Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 206.

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ट्रेक-२०६ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आत्मामें संतोष हो, ऐसी प्रतीति इस जीवको कैसे उत्पन्न हो?

समाधानः- आत्मामें संतोष हो, ऐसी प्रतीति आत्मामें ही सबकुछ है, ऐसा स्वयं विचार करके निर्णय करना चाहिये। उसीमें उसे महिमा लगनी चाहिये। विभाव है उसकी महिमा टूट जाय और स्वभावकी महिमा आये कि ज्ञानमें ही सर्वस्व है। उसे विचारसे, उसे युक्तिसे नक्की करना चाहिये कि ज्ञानमें सब है। ऐसा गुरुदेवने बताया है, शास्त्रमें आता है, लेकिन तू विचारसे स्वयंसे नक्की कर।

स्वयं नक्की कर कि जो गुरुदेवने बताया, उसे बुद्धिसे, स्वभावको पहचानकर नक्की कर कि ये जो ज्ञान दिखता है, उस ज्ञानमें ही सब है। ऐसा विचार करके, उसके कारण-कार्यसे तू नक्की कर कि ज्ञानमें ही सब है, कहीं और नहीं है। ज्ञानमें-से ही प्रगट होनेवाला है। उसकी यथार्थ प्रतीति करनी अपने हाथकी बात है। विचारसे, कारण- कार्यकी युक्तिसे, ऐसी उसकी युक्ति और दलील हो कि टूटे नहीं, ऐसी यथार्थ दलीलसे, युक्तिसे उसकी बराबर प्रतीति कर और उसमें दृढता कर। उसीमें है।

क्योंकि पहले अनुभूति नहीं होती। पहले तो वह नक्की करता है। विचारसे, उसके अमुक लक्षण दिखे उस लक्षणसे नक्की करता है। नक्की करे कि उसीमें सब है। वह ज्ञान रूखा नहीं है। परन्तु ज्ञानमें सब है। ज्ञान महिमावंत है, सुखसे भरा शिव है। सुखसे भरा आत्मा है। अनन्त गुणोंसे (भरपूर) कोई अपूर्व अनुपम आत्मा है। बाहर किसीके साथ उसे मेल नहीं है। वह भी स्वयंको लक्षणसे नक्की करना पडता है। गुरु बताये, शास्त्र बताये, लेकिन स्वयं नक्की करे तो ही स्वयंको महिमा आती है। स्वयंको नक्की करना है।

समाधानः- .. ऐसी भावना करनेसे।

मुमुक्षुः- ऐसी भावना करनेसे?

समाधानः- भावना करे कि मैं तो जीव हूँ। मैं तो ज्ञायक चैतन्यतत्त्व हूँ, यह शरीर मेरा नहीं है, परद्रव्य है। उसके द्रव्य-गुण-पर्याय भिन्न हैं, मेरे भिन्न हैं। (दोनों) भिन्न हैं। ऐसा विचार करना। ऊपर-ऊपरसे विकल्प आवे, फिर छूट जाय। बारंबार अभ्यास करना, बारंबार उसका अभ्यास करना। वह छूट जाय तो भी बारंबार रुचि, महिमा


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सब करना तो यही है। यह मेरा स्वरूप है, ऐसा बारंबार करना। छूट जाय तो भी विचार करना। ऐसे विचार करनेसे स्थिर न हो तो शास्त्रमें देखना, शास्त्र पढना। जहाँ चित्त स्थिर हो वहाँ लगाना।

मुमुक्षुः- कौन-से शास्त्रजीका अध्ययन करना चाहिये? कौन-से शास्त्रजी पढने चाहिये?

समाधानः- शास्त्र जो समझमें आये। मूल भेदज्ञान तो समयसार ही है। समयसार पढनेमें आवे, न समझमें आवे तो गुरुदेवके प्रवचन-समयसार पर हुए प्रवचन सुने। बाकी मूल शास्त्र है, नियमसार, प्रवचनसार, जो समझमें वह पढना। ऐसे अध्यात्म शास्त्र, जिसमें आत्माकी बात आती हो।

... महा उपकार और महा प्रताप है। गुरुदेवने सबको बताया है कि अंतर दृष्टि करनी। बाह्य दृष्टि तोडकर अन्दर जाना। अंतरमें ही मुक्तिका मार्ग है। स्वभावमें-से स्वभाव प्रगट होता है। विभाव तो आत्माका स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न करके स्वभाव कैसे प्रगट हो? चैतन्यतत्त्व अनादिअनन्त एक अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि करके, मैं इन सबसे भिन्न हूँ। करना यही है। ध्येय वह है। शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र और अंतरमें शद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? इस ध्येयसे सब करना है। ध्येय एक ही-चैतन्यतत्त्व कैसे प्रगट हो? उसकी दृष्टि, उसका ज्ञान, उसमें लीनता कैसे हो? वह करना है। गुरुदेवने मार्ग सूक्ष्मतासे, चारों ओरसे स्पष्ट करके बताय है।

ये जन्म-मरण करते-करते,.. इस पंचमकालमें गुरुदेव पधारे, उनका जन्म हुआ, वह महाभाग्यकी बात है कि सबको ऐसी अपूर्व वाणी मिली। ऐसी वाणी मिलनी मुश्किल है। चैतन्य कोई अपूर्व है, यह उनकी वाणी बताती थी कि आत्मा कोई अलग है। उन्हें अंतरमें-से ऐसी वाणी आती थी। वाणीका प्रभाव ऐसा था। उनकी वाणी कोई अतिशयतापूर्ण, उनका ज्ञान अतिशयतापूर्ण, उनका आत्मा वैसा था। इसलिये आत्मा अनुपम है और वह कोई अपूर्व है, उसीमें अपूर्व सुख और अपूर्व आनन्द है। वह प्रगट करने जैसा है।

सब लोग कहाँ पडे थे। गुरुदेवने अंतर दृष्टि करवायी, आत्मामें। पुरुषार्थ स्वयंको करना है। बाकी दृष्टि तो उन्होंने दी कि करना अंतरमें है, सब बताया, दिशा बतायी। ... अतिशय है, इस भूमिमें गुरुदेव विचरे हैं, इसलिये...

मुमुक्षुः- तपोभूमि है यह।

समाधानः- तपोभूमि है। गुरुदेवने कितने साल यहाँ रहे हैं। परिवर्तन किया उसके बादसे। फिर विहार करे वह अलग। बाकी हमेशा तो यहीं रहे न। पहले शुरूआतमें तो विहार भी कम करते थे। पीछले वषामें हर साल विहार करते थे। परन्तु हमेशा तो यहीं रहते। इस पंचमकालमें...


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मुमुक्षुः- ... बहुत जीव यहाँ-से गये, लेकिन किसीको विकल्प नहीं है। स्वर्गमें गये होंगे। तो किसीको ऐसा विकल्प नहीं है कि यहाँ पर भगवानकी वार्ता करें, बताये। लेकिन अब हमारे मनमें ऐसा कई बार विकल्प उठता है कि गुरुदेव गये...

समाधानः- स्वयंको तो प्रभावनाका विकल्प था, बाकी यहाँका विकल्प आना मुश्किल, यहाँके पुण्य हो तो विकल्प आये। .. भरतक्षेत्रमें थे और यहाँ-से गये। इस पंचमकालमें ऐसा बनना बहुत मुश्किल हो गया है। जहाँ तीर्थंकर भगवान विचरे, वहाँ देवोंके समूह आता है। यहाँ सब मुश्किल हो गया है।

मुमुक्षुः- मुमुक्षुजीवको मार्गदर्शन दिया गया और वह परिणतिमें कैसे उपकारी होता है? परमार्थमें वह कैसे उपकारी होता है, यह समझाईये।

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्र, भगवान सर्वोत्कृष्ट (हैं)। भगवानने सर्वोत्कृष्ट दशा प्रगट की है। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा अपना आत्मा है। भगवानका जो स्वरूप है, जो भगवानने प्रगट किया, वैसा ही अपनेमें शक्तिरूप है। भगवानको पहचाननेसे स्वयंको पहचानता है। इसलिये भगवानका जो स्वरूप है, वैसा अपना स्वरूप है।

भगवान पर बहुमान आनेसे चैतन्यका स्वरूप पहचानमें आता है। और गुरु तो मार्ग बताते हैं कि तेरा चैतन्य स्वरूप है। तू ही स्वयं चैतन्य अनन्त गुणसे भरपूर है। वे मार्ग बताते हैं कि तू स्वानुभूति प्रगट कर, भेदज्ञान प्रगट कर। पूरा मार्ग गुरु बताते हैं। और शास्त्रमें उसका वर्णन आता है। परन्तु शास्त्रको सूलझानेवाले गुरु हैं।

देव-गुरु-शास्त्रके प्रति जिसे भक्ति होती है, (उसमें) स्वयंको ध्येय आत्माका होता है कि जैसा मेरा आत्मा, वैसा भगवानका। भगवानकी पहचान करवानेवाले गुरु हैं। इसलिये गुरु पर जिसे बहुमान आये, वह अपने आत्माको पहचाने। देवको पहचाने, वह अपने आत्माको पहचाने। और श्रुतका जो स्वरूप है, वह श्रुत तो गुरु बताते हैं। गुरु मार्ग बताते हैं।

इसलिये देव-गुरु-शास्त्र, उसकी परिणतिमें उसके शुभभावमें उनकी महिमा आये बिना नहीं रहती। उनकी महिमा जिसके हृदयमें होती है, वह स्वयंको पहचानता है। और स्वयंको पहचानता है, वह देव-गुरु-शास्त्रको पहचानता है। ऐसा देव-गुरु-शास्त्रका चैतन्यके साथ सम्बन्ध है। और श्रुतकी परिणति तो स्वयं आगे बढता है, वहाँ श्रुतकी परिणति तो साथमें होती ही है। श्रेणी चढे तो उसमें द्रव्य, गुण, पर्याय आदिका विचार उसे होता है। अबुद्धिपूर्वक होते हैं। परन्तु श्रुतका चिंतवन तो साथमें (होता ही है)। मैं चैतन्य कौन? प्रथमसे ही चैतन्य कौन? मेरा स्वरूप क्या? वह सब समझनेके लिये श्रुतकी परिणति साथमें होती है। परन्तु उसका यथार्थ मार्ग दर्शानेवाले गुरु है। श्रुतकी परिणति तो जीवको अन्दर विचार उसमें साथमें होती ही है।


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इसलिये देव, गुरु, शास्त्र उसके शुभ परिणाममें बीचमें आये बिना रहते ही नहीं। और देव-गुरु-शास्त्र आत्माको दर्शाते हैं। और जो आत्माको पहचाने, वह देव-गुरु- शास्त्रको पहचाने। देव-गुरु-शास्त्रको पहचाने वह आत्माको पहचानता है। ऐसा सम्बन्ध ही है। अतः यथार्थ ज्ञायकको पहचाने उसमें देव-गुरु-शास्त्र साथमेंं होते ही हैं। और साधना प्रगट हो, उसमें उपयोग बाहर आये तो उसे शुभ परिणाममें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। और अंतरमें जाय तो शुद्धात्मा (है), शुद्धात्मा पर दृष्टि होती है। शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट होती है, और जहाँ न्यूनता है, उस शुभ भावनामें उसे देव-गुरु-शास्त्र साथमें होते ही हैैं। इसलिये साधनाके साथ देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध साथमें रहता ही है।

प्रथम जिज्ञासाकी भूमिकासे देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध जिज्ञासुको शुरूआतसे होता ही है। और जब पूर्ण हो, तबतक देव-गुरु-शास्त्रके विकल्प उसे शुभ भावनामें होते हैं। उसे शुद्धात्मा... भेदज्ञानके साथ, शुभभावके साथ देव-गुरु-शास्त्रका ऐसा सम्बन्ध होता ही है। और देव-गुरु-शास्त्र उसे इस तरह उपकारभूत हैं। देव-गुरु-शास्त्र उसके शुभ परिणाममें आते हैं। पुरुषार्थकी प्रेरणा मिलती है। देव-गुरु-शास्त्रकी ओर लक्ष्य जानेसे अनेक जातके विचार (आते हैं)। गुरुने कैसी साधना की? देव कैसे होते हैं? शास्त्रमें क्या कहते हैं? उसे पुरुषार्थकी प्रेरणा मिलती है। करता है स्वयं, परन्तु उसमें प्रेरणा मिलती है।

साधनाके साथ देव-गुरु-शास्त्रका सम्बन्ध, ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है। आखिर तक, जब श्रेणि चढता है, वहाँ अबुद्धिपूर्वक द्रव्य-गुण-पर्यायके विचार उसे होते हैं। श्रुतका चिंतवन आखिर तक होता है। परन्तु करना है निर्विकल्प उपयोग, शुद्धात्माकी स्वानुभूति। उसकी दृष्टि वहाँ होती है। वह शुभभाव, स्वयंका-चैतन्यका-शुद्धात्मका-स्वरूप नहीं है, परन्तु वह बीचमें आये बिना नहीं रहता। ऐसा निमित्त-उपादानका सम्बन्ध है।

मुमुक्षुः- साधककी भूमिकामें तो आपने कहा ऐसा मेल हो रहा है। उसे तो दृष्टि यथार्थ प्रगट हुयी है, दृष्टिने स्वरूपका कब्जा लिया है इसलिये शुभराग आता है, तो उसे हेयरूप जानता है। परन्तु जिज्ञासुकी भूमिकामें जो आपने बात कही कि जिज्ञासुकी भूमिकामें दोनों साथमें रहते हैं, हमें तो ऐसा लगता है कि देव-गुरु-शास्त्रको साथमें रखने जाते हैं तो अनादिसे व्यवहारका पक्ष तो है, व्यवहारकी रुचि तो है। उसमें व्यवहारकी रुचि हो जानेकी संभावना है? नहीं होती?

समाधानः- उसे देव-गुरु-शास्त्र रुचिवालेको बीचमें आये बिना रहता ही नहीं। मुझे मेरा स्वरूप कैसे पहचानमें आये? मुझे गुरु क्या मार्ग दर्शाते हैं? गुरुने क्या कहा है? ऐसे विचार उसे आये बिना नहीं रहते। उसे व्यवहारका पक्ष उसमें नहीं होता। परन्तु उसे भावना ऐसी रहती है, उसे भक्ति आये बिना रहती ही नहीं। गुरु ऐसा


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कहते हैं कि, तू तेरे शुद्धात्माको पहचान। तू सर्व शुभभावसे भिन्न तेरा शुद्धात्मा है, ऐसा गुरु कहते हैं। परन्तु जिज्ञासुको भी शुभभाव आये बिना नहीं रहते। उसमें कोई व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। उसे व्यवहारका पक्ष ऐसे नहीं हो जाता। उससे लाभ माने, उसमें सर्वस्व माने, उससे मोक्ष माने तो उसमें व्यवहारपक्ष होता है। बाकी शुभभाव आये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। ऐसी उसमें श्रद्धा नहीं हो जाती। शुभभावना आये तो ऐसी श्रद्धा नहीं हो जाती कि इससे मुझे लाभ होता है या मोक्ष होता है। ऐसी श्रद्धा जिज्ञासुको साथमें हो जाय, ऐसा नहीं होता।

उसे बुद्धिपूर्वक ऐसा निर्णय होता है कि गुरुने कहा है कि तेरा शुद्धात्मा विकल्प रहित निर्विकल्प है। शुभभाव भी तेरा स्वरूप नहीं है। गुरुने कहा। और उसे विचारसे ऐसा बैठा है। इसलिये उसमें श्रद्धा नहीं हो जाती है कि शुभभाव आया इसलिये उसमें व्यवहारका पक्ष हो गया और श्रद्धा ऐसी हो गयी। ऐसा नहीं होता।

व्यवहारका पक्ष किसे हो जाता है? कि ऐसी श्रद्धा है साथमें कि इससे मुझे लाभ होता है। देव-गुरु-शास्त्र मुझे कर देते हैैं, वे करे ऐसा हो, मेरे पुुरुषार्थसे नहीं होता, ऐसी जिसे मान्यता है, उसे व्यवहारका पक्ष होता है। उसकी श्रद्धा ऐसी हो कि मैं मेरे-से करुँगा तब होगा। गुरु मुझे उपकारभूत हैं, गुरुने सब दिया है। ऐसी शुभभावना आये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। उसकी श्रद्धा तो भिन्न रहती है। यथार्थ श्रद्धाकी अलग बात है, जो सहज भेदज्ञान और श्रद्धा (होती है वह)। परन्तु ये उसे जो बुद्धिपूर्वक श्रद्धा है, उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती। गुरुकी भक्ति करे उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती है, उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। भगवानकी भक्ति करे, गुरुकी करे, शास्त्रकी करे तो उसमें जिज्ञासुको पक्ष नहीं हो जाता। उसमें सर्वस्वता माने तो होता है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण आपने किया। मुमुक्षुः- शुभभावको हेय समझता है और आये बिना रहे नहीं, ऐसा भी समझता है। दोनों बात होती है।

समाधानः- ऐसा समझता है, दोनों समझता है। उसे श्रद्धा है कि शुभभाव तो हेय है। तो भी वह जिज्ञासुको भी आये बिना नहीं रहता। शुभभाव आये इसलिये श्रद्धाकी भूल हो जाय, ऐसा कुछ नहीं होता। शुभभावमें वह भक्ति करे, इसलिये उसे व्यवहारका पक्ष हो गया, ऐसा नहीं है। उसकी श्रद्धा तो अंतरमें वह स्वयं जानता है कि गुरुने ऐसा कहा है कि शुद्धात्मा तेरा भिन्न है, शुभभाव तेरा स्वरूप नहीं है और स्वयंने भी नक्की किया है। इसलिये उसमें श्रद्धाकी भूल नहीं होती।

मुमुक्षुः- महिमा करे तब तो ऐसे करे कि आप ही मेरे सर्वस्व हो।


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समाधानः- हाँ, ऐसे महिमा करे। आप सर्वस्व हो, आपने सब दिया है। आप यहाँ पधारे, आपने मार्ग बताया तो हम जागृत हुए हैं। आपने ही हमें पुरुषार्थ करना सीखाया है, ऐसा बोले। लेकिन वह समझता है कि, करना तो मुझे है। परन्तु गुरुका परम उपकार है, ऐसा समझता है कि यह दिशा बदली हो तो गुरुने बदली है। उपकारबुद्धिमें, उसके शुभभावमें ऐसा आता ही है।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण किया। जिज्ञासुकी भूमिकामें, उस भूमिकामें भी शुभभाव साथमें होता है, वह आये बिना नहीं रहता। यह स्पष्टीकरण बहुत सुन्दर आया। किसीको भय लगे कि उसमें पक्ष आकर अटक तो नहीं जायेंगे न?

समाधानः- व्यवहारका पक्ष होकर अटक नहीं जाता। स्वयं श्रद्धामें समझता है, उसमें अटकता नहीं।

मुमुक्षुः- माताजी! आज टेपमें ३८वीं गाथा चली थी। उसमें ऐसा आया था, अप्रतिहत भावकी बात उसमें थी। और गुरुदेव भी कभी-कभार कहते थे कि बहिनश्रीके जातिस्मरणज्ञानमें क्षायिक जोडणीकी बात आयी थी। तो कृपा करके क्षायिक जोडणीका स्वरूप क्या है अथवा वह किसे प्राप्त होता है, उस विषयमें कुछ स्पष्ट करें।

समाधानः- जोडणी क्षायिक तो जो अप्रतिहत धारा होती है, उसमें प्रगट होता है। वह तो बहुत आगे गया हो उसे। जिसमें शुद्धात्माकी साधनाकी पर्याय विशेष- विशेष अप्रतिहत धारासे जुडती है, उसे जोडणी क्षायिक कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- बराबर स्पष्ट नहीं हुआ, माताजी! फिरसे ज्यादा स्पष्ट करिये तो...। वर्तमानमें इस कालमें तो क्षयोपशम समकित होता है। अमृतचन्द्राचार्यदेवका पूरा ध्वनि ऐसा था कि क्षयोपशम समकित गिरेगा ही नहीं और हम क्षायिक लेकर ही रहेंगे तो गुरुदेव अप्रतिहतभावकी बात भी करते थे और साथ-साथ आपकी यह बात भी लेते थे। तो उसके साथ उसका क्या मेल है? कैसे है? यह कृपा करके समझाईये।

समाधानः- क्षयोपशम भी ऐसा होता है कि अप्रतिहत होता है कि जो गिरता नहीं, ऐसा। और उसमें उसकी सब पर्याय अप्रतिहतभावसे, शुद्धात्म स्वरूपकी पर्यायें अप्रतिहत धारासे प्रगट होती है। ऐसी उसकी धारा ही प्रगट होती है, जोडणी क्षायिकमें।

मुमुक्षुः- धर्म अर्थात सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान प्रगट करनेके लिये एक तो भेदविज्ञानकी पद्धतिकी बात शास्त्रमें बहुत सुन्दर आती है। दूसरी ओर ज्ञायककी प्रतीत करनेकी बात भी समयसार, नियमसार आदि ग्रन्थोंमें आती है। तो उन दोनोंमें एक ही बात है अथवा कोई अंतर है? अथवा उन दोनोंका मेल कैसे है, यह समझानेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- दोनों एक ही बात है। भेदज्ञान, ज्ञायककी प्रतीति करनी वह अलग नहीं है। ज्ञायककी प्रतीति करनी कि मैं ज्ञायक हूँ। अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्यतत्त्व हूँ।


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जो परमपारिणामिकभावस्वरूप अनादिअनन्त ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायककी प्रतीति करनी और उसके साथ भेदज्ञान अर्थात मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ और परपदार्थसे भिन्न, विभावसे भिन्न ऐसा मैं आत्मा हूँ। मेरा स्वभाव भिन्न है। उसमें भेदज्ञान और ज्ञायककी प्रतीति दोनों साथमें आ जाते हैं। उसमें कोई अलग बात नहीं आती है, दोनों एक ही बात आती है।

मुमुक्षुः- पात्र शिष्यके मुख्य-मुख्य लक्षण सम्बन्धित थोडा मार्गदर्शन दीजिये।

समाधानः- पात्र हो तो उसे अंतरसे उसे आत्माकी लगन ही लगी हो। मुझे एक चैतन्य चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। आत्माका ही जिसे प्रयोजन है। प्रत्येक कार्यमें उसे आत्माका प्रयोजन होता है। अन्य सब प्रयोजन उसे गौण हो जाते हैं। एक आत्माको मुख्य रखकर उसके सब कार्य होते हैं। शुभभावके कार्य हो तो उसे आत्माका प्रयोजन होता है। दूसरा बाहरका कोई प्रयोजन उसे नहीं होता।

उसे शुभभावना हो तो देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना कैसे हो, ऐसा शुभभावमें उसे आता है। आत्माका प्रयोजन उसे साथमें होता है, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता। उसमें कोई लौकिक प्रयोजन या दूसरा कोई प्रयोजन साथमें नहीं होता। लौकिक प्रयोजनसे वह बिलकूल न्यारा (होता है)। उसे आत्माकी ही लगन लगी होती है। उसे लौकिका, बाहरका या बडप्पन या बाहरका कोई प्रयोजन नहीं होता। मेरे आत्माको कैसे लाभ हो, यह एक ही प्रयोजन आत्मार्थीको होता है।

जिसने साधना की, ऐेसे गुरु, ऐसे उपकारी गुरु, जिनेन्द्र देव, शास्त्रकी प्रभावना कैसे हो? जिसे स्वयंकी प्रीति है, ऐसा जिसने मार्गदर्शन दिया, जिन्होंने मार्ग बताया, उनका परम उपकार है। उनकी प्रभावना कैसे हो, ऐसा हेतु होता है। बाकी दूसरा कोई हेतु उसे होता नहीं। पात्र जीवका ऐसा लक्षण होता है। दूसरा सब उस उसे गौण हो जाता है, एक आत्मा ही मुख्य रहता है।

मुमुक्षुः- संस्थाके कार्य करनेका प्रयोजन?

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना होती हो और उसको स्वयंको विकल्प आता हो तो उसमें जुडता है। जुडता है। देव-गुरु-शास्त्रकी प्रभावना हेतु और निजात्मा हेतु जुडता है। दूसरा कोई प्रयोजन नहीं होता।

मुमुक्षुः- उसमें भी मुख्यपने तो आत्मा ही मुख्य होता है।

समाधानः- आत्मा ही मुख्य होता है। मेरे आत्माको कैसे (लाभ हो)? निजात्माको कैसे संस्कार डले? आत्माके संस्कार कैसे दृढ हो? मैं चैतन्य न्यारा हूँ, ऐसा ही उसे प्रयोजन होता है। उसे धर्मकी प्रीति है इसलिये धर्मकी प्रभावना कैसे हो? गुरुकी कैसे प्रभावना हो? उनकी शोभा हो, उनको लोग जाने, शुभभावमेंं उसे ऐसा विकल्प आता


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है। जिसकी स्वयंको प्रीति है, स्वयंको जिस स्वभावकी प्रीति है, जो गुुरुने मार्ग बताया, उस गुरु पर भक्ति आये बिना नहीं रहती। इसलिये वह शुभकार्यमें जुडता है। परन्तु उसे हेतु आत्माका ही होता है।

मुमुक्षुः- किसीको ऐसा हो जाय कि संस्थाकी मुख्यता हो जाय और आत्माकी गौणता हो जाय, तो वह पात्रतामें आता है?

समाधानः- आत्माकी तो मुख्यता ही होनी चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!