होगा तब तक विकल्प उठेंगे।
समाधानः- भेद पर दृष्टि देनेसे विकल्प उत्पन्न होते हैं। भेद परसे दृष्टि उठा लेनी। द्रव्यमें गुण ही नहीं है, पर्याय भी नहीं है, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। द्रव्यमें गुण ही न हो और द्रव्यमें पर्याय ही न हो तो अकेला द्रव्य (हो जाता है)। तो वेदन किसका? स्वानुभूति किसकी? उसमें अनन्त गुण, ज्ञान और आनन्द किसका? उसका वेदन किसका? उसे स्पर्शता नहीं-छूता नहीं, उसमें कुछ है ही नहीं तो द्रव्य अकेला सामान्य कूटस्थ शून्य है, ऐसा अर्थ हो जाता है।
मुमुक्षुः- अर्थात गुरुदेवने कही बातकी अपेक्षा बराबर समझनी।
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समाधानः- अपेक्षा समझनी चाहिये।
मुमुक्षुः- कि किस अपेक्षासे बात है?
समाधानः- किस अपेक्षासे है? दृष्टिका बल बताते हैं। दृष्टिके बलसे आगे बढा जाता है। इसलिये उसमें कुछ है ही नहीं, ऐसा उसका अर्थ नहीं है। सिद्ध भगवान भी अनन्त गुण और अनन्त पर्यायमें विराजते हैं। उन्हें अनन्त पर्याय प्रगट होती रहती है, समय-समयमें अनन्त गुणकी अनन्त पर्यायें (प्रगट होती हैं)। अगुरुलघुरूप परिणमते हैं। वह वस्तुका स्वभाव है। लेकिन तू उस भेद पर दृष्टि मत कर। गुणभेदमें रुकनेसे तू आगे नहीं बढ सकेगा। तू एक सामान्य मूल वस्तु अस्तित्व पर लक्ष्य कर, ऐसा कहते हैं। सब निकाल देगा तो तत्त्व शून्य (हो जायगा), ऐसा वस्तुका स्वरूप नहीं है। उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप तत्त्व है। उत्पाद-व्यय-ध्रुव युक्तं द्रव्य। द्रव्यका स्वरूप तो ऐसा है।
मुमुक्षुः- द्रव्य अकेला कूटस्थ नहीं है।
समाधानः- हाँ, कूटस्थ किस अपेक्षासे? द्रव्यदृष्टिकी अपेक्षासे। परन्तु पारिणामिकभावरूप द्रव्य है।
मुमुक्षुः- ... अनुभव करनेका, फिर भी आनन्द दूर क्यों रहता है?
समाधानः- पुरुषार्थ नहीं करता है, भावना है फिर भी। जिस स्वभावरूप परिणमित होकर आगे बढना होता है, उस प्रकारसे जाता नहीं है। इसलिये स्वयंको उस रूप परिणमन करना चाहिये, ज्ञायक ज्ञायकरूप, ज्ञाताकी धारा प्रगट करके, कर्ताबुद्धि छोडकर ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमित हो तो आनन्द प्रगट होता है। परिणमता नहीं है। विभावका परिणमन एकत्वबुद्धिका है। आनन्दरूप कहाँ परिणमेगा? भावना हो, परन्तु भावना अनुसार कार्य नहीं करता है।
मुमुक्षुः- बाहरमें ही रुक जाता है।
समाधानः- हाँ, बाहरमें रुकता है। भावना हो, परन्तु उस प्रकारका परिणमन करना चाहिये न।
मुमुक्षुः- यथार्थतया देखे तो उतना प्रयत्न करता नहीं है।
समाधानः- हाँ, प्रयत्न नहीं करता है।
मुमुक्षुः- संक्षेपमें एक ही बात दीजिये न, ..
समाधानः- द्रव्यदृष्टि प्रगट करनी वह। ज्ञानमें सब भेद जानना और एक द्रव्य पर दृष्टि करनी। और स्वमें एकत्व करके, विभक्त शुभाशुभ भावसे भिन्न..
मुमुक्षुः- जाननेकी बात आपने फिरसे कही, उसके बजाय...
समाधानः- मैं एक चैतन्यतत्त्व हूँ, जान लेना। अनन्त गुण और उसमें अनन्त
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पर्याय है। फिर अधिक अपेक्षामें नहीं रुककर मूल तत्त्वको ग्रहण कर लेना। अस्तित्व ज्ञायक।
मुमुक्षुः- आप ऐसा एक मन्त्र दीजिये।
समाधानः- एक ज्ञायकतत्त्वको ग्रहण कर लेना। उसमें अनन्त गुण भरे हैं। ज्ञायक गुणोंसे भिन्न नहीं है। ज्ञायक अनन्त गुणोंसे भरपूर है। उसमें आनन्दादि अनन्त गुण हैं। उसका अस्तित्व ग्रहण कर लेना। क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करके। पर्याय पर दृष्टि नहीं है, परन्तु जानता तो है, पर्यायका वेदन होता है। स्वानुभूतिमें पर्यायका वेदन होता है। जाने सब, परन्तु दृष्टि एक द्रव्य पर होती है।
मुमुक्षुः- एक समयमें बहिनश्री! दृष्टि द्रव्य पर और जानपना, दोनों एक समयमें?
समाधानः- हाँ, साथमें जानता है। दृष्टि सामान्य पर है और ज्ञान सब जानता है। उसे भेद कर-करके, प्रतिसमय भेद करता रहता है ऐसा नहीं, सहज जानता है। मैं इस स्व-रूप हूँ और पर-रूप नहीं हूँ। ऐसी अनेकान्तमूर्ति है कि मैं स्व-रूप हूँ और पर-रूप नहीं हूँ।
... नयपक्ष छूट जाय तो निर्विकल्प होता है। फिर तो सहजरूप (होता है)। दृष्टि एक आत्मद्रव्य पर और ज्ञान सब जानता है, प्रमाणरूप सब जानता है। दृष्टि एक मुख्य रहती है। स्वयं स्वयंको जाने। ... ध्रुव तत्त्व पर है। द्रव्यको समझकर, द्रव्य पर दृष्टि करके भेदज्ञान करे तो वही मुक्तिका मार्ग है।
मुमुक्षुः- आजकी चर्चामें मुझे ऐसा लगता है कि पूरा सार (आ गया)। मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टिके जोरमें पर्यायको गौण करवानेको कोई बात जोरसे आती है तो एकान्त पकडता है और फिर उसमें अटक जाता है।
समाधानः- हाँ, तो ऐसा हो जाता है। उसमें अटकता है कि पर्यायको अभिन्न माननी या भिन्न माननी? उसमें अटकता है।
मुमुक्षुः- ऐसा करता रहता और अज्ञानमें उसे रास्ता सूझता नहीं है और ख्याल नहीं आता है।
समाधानः- (द्रव्यदृष्टिके) जोरमें वह शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। उसमें भिन्न या अभिन्न, उसके ज्ञानमें समझमें आ जायगा। यथार्थ परिणतिमें वह आ जाता है। उसका वेदन होता है, उसीसे समझमें आता है कि वह सर्वथा भिन्न है। ऐसा उसमें आ जाता है। और पूरा सामान्य द्रव्य है और वह नयी प्रगट होती है और व्यय होती है। अतः वह सर्वथा भिन्न भी नहीं है और उसका स्वभाव क्षणिक है, ऐसा साथमें आ जाता है। वह अपेक्षा उसमें साथमें आ ही जाती है।
द्रव्यकी भाँति शाश्वत साथमें नहीं है। नयी उत्पन्न होती है, व्यय होती है। ऐसा
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होता है और उसका वेदन होता है। द्रव्यकी ही वह पर्याय है परन्तु क्षणिक है। इसलिये भिन्न या अभिन्न जैसे ज्ञानकी अपेक्षामें समझमें आये ऐसा है। ... पर्याय है। द्रव्यके आश्रय बिना नहीं होती है, ऊपर-ऊपर नहीं होती है। द्रव्यका स्वभाव है, द्रव्यकी पर्याय है। क्षणिक है, इसलिये द्रव्य सामान्य है उससे उसका स्वभाव थोडा अलग है। क्षणिक है।
मुमुक्षुः- ... कोई भी बात कही हो, परन्तु गौण करवानेके लिये बात कही है।
समाधानः- गौण करनेके लिये, निकाल देनेकी बात नहीं है। दृष्टिके जोरमें निकाल दी, ऐसी बात भी आये, परन्तु उसे समझना चाहिये। जैसे राग जड है ऐसा कहनेमें आता है, परन्तु राग जड है ऐसा ही मान ले तो विभाव ही नहीं है, ऐसा अर्थ हो जाय न। राग जड है। वह अपना स्वभाव नहीं है, इसलिये उसे जड कहनेमें आता है। तो फिर पुरुषार्थ किस बातका, बिलकूल जड हो तो? स्वयंका स्वभाव नहीं है।
... भिन्न, परन्तु वह द्रव्यके आश्रयसे होती है। जैसा द्रव्य स्वतंत्र स्वतःसिद्ध है, वैसे पर्याय स्वतःसिद्ध द्रव्यके आश्रय बिना है, ऐसी उसमें अपेक्षा नहीं आती है। द्रव्यके आश्रयसे ही पर्याय होती है। .. उसके भिन्न नहीं है। जैसे एक द्रव्यसे दूसरे द्रव्यके भिन्न है, ऐसे एक द्रव्यसे पर्यायके (कारक) उस प्रकारसे भिन्न नहीं है। उसे तो द्रव्यका आश्रय है।
मुमुक्षुः- उस प्रकारसे भिन्न नहीं है।
मुमुक्षुः- हाँ, मर्यादा बाहर (नहीं है)। अपनी-अपनी मर्यादा तो है।
समाधानः- उसे द्रव्यका आश्रय है। उसका-पर्यायका स्वभाव अलग है इसलिये उसके कारक भिन्न है, ऐसे। द्रव्यके आश्रयसे, जैसा द्रव्य होता है उस जातकी उसकी पर्याय होती है। उसमें तो दो द्रव्य स्वतंत्र हैं, बिलकूल स्वतंत्र हैैं। जैसे दो द्रव्य स्वतंत्र हैं, वैसे पर्याय और द्रव्य उस प्रकारसे स्वतंत्र नहीं हैं। जैसी द्रव्यकी दृष्टि होती है, उस प्रकारकी पर्याय होती है। दृष्टि द्रव्य पर जाय तो पर्याय वैसी होती है।
मुमुक्षुः- .. पर्यायको द्रव्यका आश्रय है।
समाधानः- पर्यायको द्रव्यका आश्रय है। .. लेकिन उसमें एक जातका नहीं है, इसलिये एक भी बात बिना अपेक्षासे नक्की नहीं होगी। भिन्न है? अभिन्न है? भिन्न है? अभिन्न है? एकान्त नहीं है, अतः वैसे वह निश्चित नहीं होगा, उसमें अपेक्षा आती है।
.. सबने बहुत सुना है। गुरुदेव तो मूसलाधार वाणी बरसा गये हैं। कहीं किसीको कोई प्रश्न न रहे, ऐसा चारों ओरसे गुरुदेवने स्पष्ट किया है। बहुत दर्शाया है। आत्माको ज्ञायकको पहिचानना। शरीर और विभावपर्याय उसका स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न जाननेका
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स्वभाव है। गुणभेद, पर्यायभेद परसे दृष्टि उठाकर एक ज्ञानमें सब जान लेना। बाकी आत्मामें लीनता करके, भेदज्ञान करके, स्वानुभूति प्रगट करनी वही मुक्तिका मार्ग है। स्वयं ज्ञायक ज्ञाताधारा अंतरमेंसे प्रगट करनी। कर्ताबुद्धि छोडकर अंतरसे ज्ञायकता प्रगट करनी, वह करना है। अन्दर स्वभावमेंसे करना है। कल्याणरूप, हितरूप, मंगलरूप सब वही है।
मुमुक्षुः- एकत्वबुद्धि कैसे टूटे?
समाधानः- एकत्वबुद्धि प्रयत्न करनसे टूटती है। स्वमें एकत्वबुद्धि, परसे विभक्त। पुरुषार्थ करनेसे टूटे। अनादिका जो अभ्यास है, उससे एकत्वबुद्धि तोडनी। स्वभावसे आत्माको पहिचाने कि मैं चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। इस तरह अपना स्वभाव पहिचाने। आत्मा ज्ञायक स्वभाव ही है। उसका दूसरा स्वभाव नहीं है। ज्ञायकता-अनन्त गुणसे भरी ज्ञायकताका अस्तित्व ग्रहण करे। इस तरह स्वयंमें एकत्वबुद्धि करे। परिणतिको अपनी ओर लाये। मति और श्रुतसे यथार्थ निर्णय करे। उसमें दृष्टि स्थापित करके, उस ओर ज्ञान एवं लीनता उस ओर करे तो होता है। पुरुषार्थ करे तो होता है, उसकी लगन लगाये तो होता है। बाकी अनादिका अभ्यास है। परिणति अपनी ओर, परिणतिकी दौड अपनी ओर करे तो होता है। परिणति दूसरी ओर चल रही है, उसे अपनी ओर प्रयत्न करे तो होता है।
मुमुक्षुः- परिणति दूसरी ओर हो जाती है। इसलिये ओर लानेके लिये... समाधानः- लानेके लिये, बस, एक आत्मामें ही सर्वस्व है, बाहर कुछ नहीं है। सर्वस्व आत्मामें है। बाहरसे सुखबुद्धि उठाकर, सर्वस्व जो कुछ है सब आत्मामें है। आत्मा कोई आश्चर्यकारी अदभुत तत्त्व है। उसमें अदभुतता, माहात्म्य, महिमा सब उसमें लाये तो छूट जाय। अपनी जरूरत महेसूस हो, बस, वही कार्यकारी है, वही कल्याणरूप है। आत्माका स्वरूप ही कल्याणरूप है और कार्य करने जैसा है, ऐसा निर्णय-प्रतीत करे तो उस ओर पुरुषार्थ मुडे बिना नहीं रहता।