Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 158.

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ट्रेक-१५८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. बौद्धिक विश्वास आता है, उसके बाद अनुभूत करनेके लिये उसे कुछ प्रयत्न करनेकी आवश्यकता है? अथवा कैसा प्रयत्न करना चाहिये?

समाधानः- पहले उसे ज्ञानसे जाने कि यह मेरा स्वभाव है। लक्षणसे पहिचाने कि यह जाननेवाला है वह मैं हूँ, ये जो विभाव, संकल्प-विकल्प होते हैं वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव भिन्न है। पहले उसे उसके लक्षणसे पहिचानकर उसमें लीनता करे। बारंबार उसका अभ्यास करे कि यह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। यह मेरा स्वभाव (है)। उसकी एकत्वबुद्धि तोडे। यह शरीर मैं नहीं हूँ, विकल्प मैं नहीं हूँ, अनादिका अभ्यास है, वह अभ्यास तोडकर अपने स्वभावका अभ्यास करे। बारंबार मैं यह आत्मा, मैं चैतन्य ज्ञानस्वभाव, मैं ज्ञायक स्वभाव (हूँ), ऐसा बारंबार उसका अभ्यास करे। उसमें लीनता करे, उसकी एकाग्रता करे, बारंबार करे, ऐसा उग्रतासे करे।

पहले स्वयंको पहचाने, यथार्थ ज्ञान करे तो उसे फिर यथार्थ ध्यान होता है। पहले उसका यथार्थ ज्ञान करे कि यह स्वभाव है वही मैं हूँ, अन्य कुछ मैं नहीं हूँ। ऐसी यथार्थ श्रद्धा करके फिर उसकी एकाग्रता करे तो विकल्प टूटकर उसे स्वानुभूति होनेका प्रसंग आये। पहले यथार्थ ज्ञान करे। उसमें शास्त्रका ज्यादा ज्ञान हो ऐसा नहीं है, परन्तु प्रयोजनभूत आत्मा है, उस आत्माका स्वभाव क्या? उसके गुण क्या? उसकी पर्याय क्या? ये विभावपर्याय क्या? ये पुदगल क्या? ये चैतन्य क्या? उसका मूल प्रयोजनभूत पहचान ले, उसका भेदज्ञान करे कि यह मैं नहीं हूँ और यह मैं हूँ। ऐसा पहले अंतर विचारसे निर्णय करे, फिर अंतर उसका स्वभाव पहिचानकर करे, फिर उसमें एकाग्रता करे तो होता है।

मुमुक्षुः- संसारके चालू जीवन प्रसंगमें अशान्ति रहती हो इसलिये उसमें एकाग्रता नहीं होती हो तो उसके लिये क्या उपाय करना?

समाधानः- अशान्ति रहती हो तो उसकी आत्मा-ओरकी रुचि बारंबार बढानी। बाहरकी रुचि, बाहरकी महिमा, बाहरमें लीनता आदि है... आत्मामें ही सर्वस्व है, बाहरमें कुछ नहीं है। आत्मा कोई अपूर्व चीज है, आत्मा कोई अद्भूत वस्तु है, ये सब निःसार है। सारभूत हो तो आत्मा है, ऐसा निर्णय बारंबार करके उसकी महिमा


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बढाये, उसकी रुचि बढाये, उसके विचार बढाये, उसका चिन्तवन बढाये तो वह रस, उसकी आकुलता कम हो। और तत्त्वका विचार बढाता जाय, उसका अभ्यास बढाता जाय तो फिर उसमें यथार्थ ज्ञान हो तो फिर उसे यथार्थ शान्ति आनेका प्रसंग बने। यथार्थ एकाग्रता करे तो। परन्तु पहले उसे सच्ची समझ बराबर होनी चाहिये। यथार्थ मार्गको जाने तो उसमें सच्ची एकाग्रता हो।

मुमुक्षुः- सच्चे ध्यानका स्वरूप क्या है?

समाधानः- सर्वप्रथम आत्माका अस्तित्व पहिचाने। ऐसी ही ये विकल्प तोड दूँ, ये विकल्प तोड दूँ, (ऐसा करे) लेकिन आत्मा क्या है, उसे पहिचाने बिना विकल्प तोडकर कहाँ जायेगा? विकल्प टूटेगा भी नहीं। विकल्प कम होंगे लेकिन टूटेंगे नहीं। परन्तु विकल्प रहित वस्तु क्या है? विकल्प रहित आत्मा ज्ञायक जाननेवाला ज्ञायक है, वह तत्त्व ही भिन्न है। पहले उसका अस्तित्व पहिचाने, उसका स्वभाव पहिचाने। ध्यान करके कहाँ खडा रहना? जो वस्तु है उसे ग्रहण करे कि य आत्माका स्वभाव और ये परका स्वभाव। इस प्रकार उसे बराबर ग्रहण करे, यथार्थ ज्ञान करके, तो ध्यान होता है। ऐसे ही समझे बिना ध्यान करे, विकल्प कम करुँ, क्म करुँ। आत्म पदार्थ कहाँ खडे रहना ये तो मालूम नहीं, कहाँ स्थिर रहना? विकल्प टूटे तो विकल्प कम हो, अथवा तो उसे शून्यता जैसे लगे।

ध्यान तो उसे कहें कि अन्दरसे कुछ जागृति आवे। अंतरमें आत्मामें उसे कोई अपूर्वता लगे। अपूर्व, कुछ अपूर्व लगे तो उसे ध्यान कहें। शून्यता आ जाय तो वह कोई ध्यान नहीं है। अंतरमें वस्तुको ग्रहण करके ध्यान होना चाहिये। नहीं तो ध्यान तो.. उसमें आता है न? ध्यान तरंगरूप होता है। यथार्थ ज्ञान बिनाका ध्यान तरंगरूप होता है।

मुमुक्षुः- श्रीमदमें।

समाधानः- श्रीमदमें आता है।

मुमुक्षुः- ... भूल नये प्रकारकी होगी कि जिस कारण जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सका?

समाधानः- भूल तो अनेक जातकी (है)। परको अपना माना वह उसकी भूल है। अनेक जातकी। कहीं न कहीं जीव अटका है। कहीं थोडा कुछ किया और अटक गया कि मैंने बहुत किया। थोडा ज्ञान करके अटक गया, थोडी क्रिया करके अटक गया, थोडा शुभभाव किया तो मैं तो बहुत धर्म करता हूँ, ऐसे अटक गया। थोडा वैराग्य करके अटक गया, कुछ त्याग किया तो, मैंने बहुत त्याग किया, मैंने बहुत धर्म किया, ऐसा करके अटक गया। कहीं-कहीं अटक गया। थोडे शास्त्र धोख लिये


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तो उसमें अटक गया। ऐसे कहीं-कहीं अटक गया, मानों मैंने बहुत किया। लेकिन जबतक स्वयंको-चैतन्यको पहचाना नहीं है, अंतरमेंसे कुछ प्रगट नहीं हुआ या अंतरमें उसे कोई अपूर्वता आये तो उसे किसीको पूछने भी नहीं जाना पडे। उसके आत्मामेंसे ही ऐसा आये कि यही मार्ग है। अंतरमेंसे ऐसी कोई अपूर्वता और यथार्थ मार्गकी प्रतीति और ऐसा आनन्द आये की यही मार्ग है। जो भगवानने कहा वह यही मार्ग है, इसी स्वानुभूतिके मार्ग पर आगे बढा जाता है। उसका अंतरंग ही उसे कह देता है। ... अटक जाता है। कोई ज्ञानमें, कोई जूठे ध्यानमें, कुछ क्रियाओंमें, कुछ-कुछ थोडा-थोडा करके अटक जाता है। मूल वस्तुको पहिचाने बिना। बीचमें शुभभाव आये तो मैंने बहुत शुभभाव किये। मैंने बहुत दया, भक्ति, ये-वो, दान दिया, सब बहुत किया, मैंने बहुत धर्म किया। बाहरसे धर्म नहीं होता है, वह तो शुभभाव हो तो पुण्यबन्ध होता है। अंतरमेंसे शुद्धात्माको पहिचाने तो स्वभावमेंसे धर्म होता है। कहीं- कहीं बाहरमें अटक जाता है।

मुमुक्षुः- अपना अज्ञान ही उसमें कारण है या और कुछ?

समाधानः- नहीं, अपना ही कारण है, कोई अन्य कारण नहीं है। अपनी अज्ञानतासे ही स्वयं रखडा है। कोई दूसरा उसे रखडाता नहीं। कोई उसे कुछ नहीं कहता। कर्म तो निमित्तमात्र है। अपनी भ्रान्ति और अपनी भूलसे रखडा है। स्वयं भूल की है, स्वयं ही तोडे। गुरु यथार्थ मार्ग दर्शाये, मार्गको ग्रहण करना अपने हाथकी बात है। गुरुदेवने अनेक प्रकारसे स्वरूप समझाया है। अपूर्व मार्ग बताया है। ग्रहण करना अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! सम्यक पुरुषार्थ माने क्या? सम्यक पुरुषार्थ, सच्चा पुरुषार्थ- सत्य पुरुषार्थ माने क्या?

समाधानः- सम्यक पुरुषार्थ कि जिसके पीछे आत्मा प्रगट हो। आत्मा अनन्त गुणोंसे भरपूर है। आत्मामें अनन्त शक्तियाँ हैं। आत्मा जिसमें प्रगट हो वह सम्यक पुरुषार्थ है। जिस पुरुषार्थमें आत्मा प्रगट न हो, विकल्पका अभाव होकर निर्विकल्प दशा जो स्वानुभूतिका मार्ग है, वह प्रगट न हो, उस पंथ पर नहीं जाना हो और मात्र शुभभाव हो, जिस शुभभावसे पुण्यबन्ध हो, तो वह सम्यक पुरुषार्थ नहीं है। पुण्य बन्धे तो स्वर्ग मिलता है। वह सम्यक पुरुषार्थ नहीं है।

सम्यक पुरुषार्थ उसका नाम है कि जिसमें स्व-परका भेदज्ञान हो कि ये वस्तु मैं नहीं हूँ। मैं तो चैतन्य कोई अपूर्व वस्तु चैतन्य चमत्कारी, चैतन्य चिंतामणि वस्तु मैं हूँ। ऐसी कोई अन्दरसे वस्तु ग्रहण होकर पुरुषार्थ हो तो वह सम्यक पुरुषार्थ है। बाकी विकल्प मन्द किये, राग मन्द किया, सब किया, शुभभाव किये, परन्तु जहाँ


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पुण्य बन्धा और आत्माका स्वरूप, अन्दर स्वानुभूति प्रगट नहीं हुयी तो वह सम्यक पुरुषार्थ नहीं है।

अथवा तो स्वानुभूतिके मार्ग पर हो तो वह सम्यकके मार्ग पर है, सम्यकत्व सन्मुख है। आत्मा कैसे पहचाना जाय? आत्माका स्वरूप क्या है? भेदज्ञानका अभ्यास करे, उस मार्ग पर जाय, उसका विचार, वांचन आदि करे तो वह मार्ग पर है। परन्तु शुभभावमें ही धर्म माने तो वह सम्यक पुरुषार्थ नहीं है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! स्वयं स्वभाव सन्मुख है कि नहीं, ऐसा उसको ख्याल आ जाता है कि स्वयं सम्यक सन्मुख है?

समाधानः- स्वयंका आत्मा स्वयंको जवाब दे कि इस मार्गसे.. ये स्वानुभूतिका ही मार्ग है। इसी मार्गसे स्वानुभूति प्रगट होती है, दूसरे मार्गसे नहीं होगी। भेदज्ञानके मार्ग पर, स्वभाव ग्रहण करनेके मार्ग पर, भेदज्ञानके मार्ग पर ही स्वानुभूति प्रगट होती है और स्वयं अपना जान सकता है कि इसी मार्गसे स्वानुभूति प्रगट होती है।

यदि नहीं जान सके तो... सब उसी मार्ग पर जाते हैं। पहलेसे स्वानुभूति हो नहीं जाती, परन्तु पहले स्वयं निर्णय करता है कि इसी मार्ग पर जाया जाता है। मार्गका स्वयंको ज्ञान होता है तो उसे मार्ग पर जाता है। अपना आत्मा जवाब देता है कि इसी मार्ग पर स्वानुभूति प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ऐसा स्वयंको ख्याल आ जाता है?

समाधानः- ख्याल आ जाता है कि इसी मार्गसे स्वानुभूति होती है। मुुमुक्षुः- मैं सच्चे मार्ग पर हूँ, ऐसा भी ख्याल आ जाता है?

समाधानः- हाँ, स्वयंको ख्याल आ जाता है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! कर्ता-कर्मकी भूल कैसी होगी?

समाधानः- मैं परद्रव्यका कर सकता हूँ, मैं परद्रव्यको बदल सकता हूँ, वह सब कर्ता-कर्मकी भूल है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं दूसरेका नहीं कर सकता हूँ, परन्तु मेरे स्वभावका कार्य कर सकता हूँ। मेरे अंतरमें जो ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुण है, अनन्त गुण हैं, उसे मैं प्रगट कर सकता हूँ। परन्तु मैं इस पुदगलके, शरीरके कार्य मैं नहीं कर सकता हूँ। वह सब कर्ता-कर्मकी भूल है।

बाहरमें मैंने किसीका अच्छा कर दिया, किसीको ये कर दिया, वह सब तो पुण्य- पाप अनुसार होता है। उसमें स्वयं निमित्तमात्र है। उसके भाव करता है, बाकी किसीका कर नहीं सकता है। उसके स्वयंके शरीरमें रोग आये तो भी वह कुछ नहीं कर सकता, तो दूसरा तो क्या कर सके? परद्रव्यका कुछ नहीं कर सकता।

विभाव भी उसका स्वभाव नहीं है, पुरुषार्थकी मन्दतासे वह उसमें जुडता रहता


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है। स्वयं अपने शुद्धात्माका कार्य कर सकता है और अज्ञान अवस्थासे विभाव करता है। बाकी दूसरे परपदार्थका वह कुछ नहीं कर सकता। जड पदार्थका करे, कोई किसीका करे, एक चैतन्य दूसरेका करे या एक पुदगल दूसरेका करे तो द्रव्यकी स्वतंत्रता ही नहीं रही।

वस्तु स्वयं स्वतंत्र महान पदार्थ है। सबके द्रव्य-गुण स्वतंत्र हैं। कैसे परिणमना वह अपने हाथकी बात है। एक पदार्थ दूसरेका करे तो वह पदार्थ कमजोर हो गया। तो दूसरा कुछ दूसरा कर दे, स्वयं सुलटा करे, दूसरा ऊलटा कर दे, ऐसा पराधीन वस्तुका स्वरूप होता ही नहीं। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। स्वतः कैसे परिणमना वह उसके हाथकी बात है। उसके हाथकी बात है। पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है।

मुमुक्षुः- स्व और परका भेदज्ञान कैसे करना?

समाधानः- रोज वह बात आती है। करना तो स्वयंको पडता है। कैसे करना? तो लक्षण पहचानकर करना। उसका लक्षण तो पहचाना जाय ऐसा है। ज्ञानस्वभावको पहिचानना। ये विभाव है और ये स्वभाव है। लक्षण पहिचानना पडे। काँच और हीरेकी परख तो जो जौहरी हो वह करे न। लक्षणसे पहचानमें आता है। अंतरमेंसे सच्ची जिज्ञासा हो तो पहचानमें आ ही जाता है कि यह ज्ञान है और यह विभाव है। तो भेदज्ञान हो। लक्षण पहिचाने तो भेदज्ञान हो। परन्तु उसका अभ्यास चाहिये। ये ज्ञान है, ज्ञान है, ज्ञान है, उसका बारंबार अभ्यास करना चाहिये कि यह ज्ञाता है। ज्ञान अर्थात ज्ञाता।

... विकल्प तो आते हैं, पुरुषार्थ करना। पलटाना चाहिये पुरुषार्थ करके कि मैं ज्ञायक हूँ। बारंबार उसमें टिक न सके तो उस जातका विचार, वांचन, स्वाध्याय, महिमा करनी। देव-गुरु-शास्त्रकी, आत्माकी-ज्ञायककी महिमा करनी, न पलटे तो। भावना रखनी, पुरुषार्थ करना।

मुुमुक्षुः- माताजी! आपका जीवने तो बचपनसे इतना वैराग्यमय था, अदभूत आश्चर्यकारी। और हमें तो ऐसा लगता है कि अरे..! ये दुनिया ऐसी है, सब छोडने लायक है, बस! आत्माका ही करना है।

समाधानः- अभ्यास है न। क्षणभर वैराग्य आता है, फिर बदल जाता है। अन्दर गहराईसे हो तो होता है। उसकी लगन अंतरमेंसे लगनी चाहिये। इस मनुष्यजीवनमें वही करना है। बारंबार उसीकी लगन, बारंबार अभ्यास करना चाहिये। पलट तो जाता है, अनादिका अभ्यास है इसलिये पलट जाता है। और अंतरमेंसे उतनी लगी हो तो अंतरमें वही खटक रहा करे। अरे..! आत्माका करना बाकी रह जाता है। सब किया लेकिन आत्माका करना बाकी रह जाता है। ऐसी अंतरमेंसे खटक लगनी चाहिये।


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मुमुक्षुः- खटक अंतरमें रखनी ही चाहिये।

समाधानः- अंतरमें वैसे खटक रखनी चाहिये। तो प्रयास होता है।

मुमुक्षुः- पूर्व जन्मका पुरुषार्थ होता, तब तो हो जाता।

समाधानः- परन्तु वर्तमान पुरुषार्थ तो करना पडता है न। पूर्वके संस्कार हो तो भी पुरुषार्थ तो वर्तमानमें करना पडता है। जब भी तैयार हो, जब जागे तब सवेरा। जब जागा तब सवेरा। जबसे गुरुकी वाणी सुनी और गुरुने मार्ग बताया तो पुरुषार्थ करना अपने हाथकी बात है।

मुमुक्षुः- कितने दिन तक ऐसा लग रहा है कि सब शून्य हो गया, कुछ नहीं रहा। ऐसा हो जाता है।

समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता है, रुचिकी मन्दता है। मन्दता है। तीव्रता करनी चाहिये। इस भवमें इतने काल सुना वह पूर्व ही हो गया। पूर्व पर्याय वह पूर्व। शरीरकी पूर्व पर्याय ... परिणामकी पूर्व पर्याय अर्थात जो काल गया वह सब काल पूर्व ही था। जब भी जागे, पूर्वके संस्कार उसमें मिला देना। पूर्वमें सुना वह सब। पुरुषार्थ करे तो पूर्वमें जो सुना उसका साथ मिले इसलिये वह पूर्वके संस्कार, दूसरा क्या है? वह पूर्व हो गया। गुरुदेवने जो यह मार्ग बताया, मार्ग सूझनेका रास्ता गुरुदेवने बताया, यह सब सुना वह सब पूर्वके संस्कार ही है।

मुमुक्षुः- आपको कैसा लगता है?

समाधानः- आत्मा अनुपम है तो उसकी पर्याय भी अनुपम है। उसकी अनुभूति- वेदन भी अनुपम। अनादिका वेदन है वह तो दुःखरूप आकुलतारूप है। अस्थिरतारूप है, आकुलतारूप है, खेदरूप है। अशान्ति है। जो नहीं हो सकता है, उसकी कर्ताबुद्धि- मैं करता हूँ, करता हूँ, ऐसी खेदबुद्धि करता है। वह तो अपूर्व है। अपूर्व शान्तिरूप है, अपूर्व ज्ञानरूप है। वह कोई बोलनेकी बात नहीं है। अपूर्व वस्तु है।

समाधानः- .. राग हूँ, द्वेष हूँ, विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि, पर्याय ओर, क्षणिक पर्यायें होती हैं उतना मैं, परन्तु अखण्ड चैतन्य स्वभाव मैं हूँ, ऐसी दृष्टि (नहीं करता है)। स्वभावकी ओर जिसकी दृष्टि जाती है तो उसका क्रमबद्ध उसी ओर जाता है। मोक्षकी ओर क्रमबद्ध है।

मुमुक्षुः- और क्रमबद्धका स्वरूप उसीने जाना है।

समाधानः- उसीने सत्यरूपसे जाना है। जो पुरुषार्थ करता है, उसीने क्रमबद्धका स्वरूप जाना है, उसे ही क्रमबद्ध है। उसका सच्चा क्रमबद्ध है।

मुमुक्षुः- दूसरा क्रमबद्ध-क्रमबद्ध बोलता है, लेकिन उसका क्रमबद्ध मात्र कल्पना ही है।


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समाधानः- वह कल्पना है। फिर क्रमबद्ध अर्थात बाह्य पदार्थ जैसे होने हों वैसे हो, कर्ताबुद्धि छोड दे कि मैं यह नहीं करता हूँ, वह क्रमबद्ध अलग। स्वभावका क्रमबद्ध तो पुरुषार्थपूर्वक ही होता है।

मुमुक्षुः- ये तो थोडा दिलासा लेनेकी बात है।

समाधानः- हाँ, बाहरका जो होनेवाला है वह क्रमबद्ध ही है। बाह्य संयोग अनुकूलता- प्रतिकूलताके वह सब तो क्रमबद्ध है। परन्तु अन्दर स्वभावपर्याय प्रगट होनी वह तो पुरुषार्थपूर्वक प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- वह मुद्देकी बात है।

समाधानः- वह पुरुषार्थपूर्वक क्रमबद्ध होता है। पुरुषार्थ बिना क्रमबद्ध नहीं होता। अपनेआप हो जाता है, उसमें पुरुषार्थ नहीं होता और ऐसे ही हो जाता है, ऐसा नहीं है। जिसे स्वभाव प्रगट करना हो उसकी दृष्टि तो मैं स्वभावकी ओर जाऊँ, ऐसी उसकी भावना होती है। उसकी ज्ञायक-ओरकी धारा होती है। उसे ऐसा नहीं होता है कि भगवानने जैसा देखा होगा वैसा होगा। ऐसा नहीं, उसे अंतरमें परिणति प्रगट करुँ ऐसा होता है। अंतर शुद्धिकी पर्याय प्रगट होनेकी ओर उसकी पुरुषार्थकी गति परिणमती है। जिसकी पुरुषार्थकी गति अपनी ओर नहीं है, उसे स्वभावकी ओरका क्रमबद्ध होता ही नहीं।

मुमुक्षुः- मुख्यता तो पुरुषार्थकी ही है।

समाधानः- पुरुषार्थकी मुख्यता है।

मुमुक्षुः- ... नहीं आये तो क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया।

समाधानः- तो क्रमबद्ध समझमें नहीं आया है।

मुमुक्षुः- वास्वतमें तो ऐसा है न?

समाधानः- हाँ, वास्तवमें ऐसा है कि क्रमबद्ध समझमें ही नहीं आया। होनेवाला होगा, स्वभावका जो होनेवाला होगा, पुरुषार्थ होनेवाला होगा तो होगा, ऐसा करे तो उसकी अंतरकी सच्ची जिज्ञासा ही नहीं है। जिज्ञासुको ऐसा अंतरमेंसे संतोष आता ही नहीं। जिसे स्वभावपर्याय प्रगट होनेवाली है उसे ऐसा संतोष नहीं होता कि होना होगा वह होगा, भगवानने कहा है वैसे होगा, ऐसा संतोष नहीं आता। उसे अंतरमें खटक रहती है कि कब मुझे अंतरमें स्वभावपर्याय कैसे प्रगट हो? कैसे हो? ऐसी उसे खटक रहा करती है। इसलिये वह स्वभावकी ओर उसके पुरुषार्थकी गति मुडे बिना रहती नहीं। इसलिये पुरुषार्थ उसका स्वभावकी ओर जाता है, (इसलिये) उस प्रकारका क्रमबद्ध है।

बाहरके जो फेरफार होते हैं, उसमें स्वयं कुछ नहीं कर सकता। बाहरके संयोग- वियोग, अनुकूलता-प्रतिकूलता सब। विभावपर्यायमें जैसा होना होगा वैसा होगा, ऐसा


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अर्थ करे तो वह नुकसानकारक है।

मुमुक्षुः- वह स्वच्छन्द है। समाधानः- वह स्वच्छन्द है। अपनी मन्दतासे होता है, ऐसी खटक रहनी चाहिये। नहीं तो उसे स्वच्छन्द होगा। उसमें जैसा होना होगा वैसा होगा, तो उसे स्वभाव- ओरकी जिज्ञासा ही नहीं है। ऐसी मुमुक्षुको अंतरमें खटक रहनी चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!