Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 168.

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ट्रेक-१६८ (audio) (View topics)

समाधानः- .. भले वचनोंसे, परन्तु पुरुषार्थ तो स्वयंको करना पडता है। गुरुदेवने जो बताया कि तेरा अस्तित्व ऐसा है। उस अस्तित्वको ग्रहण करनेके लिये पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। वह क्षणिक अस्तित्व जो है, उतना क्षणिक अस्तित्व नहीं है। मेरा त्रिकाल अस्तित्व है। उसे ग्रहण तो स्वयं करता है। जानता है भले ज्ञानियोंके वचनसे जानता है, उसकी महिमा उसे आती है कि मेरा अस्तित्व भिन्न ही है, मेरे चैतन्यकी अदभुतता कोई अलग है, मेरी अनुपमता कुछ अलग है। वह सब ज्ञानियोंके वचनसे जानता है, उसका निर्णय करता है, परन्तु फिर ग्रहण करनेमें स्वयं पुरुषार्थ करता है। अपने पुरुषार्थसे होता है।

अनुभव कर सकता है, वह स्वयं जो ज्ञायकताको ग्रहण करके अंतरमें जाता है, वह पर्याय ग्रहण करती है। और उसमें स्वयं लीनता करे इसलिये उसकी अनुभूति होती है। उसे ग्रहण करे और उसमें लीनता करे तो अनुभूति होती है। ग्रहण करता है। ग्रहण करके उसमें लीनता करे। उसमें लीनता, ऐसी दृढ लीनता करे और उसकी उग्रता करे तो उसे स्वानुभूति होती है।

भले ज्ञानीके वचन हों, उसमें निमित्त होते हैं ज्ञानीके वचन। अनादि कालसे स्वयंने जाना नहीं है। ज्ञानीके वचन तो उसमें निमित्त होते हैं। अनादि कालसे स्वयंने जाना नहीं है, उसमें पहले तो उसे देव या गुरुके वचन सुनने मिले तो स्वयंकी अंतरमें तैयारी होती है। चैतन्यके कोई अपूर्व संस्कार, ऐसी देशना लब्दि प्रगट होती है। लेकिन ज्ञानियोंके वचन भले ही हैं, लेकिन अंतरसे तैयारी स्वयंको करनी पडती है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। ज्ञानियों जो कहते हैं, उसे स्वयं नक्की करता है। गुरुदेव जो कहते हैं, यह वस्तुका स्वरूप कोई अपूर्व मार्ग है। चैतन्य कोई अपूर्व है, अद्भुत है। वे जो कहते हैं उसका स्वयं अन्दरसे विश्वास करता है। स्वयं अंतरसे नक्की करता है कि यह बराबर है। ये जो मार्ग गुरुदेव कहते हैं, वैसा ही मार्ग होता है और ऐसा ही होता है। इस प्रकार स्वयं अपने ज्ञानसे पहले नक्की करता है। वह स्वयं निश्चय करके अंतरमें जाता है।

मुमुक्षुः- नक्की करता है अर्थात प्रतीति आ जाती है या निर्णय करना पडता


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है।

समाधानः- ऐसी प्रतीति, वह स्वयं निर्णय करता है, अपने पुरुषार्थसे निर्णय करता है। पहले ऐसा निर्णय होता है, बादमें अंतरमें जाता है। पहले निर्णय करे कि यह ऐसे ही है। शास्त्रमें भी ऐसा आता है, स्वयं अपनेआप नक्की करता है कि वस्तु ऐसे ही है। ऐसे निर्णय करके फिर मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदि सब चैतन्यकी ओर मुडता है। फिर उसके विकल्प टूटते हैं। ज्ञानीपुरुषके वचनसे स्वयं नक्की करता है। विश्वास स्वयंको करना है। वचन ज्ञानियोंके, लेकिन विश्वास कौन करता है? विश्वास तो स्वयं करता है। विश्वास स्वयंको करना है। अपने बुद्धिबलसे स्वयं नक्की करता है। उस प्रकारकी स्वयं रुचि करता है, विश्वास स्वयं करता है, नक्की करता है। पहले बुद्धिसे ऐसे नक्की करता है।

शास्त्रमें आता है न? वह वस्त्र ओढकर सो गया। उसे कहते हैं, ये तेरा वस्त्र नहीं है। लेकिन वह स्वयं लक्षणसे नक्की करता है कि वास्तवमें यह (मेरा) नहीं है। इसलिये छोड देता है। गुरु तो बारंबार कहे कि यह तेरा नहीं है, ये तू नहीं है। तू भिन्न है। ये विकल्प तू नहीं है, शरीर तू नहीं है, क्षणिक पर्यायमात्र तू नहीं है। ऐसा बारंबार कहे। लेकिन नक्की स्वयं करता है। वास्तवमें गुरु जो यह कहते हैं वह बराबर है। गुरुके वचन तो बीचमें होते ही हैं, परन्तु तैयारी स्वयंको करनी पडती है।

मुमुक्षुः- ज्ञायक कहने पर अनन्त गुण तो आ गये।

समाधानः- अनन्त गुण उसमें साथमें आ जाते हैं। ज्ञायक कोई ऐसी ज्ञायकता है कि अनन्त गुणोंसे भरी ज्ञायकता है। अपना अस्तित्व अनन्त गुणोंसे भरी ज्ञायकता है। ज्ञायकतामें अस्तित्व, वस्तुत्व आदि सब अनन्त-अनन्त शक्तियाँ उसमें आ जाती है। ज्ञायकता आनन्दसे भरी है। ज्ञायकता शान्तिसे (भरी है)। कितने ही गुण वचनमें नहीं आते, ऐसी अनन्त शक्तियोंसे भरी ज्ञायकता है।

... लक्ष्यमें भले न आवे, लेकिन उसकी महिमा आवे। विचारसे नक्की कर सकता है। ज्ञानी पर विश्वास रखना बराबर है, ज्ञानीने ही सब कर दिया। भले स्वयं कहे कि प्रभु! आपने किया और आपका उपकार है। आपने ही सब किया, हम कुछ नहीं जानते थे। आपने ही मार्ग दर्शाया। लेकिन ऐसा कहकर वे कर देते हैं, ऐसा नहीं, करना स्वयंको पडता है।

अनन्त शक्तियाँ भले गुरुदेव बतावे कि तेरा आत्मा कोई अगाध महिमासे भरा है। लेकिन उसकी प्रतीत स्वयंको करनी पडती है। स्वयं प्रतीत करता है कि बराबर है। अनन्त गुण कहीं दिखाई नहीं देते, परन्तु वह स्वयं नक्की करता है, विश्वास करता है।


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मुमुक्षुः- कार्य उभयसे हुआ ऐसा कहनेमें आये। ज्ञानीपुरुषके वचनसे और जीवके पुरुषार्थसे।

मुमुक्षुः- कार्य तो स्वयंने ही किया न। ज्ञानीने थोडे ही किया है। उपादानः- निमित्त कहनेमें आये। गुरुदेवने कर दिया ऐसा कहनेमें आये। करना पडता है स्वयंको। अनन्त कालमें स्वयं रखडा है। गुरुको पहिचाना नहीं है, भगवानको पहिचाना नहीं है, स्वयं रखडा है। मिले तो भी पहिचाना नहीं है, अपने दोषके कारण। इस पंचमकालमें गुरु मिले और वाणी स्वयं ग्रहण करे, अपूर्वता लगे तो अपूर्वता जागृत होती है। उनकी वाणीमें तो प्रबल निमित्त (था), उनकी वाणीका निमित्त तो प्रबल ही है, सबके लिये प्रबल है। लेकिन तैयारी स्वयंको करनी पडती है।

उनका उपकार अमाप है, लेकिन पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। गुरुदेव ही ऐसा कहते थे कि तू कर तो होगा।

मुमुक्षुः- शशीभाईने बहुत अच्छी..

समाधानः- स्वाधीनतासे होता है।

मुमुक्षुः- सबको गुरुदेवने..

समाधानः- सबको गुरुदेवने दृष्टि दी। तेरा द्रव्य स्वतंत्र है, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। तू तेरा पुरुषार्थ कर। लेकिन करनेवाला गुरुका उपकार माने बिना रहे नहीं। करनेवालेको उपकारबुद्धि आये बिना रहे नहीं।

मुमुक्षुः- करे स्वयं, फिर भी।

समाधानः- फिर भी कहे, गुरुदेव! आपने किया। आचाया भी ऐसा कहें। आचाया भी शास्त्रोंमें ऐसा ही कहते हैं।

मुमुक्षुः- परमगुरुके अनुग्रहसे।

समाधानः- हाँ, हमारे गुरुके अनुग्रहसे वैभव प्रगट हुआ। कुन्दकुन्दादि आचार्य न हुए होते तो हम जैसे पामरका क्या हुआ होता? ऐसा गुरुदेव कहते हैं। ऐसे गुरु ऐसे पंचमकालमें पधारे तो सबको उपकार हुआ, नहीं तो क्या होता? गुरुदेव पधारे तो सबको मार्ग स्पष्ट करके बताया।

मुमुक्षुः- ज्ञान मोक्षका कारण नहीं है, पुनः सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणी मोक्षमार्गः। तो मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चारित्राणी बंधमार्गः, ऐसा?

समाधानः- मिथ्यादर्शन, ज्ञान, चारित्रको बंधका मार्ग कहते ही हैं। लेकिन मुख्य उसमें मिथ्यादर्शन है न। मिथ्यादर्शनके कारण ज्ञानमें मिथ्यापन कहनेमें आता है। दर्शन मिथ्या यानी ज्ञान मिथ्या और चारित्र मिथ्या है। उसकी दृष्टि ऊलटी है, इसलिये आचरण भी मिथ्या और ज्ञान भी मिथ्या। दर्शनके कारण दोनोंमें उसमें मिथ्यापना लागू पडता


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है।

मुमुक्षुः- दर्शनके कारण दोनोंमें मिथ्यापना लागू पडता है। परन्तु स्वतंत्र दोनोंका देखा जाय तो? ज्ञान और चारित्र स्वतंत्र गुणकी अपेक्षासे लें तो...?

समाधानः- लेकिन उसे विपरीतता हो गयी है न। जाननेमें विपरीतता आ गयी है। दोष है, ज्ञानमें दोष है। दर्शनके कारण दोष, परन्तु दोष उसमें है, चारित्रमें भी दोष है। उसका कारण, उसका मुख्य कारण मिथ्यादर्शन है। लेकिन उसमें स्वयंमें भी दोष है।

मुमुक्षुः- हाँ, क्योंकि अमुक बार ऐसा आता है कि ज्ञान बन्ध-मोक्षका कारण नहीं है। और फिर इन दोनोंका..

समाधानः- ज्ञान यानी जानना वह बन्धका कारण नहीं है। लेकिन मिथ्या-विपरीत जाने वह तो नुकसान है न। वह तो दोष है। जाने, बाहर उपयोग जाय। जाने उसमें विकल्प आये, राग है वह दोषका कारण है। परन्तु उसमें मिथ्या-जूठ जाने वह तो दोष ही है, विपरीत जानता है वह तो।

मुमुक्षुः- तो फिर श्रेणिमें माताजी! एकत्व, .. ऐसे जो भेद श्रेणिमें पडते हैं, उस वक्त उपयोगात्मक ज्ञान भी परको जान रहा है, फिर भी वह ज्ञान आगे बढकर मोक्षको प्राप्त करता है। तो उस वक्त उसे उस ज्ञानमें...?

समाधानः- वह अबुद्धिपूर्वक है न, उसे बुद्धिपूर्वक नहीं है। अबुद्धिपूर्वक राग है। क्षयोपशमज्ञान है न। द्रव्य-गुण-पर्यायमें विकल्प जो फिरता है, उसमें ज्ञान फिरता है उसके साथ अबुद्धिपूर्वक विकल्प भी है। उतना अबुद्धिपूर्वकका राग भी है। इसलिये वहाँ केवलज्ञान होता नहीं।

मुमुक्षुः- उतना दोष है।

समाधानः- वह दोष है। ज्ञान फिरे... वहाँ साथमें अबुद्धिपूर्वकका विकल्प है। ज्ञान अधूरा है। एक ज्ञेयसे दूसरे ज्ञेयमें फिरता है, वह ज्ञानमें खण्ड-खण्ड होता है। उतना विकल्पके कारण है। साथमें विकल्प आता है। क्षयोपशम-अधूरा ज्ञान हो उसमें साथमें विकल्प आता है। सम्यग्ज्ञानीको ज्ञानमें दोष नहीं है, परन्तु साथमें विकल्प आता है वह उसे दोष होता है। सम्यग्ज्ञानीका ज्ञान सम्यक है। उसका ज्ञान सम्यक है, परन्तु साथमें विकल्प है वह दोष है। मिथ्यादृष्टिको तो दर्शनके कारण ज्ञान मिथ्या है। इसलिये उसे ज्ञानमें भी विपरीतता आ जाती है। जानना वह दोष नहीं है। लेकिन उसे विपरीत जानता है वह दोष है।

मुमुक्षुः- अज्ञान दशामें उतना अपराध है।

समाधानः- श्रद्धाके कारण जाननेमें विपरीतता है। चारित्र भी मिथ्या है।


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मुमुक्षुः- ज्ञान होनेके बाद विकल्प है, उसका अपराध है।

समाधानः- हाँ, विकल्पका। खण्ड-खण्ड ज्ञान है, ज्ञान खण्ड-खण्ड हो उसके साथ विकल्प है। क्षयोपशम ज्ञानीको विकल्प साथमें होता है।

मुमुक्षुः- परको जानना..

समाधानः- परको जानना छोडना ऐसे नहीं, लेकिन स्वसन्मुख दृष्टि कर। तू स्वयंको जान। स्वपरप्रकाशक सहज ज्ञात हो जाय वह (अलग बात है)। लेकिन तू तेरे आत्माको जान, ऐसा कहना है। जानना छोडना ऐसे नहीं, उसकी विपरीतता छोड। यथार्थ जान। विपरीत जानना छोड। यथार्थ आत्माका स्वरूप जान इसलिये सब यथार्थ ही आयेगा। आत्मा तो स्वपरप्रकाशक उसका स्वरूप है। तू स्व-ओर उपयोग कर, ऐसा कहना है।

... बन्धकी अवस्था, विभाव अवस्था, ज्ञायक जाने तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रमत्त-अप्रमत्तकी अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक पर दृष्टि करनी। दृष्टिकी प्रधानतासे कहते हैं। किसी भी अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रमत्त- अप्रमत्त विभावकी अवस्था, साधककी अवस्धा, साधककी अधूरी अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक स्व-परप्रकाशक। ज्ञायक परको जाने तो भी ज्ञायकको कहीं अशुद्धता नहीं आती, ज्ञायक तो ज्ञायक है। जाने इसलिये अशुद्धता नहीं आती। ज्ञायक तो ज्ञायक प्रत्येक अवस्थामें रहता है। वस्तु स्थिति ज्ञायककी.. प्रगट हुआ तो भी ज्ञायक ज्ञायक है। साधक अवस्थामें भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक पर दृष्टि करनी, ऐसा।

.. अवस्था पर हमारी दृष्टि नहीं है, परन्तु दृष्टि हमारी ज्ञायक पर है। ज्ञायक वह तो ज्ञायक ही है। ज्ञायक तो शुद्ध, शुद्ध ज्ञायक वह ज्ञायक है। कोई भी अवस्थामें ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रमत्त-अप्रमत्त अवस्थामें भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। ... जितना नहीं है। ज्ञायक तो पूर्ण अवस्था हो तो भी ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। उस ज्ञायक पर दृष्टि करने जैसी है। ज्ञाताधाराकी अवस्थामें ज्ञायक ज्ञायक ही है। अनादिअनन्त ज्ञायक ज्ञायक ही है।

मुमुक्षुः- प्रवचनसारमें ऐसा कहा कि ... रागरूप है और अशुभ परिणामके समय अशुभरूप है, उस वक्त आत्मा तन्मय है।

समाधानः- वह अपेक्षा अलग है। यहाँ तो द्रव्य पर दृष्टि करनी, द्रव्यकी प्रधानतासे बात है। द्रव्यदृष्टिकी प्रधानतासे बात है। द्रव्य अनादिअनन्त शुद्ध ही है। उस द्रव्य पर दृष्टि करनी। चाहे किसी भी अवस्थामें ज्ञायक ज्ञायक ही है। ज्ञायकमें,.. पर्यायके कारण ज्ञायकमें अशुद्धता नहीं आती, ऐसा कहते हैं। और यहाँ कहते हैं कि जो पर्याय होती है, वह पर्याय कहीं ऊपर-ऊपर अलग नहीं है, द्रव्य उस रूप परिणमता है, ऐसा कहनेका आशय है। प्रवचनसारमें। अशुद्धताकी अवस्थामें तेरा द्रव्य उसमें परिणमता है,


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ऐसा कहते हैं। वह जड नहीं है। वहाँ दूसरी अपेक्षासे बात है। यहाँ दूसरी अपेक्षासे बात है।

अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य जैसा है वैसा है। ऐसे द्रव्यको पहिचान। फिर साधक अवस्थामें वह ज्ञायक तो ज्ञायक ही है। प्रगट हुआ वह ज्ञायक। ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी, ज्ञायक ज्ञायक ही है। अधूरी अवस्था जितना ज्ञायक नहीं है। इसलिये दृष्टि ज्ञायक पर करनी। लेकिन वहाँ ऐसा कहते हैं कि जो पर्याय... पर्यायका ज्ञान कर। लेकिन वह अशुद्धता तेरा स्वभाव नहीं है। परन्तु वह पर्याय तेरी अवस्था है। पर्याय जडकी नहीं है, वहाँ ऐसा कहनेका आशय है।

मुमुक्षुः- द्रव्य तन्मय नहीं है।

समाधानः- तन्मय कहें, व्यवहारसे तन्मय कहलाता है। वास्तविक द्रव्यका स्वभाव उसमें पलटकर कहीं द्रव्य उस रूप नहीं हो जाता। तो-तो शुद्ध होवे ही नहीं। वस्तु स्वभावसे द्रव्य शुद्ध है, परन्तु पर्यायमें उसे अशुद्धता कहनेमें आये। व्यवहारसे अशुद्धता कहनेमें आये। बिलकूल नहीं हुआ हो तो जडमें ही होता है ऐसा नहीं है। तो स्वयंको पुरुषार्थ करके टालना नहीं रहता। तन्मय होता है, वह व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आता है। प्रवचनसारमें उस अपेक्षासे बात है।

ऐसा तन्मय नहीं है कि उसमेंसे बिलकूल भिन्न ही न पडे। जैसे बर्फ और शीतलता, उसका स्वभाव ही (तन्मय है)। वैसे उसका ज्ञानस्वभाव अलग नहीं पडता ऐसा तन्मय है। उस प्रकारसे विभाव तन्मय नहीं है। परन्तु वह तन्मय है, व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आये। क्योंकि उस रूप वह परिणमा है, वर्तमानमें उस रूप परिणमा है इसलिये। इसलिये उसे व्यवहारसे तन्मय कहनेमें आता है। प्रवचनसारमें वह कहते हैैं। दोनों अपेक्षाएँ भिन्न- भिन्न हैं। वहाँ पर्याय तेरेमें होती है, ऐसा कहते हैं। यहाँ कहते हैं, उस पर्यायके स्वरूप पर दृष्टि नहीं करके, तू ज्ञायक है, उस पर दृष्टि कर। पर्यायके फेरफार हो, उस पर दृष्टि नहीं करके, तू ज्ञायक सो ज्ञायक है, ऐसी शुद्धतासे भरा शुद्ध ज्ञायक है। वहाँ ऐसा कहते हैं। पर्यायकी अशुद्धता तेरेमें आती नहीं।

इसलिये तू द्रव्यदृष्टि प्रगट कर, भेदज्ञान प्रगट कर, तो ही मुक्तिका मार्ग प्रारंभ होता है। इसलिये ऐसा नहीं कहना है कि वह पर्याय जडमें होती है। पर्याय जडमें होती है ऐसे नहीं, तेरी पर्याय, तेरी चैतन्यकी पर्यायमें तेरे पुरुषार्थकी मन्दतासे होता है। उसका ज्ञान कर। लेकिन दृष्टि तो ज्ञायककी शुद्धता कैसी है, यह बताते हैं वहाँ। ऐसी परिणति हो तो ही स्वानुभूति हो, तो ही मुक्तिका मार्ग प्रारंभ हो। लेकिन पर्याय जडमें होती हो तो पुरुषार्थ करना कहाँ रहता है? पर्यायमें वह अशुद्धता है और उसे टालकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। वह पलटकर शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। शुद्धता


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तेरे द्रव्यमें भरी है, उसमेंसे शुद्धपर्याय प्रगट होती है।

.. प्रमत्त-अप्रमत्त दशामें ज्ञायक सो ज्ञायक है। छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतरमें स्वानुभूति आनन्दमें लीन होते हैं, बाहर आते हैं। उस दशामें झुलते-झुलते कहते हैं, ज्ञायक तो ज्ञायक है। दोनों अवस्थामें ज्ञायक वह ज्ञायक ही है।

मुमुक्षुः- ज्ञायक भिन्न रह गया? समाधानः- अवस्था भिन्न, अवस्थाका स्वरूप अलग और ज्ञायक द्रव्यका स्वरूप अलग है, ऐसा बताते हैं। पर्याय-ओर लक्ष्य.... पर्याय अपनेमें होती है। परन्तु द्रव्यदृष्टिसे पर्याय अपनी नहीं है, ऐसा द्रव्यदृष्टिसे कहते हैं। अपनी नहीं है इसका मतलब जडमें होती है, ऐसा नहीं है। वह अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है। पर्याय तो क्षणिक है। ऐसा कहते हैं। होती तो है चैतन्यकी पर्याय, जडकी नहीं होती।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!