Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 222.

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ट्रेक-२२२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- स्वरूपको पहचानकर जो महिमा आनी चाहिये, सहज महिमा, ऐसी महिमा नहीं आनेमें ज्ञान लंबाता नहीं होगा या परकी रुचिमें ....

समाधानः- बाहरकी रुचिमें अटक जाता है, इसलिये महिमा नहीं आती है। उसके स्वभावकी महिमा (नहीं आती है)। स्वभाव ही महिमारूप है, परन्तु रुचि बाहरकी लगी है इसलिये वह रुचि मन्द पड जाती है। रुचिका कारण है। ज्ञान लंबाये, उसके विचार लंबाये, परन्तु रुचि जो ज्ञायककी महिमा आये, उग्र महिमा आये तो वह रुचि कम हो जाय। अपनी ओर अधिक झुकता जाय, अधिक महिमा आये तो। फिर पुरुषार्थ कम है। निज ज्ञायक स्वभावका आलम्बन नहीं है। सब साथमें है।

लौकिक परिणाम है वह, गुरुदेव कहते थे न? वह शामकी संध्या है। सुबहकी संध्या देव-गुरु-शास्त्रकी (है)। परन्तु उसमें भी ज्ञायकको पहचानना बाकी रहता है। सुबह सूर्य ऊगे.. ज्ञायकको ग्रहण करे तो। लौकिक विचार हैं, वह शामकी संध्या है। देव- गुरु-शास्त्रके विकल्प सुबहकी संध्या है। उसमें भी ज्ञायकको ग्रहण करे तो अंतर चैतन्यसूर्य ऊगे।

मुमुक्षुः- अपने आपसे तो स्वयंको ऐसा लगे कि मुझे सत्समागम हुआ है और मैं सब समझ गया हूँ। लेकिन उसके बाद कितना समझने जैसा है वह तो जब विशेष ज्ञानीका परिचय करे तब उसे ख्याल आये कि अपने तो अभी बहुत (बाकी है)।

समाधानः- परिचय हो, चर्चा-प्रश्न हो उसमें आपको स्वयंको ग्रहण (होता है)। जैसे यह ग्रहण होता है, वैसे ग्रहण हो जाता है। दूसरा कुछ सीधी तरहसे कुछ कहनेका बाकी नहीं रहता है।

मुमुक्षुः- समयसार, नियमसार.... गाथा-२०४। कर्मके क्षयोपशमके निमित्त-से ज्ञानमें ... होने पर भी, स्वरूपसे देखनेमें आये तो ज्ञान ... और वही मुख्य उपाय है। गाथा इस तरह है। ... उसमें पर्यायकी बात ली है। कर्मका क्षयोपशम अर्थात पर्यायमें जो पाँच भेद पडते हैं, वह भेद होनेके बावजूद ज्ञानको उसके स्वरूप-से देखनमें आये तो ज्ञान एक ही है। और वही मोक्षका उपाय है, ऐसा कहा है। तो उसमें क्या कहना चाहते हैं?


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समाधानः- सूर्यके किरण आदि आता है। उसमें जो ज्ञान है, उस ज्ञानको ही ग्रहण करना। जो क्षयोपशमके भेद है, उन भेदोंको ग्रहण नहीं करके एक ज्ञानमात्र मैं ज्ञायक हूँ, उसे ग्रहण करना। उसके प्रकाशके किरण जो हीनाधिकतारूप है, वह उसका मूल नहीं है, मूल नहीं है। उसका जो मूल तल है वह ज्ञायकता ग्रहण करनी, ज्ञानपदको ग्रहण करना। वह तो कर्मके निमित्त-से अपने कम-बेसी उघाडके कारण मति, श्रुत, अवधि आदि दिखाई दे, केवलज्ञान पर्यंत, परन्तु उसका मूल अस्तित्व जो ज्ञायकता है, वह ग्रहण करनी। ज्ञानपद परमार्थ है।

मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल वह सब उसके भेद हैं। परन्तु उसका मूल क्या है? प्रकाशके सब किरण दिखे, परन्तु उसे पूरा देखो तो पूरा सूर्य जो है, वह सूर्य कहाँ है? उस सूर्यको ग्रहण करने जैसा है। बादलमें वह किरण आये कहाँ- से? उसका तल कहाँ है? वह किरण जो दिखाई देते हैं, उसके पीछे क्या है? कि पूरा अस्तित्व है, पूरी चैतन्यता, ज्ञायकता भरी है। उस ज्ञायकताको ग्रहण करना है।

मुमुक्षुः- पर्याय परसे तू पर्यायवानको लक्ष्यमें ले।

समाधानः- हाँ, पर्यायवान। उसको धारण करनेवाला अस्तित्व कौन है? ज्ञायकताको ग्रहण कर। मूलको ग्रहण कर। वह उसे तोडते नहीं है, उसे अभिनन्दन देते हैं। वह सब पर्याय दिखती है उस पर्यायके पीछे पूरा द्रव्य है, उस द्रव्यको ग्रहण कर।

मुमुक्षुः- सामान्य ज्ञानका आविर्भाव और विशेष ज्ञानके तिरोभावसे जब ज्ञानमात्रका अनुभव करनेमें आता है, तब ज्ञान प्रगटरूपसे अनुभवमें आता है। अब, वहाँ गुरुदेव बारंबार ऐसा कहते थे कि यहाँ द्रव्यकी बात नहीं है। यहाँ पर्यायकी बात है। तो ऐसा कहकर क्या कहना था? और उसका सार क्या है?

समाधानः- भेद-भेदमें विशेषमें रुकता था, फिर सामान्य पर दृष्टि करता है, तो सामान्य ज्ञानका आविर्भाव (होता है)। आविर्भाव अर्थात प्रगटपना होता है। प्रगट होता है, इसलिये वह पर्याय प्रगट होती है। सामान्य ज्ञान पर दृष्टि देने-से, सामान्य ज्ञान जो अनादिसे शक्तिरूप था वह प्रगट होता है। वह प्रगट होता है इसलिये उसका आविर्भाव हुआ। और विशेष जो भेद-भेदमें रुकता था, उस भेदमें-से उसकी दृष्टि अभेद, एक सामान्य पर दृष्टि करनेसे सामान्य ज्ञानका आविर्भाव होता है। इसलिये वहाँ द्रव्यदृष्टि प्रगट होती है। जैसा द्रव्य है, वैसी उसकी दृष्टि-पर्याय प्रगट होती है, उसकी स्वानुभूति प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- माताजी! आगे लवणका दृष्टान्त दिया है। सब्जीके सम्बन्धसे लवण देखनेमें आये तो सब्जी खारी है, ऐसा ख्यालमें आता है। और मात्र लवणका स्वाद लेनेमें आये तो सीधा लवणका स्वाद है कि लवण खारा है। ऐसे यहाँ सामान्य ज्ञानका आविर्भाव


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और विशेषज्ञानका तिरोभाव अर्थात ज्ञेयाकार ज्ञान, ज्ञेयाकार ज्ञानको वहाँ विशेष ज्ञानका गिना है। और ज्ञान, ज्ञान, ज्ञान सामान्य ऐसे सामान्य ज्ञानका आविर्भाव कहा है। और उसमें विशेष गुरुदेव ऐसा कहते थे कि यहाँ द्रव्य ... नहीं लेना।

समाधानः- .. अनुभूति होती है। विशेषमें जो सब्जीमें लवण मात्र सामान्य ख्यालमें लेता है, वैसे ज्ञान..ज्ञान.. ज्ञान.. सामान्य लक्ष्यमें लो तो वह सामान्य ज्ञायक-ज्ञानकी अनुभूति है। विशेष जो ज्ञेयाकार ज्ञान है उसमें सब मिश्रित स्वाद आता है। मात्र सामान्य पर दृष्टि करे, सामान्य ज्ञान पर-ज्ञायक पर दृष्टि करे तो उसे सामान्यकी अनुभूति अर्थात अनुभूति तो विशेषकी होती है, पर्यायकी अनुभूति होती है, वह पर्यायकी बात है, उस अपेक्षासे अनुभूति पर्यायकी होती है।

मुमुक्षुः- पर्यायमें सामान्य-सामान्य लेना ऐसा नहीं? पर्यायमें सामान्य जानना.. जानना.. जानना..

समाधानः- पर्यायका विषय सामान्य है कि यह ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान.. उसका विषय सामान्य है, परन्तु अनुभूति पर्यायकी होती है।

मुुमुक्षुः- ज्ञानमात्र कहने पर आत्माका अनुभव करने पर सम्यग्ज्ञान पर्यायमें प्रगट होता है।

समाधानः- सम्यग्ज्ञान पर्यायमें प्रगट होता है। ज्ञान सो मैं। उसका विशेष जो मिश्रित स्वाद आये, रागमिश्रित वह मैं नहीं, अकेला जो ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान सो मैं हूँ। उतना दृष्टिमें आया फिर उस रूप अनुभूति होती है। अर्थात वह पर्यायकी अनुभूति है। दृष्टि, ज्ञानमें दृष्टिमें उसने अकेला सामान्य लिया है। अनुभूति पर्यायकी होती है।

मुमुक्षुः- सामान्य लक्ष्यमें लेने पर अनुभूति..

समाधानः- अनुभूति पर्यायकी होती है। निर्विकल्प हो गया, विकल्प छूट गये, न्यारा हो गया। दृष्टि सामान्य पर रखकर उसमें लीनता हो गयी। इसलिये स्वानुभूति हुयी। वह स्वानुभूति पर्यायमें होती है। अनुभूति पर्यायकी (होती है), विषय सामान्य है। सामान्यका आविर्भाव हुआ, विशेषका तिरोभाव अर्थात जो मिश्रित स्वाद था, उसका तिरोभाव हुआ। और सामान्यका आविर्भाव अर्थात उसकी दृष्टि सामान्य पर गयी इसलिये उसका आविर्भाव (हुआ)। आविर्भाव यानी प्रगटपना हुआ वह प्रगट तो पर्याय हुयी। अनुभूति पर्यायकी है।

मुमुक्षुः- विशेषज्ञानका तिरोभाव हुआ अर्थात ये ज्ञात होता है, ज्ञात होता है उसका तिरोभाव हुआ और जानना.. जानना.. जानना..

समाधानः- हाँ, उसका आविर्भाव हुआ।

मुमुक्षुः- .. विचारनेमें आये तो विशेषके आविर्भावसे अनुभवमें आ रहा ज्ञान


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और सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता हुआ ज्ञान एक ही है।

समाधानः- सामान्यके आविर्भावसे अनुभवमें आता हुआ ज्ञान और विशेष...?

मुमुक्षुः- आविर्भावसे अनुभवमें आता हुआ ज्ञान..?

समाधानः- उसमें एक सामान्य ज्ञान.. ज्ञान लेना। विशेषको गौण करके अकेला सामान्य लेना।

मुमुक्षुः- ज्ञानके विशेषको गौण करके पर्यायके सामान्यको अर्थात जानना.. जानना ऐसा कहना है या ज्ञायकको ही पर्यायमें लक्ष्यमें लेना?

समाधानः- पर्यायमें अकेला ज्ञान.. ज्ञान यानी द्रव्य ही ले लेना। द्रव्य लक्ष्यमें आवे तो ही सामान्यका आविर्भाव होता है।

मुमुक्षुः- द्रव्य लक्ष्यमें आये तो सामान्यका आविर्भाव होता है?

समाधानः- तो सामान्यका (आविर्भाव) होता है।

मुमुक्षुः- वह बहुत अच्छी बात कही। जबतक द्रव्य लक्ष्यमें नहीं आता, तबतक सामान्यका आविर्भाव नहीं होता।

समाधानः- सामान्यका आविर्भाव नहीं होता।

मुमुक्षुः- द्रव्य लक्ष्यमें आये अर्थात शब्दोंमें तो आवे कि लक्ष्यमें आवे, परन्तु अनुभूति जो पर्याय है वह वर्तमानमें अनुभूति वेदनमें आती है। उसीमें-से पकडना है। आप बहुत बार कहते हो, तलमें जा, तलमें जा, तलमें जा। तलमें जा, मतलब क्या? उसकी रीत क्या?

समाधानः- दिखती है पर्याय सब, परन्तु अन्दर जो वस्तु है, अस्तित्व-आत्माका अस्तित्व ज्ञायकका अस्तित्व, उसे ग्रहण करना, उसके मूलको ग्रहण करना कि जो यह ज्ञान.. ज्ञान.. ज्ञान.. ये जाना, ये जाना, ये जाना ऐसा नहीं, परन्तु जाननेवाला कौन है? जाननेवालेका अस्तित्व क्या है? जाननेवालेका मूल अस्तित्व है उसे ग्रहण करना, तलमें जानेका अर्थ वह है। ज्ञायकको ग्रहण करना।

जाननेवाला पूरा जाननेवाला तत्त्व है, पूरा जाननेवाला तत्त्व है उसे ग्रहण करना। ये जाना, ये जाना वह सब भेद-भेद नहीं, परन्तु वह जाननेवाला कौन है? जाननेवालेको ग्रहण करना। ज्ञेयसे भेद करके मैं जाननेवाला मैं ही हूँ, अपना अस्तित्व ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- उसमें ... ग्रहण करना? वर्तमान परिणामको एकाग्र करना, भावमें जो पकडमें आये...

समाधानः- उसे पहचान लेना कि यह जाननेवाला मैं हूँ और ये जो भेद पडे, राग मिश्रित भेद पडे वह मेरा मूल स्वभाव नहीं है। वह रागमिश्रित है। परन्तु मूल स्वभावको पहचान लेना। पहचानकर उसकी श्रद्धा यथार्थ करनी-प्रतीत करनी कि यही


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मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। यह विभावभाव मैं नहीं हूँ, परन्तु ये जो स्वभाव है जाननेवाला वह मैं हूँ, इस प्रकार यथार्थ श्रद्धा करके फिर लीनता करनी। श्रद्धा यथार्थ हो, ज्ञान यथार्थ हो तो लीनता यथार्थ हो।

उसकी श्रद्धामें बराबर न हो कि यह मैं या यह मैं, इस तरह श्रद्धा ठीक न हो तो उसकी लीनता नहीं होती। श्रद्धा तो यथार्थ (होनी चाहिये कि), यह है वही मैं हूँ। यह ज्ञायकका अस्तित्व वही मैं हूँ, ये जो विभावभाव और रागमिश्रित भाव है वह मेरा मूल स्वभाव नहीं है। मूल स्वभाव जो ज्ञायक अकेला निर्मल ज्ञायक जाननेवाला, उसमें कोई भेदभाव या राग या उसमें कहीं अटकना नहीं, अकेला निर्मल जाननेवाला है वही मैं हूँ, इस प्रकार अस्तित्व ग्रहण करना और ऐसी श्रद्धा यथार्थ करनी, तो उसमें लीनता हो।

मुमुक्षुः- लक्ष्यके साथ लक्षणके भावभासनके विषयमें विचार करें कि लक्षणका भावभासन। जानता है, यह जानना.. जानना.. जानना हो रहा है वह कोई जडमें नहीं होता, ऐसा अनुमान (होता है), ज्ञानका वेदन होता है परन्तु वह है तो अनुमान ज्ञान, अनुभव ज्ञान तो नहीं है, अनुमान ज्ञान है कि यह जानना-जानना हो रहा है, उस परसे जाननेवाला जो है वह मैं हूँ, तो इसे ज्ञायकका भावभासन कह सकते हैं?

समाधानः- उसे बराबर पहचाने तो भावभासन हो, उसके भावको पहचाने तो वह भावभासन है। उसके स्वभाव परसे पहचाने, भावभासन यानी उसका स्वभाव है उसे पहचाने तो वह भावभासन कहलाता है।

मुमुक्षुः- यहाँ माताजी! स्वभाव यानी ज्ञान लेना?

समाधानः- हाँ, ज्ञानको पहचाने।

मुमुक्षुः- ज्ञानका स्वभाव अर्थात जानना.. जानना.. जानना। विशेष लें तो स्वको जानना और परको जानना। ऐसा जानपना वैसे तो वह अतीन्द्रिय है अथवा तो अमूर्तिक है इसलिये इन्द्रियका विषय होता नहीं। अभी तो मानसिक ज्ञानमें उसके स्वरूपका ख्याल आता है कि ये जानना.. जानना हो रहा है, वह जहाँसे उत्पन्न हो रहा है, वह जाननेवाला एक अभेद ध्रुव तत्त्व सो मैं हूँ, ऐसा विचार आये उसे सविकल्प भावभासन कहते हैं?

समाधानः- बुद्धिपूर्वकका भावभासन है। बुद्धिपूर्वक विकल्पयुक्त भावभासन है।

मुमुक्षुः- हाँ, विकल्प-विकल्पात्मक।

समाधानः- बुद्धिपूर्वक युक्तिसे नक्की किया है।

मुमुक्षुः- वह भावभासन तो निर्विकल्प अनुभव कालमें होता है। उस प्रकारका तो होता है, परन्तु इसमें भी उसे स्पष्ट .... ज्ञानभावमें .. उसमें उसे ख्यालमें है कि


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ये सब ज्ञेय मूर्तिक हैं, ये शरीर भी मूर्तिक हैं। और उसके अलावा जानन तत्त्व है वह मैं हूँ।

समाधानः- वह मैं हूँ, जाननेवाला। वह अनुमान ज्ञान है, भले युक्तिसे है, परन्तु वह विचार करे तो जाननेवाला स्वयं अंतरमें स्वयंको ज्ञात हो रहा है अर्थात स्थूलतासे ज्ञात हो रहा है। जाननेवाला भले अमूर्तिक है परन्तु वह जाननेवाला स्वयं ही है। इसलिये उसे ख्यालमें आ सके ऐसा है कि ये जाननेवाला सो मैं हूँ। जाननेवाला जाननरूप परिणमे अर्थात जाननेवाला उसके मूल स्वभावरूप से वेदनमें नहीं परिणमता है, परन्तु जाननेका जो असाधारण गुण है उस रूप उसका अस्तित्व हो रहा है, वह उसे ख्यालमें अनुमानसे आ सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- मतलब ज्ञान उपयोगमें अस्तित्व परोक्षपने नजराता है।

समाधानः- हाँ, परोक्षपने वह ग्रहण कर सके ऐसा है।

मुमुक्षुः- परोक्षपने तो नजराता है, भाईने कहा वैसे, मनके संग जहाँसे कल्लोल उत्पन्न होते हैं, उसका सामान्यपना...

समाधानः- ये जाननेवाला है वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- उसके बाद कोई भूमिका?

समाधानः- जाननेवाले से ऐसा नक्की करे कि यह जाननेवाला है वही मैं हूँ। और वह अकेला जाननेवाला कैसा है? कि उस जाननेवालेमें ये राग, संकल्प, विकल्प आदि जो भी भाव हैं, वह भाव जाननेवालेमें नहीं है। जाननेवाला उससे भिन्न है। जाननेवालेमें ऐसा नहीं होता कि जाननेवाला अकेला जाननेवाला ही होता है, वही सच्चा जाननेवाला है। बाकी उसमें जो राग-द्वेष, संकल्प-विकल्प आदि और मैं कर सकता हूँ, ऐसी जो विकल्पकी जाल है, उस जाल रहित निर्विकल्प तत्त्व वह जाननेवाला सो मैं हूँ। ऐसा न्यारा जाननेवाला हूँ। ये सब मिश्ररूप जाननेवाला ऐसा मैं नहीं हूँ। ऐसा अपना न्यारा अस्तित्व ग्रहण करे और उस जाननेवालेमें टिका रहे कि यह जाननेवाला है वही मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। यह जाननेवाला मैं और यह मैं नहीं हूँ, ऐसी उसकी भेदज्ञानकी बुद्धि उसमें-से उत्पन्न करे। यदि उसे बराबर निर्णय हुआ हो तो क्षण-क्षणमें वह जाननेवाला मैं और यह विकल्प आये वह मैं नहीं हूँ, मैं उससे भिन्न हूँ। भले विकल्प आता है, परन्तु वह मेरा स्वभाव नहीं है। मेरा स्वभाव मात्र जानना सो मैं हूँ। उस जाननेवालेमें ही सब है।

जाननेवालेमें अनन्त गुण हैं। भले उसे वेदनमें नहीं है, परन्तु द्रव्य अनन्त शक्तिसे भरा जाननेवाला वही मैं हूँ और ये जो राग-द्वेष आदि कषायकी कालिमा वह सब मैं नहीं हूँ। मैं उससे (भिन्न) निर्मल जाननेवाला हूँ। जाननेवाला जाने उसमें भेदज्ञान


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आ जाता है। यथार्थ जाने तो। आगे जाय तो इस प्रकार नक्की करना है।

मुमुक्षुः- आपने कहा था न कि सविकल्प दशामें ऐसे भावभासनमें टिका रहे।

समाधानः- हाँ, टिका रहे कि यह मैं नहीं हूँ, यह मैं हूँ। इस प्रकार टिका रहे। निर्णय करके छोड दे तो छूट जाय। बाकी यह मैं और यह मैं नहीं हूँ।

मुमुक्षुः- टिका रहे तब उसे सच्चा विकल्पात्मक निर्णय कह सकते हैं?

समाधानः- अभी उसे विकल्पात्मक है।

मुमुक्षुः- हाँ, विकल्पात्मक है। परन्तु उसमें भी ज्ञानकी सूक्ष्मता-से ऐसा विकल्पात्मक भावभासन हुआ। फिर भी अभी रुचि पूर्ण न हो तो अभी भी उसे यथार्थ निर्णय होनेमें देर लगे, ऐसा है?

समाधानः- उसे रुचि न हो तो निर्णय करके छूट जाय। इसलिये रुचि प्रबल हो तो निर्णयको टिकाये रखे तो उसका निर्णय यदि आगे कार्य करे कि यह मैं हूँ और यह नहीं हूँ। यह हूँ और यह नहीं हूँ। इस प्रकार उसका निर्णय यदि उसकी रुचि हो तो दृढतापूर्वक निर्णय उसका कार्य करता रहे कि यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। ऐसा भले उसे अभ्यासरूप यथार्थ नहीं है, तो भी उसका कार्य करता रहे तो उसे अभ्यास करते-करते यथार्थ होनेका अवकाश है।

मुमुक्षुः- लेकिन वह भी अभी तो सविकल्प लेना न?

समाधानः- वह सविकल्प है। विकल्पात्मक है। सहज नहीं है। अभी वह बुद्धिपूर्वक करता है।

मुमुक्षुः- आपका ऐसा कहना है न कि सविकल्प निर्णय यथार्थ इस प्रकार टिका रहे और रुचिमें पूर्णरूपसे आत्माको ले तब उसे सविकल्प निर्णय यथार्थ होनेका अवकाश है?

समाधानः- हाँ, सविकल्प होनेका अवकाश है। मुमुक्षुः- निर्विकल्प तो विकल्प टूटकर अंतरमें जाय तबकी बात है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!