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मुमुक्षुः- ... सामान्य जीव जो दिव्यध्वनि सुनते होंगे, वे भी वही बात सुनते हैं और कम समझते हैं ऐसा है कि कोई दूसरी बात है?
समाधानः- ... भगवान कहते हैं ऐसा समझते हैं लेकिन सबकी शक्ति अनुसार समझते हैं, उसके अनुसार ग्रहण करते हैं।
मुमुक्षुः- बात तो एक ही है।
समाधानः- बात एक (है)। भगवानकी बहुत अपेक्षासे बात आती हो और जिसकी शक्ति हो उस अनुसार समझते हैं।
मुमुक्षुः- बहुत बार ऐसा कहनेमें आता है कि उत्तर प्राप्त हुआ, वह क्या है?
समाधानः- प्रश्न तो कोई दिव्यध्वनिका काल हो तब नहीं, परंतु दूसरे प्रसंगोंमें वह खास-खास प्रश्न पूछते हैं। दूसरे प्रश्न नहीं पूछते। कोई गणधर, कोई मुनि, कोई चक्रवर्ती, कोई ऐसे राजा (हो तो) वैसे प्रश्न पूछते हैं।
मुमुक्षुः- दूसरे कोई जीव प्रश्न नहीं पूछ सकते?
समाधानः- उसे प्रश्न उत्पन्न हो तो उसे समाधान ही हो जाये। प्रश्न पूछना रहता ही नहीं। जिसे जो प्रश्नका विकल्प होता है, वह भगवानकी वाणीमें सब आ जाता है। उसके प्रश्नका समाधान ही हो जाता है। दिव्यध्वनिमें सब आ जाता है। जिसे जो प्रश्न विकल्प उत्पन्न हो, वह सब आ जाता है।
यहाँ गुरुदेवकी वाणी कैसी थी? उनकी वाणीमें जिसे जो प्रश्न उत्पन्न हो वह गुरुदेवकी वाणीमें आ जाता। भगवानकी दिव्यध्वनिमें (ऐसा होता है)। जिसे प्रश्न उत्पन्न होते हो वह सब भगवानकी वाणीमें समाधान आ जाता है। प्रश्न करने जैसा किसीको रहता नहीं।
मुमुक्षुः- प्रश्न दूसरे महाराज पूछते हैं, और वह बात इनको सुनाई देती है? सामान्य जीवोंको भी सुनाई देता है कि इन्द्र हो उनको ही सुनाई देता है?
समाधानः- नहीं, सबको समझमें आता है। सुनाई देता है?
मुमुक्षुः- जो-जो प्रश्नका उत्तर हो, वह दूसरे जीवोंको भी (सुनाई) देता है?
समाधानः- हाँ, सुनाई देता है। ग्रहण उसकी शक्ति अनुसार करते हैं।
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प्रश्नः- उसका समय भिन्न-भिन्न होता है? प्रश्नका और व्याख्यानका? चौदह पूर्व, बारह अंगका भिन्न-भिन्न समय होता है?
समाधानः- दिव्यध्वनि छूटती ही रहती है। उसमें बीचमें कोई प्रश्न नहीं पूछता। भगवानको इच्छा कहाँ है, सहज वाणी छूटती है। बिना इच्छा। दिव्यध्वनिका काल हो तब दिव्यध्वनि छूटती है। प्रश्न तो जिसके पुण्य हो वह प्रश्न करे और वाणीमें उत्तर आता है। बाकी सबको बहुभाग तो समाधान ही हो जाता है। प्रश्न पूछना नहीं पडता।
मुमुक्षुः- मुख्य विषय तो मात्र अध्यात्मका ही होता है कि दूसरा भी होता है?
समाधानः- जो मुक्तिका मार्ग है, भगवानकी वाणीमें सब आता है। चौदह ब्रह्मांडका स्वरूप पूरा आता है भगवानकी वाणीमें। सब आता है। द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, अध्यात्म आदि सबकुछ आता है। करणानुयोग। कुछ कम नहीं आता, सब आता है। उसमें मुख्य क्या है, मुक्तिका मार्ग क्या है, सबकुछ भगवानकी वाणीमें आता है।
मुमुक्षुः- यहाँ कहनेवाला क्रमपूर्वक कहता है, वहाँ तो ऐसा कुछ नहीं है।
समाधानः- सब एकसाथ आता है। भगवानका आशय क्या है वह समझ लेते हैं। .. सब आता है। .. भगवानकी वाणीमें बहुत आता है, उतना ग्रहण नहीं होता। भगवानकी वाणीमें चौदह ब्रह्मांडका पूरा स्वरूप आता है।
मुमुक्षुः- सामान्य जीव पूर्ण ग्रहण कर नहीं पाते।
समाधानः- गणधर आदि सब कहते हैं, प्रभु! आपकी दिव्यध्वनिको मैं पहुँच नहीं पाता। उन्हें चौदह पूर्वका ज्ञान प्रगट होता है। प्रभु! कहाँ मेरा ज्ञान और कहाँ आपका ज्ञान! कहाँ आपकी वाणी! आपके गहन रहस्योंको मैं पहुँच नहीं पाता। वे भी ऐसा कहते हैं। आपकी अपूर्व वाणीको मैं पहुँच नहीं सकता। ऐसे गणधर, इन्द्रो, मुनिन्द्रो सब ऐसा कहते हैं। सामान्य तो क्या जो शक्तिशाली हैं वे सब ऐसा कहते हैं। कहाँ प्रभु आपका ज्ञान एक समयमें लोकालोकको जाननेवाला, उसमें द्रव्य- गुण-पर्यायका स्वरूप लोकालोकको एक समयमें जानते हो। अनन्त द्रव्य, अनन्त द्रव्यके गुण-पर्याय, स्व और पर सबको एक समयमें जानते हो। भूतकाल, वर्तमानकाल, भविष्यकाल सब एक समयमें आपकी वाणीमें आता है। ऐसी आपकी वाणीको इस ज्ञानमें-क्षयोपशम ज्ञानमें-ग्रहण नहीं कर सकते हैं। अपूर्व वाणी! प्रभु! मैं आपको पहुँच नहीं पाता हूँ। हमारा अल्पज्ञान आपकी अपूर्व वाणी गहनतासे भरी, हम पहुँच नहीं पाते। गणधरको पूर्ण श्रुतज्ञान प्रगट होता है तो भी वे ऐसा कहते हैं।
मुमुक्षुः- कम पकडमें आता है उसमें भी उतना ही आनन्द आता है?
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समाधानः- उन्हें आनन्द आता है। प्रभुकी दिव्य वाणी कुछ अपूर्व कहती है, अपूर्वतासे पूर्ण, भगवानकी अगाध रहस्योंसे भरी हुई वाणी है। कोई आत्माका चमत्कार दर्शानेवाली, चैतन्यका स्वरूप दर्शानेवाली कोई अपूर्व वाणी है। अपूर्व महिमा आती है।
यहाँ गुरुदेवकी वाणीमें सब एकसमान ग्रहण कर सकते थे? गुरुदेवकी वाणीका सभीको आश्चर्य लगता था और महिमा आती थी। जो जीव कुछ नहीं समझते थे, कोई अनजान आकर बैठे तो भी ऐसा लगता कि यह वाणी कोई अलग है, ऐसा आश्चर्य लगता था। सब एकसमान समझते नहीं थे तो भी सबको आश्चर्य लगता था।
ये तो भगवानकी वाणी है। एक समयमें लोकालोकको जाननेवाला उनका ज्ञान, ऐसी उनकी भूमिका, एक समयमें जाननेवाला जो केवलज्ञान, उसमेंसे परिणमित होकर जो दिव्यध्वनि छूटती है, उस वाणीकी क्या बात करनी!? सबको एकदम आश्चर्य लगता है। जगतसे निराला कोई अलौकिक उन्हें लगता है। वाणी अभेद-भेद किये बिना निकलती है। जगतसे निराली वाणी। सब क्रमसे बोलते हैं, (उन्हें) क्रम नहीं पडता, एकसाथ अगाध स्वरूपको कहनेवाली (है)। भगवान भिन्न, उनकी वाणी भिन्न, सब भिन्न (है)। इच्छापूर्वक (वाणी) नहीं निकलती। सब मुग्ध हो जाते हैं, मुग्ध होकर सुनते हैं।
मुमुक्षुः- एक समयमें चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप आ जाता होगा? चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप एक समयमें वाणीमें आ जाता है?
समाधानः- एक समयमें भगवान जानते हैं, वाणीमें जो आता है वह बहुत स्वरूप आता है, पूर्णरूपसे आता है, तो भी आत्मा भिन्न है और वाणी भिन्न है। तो भी उसका रहस्य पूरा आ जाता है। चौद ब्रह्माण्ड। अपूर्ण कुछ भी नहीं रहता, पूर्ण आता है। लेकिन आत्मा भिन्न है और वाणी भिन्न है।
... नहीं पडता, लेकिन वाणीमें आता है पूर्ण, तो भी जो चैतन्यमें भरा है वह सब वाणीमें नहीं आता है। अन्दर जो अनुभवपूर्व, भगवानकी अनुभूति केवलज्ञानपूर्वककी, (जिसमें) समुद्र-दरिया भरा है, वह सब वाणीमें (नहीं) आता है, तो भी अनन्त आता है।
कही शक्या नहीं पण ते श्री भगवान जो।
अन्दर अनुभव जो केवलज्ञान, स्वरूप रमणता जो पूर्ण है वह पूर्ण चैतन्य उछलकर वाणीमें नहीं आता, तो भी पूर्ण आता है, अपूर्ण कुछ नहीं रहता। आता है वह सब पूर्ण आता है, लेकिन उसमें चैतन्यका तल नहीं आ जाता। उसका पूरा रहस्य आ जाता है।
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मुमुक्षुः- एक समयमें रहस्य पूर्ण आ जाता है, फिर भी केवलज्ञानमें जो अनुभूति होती है वह सब नहीं आती।
समाधानः- वह वाणीमें थोडे ही आता है, वाणी और वह भिन्न-भिन्न वस्तु है। वह दर्शाया नहीं जा सकता। तो भी उसका आश्चर्य (लगता है), तो भी दर्शाती है। भगवानकी वाणी चौदह ब्रह्माण्डका स्वरूप दर्शाती है, मुक्तिका मार्ग दर्शाती है, चैतन्यका चमत्कार दर्शाये, चैतन्य कोई अपूर्व वस्तु है, वह सब दर्शाती है।
भगवानकी वाणी सुनकर कितने ही मुनि केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कोई मुनि बन जाते हैं, कोई सम्यग्दृष्टि होते हैं, कितने ही समवसरणमें हो जाते हैं। कितने ही अंतर्मुहूर्तमें हो जाते हैं। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है। भगवानकी वाणी ऐसी जोरदार है कि एकदम हो जाता है। तो भी भगवानकी वाणीकी ऐसी महिमा है।
उनको (गुरुदेवको) स्वयंको आश्चर्य लगता था कि इसमें आचार्यदेवको बहुत कहना है। फिर स्वयं आहा..! करते थे, तो भी उनकी वाणीमें बहुत आता था। गुरुदेव कहते थे, ओहो..! इसमें आचार्यदेवको बहुत (कहना है), ओहो..! इसमें तो बहुत भरा है। तो भी उनको जो कुछ कहना है वह सब मानो अन्दर रह जाता था, तो भी बहुत आता था।
मुमुक्षुः- वाणीमें ऐसा कह सकते हैं कि पूरा आता है, फिर भी बहुत बाकी रह जाता है।
समाधानः- तो भी अन्दर रह जाता है। दो द्रव्य भिन्न है इसलिये। चैतन्य और वाणी (भिन्न-भिन्न हैं)। केवलज्ञान प्राप्त करते हैं, कितने ही जीव मुनि बन जाते हैं, कितने ही जीव श्रावक बन जाते हैं, कितने ही जीव सम्यग्दृष्टि बनते हैं, कितने! लाखों- लाखों! केवलज्ञानीकी कुछ संख्या होती है, मुनिओंकी कुछ (संख्या होती है), श्रावकोंकी तो कितनी बडी संख्या होती है। धर्मकाल वर्तता है।
मुमुक्षुः- अलौकिक बातें और आश्चर्य उत्पन्न हो ऐसी बातें हैं।
समाधानः- भगवानका बोलना अलग, भगवानका चलना अलग, पूरे जगतसे निराला। और वाणी छूटती है। उपयोग तो अन्दर स्वरूपमें जम गया है। निराधार बैठते हैं। सिंहासन, कमल आदि सबकी रचना इन्द्र करते हैं, फिर भी भगवान तो निराधार होते हैं।
मुमुक्षुः- सब आश्चर्यकारी है।
समाधानः- आश्चर्यकारी। पूर्णता प्राप्त हो गयी इसलिये उनका सब अलग हो जाता है, जगतसे अलग होता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ वर्धमान होनेका कारण होना चाहिये, जीवको ऐसा हो जाता है कि मुझे तो अब धर्मात्माका योग हो गया है, ऐसा होता है, यह गलत है न?
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मुझे तो धर्मात्माका योग हो गया है, अब मैं पार हो जाऊँगा, मुझे मोक्ष जानेमें कोई दिक्कत नहीं आयेगी, ऐसा करके पुरुषार्थ कम हो जाये, ऐसा होता है? ऐसा नहीं होना चाहिये।
समाधानः- ऐसा नहीं होना चाहिये। धर्मात्मा मिले लेकिन स्वयंको पुरुषार्थ करना चाहिये। पुरुषार्थ करे तो होता है।
मुमुक्षुः- ऐसा नहीं बनता होगा कि पुरुषार्थ किये बिना कोई जीव धर्मात्माके संगसे, संगके कारण प्राप्त कर ले?
समाधानः- पुरुषार्थ किये बिना प्राप्त हो जाये ऐसा नहीं बनता। मात्र संगसे (नहीं होता)।
मुमुक्षुः- मात्र संग कार्यकारी नहीं होता।
समाधानः- मात्र संग (कार्यकारी नहीं होता)। पुरुषार्थ तो स्वयंका (होता है)। निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है कि स्वयंके पुरुषार्थमें सरल हो जाये या मार्ग दर्शाये, उनके सान्निध्यसे स्वयंके परिणाम पुरुषार्थकी ओर मुडे, पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है। लेकिन वह मान ले कि मुझे तो बाहरसे सब निमित्त मिल गये हैं, मुझे कहाँ तकलीफ है? ऐसा करे तो ऐसे प्राप्त नहीं होता। लेकिन उसे देव-गुरु-शास्त्र और सत्संग एवं संतोंकी महिमा आयी हो तो उसे संतकी ऐसी महिमा अन्दरसे हो तो उसे पुरुषार्थ हुए बिना रहता ही नहीं, लेकिन उसे संतकी महिमा ही नहीं आयी है।
गुरुदेवकी महिमा अन्दर आये तो गुरुदेव जो मार्ग दर्शाते हैं, उस मार्गपर उसकी पुरुषार्थकी परिणति मुडे तो ही उसने उस महात्माका स्वीकार किया है, तो उसने गुरुदेवका स्वीकार किया है। वह ऐसा विचार करे कि अब मुझे कहाँ तकलीफ है? तो फिर वह मार्ग समझा नहीं है। वह समझे कि मेरा प्रमाद है, इतना तो उसे ख्यालमें रहना चाहिये न? करना तो स्वयंको ही है। उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है, लेकिन करना तो स्वयंको है। पुरुषार्थकी ओर उसकी गति चले। भले ही धीरे-धीरे (बढे), लेकिन मुडे बिना रहे नहीं, यदि सच्ची महिमा आयी हो तो।
मुमुक्षुः- आत्माका आनन्द जब अनुभवमें आये तो उसे कैसे मालूम पडे कि सूक्ष्म आत्माको ग्रहण किया है, अब उसे आनन्दका अनुभव आता है। और पहले जो दुःखका वेदन होता था, उससे यह अलग लगता है, ऐसा उसे कैसे ख्यालमें आये?
समाधानः- वह ख्यालमें आ जाता है। स्वयंका वेदन अन्दर है, स्वयं अनुभव कर सकता है। आत्माको ग्रहण किया, फिर आत्मामें लीनता करता है कि यह ज्ञायक है। स्थूल उपयोगसे ज्ञायक ग्रहण नहीं होता। बाह्य उपयोग जो स्थूल है, राग-द्वेष आकूलतायुक्त उपयोग है, जो उपयोग बाहर खण्ड-खण्ड (होकर) एक के बाद एक ज्ञेयको ग्रहण
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(करता है), उस उपयोगसे (ग्रहण नहीं होता)। लेकिन वह उपयोग स्वयंकी ओर मुडे तब सूक्ष्म होता है। उपयोग जो बाहर जा रहा है वह स्थूल है, स्वयंकी ओर मुडनेवाला उपयोग, चैतन्य अरूपी है उस अरूपीको ग्रहण करनेवाला उपयोग सूक्ष्म है। स्वयंको- ज्ञायकको ग्रहण करे कि यह ज्ञायक है, इसकि सिवाय यह सब जो है वह मुझसे भिन्न है। यह विकल्प है, वह सब आकूलता है। इसप्रकार ज्ञायकको ग्रहण करके, उसकी प्रतीति करके, उसमें लीनता करके विकल्प छूट जाये और स्वयं आत्मामें लीन हो जाये, उपयोग अंतरमें लीन हो जाता है। जो आनन्दका अनुभव होता है उसे वह बराबर पकड सकता है। उसे ख्याल (आ जाता है), दोनों भिन्न-भिन्न हो जाते हैं।
स्वयं स्थूलरूपसे वेदन करे तो सुख-दुःखका वेदन उसे होता है। शरीरमें शाता अथवा अशाता होती है उसका वेदन उसे होता है कि, शरीरमें कोई रोग है, उसका वेदन होता है, उसका दुःख होता है। वह उसे ख्यालमें आता है। निरोगता हो तो उसे ख्याल आता है कि अभी रोग नहीं है। वैसे, जैसे राग-द्वेषका ख्याल आता है कि यह दुःख है, यह सुख है। ऐसा तो स्थूल ज्ञानमें भी पकडता है। तो अरूपी आत्माको ग्रहण करे, अन्दर लीन होता है तब सब विकल्प छूट जाते हैं। विकल्प छूटकर आत्माको ग्रहण करता है और बराबर स्वयंके आनन्दको पकड सकता है। उपयोग निर्मल हो गया। स्वयंके आनन्दका अनुभव, स्वयं स्वयंको जान सकता है। आकूलता छूट गयी और निराकूलता (वेदनमें आयी)। आनन्दस्वरूप आत्मा प्रगट हो, वह आनन्द छिपता नहीं।
मुमुक्षुः- चाहे जैसे भयंकर दुःख हो, जब उसे पकडमें आता है, उस वक्त उसे शाता होती है? अन्दरसे जो आनन्द आना चाहिये, जो लक्ष्य छूटना चाहिये, उस रोगके प्रति जो उसने अनादिका अभ्यास किया है, भयंकर रोग हो उस वक्त भी वह भेदज्ञान करके आत्माकी ओर मुडे तो उसे उस वक्त अन्दर थोडी शान्ति होती है, तो वह लक्ष्य छूटता है तब उसे ख्याल आता है कि आत्मा है, परन्तु अभी पकडा नहीं है। तब थोडा-थोडा ख्याल आता है। लेकिन वह सच्चा नहीं है। जब वह बराबर आत्माको पकडे तब ही आनन्दका वेदन होता है।
समाधानः- आत्मामें लीन होता है तब ही आनन्द होता है। अन्दरसे स्वयंको ग्रहण करे। अभी स्थूलरूपसे ग्रहण करता है तो उसे शान्ति (लगती है, वह) आकूलता मन्द होती है, लेकिन यथार्थ शान्ति आत्मामें-से नहीं आयी है। रोगमेंसे विकल्प पलटे कि यह सब रोग शरीरमें है, मेरेमें नहीं है। इसप्रकार भावनासे, विकल्पसे शान्ति रखे। लेकिन वह अलग शान्ति है-मन्द कषायकी शान्ति है। अंतर आत्मामेंसे जो शान्ति आती है वह अलग ही आती है। विकल्प छूटकर जो शान्ति आये, विकल्प छूटकर जो
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आनन्द आता है, वह आनन्द कोई अनुपम है। सिद्ध भगवानकी जातिका आनन्द है। वह आनन्द अलग ही है। उस आनन्दका स्वयं अनुभव कर सकता है। वह उसे अलग ही हो जाता है कि यह भिन्न ही था और भिन्न ही है। भेद हो जाता है। यह अलग है। आकूलतास्वरूप है उसका उसे भेद हो जाता है। आत्मा है उसका स्वरूप भिन्न है, ऐसा उसे विकल्प छूटकर जो निर्विकल्पताका आनन्द आता है, वह उसे अन्दर भिन्न रूपसे वेदनमें आता है।
मन्द कषाय अथवा भयंकर रोगके कालमें विकल्प करके शान्ति रखे कि मैं जाननेवाला हूँ, यह शरीर मेरा नहीं है, यह विकल्प मैं नहीं हूँ, ऐसी भावना करे तो मन्दरूपसे आकूलता कम होती है, ऐसे विचारमें थोडी शान्ति लगे। लेकिन वह शान्ति अन्दरसे भिन्न होकर आनी चाहिये, वह शान्ति नहीं आयी है।
ज्ञानी तो सविकल्प दशामें हो, उनका उपयोग बाहर हो तो भी उनको अमुक प्रकारसे उनको शान्ति तो रहती है। विकल्प छूटकर जो आनन्द आता है, वह आनन्द तो अलग ही होता है। दोनों भिन्न-भिन्न हो जाते हैं कि यह आत्मा भिन्न, जगतसे भिन्न-निराला (है)। उसका स्वरूप आनन्दमय गुणोंसे अदभूत स्वरूपसे भरा आत्मा भिन्न ही है, ये सब भिन्न हैं। उसे अनुभवमें आता है।