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मुमुक्षुः- एक समयकी ज्ञानकी पर्यायको कोई बार शास्त्रमें ज्ञेय कहनेमें आती है, कोई बार पर्याय है इसलिये हेय है, ऐसा भी वर्णन आता है। कोई बार प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय कहनेमें आती है। एक पर्याय सम्बन्धि बहुत प्रकार शास्त्रमें आते हैं। तो उसमें भेदविज्ञानकी ज्योति प्रगट करनेके लिये कौन-सी बात मुख्य करनी? हेय है, ऐसे मुख्य करना? ज्ञेय है, ऐसे मुख्य करना? अथवा उपादेय है, ऐसे मुख्य करना?
समाधानः- दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है। क्योंकि जो चैतन्य स्वभाव अनादिअनन्त अखण्ड ज्ञान परिपूर्ण स्वभाव भरा है। उसके दर्शनगुण, चारित्र आदि अनन्त गुण जो हैं, सहज दर्शन, सहज ज्ञान, सहज चारित्र, सहज आनन्द स्वभावसे भरा है। परिपूर्ण है। वह परिपूर्ण है और अखण्ड पर दृष्टि करनेमें अधूरी जो पर्यायें हैं, वह अधूरी पर्याय आत्माका मूल स्वरूप नहीं है। इसलिये उसे उस दृष्टिसे हेय कहनेमें आता है। परिपूर्ण स्वभावकी अपेक्षासे, दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।
उसे जानने योग्य कहनेमें आता है। परन्तु जो अधूरी पर्याय, साधनाकी पर्याय जो है, वह बीचमें आये बिना नहीं रहती। इसलिये वह ज्ञानमें जानने योग्य है।
और वह आदरने योग्य है। क्योंकि अधूरी पर्याय (है)। दर्शन और ज्ञान दोनों प्रगट हो तो चारित्र कहीं परिपूर्ण साथमें हो नहीं जाता। इसलिये उसे साधना करनी बाकी रहती है, स्वरूपमें लीनता बाकी रहती है। इसलिये वह पर्याय उसे आदरणीय भी होती है। ज्ञानमें उसे आदरणीय कहते हैं। दृष्टिकी अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।
वह जैसे है वैसे निश्चय-व्यवहारकी सन्धि समझे तो उसकी साधना आगे बढती है। दृष्टिमें एक ज्ञायकको मुख्य रखे। परिपूर्ण ज्ञान.. उसमें पूर्ण-अपूर्ण पर्यायोंको गौण करनेमें आती है कि पूर्ण-अपूर्ण पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ। मैं तो अखण्ड ज्ञायक हूँ। केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट हो तो भी वह पर्याय है। मैं तो एक द्रव्य हूँ। परन्तु साधनामें बीचमें सम्यग्दर्शनसे लेकर जो निर्मल पर्याय प्रगट होती है, वह सब साधनामें आती है। इसलिये उस अपेक्षासे उसे उपादेय (कहनेमें आता है)। केवलज्ञानकी पर्याय भी उसे साधना करनेसे प्रगट होती है। इसलिये उसकी अपेक्षासे उपादेय है, परन्तु दृष्किी
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अपेक्षासे उसे हेय कहनेमें आता है।
मुमुक्षुः- प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय कहा?
समाधानः- प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय है। उसे पुरुषार्थ करना रहता है। दृष्टि और ज्ञान प्रगट हुए। लीनता अभी कम है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी, परन्तु स्वानुभूति क्षण-क्षणमें उसकी वृद्धि हो और स्वानुभूतिरूप ही स्वयं हो जाय, जैसा आत्मा है वैसा शाश्वत स्वानुभूतिरूप हो जाय, ऐसी दशा प्रगट नहीं होश्रती है, इसलिये उस अपेक्षासे आदरणीय है।
मुनि छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर जाय और बाहर आते हैं। तो भी उन्हें अधूरी पर्याय है। इसलिये उनकी साधनाकी पर्याय बारंबार चलती ही रहती है। मैं प्रमत्त या अप्रमत्त नहीं हूँ, ऐसी दृष्टि होनेके बावजूद वे साधनाकी पर्यायमें झुलते हैं। ऐसा करते-करते श्रेणी चढते हैं।
मैं ज्ञायक सो ज्ञायक हूँ। तो भी साधनाकी पर्यायें बीचमें होती है। अंतर्मुहूर्त- अंतर्मुहूर्तमें अप्रमत्त दशामें, पुनः प्रमत्त दशामें आते-आते श्रेणी लगाकर केवलज्ञान प्रगट होता है। साधनामें वह आये बिना नहीं रहता। परिणतिकी डोर स्वभावकी ओर, ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, स्वानुभूतिकी ओर (जाता है)। भेदज्ञानकी धाराको उग्र करे, दृष्टिका जोर वृद्धिगत करता जाता है और स्वानुभूतिकी दशा प्रगट करता जाता है। साधनामेंं वह होता है। दृष्टि सबको हेय मानती है, दृष्टि सबको गौण करती है।
मुमुक्षुः- उसमें ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, माने क्या?
समाधानः- ज्ञान अर्थात पुरुषार्थकी डोर... ज्ञायककी ओर जो परिणति गयी है, वह परिणति स्वयंको अपनी ओर खींचती है। ज्ञान ज्ञानको खींचता हुआ, ज्ञायककी ओर जो ज्ञान गया, ज्ञायककी ओर जो ज्ञान परिणमा वह ज्ञान स्वयं अपनी ओर अपनी परिणतिको खींचता है। जो विभावकी ओर परिणति जाती है, उसे स्वभावकी खींचता हुआ स्वयं साधनाको वृद्धिगत करता जाता है, भेदज्ञानकी धारा उग्र करता जाता है।
मुमुक्षुः- अत्यंत सुन्दर स्पष्टीकरण है। ऐसा मेल करना भी बहुत मुश्किल पडता है। कभी इस ओर खींच जाता है, कभी पर्याय-ओर खींच जाता है। द्रव्यकी ओर एकान्त खींच जाता है तो पर्याय (छूट जाती है)।
समाधानः- सब छोड देना है, एक ही द्रव्य है, ऐसा हो जाय। अथवा तो पर्याय पर चला जाता है।
मुमुक्षुः- यह स्पष्टीकरण तो अत्यंत सुन्दर है और आत्मधर्ममें मुमुक्षुओंको बहुत मार्गदर्शन मिले ऐसा सुन्दर है।
समाधानः- दृष्टि प्रगट हो गयी, फिर कुछ करना ही नहीं रहता, ऐसा नहीं
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है। दृष्टि होनेके बाद सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान प्रगट हुआ, परन्तु अभी लीनता प्रगट करनी बाकी रहती है। भेदज्ञानकी धाराको उग्र करके दृष्टिका बल वृद्धिगत करता जाता है। अपनी परिणतिको अपनी ओर एकदम झुकाता जाता है। विभावकी ओर जा रही परिणतिको स्वभावकी ओर खींचता जाता है। वह हेय मानता है, फिर भी पुरुषार्थकी डोर चालू है। मैं तो अखण्ड हूँ तो भी विभावकी पर्याय जो हो रही है और स्वभावपर्याय कम है, उसे जानता है और पुरुषार्थकी डोरको अपनी ओर खींचता जाता है।
मुमुक्षुः- साधककी ऐसी विचक्षणता भी असाधारण सूक्ष्म है।
समाधानः- दोनों ऐसे ही हैं। कल कहा, जिज्ञासुको उसमें व्यवहाराक पक्ष नहीं आ जाता? ऐसे नहीं आ जाता। स्वयंने नक्की किया हो कि बस, इससे धर्म नहीं है। ऐसा निश्चय किया हो तो उस कार्यमें जुडे तो उसमें व्यवहारका पक्ष आ नहीं जाता। कोई प्रयोजनके कारण ऐसे व्यवहारके कायामें जुडनेका प्रसंग बने। कोई भक्तिमें स्वयंको उल्लास आवे और जुडना हो, इसलिये उसमें कोई व्यवहारका पक्ष नहीं आ जाता। जिसे भेदज्ञान प्रगट हुआ, उन्हें ऐसे प्रसंग बने। कोई आचार्य धवल शास्त्र लिखते हैं और कोई अध्यात्मके लिखते हैं, तो उसमें उन्हें कोई पक्ष हो जाता है? कोई मुनि भक्तिके शास्त्र लिखे, पद्मनंदि आचार्य, इसलिये उसमें व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता। भेदज्ञानकी धारा चलती है।
वैसे, जिज्ञासुने नक्की किया है कि ये सब विभावसे भिन्न मैं चैतन्यद्रव्य हूँ। भले ही बुद्धिसे नक्की किया है तो भी किसीको स्वयं ऐसी परिणति हो और भक्तिके भाव आये, उसमें जुडे और कोई ऐसे प्रयोजनमें पडे और उसमें जुडे तो उसमें भक्ति करनेसे व्यवहारका पक्ष नहीं हो जाता।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण। जिज्ञासुकी नक्की करनेमें कचास है, वह तो अपना कारण है। ऐसे परिणाम आते हैं और उसके पक्षमें खींच जाता है, ऐसा नहीं है।
समाधानः- भक्तिके कायामें भक्तिके भाव आये तो उसमें वह जुडे तो वह कोई पक्ष नहीं है। उसमें यदि नक्की करे कि इसमें सर्वस्व है और इसीमें-से मुझे लाभ होगा, ऐसा माने तो उसे पक्ष है। परन्तु मेरा स्वभाव तो सब शुभभावसे मेरा स्वभाव तो भिन्न है। परन्तु उसे शुभभावकी भक्तिकी परिणति ऐसी कोई आये और कुछ प्रयोजन पडे तो उसमें जुडे, इसलिये उसे पक्ष नहीं हो जाता।
मुमुक्षुः- कल आपको प्रश्न पूछा उसके बाद..
समाधानः- बहुत लोगोंको ऐसा हो जाय कि ये व्यवहारमें ज्यादा जुडता है, इसलिये इसे व्यवहारका पक्ष हो गया है। ऐसा नहीं है।
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मुमुक्षुः- ऐसे शास्त्र-भाषामें हम लोग ऐसा कहें कि प्रगट करनेकी अपेक्षासे उपादेय है। परन्तु आपने जो स्पष्टीकरण जिस प्रकारसे किया वह सुन्दर है। भाषामें तो सब बोल लेते हैं। प्रगट करनेकी अपेक्षासे पर्याय उपादेय है। परन्तु साधनामें साधकको ऐसे परिणाम आते ही हैं।
समाधानः- उसे साथमें होते ही हैं। उसकी दृष्टि तो ज्ञायक पर स्थापित दृष्टि ज्ञायकसे भिन्न नहीं पड जाती है। मैं ज्ञायक हूँ। उस ज्ञायकका अस्तित्व जो उसने ग्रहण किया, विभावसे न्यारा, पूर्ण-अपूर्ण पर्याय जितना भी मैं नहीं हूँ, गुणके भेद भी मेरेमें नहीं है, वह जो दृष्टि ज्ञायक पर स्थापित हुयी, वह दृष्टि तो हटती नहीं। परन्तु उसे ज्ञानमें है कि ये विभाव खडा है। अभी पर्याय अधूरी है। स्वभावका वेदन आंशिक है। स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होकर, ज्ञायककी सविकल्प धारामें आंशिक शान्तिका वेदन होता है, परन्तु अभी पूर्ण नहीं है, अपूर्ण है। अभी ये विभावकी, विकल्पकी जाल चलती है, उसे जानता है। उसमें-से अपनी परिणतिको स्वयं भिन्न करता हुआ, पुरुषार्थ करता हुआ, दृष्टिके साथ उसकी पुरुषार्थकी डोर साथ ही साथ रहती है।
वह विभावमें एकत्व होता नहीं। और जितनी उसकी उग्रता हो, उस अनुसार करता जाता है। ऐसा करते-करते ही उसकी भूमिका पलटती है। चौथी भूमिकामें हो, उसमेंसे पाँचवी, छठवीं, सातवीं भूमिकामें वह निज स्वभावकी डोरको खींचता हुआ (आगे बढता है)। ऐसी उसकी विरक्ति, ज्ञानकी उग्रता, ज्ञाताकी-ज्ञाताधाराकी तीव्रता और विरक्ती बढती जाय, इसलिये उसके स्वभावकी एकदम निर्मलता होती जाती है। स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है, वह साथमें ही रहती है। वह ऐसा विचार नहीं करता है कि प्रगटकी अपेक्षासे ऐसा है। परन्तु उसकी पुरुषार्थकी डोर चालू ही है। दृष्टि चालू है और पुरुषार्थकी डोर भी साथमें चालू ही है।
मुमुक्षुः- ... ऐसी कोई विशेषता होगी कि एक ही विषयको चारों ओरसे स्पष्ट करनेकी ऐसी ही कोई... बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण आपने आज किया।
समाधानः- जिसे सादकदशा प्रगट होती है, वह तो अपने मार्ग पर चला जाता है। कोई बाहर कहे या न कहे, परन्तु साधककी दशामें उसकी ऐसी ही दशा होती है। गुरुदेवको तो कोई अपूर्व वाणीका योग था तो एकदम स्पष्ट कर-करके सबको निश्चय और व्यवहार, ज्ञान, दर्शन आदि सबको स्पष्ट करके बता दिया है।
मुमुक्षुः- गुरुदेवश्रीके प्रथम दर्शन संप्रदायमें आपको कहाँ हुए थे?
समाधानः- पहले वढवाणमें ही हुए। नारणभाईने दीक्षा ली थी, तब दीक्षाका प्रसंग था। पहले वढवाणमें, बादमें वींछिया, सब जगह।
मुमुक्षुः- वींछिया आप पधारे थे?
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समाधानः- हाँ, वींछिया आयी थी। नारणभाईने दीक्षा ली, उसके बाद उन्होंने समाधि आदि कुछ किया था।
मुमुक्षुः- हाँ, संथारा करनेवाले थे।
समाधानः- हाँ, तब।
मुमुक्षुः- उस वक्त आप पधारे थे?
समाधानः- हाँ। तब आयी थी। बाकी पहले नारणभाईकी दीक्षा थी न? वढवाणमें दीक्षा थी न, उस वक्त गुरुदेवके दर्शन हुए थे। उसके पहले हिम्मतभाई आदि सब बात करते थे।
मुमुक्षुः- उस समय प्रवचनमें सम्यग्दर्शनकी बात आती थी?
समाधानः- हाँ, सम्यग्दर्शनकी बात आती थी। मन, वचन, कायासे उस पार विराजता है, स्वानुभूति होती है। तब पंद्रह सालकी उम्र थी। उस समय। वढवाणमें गुरुदेवके दर्शन हुए उस समय।
मुमुक्षुः- पहली बार?
समाधानः- हाँ, पहली बार। इनकी वाणी ही अलग है, ये अलग कहते हैं और आत्माका स्वरूप बता रहे हैं। बात तो पहले हिम्मतभाई और वजुभाईके पाससे सुनी थी, परन्तु दर्शन नहीं किये थे। वे तो गुरुदेवके प्रवचनमें-से लिखते थे। पहले मैं कराँची रहती थी, इसलिये दर्शन नहीं हुए थे।
मुमुक्षुः- पहले तो वजुभाईने... गुरुदेवका प्रथम परिचय आपको? हिम्मतभाईसे पहले।
समाधानः- हाँ, उन्होंने नोट बूक लिखी थी। पूरी नोटबुक लिखी थी, अभी भी है। प्रवचन।
मुमुक्षुः- ऐसा, उस वक्त प्रवचनमें-से! मुमुक्षुः- मैं तो पढता था। परीक्षा देकर वे निवृत्त थे। अभी नौकरी नहीं मिली थी।
मुमुक्षुः- आप कहाँ पढते थे? मुमुक्षुः- मैं अहेमदाबादमें। उनका इन्जीनयरींग पूरा किया, अभी नौकरी नहीं मिली थी। पूरा चौमासा उन्हें नौकरी नहीं थी, इसलिये निवृत्त थे।
समाधानः- फिर उन्होंने कहा कि, यहाँ महाराज आये हैं, कुछ अलग बात करते हैं।
मुमुक्षुः- वे लिखते थे। महाराज आये हैं। ... कहते हैं, समकित अर्थात जैन धर्म सच्चा है और सामायिक, प्रतिक्रमण करते हैं, इसलिये पाँचवां गुणस्थान है। ये
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महाराज तो कहते हैं कि सिद्ध भगवान जैसा आनन्द आता है। न्यायसे विचारने पर सच्चा लगता है।
मुमुक्षुः- आपको गुरुदेवका परिचय कब हुआ? मुमुक्षुः- बस, फिर ... की छूट्टीयाँ होती है, दिवालीकी छूट्टी होती थी, तब जाते थे। भाईको उसके पहले .. कालमें भी परिचय हुआ था।
मुमुक्षुः- मूलमें पहले वहाँ-से शुरूआत की। बादमें आपको और बहिनको।
समाधानः- बादमें मैं आयी न। नारणभाईकी दीक्षाका प्रसंग था, तब दर्शन हुए। पंद्रह वर्षकी उम्रमें। बचपनसे कराँचीमें बडी हुयी न।
मुमुक्षुः- कराँचीमें आप चार साल रहे।
मुमुक्षुः- बडेको बडा लाभ और जल्दी लाभ मिला।
समाधानः- फिर गुरुदेव बोलते, उनका प्रवचन अलग था। इसलिये तुरन्त ही आश्चर्य लगता कि ये कुछ अलग ही कहते हैं। श्वेतांबर संप्रदायमेंं एक अक्षर बोले, बाकी सब ऊपरसे बोलते हों। उसमें तो अर्थ ऊपरसे करते हों।
मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते थे कि, पूरा प्रवचन घर जाकर लिख लेते हैं। अक्षरशः। वह भावनगर?
समाधानः- हाँ।
मुमुक्षुः- वांकानेर आप बादमें गये?
समाधानः- वांकानेर बादमें। फिर तो मैं थोडा समय वढवाणमें रही, उसके बाद वांकानेर गयी।
मुमुक्षुः- भाईको उस वक्त भावनगरमें नौकरी थी। सबसे पहले अहेमदाबाद, फिर भावनगर, फिर वांकानेर।
समाधानः- भावनगरमें नौकरी थी न, इसलिये मैं वहाँ गयी थी।
मुमुक्षुः- हाँ, भाईको नौकरी वहाँ थी, इसलिये आप वांकानेर रहे। आप वहाँ नौकरी पर लगे तो वहाँ आये।
मुमुक्षुः- भावनगर, लींबडी, ... करवाते थे। मुमुक्षुः- हाँ, गुरुदेव कहते थे। बहिनको दूरसे देखा तबसे लगा कि ये शक्ति कुछ अलग है। गुरुदेव खुश हुए। गुरुदेवको ख्याल आ गया।
समाधानः- ... मेरे साथ चर्चा करते। इसलिये मुझे ऐसा लगता कि जहाँ जन्म लिया वह सच्चा नहीं होता। फिर विचार करके नक्की ऐसा ही होता था कि गुरुदेव जो कहते हैं, वही सच्चा है। आप भले कुछ भी कहो, परन्तु यही सत्य है। मुझे ऐसा ही नक्की होता था कि, आप यह सत्य, यह सत्य ऐसा कहो, लेकिन सत्य
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तो यही है। विचार करके... गुरुदेव ऐसा अपूर्व रीतसे कहते थे। यही सत्य है। नक्की विचारसे होता था, परन्तु ऐसा लगता था कि यही सत्य है।
मुमुक्षुः- आप बहुत तर्कमें नहीं ऊतरते थे।
समाधानः- यही बात सत्य है। शक्करका स्वभाव और काली जिरी, दोनों भिन्न- भिन्न हैं। ऐसे आत्माका स्वभाव भिन्न है और विभाव भिन्न है। बराबर ऐसा ही है, ऐसे ही भेदज्ञान होता है। ऐसे विचार आ जाते थे। गुरुदेव कहते कि आत्मा भिन्न, विकल्प भिन्न, उससे आत्मा भिन्न है। दो स्वभाव ही भिन्न हैं, इसलिये वह भिन्न है।
मुमुक्षुः- सीधा ऐसा आनेका कारण, पूर्वका कारण?
समाधानः- विचार तो बहुत आते थे। उसमेंसे ऐसा नक्की हो गया। पूर्वका कारण...
मुमुक्षुः- समकित ले लेगी, और ये कहते कि कितना दूर है। हाथ बताकर।
समाधानः- बहुत भावना हो न, उस परसे मैं कहती थी कि इतना दूर है। ऐसे कुछ मालूम नहीं पडता, परन्तु मेरे भावसे (कहती थी)।
मुमुक्षुः- दूसरी बार वेकेशनमें आया, कहा, समकित कहाँ फिजूल पडा है। चंपा! अब समकित कितना दूर है? मुझे लगा, उतना ही कहेगी। तो आधा कहा। इतना। तीसरी बार तो ले लिया था।
समाधानः- अन्दरसे ऐसा लगे न कि ये शरीर भिन्न, आत्मा भिन्न। ऐसी-ऐसी भावना अन्दर आती रहे, उस परसे ऐसा लगे। लेकिन ऐसे थोडे ही नक्की होता है। परन्तु मेरा भाव ही ऐसा कहता था।
मुमुक्षुः- भावनगर सच्ची.. समाधानः- अन्दरसे ऐसी हूँफ आ जाती थी। मुमुक्षुः- अन्दरका जोर बताता है कि इतना दूर है। समाधानः- गुरुदेवका प्रताप है। उन्होंने कहा तो मार्ग मिला, अन्यथा मार्ग कहाँ मिले? गुरुदेवकी कहनेकी शैली और ऐसे भावसे (कहते थे)। वे स्वयं ही कोई अपूर्व तीर्थंकरका द्रव्य, इसलिये कुछ अलग ही कहते थे। उनका जन्म सबको तारनेके लिये हुआ।