Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 212.

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ट्रेक-२१२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आज तो उमरालाकी यात्रा...

समाधानः- गुरुदेवका वहाँ जन्मे। भरतक्षेत्रके महाभाग्य। भरतक्षेत्रकी एक महान विभूति, भरतके बेजोड रत्न गुरुदेव जगतमें पधारे थे। उनकी वाणीमें चमत्कार, उनके आत्मामें-ज्ञानमें-चमत्कार भरा था।

मुमुक्षुः- हिम्मतभाईने थोडी गुरुदेवकी महिमा, उस भूमिकी महिमा-जन्म भूमिकी महिमा सुनायी। हिम्मतभाईने दस-पंद्रह मिनट अच्छा वक्तव्य दिया। गुरुदेवकी जन्म भूमिकी महिमा बहुत अच्छी गायी।

मुमुक्षुः- गुरुदेवकी जन्म भूमि है, उसकी धूली भी धन्य है। सुवर्णपुरीकी धूल भी।

समाधानः- उनके उपकारको क्या गाना? बचपनमें वे ओढते थे। झरीकी हरी टोपी गुरुदेव ओढते थे। ऐसी मखमलकी। झरीका पहनावा वडाके दरबारमें-से आया था, वह गुरुदेवने पहना था। सर पर पघडी बान्धी थी। दो जन चँवर ढोते थे। यह गंगाबहिनको पूछा था। दो जन हाथीकी अँबाडी पर चँवर ढोते थे। इस प्रकार गुरुदेवने दीक्षा ली थी। गंगाबहन कल आये थे, वे कहते थे। उनको पूछा था। जो जन चँवर ढोते थे। और झरीका पहनावा वडाके दरबारमें-से आया था। और सर पर पघडी बान्धी थी।

मुमुक्षुः- एक ... भोळाभाई थे और एक प्रेमचन्द लक्ष्मीचन्द, लाठीवाले लेकिन गढडावाले, ये दो जन चँवर ढोते थे। ...

समाधानः- गंगाबहन तो बेचारे रोते थे।

मुमुक्षुः- गुरुदेव स्वाध्याय मन्दिरमें चक्कर लगा रहे हो तब हाथीकी अँबाडी इत्यादि बताये कि ये यह है, ये यह है।

मुमुक्षुः- माताजी आपको जो गुरुदेवके प्रति भक्ति है, वैसी हम सबको..

समाधानः- करना एक ही है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। गुरुदेवकी जन्म जयंति इस बार बहुत अच्छी (मनायी गयी)। आप सबके भाव थे और ये सब यहाँ सोनगढमें बहुत सुन्दर हो गया। मेरा तो ठीक है, मैं तो उनका दास हूँ। आप सबकी भावना थी।


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मुमुक्षुः- आपकी बात सच्ची है, गुरुदेवने हमको आज्ञा की है कि हम माताजीके प्रति जितनी भावना भाये और जितनी उनकी शरण ले सके उतना लेना, ऐसी गुरुदेवकी हमें आज्ञा है।

मुमुक्षुः- फिर भी कम है, फिर भी कम है। कभी भी कहो। हम कुछ नहीं करते हैं। हमारे जो भी अल्प भाव हैं, उसे आपके पास व्यक्त करते हैं। अतः आप सहर्ष स्वीकृति दीजिये और हम सबको...

समाधानः- मैं तो उसमें क्या कहूँ? मेरा स्वास्थ्य ऐसा है। आप लोगोंकी जैसी इच्छा और भावना हो। बाकी गुरुदेवका मनाये उसका मुझे आनन्द है।

मुमुक्षुः- आज भावना भाते हैं कि गुरुदेवकी सूर्यकीर्ति तीर्थंकरकी यहाँ स्थापना करनी।

समाधानः- अच्छी भावना है। सब बोले, कोई कुछ राशि भी बोले।

मुमुक्षुः- वैसे तो शास्त्रमें तो आता ही है। भावि तीर्थंकर..

समाधानः- शास्त्रमें तो आता है। तीन कालके तीर्थंकरोंकी स्थापना तो आती है।

मुमुक्षुः- बहुत समयसे विचार आ रहे थे। आज कहा, बोलूँ।

समाधानः- शास्त्रमें आता है, तीन कालके तीर्थंकरोंकी प्रतिष्ठा होती है, स्थापना होती है। परन्तु ये अभी वर्तमान संयोगमें... परन्तु भावना तो अच्छी करनी। और वह भावना पूरी हो, ऐसी सबकी इच्छा है।

मुमुक्षुः- अब ऐसा होनेवाला है कि जो जीएगा वह देखेंगे, गुरुदेवके शब्द है।

समाधानः- गुरुदेवकी यहाँ भावि तीर्थंकरके रूपमें स्थापना हो, उसके जैसा ऊँचा, उच्चसे उच्च है। वे स्वयं यहाँ विराजे हैं।

मुमुक्षुः- ... आनेसे पहले मुझे बात की, मैंने कहा, बहुत अच्छा विचार है। आपके आशिष हमें प्राप्त हो गये।

समाधानः- भरत चक्रवर्तीने स्थापना की थी।

मुमुक्षुः- लोग जाने कि यहाँ ऐसे सन्त विचरे थे और भविष्यमें जो तीर्थंकर होनेवाले हैं। तीर्थंकरकी वाणी तो उस वक्त सुनने मिलेगी, परन्तु यहाँ भी तीर्थंकरकी वाणी बरसती थी।

समाधानः- तीर्थंकर जैसी ही वाणी बरसती थी। ऐसी जोरदार बरसती थी कि जिसमें अकेली अमृतधारा ही बरसती थी।

मुमुक्षुः- मृत आत्मा जीवित हो जाय।

समाधानः- जागृत हो जाय।

मुमुक्षुः- माताजी! पूज्य गुरुदेवका नंदीश्वर जिनालयमें जो ... भावना है, उसके


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लिये जगदीशभाईके पुत्र जीगिशभाईकी ओर-से एक लाख रूपयेकी घोषणा की जाती है। आगे भी बढ सकते हैं। एक लाख रूपया।

समाधानः- सबकी भावना गुरुदेवके प्रति... चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

समाधानः- .. स्वयंको पुरुषार्थ करना बाकी रहता है। गुरुदेवने अंतरमें चैतन्यरत्न प्रगट करके उन्हें अंतरमें श्रुतकी लब्धि प्रगट हुयी। सबको एकदम जैसे मूसलाधार बरसात बरसे उतना दिया है। अंतरमें करना स्वयंको है। गुरुदेवको तो हम क्या करें और क्या न करें। जितना करें उतना कम है। उनकी पूजना, वंदना क्या करें? गुरुदेवने बहुत दिया है।

गुरुदेवने एक ही मार्ग बताय है कि तू आत्माको भिन्न जान। ज्ञायक आत्माको पहचान। एक ही करना है। सबको एक ही ध्येय रखना है। मार्ग एक ही है। उसके लिये विचार, वांचन आदि हो, परन्तु मार्ग एक ही है। ध्येय तो एक ही रखना है कि चैतन्यद्रव्यको तू पहचान। चैतन्यद्रव्य किस स्वरूप है? उसके गुण, उसकी पर्याय उसे तू पहचान और एक शाश्वत चैतन्यद्रव्य पर दृष्टि कर, उसीमें दृष्टि स्थापित कर। इस विभाव जो दृष्टि अनादिकी दृष्टि है, उस परसे उठाकर दृष्टिको द्रव्य पर लगा दे। जो शाश्वत अस्तित्व है, उस पर दृष्टि स्थापित कर और उसीमें-से सब प्रगट होता है। स्वभावमें-से स्वभावपर्याय प्रगट होती है। विभाव पर दृष्टि करने-से उसमें-से प्रगट नहीं होता।

दृष्टि बाहर तो भी बाहरसे जिसमें नहीं है, उसमें-से नहीं आता है, जिसमें है उसमें-से प्रगट होता है। इसलिये चैतन्य पर दृष्टि कर तो उसीमें-से सब प्रगट होता है। उस पर दृष्टि, ज्ञान, लीनता सब उसीमें करना है। आत्मा स्वभावसे निर्मल है। उसकी निर्मलताका उसे ख्याल नहीं है। निर्मलताकी यथार्थ प्रतीति करके ये जो विभाव


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हो रहा है उसमें-से पुरुषार्थको पलटकर अपनी ओर पुरुषार्थ करना वही जीवनका कर्तव्य है, करना वह है। उसके लिये देव-गुरु-शास्त्रने जो किया है, उसे हृदयमें रखनी, उनकी महिमा हृदयमें रखनी और एक आत्मा कैसे पहचाना जाय, बस, ज्ञायक आत्मामें ही सब भरा है। निवृत्तस्वरूप आत्मामें ही सब भरा है। उसके आश्रयमें-से ही सब प्रगट होता है। एक चैतन्यका आलम्बन करने-से उसके आलम्बनमें-से सब प्रगट होता है। उसमें-से स्वानुभूति, निर्विकल्प दशा सब उसमें-से प्रगट होता है। ऐसी भेदज्ञानकी धारा प्रगट करके क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य हूँ, यह मैं नहीं हूँ। चैतन्य हूँ, उसीकी महिमा, उसीका रटन बारंबार उसका अभ्यासक करना चाहिये। करना यही है।

मुमुक्षुः- पूरे जीवनमें सब जीवोंको यही एक मात्र करना है?

समाधानः- करनेका ध्येय तो एक ही है। करनेका एक है। कुछ भिन्न-भिन्न नहीं करना है। कहीं पर्याय भिन्न करनी, यह भिन्न करना, वह भिन्न करना ऐसा नहीं है। ध्येय एक ही है। एक आत्म स्वभाव पर दृष्टि करे तो उसमें-से अनन्त गुणकी जो पर्याय है वह प्रगट होती है। उसे भिन्न-भिन्न करने नहीं जाना पडता अथवा उसे ऐसी आकुलता करनेकी आवश्यकता नहीं है। एक चैतन्यको पहचाने तो उसमें-से अनन्त गुण-पर्याय प्रगट होती है। एक चैतन्य पर दृष्टि स्थापित करे तो उसमें अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनन्द जो अनन्त गुण हैं, वह सब उसीमें-से प्रगट होते हैं। करना एक है। उसके लिये यह सब श्रुतका चिंतवन, मनन, लगन, महिमा आदि सब एक के लिये करना है।

एकको जाना उसने सब जाना। एक ज्ञात नहीं हुआ तो (उसने कुछ नहीं जाना)। इसलिये एक चैतन्य कैसे पहचानमें आये, वह करना है। भगवानको जाने वह अपने आत्माको जाने। भगवान कैसे हैं? जैसा भगवानका आत्मा वैसा ही अपना आत्मा है। इसलिये आत्माको पहचानना। एक ही करना है। उसके लिये उसका अभ्यास अनन्त कालसे किया नहीं है इसलिये उसे दुर्लभ हो गया है। बारंबार उसीका अभ्यास करना जैसा है। दिन-रात उसीकी खटक, उसकी लीनता वही करने जैसा है। उसीका विचार, उसीका चिंतवन, वह सब करने जैसा है। करना एक ही है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवका उपकार तो है ही, वह अनन्त उपकार है। परन्तु साथ-साथ विशेष मार्गदर्शनके लिये हमें आपकी आवश्यकता है। अतः आप भी हमें अनन्त उपकार कर रहे हैं और वह अनन्त उपकार हम भी इच्छते हैं कि पर्याय-पर्यायमें वह उपकार बढता जाय और हमें आत्म-प्राप्तिकी भावना हो, ऐसे आशीर्वाद हम पर सदा बरसते रहें, ऐसी भावना है।

समाधानः- सम्यग्दर्शनका मार्ग गुरुदेवने बताया। पूर्वमें जीवने बहुत किया परन्तु


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एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। वह अपूर्व है। बाकी सब किया है। और उस अपूर्व सम्यग्दर्शनका स्वरूप गुरुदेवने बताया है। बाहरका सब किया है, परन्तु भवका अभाव जो सम्यग्दर्शन प्रगट हो तो ही होता है। वह सम्यग्दर्शन अपूर्व है, वह स्वानुभूति अपूर्व है।

लक्षणसे आत्माको पहचानकर, विभावका लक्षण और स्वभाव लक्षण भिन्न करके अंतरमें स्वभाव लक्षण पहचानकर उसमें दृढता करके अपूर्व ऐसा सम्यग्दर्शन प्राप्त हो तो भवका अभाव हो। और वही करने जैसा है। गुरुदेवने वही कहा है। बाहरका बहुत किया है, परन्तु एक सम्यग्दर्शन बिना भवका अभाव नहीं हुआ है, सुखकी प्राप्ति नहीं हुयी है, आनन्दकी प्राप्ति नहीं हुयी है। अन्दरसे ज्ञानसे भरपूर आत्मा भरा है, वह ज्ञायकदशा प्राप्त नहीं हुयी है।

स्वयं लक्षणसे पहचानकर द्रव्यको ग्रहण करे। लक्षणसे लक्ष्य जो द्रव्य, उसे पहचाने तो उसकी प्रतीति दृढ करके उसमें लीनता करके भेदज्ञान करके वह प्राप्त करने जैसा है। और गुरुदेवने वह बताया है। देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं उसकी महिमा करके, लक्ष्य जो आत्मा उसे ग्रहण करना, जो अनादिअनन्त शाश्वत है। वही करनेका है।

सम्यग्दर्शनके बिना जीवने परिभ्रमण किया है। वह सम्यग्दर्शन ही अपूर्व है। चैतन्यकी जो विभूति है उसीमें-से प्रगट होता है। वही करना है।

मुमुक्षुः- माताजी! सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति और अनुभूतिके बारेमें कुछ कहें।

समाधानः- कहा तो सही, वही तो कहा। सम्यग्दर्शन और अनुभूति दोनों एक ही है, कोई अलग नहीं है। सम्यग्दर्शन जो अनादिसे जीवने प्राप्त नहीं किया है। अन्दर स्वानुभूतिकी दशा वह सम्यग्दर्शन है। विभाव लक्षणको पहचानकर, स्वभाव लक्षणको पहचानकर स्वभावको प्रगट करे और उस स्वभावमें लीनता करे तो उसमें स्वानुभूति प्राप्त होती है।

विकल्प टूटकर जो निर्विकल्प दशा हो, वह स्वानुभूति और सम्यग्दर्शनका लक्षण है। और उसीमें अपूर्व आनन्द और अपूर्व ज्ञान सब उसमें ही प्राप्त होता है। भेदज्ञानकी दशा प्राप्त करनी कि जिसमें-से स्वानुभूति प्राप्त होती है। ऐसी सहज दशा अंतरसे हो तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होती है। इसलिये उसीका अभ्यास और उसकी लगन बारंबार भेदज्ञान कैसे हो, स्वभाव कैसे पहचानमें आये, वही करना है।

मुमुक्षुः- ऐसा ही प्राप्त करनेके लिये आपके आशीर्वाद..

समाधानः- करना वही है।

समाधानः- ... समवसरणमें (जाते समय) यह भरतक्षेत्रमें आता होगा, सब जानते होंगे। बाकी यहाँ आते होंगे तो भी किसीको दर्शन नहीं होते हैं।


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मुमुक्षुः- किसीको भले न हो, आपको हो जाय तो आपके साथ हमको भी हो जायगा।

समाधानः- .. समसवरणमें जाते हैं तो महाविदेह क्षेत्र और भरत क्षेत्र मनुष्य क्षेत्रमें है तो ऊपरसे जाय तो उनको सब दिखता है। भरतक्षेत्र तो बीचमें भी आता है। वे तो सब जानते हैं। आते भी हों, ऊपरसे देखते हों तो भी सबको दिखाई नहीं देता। गुरुदेव तो सब देखते हैं। और यहाँ आते भी हैं तो भी सबको देखना बहुत मुश्किल पडता है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवश्री पहले ऐसे बोलते थे कि कोई दव यहाँ आते नहीं है। गुरुदेवश्रीको कितना प्रेम था, आपको बारंबार याद करते थे।

समाधानः- पंचमकाल है। बाहरमें आना बहुत मुश्किल होता है।

मुमुक्षुः- एक बखत आप ऐसा कुछ भाव प्रगट करो कि एकदम ऊतर जाय।

समाधानः- ... और ऐसा हो गया।

मुमुक्षुः- स्वप्नमें भी

समाधानः- स्वप्नमें तो आवे, परन्तु स्वप्नकी क्या बात है? सपना तो आये। बहुत बरसोंको सान्निध्य, बहुत सालोंका है, स्वप्नमें तो आये।

मुमुक्षुः- स्वप्नमें तो हमें भी आते हैं, बहुत बार आते हैं.

समाधानः- स्वप्नमें तो बहुत आवे।

मुमुक्षुः- ...स्वप्नमें संबोधन भी देते हैं। मुमुक्षुः- माताजीके पास तो देवके रूपमें पधारे न। हमें तो गुरुदेवके रूपमें आये और माताजीको देवके रूपमें आये।

मुमुक्षुः- ऐसा। मुमुक्षुः- यह नहीं आते। मुमुक्षुः- यह बात तो आपने कुछ अलग की, उषाबहन। यह आपने खास बात कही।

मुमुक्षुः- अपने तो गुरुदेवके रूपमें आये न। मुुमुक्षुः- वह तो सच्ची बात है। ... वह तो सच्ची बात है। बहिन बोले न, किसीको दिखते नहीं। बहिनको दिखते हैं। ... हम तो यहाँ हाजिर रहेंगे, एक बार तो दर्शन करने हैं। हमारी यह नाड भी जाती हो तो हम दे देंगे, हमें दर्शन करवा दो। मेरी तो बिलकूल ठीक है। आपको तो आते हैं जरूर। बात निकल गयी न, उषाबहन, आपने बराबर खुलासा कर दिया कि उनको आते हैं।

मुमुक्षुः- स्वप्नमें तो सबको आये, परन्तु किस रूपमें आते हैं?


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समाधानः- समवसरणमें गुरुदेव दिव्यध्वनि सुननेको जाते हैं। वे तो देवके रूपमें जाते हैं समवसरणमें।

मुमुक्षुः- बोले न कि आते हैं, किसीको दिखते नहीं। वह तो बराबर स्पष्ट हो गयी बात।

मुमुक्षुः- माताजी! गुरुदेव आपश्रीके बारेमें फरमाते थे कि जब आपश्रीको अनुभूति प्राप्त हुयी, तब क्षायिक सम्यग्दर्शन लेकर ही छूटकारा है, ऐसा उग्र पुरुषार्थ आपका था। ऐसा गुरुदेव कई बार फरमाते थे। परन्तु उस समयकी आपकी जो उस प्रकारकी भेदविज्ञानकी धारा थी, उसकी थोडी-सी प्रसादी हमको मिल सके तो बडी...

समाधानः- भीतरमें अप्रतिहतधाराकी उग्रता होती है तो ऐसी भावना आती है। कोई भेदज्ञानकी धारा उग्र होवे, अपडिवाही-अप्रतिहत धारा उसमें ऐसी भावना उग्र (होती है)। उग्र धारा, भेदज्ञानकी सहज धारा।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!