Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 201.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 198 of 286

 

PDF/HTML Page 1302 of 1906
single page version

ट्रेक-२०१ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- .. वह प्रश्न होता है कि आत्मा है, तो सब व्यक्तिमें भिन्न-भिन्न आत्मा है कि सृष्टिमें एक ही आत्मा है और उसका अंश है?

समाधानः- सब भिन्न-भिन्न आत्मा हैं, अंश नहीं है। सब द्रव्य भिन्न-भिन्न हैं। जगतमें जो आत्मा हैं, सब स्वतंत्र हैं। यदि एक अंश हो तो एकको दुःखका परिणाम हो, दूसरेको दूसरा परिणाम हो, दूसरेको दूसरा परिणाम हो, सबके परिणाम एक समान नहीं होते। एकको दुःख हो तो सबको दुःख होना चाहिये। एक मोक्षमें जाय, कोई स्वानुभूति करे, कोई अंतर आत्माको पहचाने तो कोई नहीं पहचानता है, किसीको जन्म-मरण खडे रहते हैं, किसकी मुक्ति होती है। अतः ऐसे भेद पडते हैं। प्रत्येक आत्मा स्वतंत्र हैं, अंश नहीं है।

सब स्वतंत्र आत्मा हैं, किसीका अंश नहीं है। एक अंश है और एक पूर्ण वीतराग है, उसके सब अंश हैं, ऐसा नहीं है। जो वीतराग होते हैं वह स्वतंत्र स्वयं राग- द्वेष छोडकर सर्वज्ञ होता है। फिर उसे विभाव होता ही नहीं, निर्मल होता है। फिर उसके थोडे अंश रखडे और थोडे निर्मल रहे, ऐसा नहीं होता। वह स्वतंत्र स्वयं... प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। स्वयं राग-द्वेष करे स्वतंत्र और वीतरागता करे स्वतंत्र, दोनों स्वतंत्र वस्तु हैं। स्वयं अपने पुरुषार्थसे करता है। स्वयं वीतराग हो, स्वयं राग-द्वेष छोडे। किसीका अंश हो तो एक मोक्षमें जाय तो एक संसारमें रहे, ऐसा नहीं बनता। इसलिये प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं।

मुमुक्षुः- योगवसिष्ठ मैंने पढा। उसमें ऐसा होता है कि आत्मा एक ही है। इसलिये मुझे द्विधा हुयी कि वह भी आत्माकी बात है, यह भी आत्माकी बात है। तो दोनों भिन्न-भिन्न कैसे हो सकते हैं? धर्म भले भिन्न प्रकारसे बतायें, परन्तु होना चाहिये एक ही। आत्माकी बात है तो एक ही वस्तु होनी चाहिये न? भिन्न-भिन्न कैसे हो ही सकती है? इसलिये द्विधा होनेसे योगवसिष्ठका तो किसे पूछने जाना? मैं किसीको ऐसा जानती नहीं। आपके पास समाधान कर सकुँ इसलिये यहाँ दौडी आयी।

समाधानः- ऐसा है कि अलग दृष्टिमें अलग बात आये। उसमें यथार्थ क्या है, स्वयं विचार करके नक्की करना। सभी द्रव्य यदि एक ही हों, एक ही अंश हों तो


PDF/HTML Page 1303 of 1906
single page version

जीवकी स्वयंकी स्वतंत्रता रहती नहीं। स्वयं परतंत्र हो गया। वस्तुमें ऐसा अन्याय कुदरतमें नहीं होता।

स्वयंको पुरुषार्थ करना हो तो एक अंश पुरुषार्थ करे और दूसरा अंश संसारमें रखडे, ऐसा तो हो सकता नहीं। इसलिये प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। इसलिये उसमें जो आया उसकी दृष्टि अलग है, ऐसा समझ लेना। स्वयंको न्यायसे क्या बैठता है, यथार्थ वस्तुस्थिति क्या है, अपना स्वभाव क्या है, वह स्वयं अपनेसे नक्की कर लेना कि इसमें ऐसा है और उसमें वैसा है, तो यथार्थ क्या होना चाहिये? सब एक ही हो तो जीवकी स्वतंत्रता कहीं नहीं रहती। स्वयं स्वतंत्रपने कर सके ऐसा होना चाहिये। उसके बजाय सब अंश एक हों तो स्वतंत्रता नहीं रहती।

मुमुक्षुः- मेरे मनमें निश्चय तो यही हुआ। फिर भी इसमें यह पढा, उसमें ऐसा है। मुझे ऐसा हुआ कि मेरी अज्ञानता हो सकती है, मेरी समझमें फर्क पड सकता है। आप ज्ञानी हो, आप यहाँ तक पहुँचे हो तो आपके पास (समाधान करने आयी हूँ)।

समाधानः- प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र हैं। ईश्वर कर्ता है, ईश्वर सब करता है। ईश्वर कर्ता हो नहीं सकते। वीतराग हो जाय वह कर्ता हो तो उसमें रागादि सब आ गया। जो वीतराग हो वह स्वयं अपनेमें ही होते हैं। और उसके अंश नहीं होते। उसके अंशका अर्थ यह कि स्वयं एक चैतन्यद्रव्य आत्मा है, उसमें उसकी पर्यायें, उसकी अवस्थाएँ, उसमें अनन्त गुण और उसकी अनन्त अवस्थाएँ वह उसके अंश हैं। बाकी दूसरे द्रव्य उसके अंश नहीं हैं।

स्वयं निज स्वभावका कार्य करे, स्वयं ज्ञानरूप, आनन्दरूप उसका कार्य करे, वह उसके अंश समझना। बाहरके अंश वह उसका अंश नहीं है। अपने अंश हैं वह स्वयंके अंश है। बाहरके अंश, दूसरे जीवोंके अंश वह उसके अंश नहीं है।

एक द्रव्यके अन्दर अनन्त स्वभाव होते हैं, अनन्त जातके कार्य होते हैं, जीव विभावमें हो तो राग-द्वेषके विकल्पके अनेक जातके वह कार्य करता है। वह उसके अंश हैं। और स्वभावमें तो ज्ञानरूप, आनन्दरूप, अपनी निर्मलतारूप, विकल्प रहित अकेली निर्विकल्प अपूर्व स्वानुभूति, लौकिकमें जिसका अंश भी नहीं है, ऐसी अपूर्व, जिसे किसीके साथ मेल भी नहीं है, ऐसे अनुपम आत्माका कार्य करे वह उसके अंश हैं। ये बाहर द्रव्यके अंश वह अंश नहीं है। अन्दर स्वयं अपने अंशस्वरूप परिणमता है। दूसरेके अंशरूप स्वयं नहीं परिणमता।

मुमुक्षुः- प्रत्येक आत्माका स्वभाव एक है, उसका अर्थ यह हुआ न?

समाधानः- स्वभाव एक जातिका है। एक जात है। जाननेवाला है। सब जीव


PDF/HTML Page 1304 of 1906
single page version

जानते हैं। ये पुदगल कुछ जानता नहीं। ये पुदगल एक जातिके हैं। इसमें वर्ण, गन्ध, रस ऐसा सब हो, वह एक जात। वह सब एक जात है। और जो जाननेवाला-जाननेवाला है, वह जाननेकी अपेक्षासे सब जाननेवाले एक जातिके। परन्तु उसकी जात यानी सब एक नहीं हो जाते।

मुमुक्षुः- हम सिर्फ एक ध्यान रखे कि मेरा आत्मा करवाता है और इस शरीरसे मैं करता हूँ, तो अपना अहंभाव चला जाय न? मैं करता हूँ, ऐसा जो हम लोगोंको लगता है, वह अज्ञान है। हमें ऐसा लगता है कि ये सब मैं करता हूँ। घरमें कुछ भी काम करते हो, तो मैंने किया, मैंने किया। वह अहंभाव, यदि आत्मा करता है, आत्मा करवाता है और इस शरीरसे करता हूँ, तो अहंभाव चला जायगा?

समाधानः- आत्मा करवाता नहीं, आत्मा जाननेवाला है। परपदार्थकी कर्ताबुद्धि, कुछ करना वह उसका स्वभाव नहीं है। ये तो शरीर है, बीचमें निमित्त और विकल्प आते हैं। इसलिये विकल्पोंसे होता है। विकल्पमें आत्मा जुडता है इसलिये होता है। लेकिन ऐसा करना उसका स्वभाव नहीं है, ऐसा सब करनेका।

मैं तो जाननेवाला ज्ञायक हूँ। ये सब कर्ताबुद्धि (है)। परद्रव्यका मैं कैसे कर सकूँ? मैं कोई करनेवाला नहीं है। लेकिन इस शरीरके साथ अनादिका सम्बन्ध है और विकल्प, राग-द्वेषमें पडा है। अतः कर्ताबुद्धि है इसलिये होता है। बाकी मैं जाननेवाला हूँ। किसीका मैं कुछ कर नहीं सकता। परपदार्थका मैं कुछ नहीं कर सकता। अहंभाव छोड दे।ैं दूसरेका कुछ नहीं कर सकता, मेरे आत्माका कर सकता हूँ। मैं परपदार्थरूप होता नहीं। मैं तो स्वभावरूप होऊँ वह मेरा स्वभाव है। ये बाहरका करना वह मेरा स्वभाव नहीं है।

ऐसे स्वभावका विचार करे। विकल्प आये इसलिये यह सब करनेका होता है। विकल्पके कारण। मैं कोई अन्यरूप हो जाऊँ तो मैं घररूप हो जाऊँ। यदि मैं घररूप होऊँ तो। मैं तो भिन्न हूँ। मैं कहीं घररूप भी नहीं हूँ और इस शरीररूप भी नहीं हूँ। शरीरसे भी मैं तो भिन्न हूँ। इसलिये ये सब करना तो स्वतंत्र होता है। मैं तो मात्र विकल्प मेरा हो, राग-द्वेषका इसलिये इसमें कार्यमें जुडता हूँ, कर्ताबुद्धिके कारण। बाकी मैं तो जाननेवाला हूँ।

मुमुक्षुः- अलिप्तपना आ सकता है?

समाधानः- आ सकता है। पुरुषार्थ करे तो आ सकता है। अंतरमें क्षण-क्षणमें ऐसा हो कि मैं तो जाननेवाला हूँ। ये सब एकमेक जो विकल्पकी जालमें (हो रहा हूँ), वह मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो जाननेवाला हूँ, साक्षी हूँ। यह मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे अंतरसे विरक्ति आये और निर्लेप हो सकता है।


PDF/HTML Page 1305 of 1906
single page version

ये कोई सुखका कारण नहीं है, ये कोई महिमावंत नहीं है। महिमावंत हो तो मेरा आत्मा है। ये कुछ महिमारूप नहीं है। ऐसे निर्लेपता आ सकती है। ऐसा सब करके अनन्त आत्माओंने ऐसे कार्य किये हैं, महापुरुष गृहस्थाश्रममें रहकर निर्लेप रह सके हैं। प्रत्येक आत्मा ऐसा शक्तिमान है कि जो कर सकता है।

मुमुक्षुः- लेकिन वह परमात्मामें मिल जाता है। आत्मामें जब वीतरागता आ जाय, सब छोड सके, आत्माका ज्ञान हो तो आखिरमें वह परमात्मामें मिल जाता है?

समाधानः- मिल न जाय, वह स्वयं स्वतंत्र रहे। ऐसे अनन्त द्रव्य हैं, ऐसे आत्मा परमात्मारूप हुए हैं। सिद्धालय है उसमें प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपनी स्वानुभूति स्वतंत्र करते हैं। वीतराग होकर स्वयं स्वतंत्र रहता है, किसीमें मिल नहीं जाता। उसकी जात एक है। एक जातके हो जाते हैं। एक जातके, स्वानुभूति एक जातकी करे, लेकिन प्रत्येक स्वतंत्र हैं। स्वयं अपनेमें (रहता है)। वह अरूपी है ऐसा कि उसे कोई ज्यादा क्षेत्र नहीं चाहिये। इसलिये आकाशके अमुक क्षेत्रमें अनन्त जीव रह सके, ऐसा परमात्मा बन जाय। जात एक, परन्तु प्रत्येक स्वतंत्र रहते हैं।

मुमुक्षुः- गुरुदेवको समर्पण करनेसे आत्माका ज्ञान हमें हो, वह बात सत्य है? गुरुदेवको अपना अहंभाव अर्पण कर दे, मैं हूँ ही नहीं, आत्मा ही हूँ, जो आपके अन्दर है वही मेरेमें है, लेकिन आपने सब प्राप्त कर लिया, आपने सब समझ लिया, अनुभव हो गया। हम समझे, हमें अनुभव नहीं हुआ है। अनुभव आपकी कृपासे हो या हमारे पुरुषार्थसे ही होता है? आपकी कृपा भी चाहिये? गुरुदेवकी? जिसे गुरु माना उनकी कृपा और अपना पुरुषार्थ दोनों चाहिये या अकेला पुरुषार्थ ही चाहिये?

समाधानः- जो पुरुषार्थ करता है उसे साथमें कृपा होती ही है। निमित्तमें गुरु होते हैं और उपादानमें स्वयं होता है। दोनों साथमें होते हैं। गुरुकी कृपा तो उसमें साथमें होती ही है। वस्तुस्थिति-से स्वयं पुरुषार्थ करे तब होता है, परन्तु गुरुकी कृपा तो साथमें होती है।

मुमुक्षुः- अब, आपको मैंने गुरु माना। अब, यहाँ रोज तो नहीं आ सकती। मुंबई रहती हूँ, बच्चे हैं... श्रद्धापूर्वक यह मानती हूँ। तो संसारमें रहकर संसारसे अलिप्त रहकर, मनसे अलिप्त रहकर, संसारके कार्य चलते रहे, अलिप्त रहकर भी आपको गुरु मानकर, मैं आपके वचन पढकर, करके मैं प्राप्त कर सकती हूँ? या प्रत्यक्ष गुरु चाहिये ही?

समाधानः- स्वयं प्राप्त कर सकता है। स्वयं कहीं भी बैठकर पुरुषार्थ करके सच्चा समझे तो प्राप्त कर सकता है। प्राप्त कर सकता है। ऐसा है कि अनादि कालमें जीव जन्म-मरण करते-करते उसे एक बार गुरु अथवा देव कोई मिलते हैं। उनकी प्रत्यक्ष


PDF/HTML Page 1306 of 1906
single page version

वाणी सुने, वह प्रत्यक्ष वाणी सुनकर अन्दर ऊतर जाय, फिर कहीं भी हो, वह प्रकट कर सकता है। गुरुदेव मुंबईमें पधारते थे, मालूम नहीं होगा?

मुमुक्षुः- नहीं, पहले मैं एक बार गई थी।

समाधानः- गये थे? वहाँ मुंबईमें।

मुमुक्षुः- हमको स्वयंको लगे, श्रद्धा बैठ जाय कि यह सत्य है, मुझे इस मार्ग पर जाना है।

समाधानः- श्रद्धा, स्वयं अंतरमें श्रद्धा करे कि यह मार्ग सच्चा है। फिर अंतरमें स्वयंको भेदज्ञान करना बाकी रहता है। यह शरीर मेरा स्वरूप नहीं है। अन्दर विभाव होते हैं, वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। मैं तो अंतरमें ज्ञायकस्वभाव जाननेवाला उसमें आनन्द भरा है। ऐसी श्रद्धा अंतरसे करके, अन्दर जो एकत्वबुद्धि हो रही है उसे तोडकर भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे कि मैं तो ज्ञायक हूँ। ऐसे बारंबार प्रयत्न करे, यथार्थ समझकर।

प्रयत्नका अभ्यास बारंबार करे तो उसे प्रगट हो। उसका अभ्यास यथार्थ होना चाहिये। उसकी श्रद्धा यथार्थ होनी चाहिये। जो गुरुने कहा है, उस मार्ग पर स्वयं बराबर चले तो अपने पुरुषार्थसे प्रगट कर सकता है। स्वयं कहीं भी हो, पुरुषार्थसे करे तो हो सकता है।

जीवनमें जो गुुरुदेवने मार्ग बताया है, उस मार्ग पर जाना है। कोई अपूर्व वाणी गुरुदेवकी बरसती थी। उस मार्ग पर जाना है। उस मार्ग पर स्वयं तैयार हो तो प्राप्त हुए बिना (रहता नहीं)। गुरुके वचन ग्रहण करे तो उसमें गुरुकी कृपा आ जाती है। जो गुरुने जो वचन कहे उस स्वयं अन्दर यथार्थ समझे, समझपूर्वक, बिना समझ नहीं, समझपूर्वक ग्रहण करे और पुरुषार्थ करे तो उसे प्रगट हुए बिना नहीं रहता। ऐसा निमित्त- उपादानका सम्बन्ध है।

... सब कम है। चैतन्यको पहचानना, चैतन्यको पहचानना। पूरा जीवन बदल जाता है। दृष्टि बाहर क्रियाओंमें थी, उसमेंसे चैतन्य पर दृष्टि करवायी। .. उसके पहले दादरमें था, वह कौन-सा वर्ष था? ८७वीं। भावसे करे उसमें .... गुरुदेवका प्रताप वर्तता है।

मुुमुक्षुः- चिन्ता रहती है। जैसे आपने गुरुदेवको सब सौंप दिया, हमने आपको सौंप दिया।

समाधानः- गुरुदेवने भाव... जहाँ भावप्रधान है, वहाँ बाह्य संयोग आडे आते ही नहीं। जहाँ भावप्रधानता होती है वहाँ। मार्ग इतना सरल कर दिया। दूसरोंको सत खोजना मुश्किल पड जाता है कि क्या स्वरूप है? और किस मार्ग पर जाना? ऐसा-


PDF/HTML Page 1307 of 1906
single page version

ऐसा जो एकदम अनाजने हैं, वह पूछते हैैं।

गुरुदेवने सत क्या? वह तो एकदम स्पष्ट करके बताया है कि किस मार्ग पर जाना है। फिर पुरुषार्थ करना ही बाकी रहता है। बाकी मार्ग तो एकदम स्पष्ट करके बता दिया है। विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। द्रव्य, गुण, पर्याय उसके भेद पर भी दृष्टि मत कर। अखण्ड पर दृष्टि कर। एकदम सूक्ष्मतासूक्ष्म करके मूल तक जाकर सब समझा दिया है, गुरुदेवने।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- सबको भगवान कहते थे। अरे..! भगवान! भगवान कहते थे। तू मूल शक्तिसे तो भगवान है। आज टेपमें भी (आया था)। ... कोई भेद नहीं दिखता।

.. विराजते थे तब बढता ही जाता था। और अभी भी उनकी प्रभा ऐसी ही वर्धमान हो रही है।

मुमुक्षुः- आपके आशीर्वाद है, ऐसे ही होगा।

मुमुक्षुः- असल मानस्तंभ कैसा होगा समवसरणमें?

समाधानः- उस मानस्तंभकी क्या बात करनी?

मुमुक्षुः- विचार आया कि कुछ जानने मिले तो।

समाधानः- अनेक जातके मानस्तंभ होते हैैं। इन्द्र द्वारा रचित, उस मानस्तंभको देखकर मान गल जाता है। जो रत्न और अनेक जातके...

मुमुक्षुः- पूरा मानस्तंभ रत्नका?

समाधानः- विविध रत्नों द्वारा रचित है।

मुमुक्षुः- चौमुखी प्रतिमाजी जैसी हम लोगोंने यहाँ रखी हैं, वैसे ही ऊपर-नीचे (होती हैं)?

समाधानः- उसमें तो अनेक जातकी रचना होती है, मानस्तंभमें। इतनी छोटी जगह हो, उतनेमें पूजा कर सके, भगवानको इतने छोटे देवालयमें विराजमान करना पडे ऐसा नहीं होता। उसकी रचना कोई अलग जातकी होती है। सब यहाँ आकर पूजा करते हैं।

मुमुक्षुः- ये तो बहुत छोटी प्रतिकृति है।

समाधानः- हाँ, छोटा है न।

मुमुक्षुः- वह तो योजनोंके विस्तारमें होगा।

समाधानः- हाँ, सब योजनमें होता है, विशाल है। समवसरण कितना है, उसका मानस्तंभ वैसा होता है। ऊँचा उतना होता है, चौडा उतना होता है। उसका सब नाप आता है।


PDF/HTML Page 1308 of 1906
single page version

मुमुक्षुः- आज सीमंधर भगवानका जन्मकल्याण दिवस है? हमारे एक भाई ऐसा कहते थे। जन्म कल्याणक नहीं, केवलज्ञान कल्याणक।

समाधानः- शास्त्रमें सीमंधर भगवानका केवल कल्याणक या ऐसा कुछ नहीं आता है।

मुमुक्षुः- वह भाई तो श्वेतांबर थे।

समाधानः- होगा उनके हिसाबले। लेकिन यहाँका सब अलग है। .. नारदने वहाँ जाकर भगवानका जन्म कल्याणक देखा, भगवानका केवल कल्याणक देखा। नारदने देखा ऐसा आता है, परन्तु उसका दिन कौन-सा ऐसा नहीं आता है। नारदजी यहाँ-से सीमंधर भगवानके पास गये थे और यहाँ आकर बात करते हैं कि मैंने सीमंधर भगवानका जन्म कल्याणक या केवल कल्याणक देखा। ऐसा कहते हैं आकर। उसमें आता है।

फिर वहाँ महाविदेह क्षेत्रमें बडे-बडे मन्दिर हैं। भगवानका मैंने कल्याणक देखा, ऐसा आकर कहते हैं। मनुष्यके हिसाबसे मन्दिर बडे होते हैं। पाँचसौ धनुषका हो उससे मनुष्य कम होते हैं, परन्तु होते तो हैं न। सब नापकी बात है। लेकिन मनुष्य बडेे होते हैं।

समाधानः- ... संयोग है, सब लेकर आये थे। इसलिये उन्हें तो संस्कार जागृत हो गये। जो था वह प्रगट किया। .. दीक्षा यहाँ ली, लेकिन बदल गया कि यह मार्ग सच्चा नहीं है। अन्दरसे विचार स्फूरे। कोई कुछ जानता नहीं था। अकेली क्रिया ही थी। और दिगम्बरोंमें भी मार्ग (होने पर भी) दृष्टि तो ऐसी क्रियामें (थी)।

मुमुक्षुः- सौराष्ट्रमें तो दिगंबरका तो बहुत कम स्थान है।

समाधानः- दिगंबरका नाम भी किसीने सुना नहीं था। कुछ नहीं। स्वप्न भी आया था कि मैं राजकुमार हूँ। दीक्षा लेनेके बाद। शरीर कोई अलग ही है। स्वप्न बराबर उन्हें हूबहू (आता था)। इस भवका शरीर नहीं, शरीर अलग ही था, ऐसा कहा था। बडा शरीर था।

मुमुक्षुः- ... पक्का हो गया। गुरुदेव..

समाधानः- तीर्थंकर हूँ, तीर्थंकर होनेवाला हूँ, ऐसा अंतरमें-से (आता था)। ऐसी प्रतीत आती थी।

मुमुक्षुः- ऐसी प्रतीत आती हो तो अपने द्रव्यके कारण ऐसा ख्याल आता होगा?

समाधानः- अपना द्रव्य ऐसा है, इसलिये अंतरमें-से प्रतीत होती थी। सुना हो वह तो बराबर है, लेकिन अन्दरसे निज द्रव्यकी ऐसी योग्यता है इसलिये प्रतीत आती थी। .. प्रतीत अंतरमें कब हो? कि अपनी योग्यता अन्दर साथमें है, इसलिये प्रतीत आती है।प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!