PDF/HTML Page 1331 of 1906
single page version
समाधानः- .. अंतर दृष्टि करवायी है। अंतर आत्मा भिन्न और ये सब भिन्न हैं। शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न, विभावस्वभाव अपना नहीं है। भिन्न आत्मा कैसे पहचानमें आये? शुभभावसे पुण्य बन्धे। पुण्यसे देवलोक हो, परन्तु भवका अभाव नहीं होता। सब बीचमें आता है, सब पुण्यभाव, लेकिन आत्माका स्वभाव शुद्धात्मा तो उससे भिन्न है। उसे ग्रहण करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा शुभभावमें, श्रुतचिंतवन, जिनेन्द्र देव, गुरुदेवने जो मार्ग बताया और अंतरमें ज्ञायक आत्मा कैसे पहचानमें आये, वही जीवनमें करने जैसा है।
मुमुक्षुः- माताजी! कल जो आपने कहा... चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।
चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।
देव-गुरु-शास्त्र मंगल हैं, पंच परमेष्ठी मंगल हैं। अरिहंत भगवान, सिद्ध भगवान, आचार्य, उपाध्याय, साधु सब मंगलस्वरूप है। आत्मा मंगल, गुरुदेव मंगलमूर्ति। इस पंचमकालमेंं कोई अपूर्व तीर्थंकरका द्रव्य यहाँ विराजते थे। उन्होंने मार्ग बताया। बस, उसी मार्ग पर चलने जैसा है। पुरुषार्थकी धारा उसी ओर, जीवन पर्यंत आत्माकी ओर दृष्टि करके (पुरुषार्थ करना)। बस, बाहरमें शुभभावमें जिनेन्द्र देव, गुरु और श्रुतका चिंतवन, उस मय जीवन व्यतीत करने जैसा है। अंतर दृष्टि करने जैसा है।
समाधानः- .. परन्तु अभी यह भूमि, पुरुषार्थकी प्रेरणा करनेवाली भूमि है। मानों
PDF/HTML Page 1332 of 1906
single page version
यह भूमि पुरुषार्थकी प्रेरणा करती हो। गुरुदेव यहाँ विचरे हैं।
मुमुक्षुः- आपका प्रताप जयवन्त वर्तता है।
समाधानः- .. मुनिदशाकी तो क्या बात करनी!
मुमुक्षुः- आपने तो साक्षात भगवाने जैसे ही हों।
मुमुक्षुः- आज समस्त मुमुक्षु समाज पूज्य गुरुदेवकी जन्म जयंति मनानेको एकत्रित हुआ है। पूज्य गुरुदेवका हम सभी पर अत्यंत उपकार है। सबको अंतरंगमें पूज्य गुरुदेवकी बहुत महिमा है। आपके श्रीमुखसे पूज्य गुरुदेवकी महिमा बहुत ही सुनी है। परन्तु हमें तृप्ति होती नहीं। जब-जब कोई प्रसंग आये, तब हमारी भावनाकी दृढताके लिये आपके पास आते हैं और गुरुदेवकी महिमा अत्यंत दृढ करते हैं।
समाधानः- क्या प्रश्न है?
मुमुक्षुः- गुरुदेवके विषयमें कुछ कहीये।
समाधानः- गुरुदेवकी महिमा क्या करनी? महिमा तो जितनी करे उतनी कम है। गुरुदेवकी महिमा क्या करें? उनकी वाणी अपूर्व, उनका आत्मा अपूर्व था। वे तो भरतक्षेत्रमें जन्मे और मुमुक्षुओंके महाभाग्य कि उनकी वाणी सबको मिली। उनका आत्मा कोई अलग और भवका अभाव होनेका मार्ग उन्होंने बताया।
आत्मा अपूर्व है, आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है, बाहरसे धर्म नहीं होता है, अंतर दृष्टि करने-से धर्म होता है। ऐसा भेदज्ञानका, स्वानुभूतिका गुरुदेवने मार्ग बताया। उनके उपकारका क्या वर्णन करना? वह तो वाणीसे कह सके ऐसा नहीं है। वह तो सहज जो आये वह आये।
मुमुक्षुः- स्वाध्याय मन्दिरमें इस बार आये, पूज्य गुरुदेवके जीवन-दर्शनके फोटो देखकर, मानों गुरुदेवका पूरा जीवन प्रत्यक्ष होता हो, ऐसा लगा। और आपने जिस तरह सब फोटोका आयोजन किया है, उसके भाव जाननेकी हमें भावना है। तो सब चित्र चेतनवंत बन जायेंगे।
समाधानः- गुरुदेवका जीवन तो गुरुदेव बचपनसे वहाँ कैसे पढे, पढते थे तो भी उनको बचपनसे आत्माकी लगन थी। जगतसे उन्हें वैराग्य था। संसारसे वैराग्य था। आत्माका स्वरूप कैसे प्राप्त हो? जगतमें कुछ नया करना ऐसी भावना थी। पढने जाते थे तो भी, यह पढाई मुझे अच्छी नहीं लगती है। जिस पढाईमेंं कुछ समझना नहीं आता है, जहाँ आत्माका कुछ नहीं आता है, वैसा मुझे कुछ पढना नहीं है। ऐसा उनका वैराग्य था।
कोई वैरागी-त्यागी दिखे तो वहाँ दौड जाते थे। वैराग्यकी धुन थी। वैसे भजन सुने तो भजनकी धुन लगती। सत्य समझनेकी उन्हें अन्दरसे पीपासा था। गुरुदेवके जीवनमें
PDF/HTML Page 1333 of 1906
single page version
तो अनेक प्रसंग बने होते हैं। अनेक जातके उनके जीवनमें (प्रसंग हुए हैं), उसे तो क्या कहें?
गुरुदेव अपूर्व ही थे। बचपनसे उन्हें वैराग्यकी धुन थी। वहाँ पालेजमें पढते (थे)। वहाँ पालेजमें उन्हें दुकानमें रस नहीं था। शास्त्र पढने बैठते तो एक ओर शास्त्र ही पढते रहते थे। उन्हें दुकानमें रस नहीं आता था। संसार छोडकर दीक्षा लेनी (ऐसा भाव था)। उन्हें वैराग्यकी धुन थी। नाटक देखने जाय तो नाटकमें एक काव्य बनाया था। "शिवरमणी रमनार तू, तू ही देवनो देव'। वह पूरा काव्य बनाया था। उसमें- से दो पक्तियाँ बच गयी। ऐसी वैराग्यकी धुन उन्हें थी। दीक्षा लेनेके लिये (निकले)। यह संसार छोड देना है, इस संसारमें कुछ नहीं है।
गुरुकी खोज करनेके लिये कुछ मारवाडी साधुओंको मिले। उसमें-से हीराजी महाराज उन्हें ठीक लगे तो उनके पास दीक्षा ली। दीक्षित अवस्थामें संप्रदायमें कितने ही साल आत्माकी ही बातें उन्होंने की है। उनके प्रवचनोंमें आत्माकी बातें ही आती थी। शास्त्र लेकर बैठते थे तो आत्माकी ही बातें करते थे।
उसमेंसे सत्य स्वरूप अन्दरसे सत प्रगट हुआ और फिर परिवर्तन किया। परिवर्तन हीराभाईके बंगलेमें किया। वहाँ तीन साल हुए, फिर स्वाध्याय मन्दिरमें (निवास किया)। हीराभाईके बंगलेमें शास्त्रका अभ्यास और ज्ञान-ध्यानमें लीन रहते थे। फिर यहाँ स्वाध्याय मन्दिरमें पधारे। वह तो सबने देखा है।
वहाँ भी वे शास्त्र स्वाध्याय, ज्ञान-ध्यानमें रहते थे। कितने साल। कितना विहार किया है, उस जीवनको चित्रित करने बैठे तो पार आये ऐसा नहीं है। यहाँ सौराष्ट्र, गुजरात, मुंबई और चारों ओर वाणीका धोध बरसाया दिया है। श्रुतका धोध (बहाया)। शास्त्र, तो थे कहीं शास्त्र? शास्त्रोंके भण्डार (खोल दिये)। उनके प्रतापसे इतने शास्त्र प्रकाशित हुए। सब शास्त्रके भण्डार खुल गये, गुरुदेवके प्रतापसे।
उतने जिन मन्दिर इस ओर नहीं थे। जिन मन्दिर उनके प्रतापसे, पंच कल्याणक उनके प्रतापसे, सब जिन मन्दिर उनके प्रतापसे कितने हुए। और यात्रा करके पूरे हिन्दुस्तानमें चारों ओर वाणीकी अपूर्व वर्षा की। पूरी जीवनी करने बैठे तो पार न आए उतना है। सम्मेदशिखर, पावापूरी, राजगृही, दक्षिणमें उतनी यात्रा की। लोगोंने गुरुदेवका स्वागत किया और गुरुदेवने वाणीकी वर्षा भी उतनी ही की। देश-परदेशमें उनकी वाणीका प्रकाश चारों ओर फैल गया।
पूर्व भवसे पधारे। राजकुमार थे। सीमंधर भगवानकी वाणी और कुन्दकुन्दाचार्यकी वाणीको ग्रहण किया और चारों ओर वाणीका धोधा बरसा दिया। उस कारण चारों हरियाली (छा गयी)। सब लोग जागृत हो गये कि एक आत्मामें ही धर्म है, बाहर
PDF/HTML Page 1334 of 1906
single page version
कहीं नहीं है। ऐसी आत्माकी रुचि गुरुदेवके प्रतापसे प्रगट हुयी। जगतमें उनका ही सब प्रताप वर्तता है।
मुमुक्षुः- अपने अन्दर धोधका जो दिखाव दिया है, वह बहुत सुन्दर दिखता है।
समाधानः- धोध, वाणीका धोध बरस गया। कोई अपूर्व धोध! ऐसी वाणीकी वर्षा करनेवाले भरतक्षेत्रमें अभी कोई इतने सालोंमें था नहीं, उन्होंने ऐसा धोध बरसाया।
मुमुक्षुः- हरियाली छा गयी।
समाधानः- हाँ, हरियाली छा गयी।
मुमुक्षुः- नेमिनाथ भगवानके बाद सौराष्ट्रकी भूमिमें गिने तो गुरुदेवके निमित्तसे ही तत्त्वका प्रचार (हुआ)।
समाधानः- तत्त्वका प्रचार गुरुदेवके प्रतापसे ही हुआ है। इस तरह समाजमें वाणीका धोध बरसानेवाले इस कालमें, गुरुदेव इतने वषामें गुरुदेवका जन्म हुआ, भरतका भाग्य। दूसरे तो कितने ही प्रसंग उनके जीवनमें बने। गुरुदेवकी उपस्थितिमें ये सब धवल शास्त्र, कितने शास्त्र, हजारों शास्त्र बाहर आये हैं। समयसार आदि तो कितने ही प्रकाशित हुए। अध्यात्मके सब शास्त्र उनके प्रतापसे बाहर आये हैं। उतने जिन मन्दिर (बने), सब उनके प्रतापसे।
इस ओर कोई कुछ जानता नहीं था। मन्दिर या अध्यात्मकी बात कोई जानता नहीं था। उस ओर सब क्रियामें पडे थे। उन सबकी दृष्टि अध्यात्मकी ओर करवानेवाले गुरुदेव ही है।
मुमुक्षुः- तुज पादथी स्पर्शाई एवी धूलीने पण धन्य छे। सोनगढकी भूमिका माहात्म्य तो लोगोंको था, परन्तु स्वाध्याय मन्दिरमें जगह-जगह गुरुदेवके चरणकमल देखनेसे भूमि गौण हो गयी और लक्ष्य चरण पर चला गया। और उसमें अभेदभावसे गुरुदेव ही मुख्य हो गये। क्या चरण और धूलिका सुन्दर मेल है! इतने सुन्दर चरण बने हैं सब कि देखते ही मानों साक्षात गुरुदेव हों, ऐसा स्मरण होता है। और ऐसा लगता है कि इस बारकी जन्म जयंति महोत्सवकी आपकी तैयारी, आपकी भावना देखते हुए, सामूहिक रूपसे पूरे समाजको ऐसी भावना होती है, सबके हृदयमें ऐसा होता है कि गुरुदेव यहाँ जरूर दर्शन देने पधारेंगे।
समाधानः- सब कुदरती गुरुदेवके प्रभावना योगसे ऐसे विचार आये और यह सब हो गया है। वह सब करनेवाले कारीगर आदि मिल गये।
मुमुक्षुः- कल रात्रिमें कितना सुन्दर बोले, करने जाते हैं कुछ और गुरुदेवका प्रताप कैसा है, चरणमें-से कलशका भाव कल रात्रिको बहुत अच्छा प्रकारसे भाव आया।
PDF/HTML Page 1335 of 1906
single page version
समाधानः- वह सब करते-करते हो गया। कमल और चरण, बीचमेें ऐसा ऊँचा, चित्र भी करते-करते करनेवाला अच्छा मिल गया, इसलिये सब ऐसा हो गया। विचार हो, लेकिन बाहरका अच्छा करनेवाला हो तो हो। अभी तो चित्रमें भी कितना संक्षेपमें किया है।
मुमुक्षुः- समवसरण स्तुतिका स्मरण आ गया। देव स्वयं ही रचना करे और स्वयंको ही आश्चर्य लगे कि ऐसी रचना कैसे हो गयी! तीर्थंकरका कोई अलग ही द्रव्य है, इसलिये उनके पुण्यसे सब सहजरूपसे सुचारुरूपसे बन जाता है।
समाधानः- गुरुदेवका प्रभावना योग ऐसे वर्तता ही रहता है। गुरुदेवने मार्ग बताया, भेदज्ञान प्रगट कर, स्वानुभूति कर। तू भिन्न, आत्मा भिन्न। तू चैतन्य है, तू ज्ञान, आनन्दादि अनन्त गुणोंसे भरपूर है। उसे भिन्न-न्यारा जान। ये सब कर्ताबुद्धि छोड और चैतन्यकी ओर दृष्टि कर। पुरुषार्थ करनेकी गुरुदेवने अनेक प्रकारसे (प्रेरणा दी है)। अनेक प्रकारसे स्वरूप द्रव्य-गुण-पर्याय, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य, भेदज्ञान स्पष्ट सूक्ष्म कर-करके कोई अपूर्व रीतसे बताया है।
मुमुक्षुः- आपने कहा न, आत्मा शब्द बोलना भी पूज्य गुरुदेवने हम लोगोंको सीखाया है।
समाधानः- गुरुदेवने सीखाया है। कोई आत्मा जानता नहीं था। बाहर थोडी क्रिया की तो धर्म हो गया। ऐसा मानते थे। थोडी सामायिक करे, थोडा त्याग करे इसलिये धर्म हो गया। परन्तु अन्दर आत्मा है और आत्माके स्वभावमें ही धर्म है। धर्म कहीं बाहर नहीं है। स्वभावमें धर्म है और स्वभावमें-से ही प्रगट होता है। आत्मा शब्द बोलना गुरुदेवने सीखाया है।
दूसरे कितने ही लोग धर्म बाहरमें खोजते हैैं कि कहीं बाहरसे धर्म मिल जाय। गुरुदेवने मार्ग तो यथार्थ बता दिया, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। तू इस मार्ग पर जा। तू चैतन्यको पहचान, उसे ग्रहण कर, भेदज्ञान कर। वह मार्ग बताया, फिर पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। वह मार्ग बराबर बता दिया।
मुमुक्षुः- आपने कहा है कि वीतराग मार्गमें तो कदम-कदम पर पुरुषार्थकी जरूरत पडती है, उसके सिवा कहीं चले ऐसा नहीं है।
समाधानः- पुरुषार्थकी जरूरत पडती है।
मुमुक्षुः- अकेले पुरुषार्थसे होता है या गुरुदेवके प्रति भी थोडी-बहुत अर्पणता चाहिये।
समाधानः- पुरुषार्थ करे उसमें अर्पणता साथमें होती है। पुरुषार्थ कैसे करना, किसको पहचानकर करना? चैतन्यको पहचानकर। चैतन्यका स्वभाव कैसे प्रगट हो? औ
PDF/HTML Page 1336 of 1906
single page version
गुरुदेवने कौन-सा मार्ग और कौन-सा स्वभाव कैसे बताया है, ऐसे गुरुकी अर्पणताके बिना, गुरुदेवने जो कहा है उस मार्ग पर पुरुषार्थ किये बिना होता नहीं। गुरुदेवने जो कहा है, उसमें अर्पणता साथमें आ जाती है।
मुमुक्षुः- ते तो प्रभुए आपीयो, वर्तूं चरणाधीन।
समाधानः- गुरुदेवने जितना दिया, चरणाधीन वर्तूं, दूसरा क्या कर सकते हैं? कुछ हो सके ऐसा नहीं है। "आ देहादि आजथी वर्तो प्रभु आधीन'। बस, प्रभुके आधीन यह देह वर्तो। देहादि सब। "दास, दास, हूँ दास छूँ, आप प्रभुनो दीन।' दूसरा कुछ कर सके ऐसा नहीं है। उन्होंने जो आत्मा दिया, उससे सब हिन है। इसलिये आत्माके आगे सब तुच्छ है। गुरुदेवने जो दिया उसके आगे। इसलिये चरणाधीन वर्तता हूँ।
गुरुदेवकी सातिशय वाणी, उनका अतिशयता युक्त ज्ञान, उनका आत्मा अतिशयता युक्त, वे इस पंचम कालमें पधारे वह कोई अहोभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- .. स्वानुभूतिकी बहुत ही महिमा की है। और सब मुमुक्षुओंको स्वानुभूति कैसे है, ऐसी भावना है। गुरुदेवने तो बहुत समझाया है। परन्तु फिर भी जबतक कार्य नहीं हो जाता, तबतक अन्दर उलझन होती हो, इसलिये कुछ न कुछ मार्ग कैसे खोजना (ऐसा भाव आ जाता है)।
समाधानः- मार्ग तो गुरुदेवने स्पष्ट कर दिया है। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। मार्ग एक ही है। गुरुदेवने कहा, शास्त्रमें एक ही बात आती है कि आत्माकी ओर दृष्टि कर, भेदज्ञान कर। "भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन।' जो भी सिद्ध हुए, सब भेदविज्ञानसे हुए। जो नहीं हुए हैं, वे भेदविज्ञानके अभावसे नहीं हुए। इसलिये तू भेदविज्ञान प्रगट कर।
ये विभाव और स्वभावका भेद कर कि यह स्वभाव है और यह विभाव है। स्वभाव पर दृष्टि कर। मैं अनादिअनन्त आत्मा चैतन्य हूँ। उस पर दृष्टिका स्थापित कर और उसका भेदज्ञान कर। मैं चैतन्य अखण्ड हूँ और यह जो विभाव है, वह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव-विभावका भेदज्ञान करके स्वभावमें दृढता कर, उसमें लीनता कर। उसे ग्रहण कर और उसीकी परिणति प्रगट कर, तो उसीमें स्वानुभूतिक प्रगट होगी। मार्ग वह एक ही है, दूसरा मार्ग नहीं है।
मैं निर्विकल्प तत्त्व हूँ, ये विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। इसलिये उसीमें बारंबार लीनता, दृढता, सब उसीमें कर। तो उसके बारंबार अभ्याससे उसीमें स्वानुभूति प्रगट होती है, वही मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है। अंतरमें ही मार्ग रहा है।
मुमुक्षुः- इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।
समाधानः- उसीमें प्रीति कर, उसमें संतुष्ट हो कि जितना यह ज्ञान है, उतना
PDF/HTML Page 1337 of 1906
single page version
ही सत्यार्थ है। .. विकल्पमें संतोष न हो। जितना ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उसीमें तू संतुष्ट हो, उसीमें तृप्त हो, उसीमेंं सब है। ज्ञान माने सिर्फ जानना ऐसा नहीं, परन्तु ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही तू है। उसीमें। बस, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। एक ज्ञानस्वरूप आत्मा ही चाहिये। उसीमें तृप्त हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा।
उसमें ऐसा मत मान कि एक ज्ञानमें सब आ गया? ज्ञानमें ही सब आ जाता है। तू ज्ञायक ही है और उसमें अनन्त गुण हैं। इसलिये उसमें अनन्त सुख है। सब उसीमें-से प्रगट होगा। उसीमें तू तेरी प्रतीति दृढ कर, उसीमें तुझे अनुभूति होगी। जितना यह ज्ञान है, उतना ही कल्याण और वह परमार्थ सत्य है।
मुमुक्षुः- ऐसा समझानेके बावजूद कार्य न हो तो तत्त्वकी रुचिकी क्षति है या वैराग्यकी क्षति है?
समाधानः- वह तो परस्पर एकदूसरेको सम्बन्ध है। रुचिकी भी क्षति, वैराग्यकी भी क्षति, पुरुषार्थकी क्षति, सब क्षतियाँ उसमें होती है, तभी आगे नहीं बढ सकता। स्वयं स्वयंको यथार्थ ग्रहण नहीं करता है, उस ओर रुचिकी उग्रता नहीं करता है। रुचिके साथ वैराग्यकी भी क्षति है। सबकी क्षति है। परस्पर एकदूसरेको सम्बन्ध होता है।