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मुमुक्षुः- द्रव्यदृष्टि पर्यायका स्वीकार नहीं करती है। परन्तु प्रयोजन तो पर्यायमें पूर्ण शुद्ध होना वह है, तो क्या दृष्टिको प्रयोजनके साथ भी सम्बन्ध नहीं है?
समाधानः- दृष्टि वस्तु स्वरूपको स्वीकारती है। मूल जो अनादिअनन्त वस्तु है, अनादिअनन्त जैसी वस्तु असल स्वरूप है, असल स्वरूपको दृष्टि स्वीकारती है। और उसे साधना करनी है, (उसमें) दृष्टिका विषय अलग है और ज्ञानका विषय अलग है। ज्ञानमें ऐसा आता है कि पर्याय अधूरी है, पर्यायको पूर्ण करनी है। इसलिये दृष्टिका वह विषय नहीं है। दृष्टिका विषय अखण्ड द्रव्य है। असली स्वरूप ग्रहण करना, वस्तुका जैसा है वैसा स्वरूप ग्रहण करना वह दृष्टिका विषय है।
और ज्ञानका विषय, उसमें पर्यायके भेद, गुणके भेद, उसका अखण्ड स्वरूप, असली स्वरूप सब स्वरूप ज्ञानमें आता है। वह ज्ञानका विषय है। दृष्टिका विषय एक असली स्वरूप ग्रहण करना वह उसका विषय है। सामान्यको ग्रहण करना-असली स्वरूपको, वह उसका विषय है। और ज्ञानमें सामान्य, विशेष सब ग्रहण करना वह उसका विषय है। उसमें पुरुषार्थका प्रयोजन तो सबमें रहता ही है। परन्तु जो असली स्वरूप ग्रहण करना वह दृष्टिका विषय है। ज्ञानमें दोनों विषय आ जाते हैं।
मुमुक्षुः- अर्थात दृष्टि अपना प्रयोजन साधती है और ज्ञान दोनों साधता है?
समाधानः- दोनों। ज्ञानमें दोनों ग्रहण होते हैं।
मुमुक्षुः- दृष्टिमें क्या गुण है, वह ज्ञानको मालूम है।
समाधानः- हाँ, ज्ञानको मालूम है।
मुमुक्षुः- और दृष्टि कैसे काम करती है, वह भी ज्ञानको मालूम है।
समाधानः- वह भी मालूम है। दृष्टि क्या काम करती है? पर्यायके क्या भेद है? ज्ञानको सब मालूम पडता है। परन्तु दृष्टिकी मुख्यता बिना आगे नहीं बढा जाता। वस्तुका असली स्वरूप ग्रहण किये बिना आगे नहीं बढा जाता। उसका मूल स्वरूप यदि ग्रहण हो तो उसीमें-से सब पर्यायें प्रगट होती हैं। पर्याय कहीं बाहरसे नहीं आती है। जो वस्तु स्वभाव है उसीमें-से प्रगट होती है। अतः असली स्वरूपको ग्रहण करे तो ही प्रगट होती है।
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इसलिये दृष्टिका विषय भले असली स्वरूप है, परन्तु उसके बलमें, उसका प्रयोजन यह है कि उसके बलसे-दृष्टिके बलसे पर्याय सहजरूपसे सधती है, पर्यायमें सहजरूपसे शुद्धता प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- स्वयं प्रयोजनकी सिद्धि (होती है)।
समाधानः- उसका प्रयोजन स्वयं आ जाता है, दृष्टिमें।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर।
समाधानः- दृष्टिकी मुख्यता हो और दृष्टिका बल हो तो उसमें स्वयं उसका प्रयोजन आ जाता है। दृष्टिके बिना तो आगे नहीं बढा जाता। ज्ञान सब जानता है, परन्तु दृष्टिके बलके बिना आगे नहीं बढा जाता। दृष्टिका प्रयोजन उसमें स्वयं आ जाता है। जो दृष्टिकी मुख्यता है, उसमें पुरुषार्थका बल सहज ही आ जाता है। अतः दृष्टिका जहाँ विषय है, उसका प्रयोजन पर्यायको शुद्धरूप प्रगट करनी है, वह उसमें आ ही जाता है। दृष्टि उस पर लक्ष्य नहीं करती है,
मुमुक्षुः- फिर भी।
समाधानः- दृष्टि उसका विषय नहीं करती है। दृष्टि पर्यायको गौण करती है। दृष्टि साधनाकी पर्यायको भी गौण करती है। दृष्टि स्वयंको एकको मुख्य रखती है। तो भी उसमें साधनाकी पर्याय आ ही जाती है और उसका प्रयोजन उसमें सिद्ध हो जाता है। ऐसा दृष्टिका बल है।
मुमुक्षुः- माताजी! एक बार दृष्टि प्रगट हो, फिर उसका बल बढता है?
समाधानः- हाँ, उसका बल बढता है। मैं यह चैतन्य हूँ, मैं अन्य कुछ नहीं हूँ, मैं अखण्ड स्वरूप हूँ। ये अपूर्ण-पूर्ण पर्याय हो, वह भी मेरा मूल असल स्वरूप नहीं है। विभाव, निमित्तका अभाव-सदभावकी अपेक्षा और अपूर्ण-पूर्ण पर्यायकी अपेक्षा उसमें आती है, इसलिये जो मूल स्वरूप है वह नहीं है।
अतः असली स्वरूपको ग्रहण करे और उसके बलमें फिर उसकी निर्मल पर्याय प्रगट होती है। दृष्टिका विषय हो तो ही शुद्धताकी पर्याय प्रगट होती है। परन्तु उसके साथ ज्ञान सब विवेक करता है कि यह अपूर्ण पर्याय है और पूर्ण साधनाकी पर्याय बाकी है। ऐसे विवेक करता है, परन्तु बल दृष्टिका होता है। दृष्टिके विषयमें-से ही स्वभावकी निर्मल पर्यायें प्रगट होती हैैं। उसका बल बढता जाता है।
मुमुक्षुः- आपसे स्पष्टीकरण तो यह करवाना था कि, एक बार सम्यक दृष्टि होनेके बाद उसका बल बढता है? और उसमें पर्यायमें निर्मलता विशेष-विशेष होती जाती है।
समाधानः- हाँ, उसका बल बढता जाता है। अर्थात दृष्टिका बल बढता है।
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उसके साथ चारित्रकी पर्याय, लीनताकी पर्याय बढती जाती है। एक गुणकी विशेषता हो, दर्शनकी निर्मलतामें ज्ञानकी निर्मलता और चारित्रकी निर्मलता (होती है)। परस्पर गुणोंको सम्बन्ध है। सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। एक सम्यग्दर्शनकी पर्यायमें समस्त गुणोंके निर्मल अंश प्रगट होते हैं। एकदूसरेकी पर्याय एकदूसरेको सहकारी रूपसे आगे बढती है। उसमें दृष्टि मुख्य रहती है।
दृष्टि मुख्य रहे इसलिये उसमें ज्ञान नहीं है, ऐसा नहीं। ज्ञान भी साथमें रहता है, पुरुषार्थ साथमें रहता है, चारित्रकी निर्मल पर्याय भी प्रगट होती है। प्रत्येक गुण अपना-अपना कार्य करता है। परन्तु दृष्टिका बल साथमें रहता है।
मुमुक्षुः- बल देनेमें दृष्टिका विशेष योगदान है।
समाधानः- हाँ, बल देनेमें दृष्टि विशेष है। मैं यह हूँ, यह मेरा ज्ञायकका अस्तित्वका वही मैं हूँ। अन्य सबको गौण करती है। परन्तु उसमें उसकी विरक्तिकी पर्यायें, लीनताकी पर्यायें, विभावसे विरक्ति और स्वभावकी लीनता बढती जाती है। और ज्ञान उसका विवेक करता है कि इतना अधूरा है, इतना प्रगट हुआ है। अभी प्रगट करना बाकी है। ज्ञान सब जानता है। यदि ज्ञानमें न जाने तो उसका पुरुषार्थ करना, स्वयं पूर्ण ही है तो फिर पुुरुषार्थ क्या करना? इसलिये ज्ञान विवेक करता है कि अभी अपूर्ण पर्याय है, अभी पूर्णता करनी बाकी है। ऐसा ज्ञानमें विवेक है। दृष्टिका बल साथमें है और चारित्रकी लीनता, परिणति विशेष प्रगट होती जाती है। सब साथमें ही रहते हैं। दृष्टिके साथ ज्ञान, लीनता आदि सब साथमें रहते हैं। स्वरूपाचरण चारित्र पहले प्रगट होता है, फिर चारित्रकी विशेष पर्यायें प्रगट होती हैं। उसकी स्वानुभूतिकी दशा, अमुक भूमिका हो तो अमुक प्रकारसे (होती है), फिर वृद्धिगत होती है।
मुमुक्षुः- उसमें ज्ञानमें ऐसा मालूम पडे कि पुरुषार्थ बाकी है, इसलिये पुरुषार्थ चले, वह कैसे?
समाधानः- ज्ञानमें जानता है कि पुरुषार्थ बाकी है। पुरुषार्थ तो,... वह ज्ञानमें जानता है। पुरुषार्थ हो गया ऐसा जाने तो पुरुषार्थ उठना (रहता नहीं), वह जानता है कि पुरुषार्थ बाकी है। पुरुषार्थ उठता है स्वयं पुरुषार्थसे, परन्तु ज्ञान उसमें जानता है कि यह बाकी है, उसमें ज्ञान कारण बनता है। पुरुषार्थ बाकी है, ऐसा जानता है, तो पुरुषार्थ उठनेका कारण बनता है। पुरुषार्थ उठता है स्वयं पुरुषार्थसे। पुरुषार्थके गुणसे उठता है। उसकी उतनी विरक्तिसे और पुरुषार्थके बलसे वह उठता है। ज्ञान उसका विवेक करता है।
मुमुक्षुः- सब उठनेका मूल कारण दृष्टि? दृष्टिका बल। जितना दृष्टिका बल बढता जाय उतना पुरुषार्थमें उस अनुसार...
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समाधानः- पुरुषार्थ वृद्धिगत होता है, ज्ञान तो विवेक करता है। ज्ञानमें अधिक जाने ऐसा नहीं, परन्तु उसकी उग्रता होती जाती है। दृष्टिका बल बढे, उसमें विरक्ति बढती जाती है। जो अमुक-अमुक भूमिका पलटती है, उसमें विभावसे विरक्ति और स्वभावकी परिणति बढती जाती है।
दृष्टि तो अखण्ड हो गयी। दूसरी अपेक्षासे उसे ऐसा कहनेमें आये कि उसे चारित्रमें विरक्ति कम है, इसलिये अभी लीनता कम है। चारित्रकी लीनता कम है। परन्तु दृष्टिका बल साथमें रहता है। कोई अपेक्षासे ऐस कहनेमें आये कि दृष्टिका विषय पूरा है। परन्तु अभी चारित्रकी लीनता कम है। चारित्रकी लीनता बढे तो वह विशेष आगे बढता है। परन्तु दृष्टि तो साथमें ही रहती है।
मुमुक्षुः- चारित्रमें जैसे-जैसे वृद्धि हो, उसका नाम विरक्ति बढती है?
समाधानः- हाँ, चारित्रमें लीनता, स्वरूपमें विशेष लीनता होती जाय, आचरण वृद्धिगत होता जाय तो विरक्ति बढती जाती है। विभावसे विरक्ति। भेदज्ञानकी धाराकी उग्रता हो, विभावसे विरक्ति और स्वभावकी परिणति, लीनता वृद्धिगत होती है।
मुमुक्षुः- आशंकामें यह है कि एक बार दृष्टि सम्यक हो गयी, फिर तो दृष्टिका कार्य पूर्ण हो गया। आपने कहा कि दृष्टिका बल वृद्धिगता होता है, वैसे चारित्रकी निर्मलतामें फर्क पडता जाता है, वह बराबर है।
समाधानः- फर्क पडता है। दृष्टिका विषय तो पूरा हो गया, परन्तु उसका बल बढता जाता है। दृष्टिका बल और चारित्रमें पुरुषार्थ बढता जाता है। दूसरी अपेक्षासे ऐसा कहते हैं कि चारित्र मन्द है, उसे उस प्रकारका पुरुषार्थ मन्द है, इसलिये चारित्रका पुरुषार्थ बढता जाता है, ऐसा भी कहनेमें आता है। और दृष्टि साथमें है, परन्तु दृष्टि मुख्य रहती है। इसलिये दृष्टिका बल बढता जाता है।
मुमुक्षुः- दृष्टि मुख्य रहती है, परन्तु ऐसा कहनेमें आता है कि ज्ञानीको एक समयमें पूर्ण हुआ जाता हो तो दूसरे समयका अभिप्राय नहीं है, इतनी पूर्णताकी उग्र भावना है। तो भी दृष्टिमें पर्यायदृष्टि होती ही नहीं, इतनी उग्र भावना है।
समाधानः- भावना है अभी पूर्ण हुआ जाता हो तो पूर्ण हो जाऊँ। उतनी दृष्टिमें भावना उतनी उग्र रहती है। परन्तु पुरुषार्थ नहीं उठता। पुरुषार्थकी ओरसे ऐसा लिया जाता है कि पुरुषार्थ उठता नहीं।
मुमुक्षुः- पर्यायकी पूर्णताकी ऐसी भावना होने पर भी दृष्टि पर्यायदृष्टि नहीं होती। दृष्टि तो...
समाधानः- पर्यायदृष्टि नहीं होती।
मुमुक्षुः- दृष्टि द्रव्यदृष्टि ही रहती है।
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समाधानः- दृष्टि द्रव्यकी रहती है और भावना ऐसी उग्र होती है।
मुमुक्षुः- एकदूसरेका कैसा विषय विरोध है।
समाधानः- विषयका विरोध है। दृष्टि कहती है, मैं दृष्टिमें द्रव्य अपेक्षासे पूर्ण हूँ, फिर भी भावना ऐसी रहती है कि मैं पर्यायमें कैसे पूर्ण हो जाऊँ? भावना ऐसी रहती है।
मुमुक्षुः- भावना तो चारित्रकी पर्याय है न?
समाधानः- भावना चारित्रकी पर्याय है, परन्तु दृष्टिने ऐसा जाना कि पूर्ण है, फिर भी कब पूर्ण हो जाऊँ, भले चारित्रकी भावना है, परन्तु दृष्टि उसके साथ ही रहती है।
मुमुक्षुः- दृष्टिका विषय तो कृतकृत्य है।
समाधानः- हाँ, वह तो कृतकृत्य है। दृष्टिका विषय तो कृतकृत्य है। कृतकृत्य है, परन्तु दृष्टिका बल आता है इसलिये उसकी..
उत्तरः- भावनाकी सिद्धि होती है। समाधानः- शुद्धात्माकी पर्याय बढती है। अनन्त कालसे दृष्टि प्रगट नहीं हुयी है तो भावना होती है कि चारित्र कैसे हो? परन्तु मूल वस्तुको ग्रहण किये बिना चारित्र यथार्थ नहीं हो सकता। अन्दर दृष्टि प्रगट होनेके बाद ही उसकी यथार्थ धारा उठती है। शुद्ध पर्यायकी।
मुमुक्षुः- इसमें जिज्ञासुकी क्या स्थिति होगी? जो जिज्ञासु हो और जिसका अंतर झुकनेका भाव उत्पन्न हुआ हो, उसे अभी दृष्टि प्रगट नहीं हुयी है, अनुभव नहीं हुआ है, परन्तु अनुभव होने पूर्व भी उसकी स्थिति क्या होती है?
मुमुक्षुः- मेलवाली स्थिति कैसी होती है? इस लाईनकी।
समाधानः- उसे, मैं आत्मा चैतन्य हूँ, ऐसी भावना रहे। उसकी बुद्धिसे नक्की किया है कि मैं चैतन्य हूँ। चैतन्य हूँ, मूल वस्तु स्वरूपसे मैं शुद्ध हूँ। परन्तु अधूरी पर्याय है, उसे कुछ प्रगट नहीं हुआ है। ज्ञानमें विवेक करे कि भावना तो है, परन्तु अभी कुछ प्रगट नहीं हुआ है। भिन्न हूँ, लेकिन भिन्नकी परिणति प्रगट नहीं हुयी है। अभी प्रगट करनी बाकी है। ऐसा ज्ञानमें विवेक करता है।
परन्तु मेरा आत्मा तो शुद्ध है। ऐसा बुद्धिसे नक्की किया है, परन्तु शुद्धताका कोई अनुभव नहीं है, इसलिये उसका पुरुषार्थ करता रहता है। शुद्ध हूँ, परन्तु शुद्धताका किसी भी प्रकारका अनुभव नहीं है। इसलिये शुद्धताका अनुभव कैसे हो, उसका प्रयत्न, उसका अभ्यास करता रहता है।
मुमुक्षुः- उसे भावमें शुद्धताकी कुछ हूँफ जैसा लगता होगा?
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समाधानः- अंतरसे तो हूँफ नहीं लगती है, परन्तु उसकी बुद्धिसे ऐसा लगे कि मैं शुद्ध हूँ। अंतरसे, अन्दर वेदन होकर जो हूँफ आनी चाहिये ऐसी नहीं लगती। परन्तु उसने ऐसा नक्की किया कि मैं शुद्ध हूँ और मार्ग यही है, इसी मार्ग पर जाना है, भेदज्ञान प्रगट करना है, मार्ग यह है, दूसरा कोई मार्ग नहीं है, बाहर कहीं जाना नहीं है, सब अंतरमें है, इस कारणसे हूँफलगे। मार्गका निर्णय हुआ है, इसलिये। परन्तु अंतरकी स्वानुभूति होकर अंतर ज्ञायककी धारा (होती है), ऐसी हूँफ उसे नहीं है। ... दृष्टिके बलके कारण, परस्पर सब गुण इस प्रकार सहकारी हैं। सबका विषय अलग है, परन्तु अन्दर सहकारीरूपसे कार्य करते हैं।
मुमुक्षुः- एक प्रश्नका चारों पहलू-से आप बहुत सुन्दर (स्पष्ट करते हो)।
मुमुक्षुः- जिज्ञासु जीव किस साधनसे आगे बढे?
समाधानः- निर्णय करे कि मैं यह चैतन्य ही हूँ, मैं अनादिअनन्त शुद्ध स्वरूप हूँ। ये विभावस्वभाव मेरा नहीं है। इस तरह स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे कि यह स्वभाव मेरा है, यह विभाव है। उसका भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे। स्वभावको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे। नक्की करे कि मैं यह चैतन्य ही हूँ। ऐसा बुद्धिसे नक्की करे फिर उसे भिन्न करनेका प्रयत्न करे। उसके लिये उसकी जिज्ञासा, चैतन्यकी महिमा करे। वह सब करे। अंतरकी लगन लगाये, भेदज्ञान कैसे हो? स्वभाव-विभाव कैसे भिन्न हो? उसका साधन। बुद्धिसे नक्की करके उसका अभ्यास करे।
बुद्धिसे ऐसा निर्णय करने पर उसे सहज प्रगट होनेका पुरुषार्थ उत्पन्न हो तो उसे यथार्थ पुरुषार्थ उत्पन्न होनेका कोई प्रकार होता है। मार्ग तो यही है, स्वयंको ही निर्णय करना है। पहले बुद्धिसे नक्की करे कि यह ज्ञानस्वभाव मैं हूँ, ऐसा शास्त्रमें आता है। ऐसा प्रतीतसे नक्की करे, फिर प्रगट करनेका प्रयत्न करे। मति और श्रुतसे निर्णय करे कि यह ज्ञानस्वभाव सो मैं हूँ, अन्य नहीं हूँ। फिर उसकी प्रगट प्रसिद्धि कैसे हो, उसका बारंबार प्रयास करे।
उसे शुभभावनामें देव-गुरु-शास्त्र और अंतरमें मैं शुद्धात्मा हूँ, उसका बारंबार अभ्यास करता रहे। शुद्धात्माका। अन्दर जाकर देखे, अन्दर प्रवेश करके देखे कि मैं शुद्ध (हूँ)। प्रवेश करके तो देख नहीं सकता है, यथार्थ प्रगट नहीं हुआ है इसलिये बुद्धिसे नक्की करे।
उसमें आता है न कि भूतार्थ दृष्टिसे देखे, अन्दर प्रवेश करके नक्की करे, उसके समीप जाकर नक्की करे कि भूतार्थदृष्टिसे मैं यह शुद्ध हूँ। अभूतार्थसे सब यथार्थ है, और भूतार्थदृष्टि आत्मा भूतार्थ है। शुद्धात्मा अनादिअनन्त है, उसके समीप जाकर अन्दर प्रवेश करे। प्रवेश कर नहीं सकता है, बुद्धिसे नक्की करे।
मुमुक्षुः- वही उसका पुरुषार्थ है।
PDF/HTML Page 1379 of 1906
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मुमुक्षुः- वर्तमानमें तो भगवानकी साक्षात वाणी नहीं है, आचायाके आगम हैं, फिर भी श्रीमदजीने तो ऐसा कहा कि प्रत्यक्ष गुुरु, प्रत्यक्ष सत्पुरुषकी मुख्यता इतनी है कि परोक्ष जिन उपकार भी उसके आगे गौण है, तो उसमें उतना क्या रहस्य है?
समाधानः- भगवानने क्या कहा है, उसका रहस्य जानना, वह तो प्रत्यक्ष गुरु हो वही जान सकते हैं। और उनकी वाणीमें जो आता है उसे सीधा ग्रहण करनेमें आता है, वह अलग ही ग्रहण करनेमें आता है। सीधा शास्त्र लेकर बैठे तो उसमें- से स्वयं कुछ (नहीं समझ पाता)। गुरुदेव पधारे और इतनी वाणी निकली तो सबको समझने मिला। सीधा शास्त्र लेकर पहले कोई बैठता था, तो उसमेंसे कोई उसका अर्थ नहीं समझता था।
श्रीमदके शब्दोंका रहस्य गुरुदेवने खोला कि वे क्या कहते हैं? समयसार शास्त्र लेकर पहले बैठते थे, किसीके हाथमें आया, तो उसमें भी कोई समझता नहीं था। शास्त्रोंमें-से सीधा रहस्य खोलना बहुत मुश्किल है।
उसमें प्रत्यक्ष सदगुरु जो बताये, क्योंकि उन्हें अंतर आत्मा प्रगट हुआ है, उसमेंसे बताये और उनकी जो वाणी आये और जो असर हो (वह अलग होती है)। वे चैतन्य हैं, चैतन्यको चैतन्यकी असर हो वह कोई अलग ही होती है।
मुमुक्षुः- चैतन्यको चैतन्यकी असरका रहस्य है इसमें?
समाधानः- हाँ, वह रहस्य है। चैतन्य कोई चमत्कारी वाणी गुरुदेवकी थी। गुरुदेवका तो अनुपम उपकार है। उनकी वाणी अनुपम। उनको तो अन्दर शुद्धात्माकी शुद्ध पर्यायें प्रगट हुई थी। उनकी शुद्ध पर्यायें, उसमें उनकी ज्ञान विरक्ति आदि जो अन्दरमें छा गयी थी, वह बाहर उनकी मुद्रामें छाया था। उनकी वाणीमें वह था।
उनका द्रव्य अलौकिक! मंगलमय सब मंगलता करनेवाले और दिव्य एवं अलौकिक द्रव्य था उनका। उन्हें अन्दर श्रुतज्ञानके दीपक, चैतन्यरत्नाकरको स्पर्शित होकर श्रुतज्ञानके दीपक प्रकाशित हुए थे। (ऐसा) श्रुतज्ञान, वह सातिशय वाणी, सातिशय श्रुतज्ञान, सातिशय वाणी चैतन्यदेवका चमत्कार बता रही थी। वह सबको असर करता था।
गुरुदेवका तो अनुपम उपकार है। उसका वर्णन क्या कहें? इस आत्माकी प्रत्येक पर्यायमें उपकार हो तो गुरुदेवका ही है। सब पर्यायमें। गुरुदेव तो निस्पृह, नीडरतासे जो स्पष्ट मार्ग था वैसा प्रकाशित किया। अंतरमें जो था, अन्दर जो स्वानुभूतिकी दशा और अंतर आत्मरत्नको प्रगट करके, स्वानुभूति कैसे प्रगट हो, वह सबको बताया। लाखों जीवोंको। मुक्तिका मार्ग चारों ओर-से प्रकाशित किया। उनके उपकारको क्या वर्णन हो? उनकी सातिशय वाणी, उनकी सेवा और उनकी महिमा हृदयमें रहे, बस! वही करना है।