Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 167.

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ट्रेक-१६७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... विशेष स्पष्टीकरण करते हुए दूसरी टीका लिखी। यह टीका पूर्ण होनेका बाद दूसरी टीका लिखी। उसमें ऐसा है कि... १७-१८ गाथाकी टीका पूरी करनेके बाद फिरसे दूसरी...

समाधानः- जानता नहीं है। ज्ञायक द्रव्यरूप स्वभावसे होने पर भी प्रगट जानता नहीं है। शक्तिमें जानता होने पर भी जानता नहीं है। सेवन करता होने पर भी, वह शक्ति एवं द्रव्यरूपसे। होने पर भी, उसका अस्तित्व होनेके बावजूद प्रगटरूपसे सेवता नहीं। प्रगटपने आराधता नहीं।

मुमुक्षुः- सामर्थ्य होने पर भी पर्याय ... जानता नहीं।

समाधानः- हाँ, नहीं जानता है।

मुमुक्षुः- होने पर भी जानता नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञायक होने पर भी उसकी उपासना करनेका उपदेश क्यों देनेमें आता है? वह जो पेरेग्राफ है न उसका...

समाधानः- शक्तिमें द्रव्यरूपसे तू उस रूप है, जानता होने पर भी जानता नहीं है।

मुमुक्षुः- ... जानता ही नहीं है। ... हो रहा है तो फिर क्यों उपासना? कि सेवन ही नहीं किया। ऐसा उत्तर दिया।

समाधानः- आचार्यदेव अनुभूतिस्वरूप कहते हैं, तू अनुभवमें आ रहा है, ऐसा कहना चाहते हैं। परन्तु पुरुषार्थ करके प्रगट अनुभूति हो तब तुझे संतोष होगा। इसलिये द्रव्यरूप तू है, ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। तेरा ज्ञायक उस रूप है। सनतभाईके साथ दूसरा कोई आया था।

मुमुक्षुः- तुझमें जो काम हो रहा है, उसे जाननेका है और तू जानता नहीं है। .... वह तू है। ... कहाँ दूसरेको पहिचानना है? जिस रूप तू है उस रूप तुझे जानना है। दूसरा हो तो ठीक कि दिखाई नहीं देता। तेरेमें ही काम हो रहा है, कायम टिकनेका। मैं शरीर, मैं राग,...

मुमुक्षुः- भैंसेका ध्यान करते-करते मैं भैंसा हो गया हूँ। आबालगोपल तुझे मनुष्यरूप ही अनुभवमें आ रहा है, मनुष्यरूप ही तू अनुभवमें आ रहा है।


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समाधानः- आबालगोपाल सबको अनुभूतिस्वरूप आत्मा हो रहा है। वह पहिचानता नहीं है।

मुमुक्षुः- अन्यथा अध्यवसित होता है। हो रहा है, जिस स्वरूपमें है उस रूप। लेकिन अध्यासित अन्यथा करता है। एकत्व स्पष्ट प्रकाशमान होने पर भी कषायचक्रके साथ एकमेक करके अन्यथा... चौथी गाथा। आबालगोपाल सबको एकत्वरूप जो है उस रूप... सम्यग्ज्ञान है लेकिन दर्शन मिथ्या है। अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अनुभूयमानेति, ग्राह्यमानेति नहीं है।

मुमुक्षुः- भावार्थमें ज्ञानका अर्थ लिया है। मुमुक्षुः- ले सकते हैं। अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा। दूसरा लो, पारिणामिकभावस्वरूप भगवान आत्मा, वह भी अनुभूतिके अर्थमें ले सकते हैं। अथवा अनुभूति अर्थात ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा, ऐसा ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा अनुभूयमानः वेदनमें आ रहा है, उस स्वरूपमें, तो भी वह जानता नहीं है। अनुभूतिमें ले सकते हैं। वह अनुभूति अर्थात ज्ञान-ज्ञान कहा, अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा। ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा स्वयं अनुभूयमाने। वह स्वरूप उसे वेदनमें आ रहा है कि मैं तो ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान हूँ। फिर भी जानता नहीं। उस अनुभूयमानमें जानना नहीं ले सकते।

मुमुक्षुः- माननेमें जानना नहीं ले सकते। मुमुक्षुः- अनुभूतिस्वरूपमें ले सकते हैं। उसमें लिया है न? षटकारकरूप। ७३ गाथा।

मुमुक्षुः- वहाँ पारिणामिक लिया है। वहाँ स्पष्ट ... मुमुक्षुः- अथवा ज्ञानस्वरूपसे ध्रुव, ज्ञानस्वरूपसे ध्रुव लो। ज्ञान लें तो। और ज्ञान न लें तो पारिणामिकस्वरूप।

मुमुक्षुः- अनुभवमें आ रहा है उसका आपने अर्थ किया न कि वेदनमें आ रहा है।

मुमुक्षुः- हाँ, वेदनमें आ रहा है। बहुत स्पष्ट बात है।

मुमुक्षुः- ज्ञानका परिणमन हो रहा है, वह वेदनमें आ रहा है।

समाधानः- हाँ, उस अर्थमें है। ज्ञानका वेदन हो रहा है। वह अर्थ है।

मुमुक्षुः- शास्त्रमेंसे यह सब समझमें आ जाता हो तो प्रत्यक्ष ज्ञानीकी जरूरत ही कहाँ है?

मुमुक्षुः- प्रत्यक्ष सदगुरु सम नहीं, परोक्ष जिन उपकार। ऐवो लक्ष्य थया विना, ऊगे न आत्मविचार। आत्मविचार भी उगे नहीं।


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समाधानः- गुरुदेवने मार्ग इतना स्पष्ट कर दिया है। उसमेंसे गुरुदेव द्रव्य-गुण- पर्यायकी सूक्ष्म बातें (करते थे), सबके कानमें डाल दी है। कहीं कोई अटके नहीं ऐसे। नहीं तो कहाँ क्रियामें थे। शुभभावमें। वहाँसे द्रव्य-गुण-पर्यायमें (ले आये)। उस बातको एकदम सूक्ष्म करके बतायी। सब सूक्ष्म बातें बाहर आ गयी।

मुमुक्षुः- बाह्य क्रिया और शुभरागकी ही बात थी। उसमेंसे द्रव्यानुयोगका स्वभाव, विभाव, द्रव्य, गुण, पर्याय आदि..

समाधानः- क्रियाका तो अलग किया, परन्तु द्रव्य-गुण-पर्यायका गुरुदेवने एकदम स्पष्टीकरण कर दिया।

समाधानः- ... आत्माकी रुचि करनी, उसकी महिमा करनी, उसकी लगन लगानी। बाहरकी रुचि कम करनी। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, आत्माकी महिमा करनी। आत्माका स्वभाव क्या है? आत्मा जाननेवाला ज्ञायक है, उसमें भरा है, उसमें अनन्त गुण, वह अपूर्व वस्तु है। बाहर कहीं अपूर्वता नहीं है। उसकी अपूर्वता लगाकर उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना, भेदज्ञान करना। वह करनेका प्रयत्न करना। उसके लिये वांचन, विचार, शास्त्र-स्वाध्याय सब करने जैसा है। मन्दिर और प्रतिष्ठा हो, भगवान जिनेन्द्र देवकी महिमा, गुरुकी महिमा आदि करने जैसा है।

चैतन्यतत्त्व कैसे पहचानमें आये? आत्मा कैसे पहचानमें आये? अनन्त कालसे पहचाना नहीं। गुरुदेवने बताया। सब बाह्य क्रियामें धर्म मानते थे, शुभभावसे धर्म होगा, ऐसा मानते थे। लेकिन सब शुभभावमें (धर्म नहीं है)। बीचमें शुभभाव आते हैं, लेकिन वह आत्माका स्वरूप नहीं है। उन सबसे आत्माको भिन्न पहिचानना। आत्मामें अनन्त गुण (हैं)। कोई अदभुत तत्त्व है, अनुपम तत्त्व है, उसे पहिचाननेका प्रयत्न करना। वह अपूर्व वस्तु है। उसकी स्वानुभूति कैसे हो? मुक्तिका मार्ग कैसे प्रगट हो? वह जीवनमें करनेका है।

बचपनसे बहुत सुना है, गुरुदेवने कहा है। उसे लक्षणसे पहिचानकर भिन्न करना, वह करनेका है। (भिन्न ही है), परन्तु स्वयं भ्रान्तिसे उसमें जुडता है। पुरुषार्थ करना वही करना है। स्वयं पुरुषार्थ करते रहना, अभ्यास करते रहना। बारंबार एक ही करते रहना। चैतन्य ज्ञायक है, ज्ञायक है, उसीका अभ्यास करते रहना। विस्मृत हो जाय तो भी वही अभ्यास करते रहना। वही करनेका है।

बारंबार भेदज्ञान करते रहना। ये शरीर भिन्न, विभाव भिन्न, सब भिन्न है। मार्ग एक ही है। उसके लिये सब विचार, वांचन सब उसके लिये हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब एक चैतन्यके लिये (है)। चैतन्य, बस, चैतन्य.. चैतन्य, उसीका रटन करने जैसा है, बारंबार। उसका स्वभाव पहिचानकर वह करनेका है।


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मुमुक्षुः- प्रगट है, महान है, आप कहते हो कि लक्षणसे ही आपको प्राप्त हो जायगा।

समाधानः- लक्षणसे पहिचाना जाता है। वह स्वयं ही है, अन्य कोई नहीं है।

मुमुक्षुः- स्वयं उस रूप ही है।

समाधानः- उस रूप ही है।

मुमुक्षुः- हाँ जी। गुरुदेव बहुत कहकर गये हैं और आप बहुत कहते हो। परन्तु गुरुदेव परमगुरु और मेरे तो आप भी गुरु ही हो।

समाधानः- .. अभ्यास करते रहना। बारंबार अभ्यास करते रहना, न हो तो भी। बारंबार करते रहना।

मुमुक्षुः- आपको तो धन्य है! आप जैसी कोई व्यक्ति इस विश्वमें नहीं है, माताजी! नमन करने जैसी व्यक्ति या स्मरण करने जैसी व्यक्ति तो एक आप ही हो।

समाधानः- आपका स्वास्थ्य बराबर नहीं रहता था, ठीक रहता है? .. महाभाग्य, इतने जीवोंको तैयार कर दिये। पूरा हिन्दुस्तान तैयार कर दिया। हर एक व्यक्ति कितने तैयार हो गये हैं। आत्मा-आत्मा करना सीख गये हैं। इस पंचमकालमें सब क्रियामें पडे थे। शुभभावसे धर्म होता है, ऐसा मानते थे। उसके बजाय आत्मा.. आत्मा.. शुभाशुभ भावसे आत्मा न्यारा है। भले बीचमें शुभभाव आये, लेकिन तेरा स्वभाव नहीं है। तू उससे भिन्न है, ऐसा कहनेवाले गुरुदेव मिले। द्रव्य-गुण-पर्यायकी गहरी-गहरी .. की। गुरुदेवने पूरे हिन्दुस्तान, हिन्दी-गुजराती सबको गुरुदेवने तैयार किया। गुरुदेवने ही सबको मुक्तिके मार्ग पर मोड दिये हैं। महाभाग्यकी बात है। ऐसा भेदज्ञानका, स्वानुभूतिका मार्ग बताया।

मुमुक्षुः- किसीको गुरु न मिले, ऐसे गुरु पंचमकालमें.. आहाहा..! कुछ अलग ही प्रकारसे कहते थे।

समाधानः- भेदज्ञान करना वही मुक्तिका मार्ग है, स्वानुभूति करना वही (मुक्तिका मार्ग है)।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान ही मुख्य वस्तु है।

समाधानः- भेदज्ञान मुख्य वस्तु है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान होनेके बाद ही अपने आत्माका लक्ष्य होता है।

समाधानः- केवलज्ञान बादमें होता है, पहले तो उसका भेदज्ञान होता है। जो परिणति आये उसका भेद वर्ते या उसका रस टूट जाय या भेदज्ञान हो कि मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति रहा करे। कभी-कभी उसकी स्वानुभूति हो। बाकी भेदज्ञानकी धारा निरंतर वर्तती रहे, ऐसी सम्यग्दृष्टिको परिणति होती है।


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मुमुक्षुः- शान्ति अर्थात समाधि रहे।

समाधानः- हाँ, आंशिक ज्ञायकके वेदनकी परिणति रहनी चाहिये न। ... करनेका स्वयंको बाकी रहता है। बाकी सच्चा ज्ञान... गुरुदेवने परम उपकार किया है। सबको उपकार करके कहाँ पहुँचा दिये हैं! यथार्थ ज्ञान... इसके पहले भी कोई आया था कि गुरुदेवने कहाँ... गुरुदेवने सबको कितनी यथार्थ दृष्टि करवायी है। ऐसा देते हैं वैसी तो हमारे गुरुदेवने सबको यथार्थ दृष्टि दी है। कहीं गलत जगहमें नहीं फँसकर एक ज्ञायक सत्य है। गुरुदेवने यथार्थ दृष्टि दी है। सब ऐसा माने कि निमित्तमात्र हूँ, कर नहीं सकता, ऐसा बोले। लेकिन अंतर परिणति होनी एक अलग वस्तु है। सबको दिया। आधे घण्टे, एक घण्टेमें सबको दिया जाता है। ऐसे दिया जाता हो तो अनन्त कालसे क्यों नहीं हुआ? शास्त्रोंमें उसकी दुर्लभता कितनी बतायी है।

गुरुदेवने पामरको पार उतारा, ऐसा (कार्य) किया है। .. सबको दिये हैं। सब भूले हुएको मार्ग दिया है। कहीं भूला न पडे (ऐसे) दिव्यचक्षु दे दिये हैं। स्वयंको चलनेका बाकी रहा है। बाकी किस रास्ते पर जाना, वह बता दिया है। क्रियामें मत अटकना, शुभाशुभ भावमें.. शुभभावमें मैंने इतना किया, यह किया, वह किया, इतना वांचन किया, इतना रटन किया, इतना पढा, मन्दिर गया, पूजा की... कहीं अटक जाय ऐसा नहीं रखा है। पर्यायमात्र... पर्यायका लक्ष्य करनेमें अटकेगा तो शाश्वत द्रव्य ग्रहण नहीं कर सकेगा। मात्र ज्ञायकको जानो। बाह्य जाननेसे, एक-एक ज्ञेयको, ऐसे खण्ड-खण्ड ज्ञानको जाननेसे भी अखण्ड पकडमें नहीं आयगा। अखण्डको ग्रहण कर। कहाँसे कहाँ लाकर रख दिया है। कहाँ ये बात सब करते और कहाँ वह बात है। ऐसी बात उसे सूक्ष्म लगे, गुरुदेवकी बात तो सूक्ष्मसे सूक्ष्म है। द्रव्य, गुण, पर्याय।

.. परन्तु अन्दर द्रव्यको ग्रहण करना। क्षणिक पर्याय जो हो रही है। पर्यायमें भी अटकना नहीं। कहाँ गुरुदेवने लाकर रख दिया है। भेदज्ञान करना। समयसारमें (आता है), नयपक्षोंसे अतिक्रान्त। किसी भी नयपक्षका ग्रहण नहीं करना।

मुमुक्षुः- एक तो अनादिका अनजाना मार्ग...

समाधानः- उसमें कहीं-कहीं अटक गया है। भेदज्ञान होना चाहिये, जागते, सोते, स्वप्नमें। तो कहते थे, सब उनका ही है। हम सबको ऐसा है, ऐसा उसने कहा। एक बहिन थी न? सबको उन्होंने ऐसा दिया है। सब कहाँ खडे हैं? भूल खा जाते हैं।

मुमुक्षुः- .. सूक्ष्म कर, ऐसा आता है। इसमें क्या कहना है? कैसे करना?

समाधानः- उपयोग स्थूल हो गया है। सब स्थूलतासे ग्रहण होता है। ये सब बाहरका है। बाहरके उपयोगमें ये जो विकल्प, राग आदि ग्रहण कर रहा है, स्थूल


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बाह्य वस्तु ज्ञेयरूपसे ग्रहण (करता है)। अन्दर आत्माको ग्रहण करे वह उपयोग सूक्ष्म है। आत्माका स्वभाव पहिचानकर अंतरमें जाय, वह उपयोग सूक्ष्म है। सूक्ष्म होकर अंतरमें जाय तो स्वयंको ग्रहण कर सकता है। बाकी बाह्य वस्तु ग्रहण करे या स्थूल- स्थूल विचार करे वह सब उपयोग स्थूल है। अंतरमें निज चैतन्यद्रव्यको ग्रहण करना, वह उपयोग सूक्ष्म है।

मुमुक्षुः- ग्यारह अंग तकको स्थूल उपयोग कहा। परमागमसारमें है कि ग्यारह अंगका उपयोग स्थूल है और चैतन्यस्वभावको ग्रहण करता है वह उपयोग सूक्ष्म है।

समाधानः- (वह) उपयोग सूक्ष्म है। चैतन्यद्रव्यको ग्रहण नहीं किया है इसलिये उपयोग स्थूल है। निज चैतन्यको ग्रहण करे तो उपयोग सूक्ष्म है। ग्यारह अंगका ज्ञान किया, उसमें सब जाना, परन्तु आत्माको ग्रहण नहीं किया तो सब स्थूल है। अन्दरमें आत्मा चैतन्यतत्त्व ग्रहण (नहीं किया)। भले उसे श्रुतज्ञान हुआ, द्रव्य-गुण-पर्याय जाने, सब जाना तो सही, लेकिन मैं यह चैतन्य हूँ, ऐसे ग्रहण नहीं किया। वह उपयोग स्थूल है।

उपयोग स्वसन्मुख नहीं मुडा, उपयोग बाहर ही रहा इसलिये उपयोग स्थूल है। अंतरमें चैतन्यको ग्रहण करे तो उपयोग सूक्ष्म है। कुछ भी जाना, तो भी उपयोगको स्थूल कहनेमें आता है। क्योंकि स्वयंको ग्रहण नहीं किया इसलिये। स्वसन्मुख-अपनी ओर दिशा मुडी इसलिये उपयोग बाहर है। बाहर रहा हुआ उपयोग स्थूल है। ग्यारह अंगमें उसे सब आ गया। द्रव्य-गुण-पर्याय सब, अनेक जातकी बातें, श्रुतज्ञानकी बातें जानी, चैतन्यकी ओर उपयोग नहीं गया, निज स्वभावको ग्रहण नहीं किया, इसलिये स्थूल है। ग्यारह अंगमें नौ तत्त्व, छः द्रव्य, द्रव्य-गुण-पर्याय सब जाना।

मुमुक्षुः- स्थूल उपयोगके सम्बन्धमें तो आप जो विस्तार करते हो, वह तो ख्यालमें आवे। परन्तु सूक्ष्म उपयोगका विषय, उनके प्रश्नमें वह है। हमारे वहाँ चला था। इसलिये पूछा।

समाधानः- अपने अंतरमें उपयोग जाय वह उपयोग सूक्ष्म है। स्वसन्मुख जाय कि मैं यह चैतन्य हूँ, यह चैतन्यद्रव्य हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसे निज स्वभावकी ओर जाय, उसकी दिशा बदले। उसमें दिशा बाहर ही है। दिशा अंतरमें जाय, अपने अरूपी तत्त्वको ग्रहण करे तो उपयोग सूक्ष्म है। अंतरमें जाकर स्वभावको ग्रहण करे तो सूक्ष्म है। धीरा होकर अंतरमें यह स्वभाव है और यह विभाव है। ऐसे स्वयं अपने स्वभावको ग्रहण करे तो सूक्ष्मता कहनेमें आती है।

मुमुक्षुः- अरूपी तत्त्वको ग्रहण करनेके लये लक्षणका भावभासन पहले विकल्पात्मक होना चाहिये, ऐसा कुछ है?

समाधानः- लक्षण स्वयं स्वयंको पहिचाने। भावभासन। लक्षण, भावभासन वह


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सब एकसाथ ही होता है। यह चैतन्यलक्षण है और यह विभावलक्षण है। दोनों लक्षणको भिन्न करे तो वह वास्तविक सूक्ष्मता है। भावभासन हो तो अंतरमें उसे ग्रहण हो जाय। यथार्थ भावभासन हो तो अंतरमें चैतन्य ग्रहण हो ही जाता है। अभी तक यथार्थ भावभासन नहीं हुआ है।

मुमुक्षुः- विकल्पात्मक यथार्थ भावभासन नहीं हुआ है?

समाधानः- विकल्पात्मक वह बुद्धिसे होता है। इसलिये उसे व्यवहारसे यथार्थ कहनेमें आता है। वास्तविक यथार्थ स्वयंको-चैतन्यको ग्रहण करे तो ही वह यथार्थता है। वास्तविक यथार्थता तब कहनेमें आती है। बुद्धिसे निर्णय करे तो उसे यथार्थ कहनेमें आता है, परन्तु वास्तविकरूपसे यथार्थ स्वयंको ग्रहण करे तब कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- ऐसा कुछ है कि परद्रव्यकी पर्याय राग और ज्ञान, प्रगट ज्ञानभाव, प्रगट ज्ञानभाव उसे ख्यालमें आये कि यह जानपना, यह जानपना, यह जानपना। ऐसे ख्यालपूर्वक यह जाननेवाला सो मैं, ऐसा जा सकता है?

समाधानः- रागके साथ जो ज्ञान है वह ज्ञान है, वह एक क्षणिक पर्याय है। इसलिये वह पर्याय है उतना ही मैं नहीं हूँ, मैं तो शाश्वत हूँ। अखण्ड ज्ञायक हूँ, ऐसे ग्रहण होना चाहिये।

मुमुक्षुः- ऐसा त्रिकाली जाननेवाला।

समाधानः- हाँ, मैं त्रिकाल जाननेवाला हूँ। ये क्षणिक जो ज्ञानकी पर्याय क्षण- क्षणमें बदलती है वह क्षण-क्षणमें बदलती पर्याय, ऐसा मैं नहीं हूँ। परन्तु मैं शाश्वत स्वयं ज्ञायक ही हूँ। स्वयं मेरा अस्तित्व ही ज्ञायक है। मेरा अस्तित्व ज्ञायकतासे ही रचित है। स्वयं रचित है। ज्ञायकतास्वरूप जो अस्तित्व है वही मैं हूँ। मात्र ये क्षण- क्षणमें परिवर्तन होता है, वह परिवर्तन मेरा मूल वास्तविक स्वरूप नहीं है। परन्तु स्वयं ज्ञायकसे ही मेरा अस्तित्व ज्ञायकतासे रचित अखण्ड है। वह मैं ज्ञायक। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करे।

ये क्षणिकमात्र जो ज्ञान-ज्ञान दिखता है, वह मेरा मूल अस्तित्व नहीं है। वह तो पर्याय बदलती है। ऐसे ग्रहण होना चाहिये। अनन्तासे भरा अखण्ड ज्ञायकतासे रचित अस्तित्व अनन्त-अनन्त अगाध शक्तियोंसे भरा जो ज्ञायकताका अस्तित्व है, वह मैं हूँ। अनन्तता उसे दिखती नहीं है, लेकिन उसे इतनी महिमा अंतरमें आ जाती है कि जो अस्तित्व ज्ञायकतासे रचित है, अगाध शक्तिओंसे भरा ऐसा मेरा अस्तित्व है। खाली अस्तित्व या ज्ञायक ऐसे नहीं, परन्तु अनन्त शक्तिओंसे भरा, ऐसी जो ज्ञायकता, वैसी मेरी ज्ञायकता है। ऐसे महिमापूर्वक अंतरमेंसे उसे ज्ञायकता ग्रहण होनी चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!