PDF/HTML Page 1462 of 1906
single page version
मुमुक्षुः- गुरुदेव मिल, आपकी इतनी कृपा है, इस ..
समाधानः- सब क्रियासे धर्म होगा, इसमें पडे थे। थोडी सामायिक करे और प्रतिक्रमण करे इसलिये धर्म हो गया, ऐसा मानते थे। और कोई उपवास करे तो धर्म हो गया, ऐसा मानते थे। गुरुदेवने अंतरकी दृष्टि बतायी।
मुमुक्षुः- समाजकी यही स्थिति थी।
समाधानः- समाजमें ऐसा ही था। स्थानकवासी, देरावासी, दिगंबरोंमें भी ऐसा था। थोडी बाहरसे क्रिया आदि करे, शुद्धि-अशुद्धि, इसलिये उसमें धर्म मान लेते थे।
मुमुक्षुः- तीनों संप्रदायमें ऐसा ही था। दिगंबर नाम मात्र था शास्त्रमें। वे लोग भी क्रियाकाण्डमें चड गये थे।
समाधानः- उसमें समयसार था, लेकिन कोई देखता नहीं था। पढना गुरुदेवने सीखाया। उसके अर्थ गुरुदेवने सुलझाये। तत्त्वार्थ सूत्र आदि पढते थे। देरावासीमें रट लेते थे। नौ तत्त्व और गुणस्थान आदि रट लेते थे।
मुमुक्षुः- श्वेतांबरमें भी वही था। रट लेते थे, पाठ कंठस्थ कर लेते थे।
समाधानः- हाँ, पाठ कंठस्थ कर लेते थे।
मुमुक्षुः- गुरुदेवने तो बहुत खुल्ला कर दिया।
समाधानः- बहुत खुल्ला किया। अंतरकी दृष्टि बतायी। उत्पाद, व्यय, ध्रुव आदि सब शास्त्रमें आता था, कोई समझता नहीं था। आत्मा जाननेवाला है, ज्ञायक है, भेदज्ञान होता है, स्वानुभूति होती है, कोई समझता नहीं था।
मुमुक्षुः- शब्द किसीने सुने नहीं थे। भावको एक ओर रखो।
समाधानः- मोक्ष तो ऊपर सिद्ध शिलामें जाय तब मोक्ष हो, ऐसा सब मानते थे। मोक्ष होता है। स्वानुभूतिका अंश प्रगट हो, वही मोक्ष है। और पूर्ण हो तब अंतरमे भावसे मोक्ष हो जाता है।
मुमुक्षुः- बातें सुनी है, लेकिन हमारे लिये कोई प्रयोजन नहीं है। आपने कहा, उसके आसपास टेल लगानी। उसका विस्तृतिकरण। हमें तो वही चाहिये, हमारी भूमिकामें।
समाधानः- स्वानुभूतिका अंश प्रगट होता है, वह निर्विकल्प दशा होती है तब
PDF/HTML Page 1463 of 1906
single page version
होता है। उसके पहले मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसा बारंबार उसका रटन करते रहना। वह टहेल मारनी है। विकल्प जो आता है, वह विकल्प मेरा स्वरूप नहीं है। विकल्पसे भी मैं भिन्न हूँ। शुभ मन्द या तीव्र जो-जो विभाव आये उन सबसे भिन्न मैं चैतन्य हूँ। मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, बारंबार उसकी महिमा, उसकी लगन। बारंबार अंतरमें वह रटन रहना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ। मैं विकल्प रहित निर्विकल्प तत्त्व हूँ और विकल्प छूट जाट तो भी मेरेमें ही सब भरा है। बाहरमें नहीं है। विकल्प छूट जाय इसलिये स्वयं शून्य नहीं हो जाता है। परन्तु अंतरमें जो भरा है वह प्रगट होता है। इसलिये मेरेमें एक ज्ञानमात्र-ज्ञायकमात्र आत्मामें सब सर्वस्व है। ऐसे बारंबार उसकी भावना, उसका रटन, उसका विचार, उसका वांचन आदि करने जैसा है। ज्ञायकके आँगनमें टहेल लगाने जैसी है, बारंबार।
मुमुक्षुः- वांचन, विचार करने पर पुनः भेदके रास्ते पर चढ जाता है। अनादिकी आदत है उस पर जानेकी।
समाधानः- भेदके रास्ते पर चढ जाय तो भी बारंबार अपनी ओर लक्ष्य करते रहना। क्योंकि कहीं न कहीं रुकता तो है। जबतक अंतरमें लीन नहीं हुआ है, अंतरमें दृष्टि नहीं गयी है, तबतक उसे कहीं न कहीं घुमता रहता है। इसलिये कहीं खडा तो रहता है। परन्तु श्रद्धा और रुचि उस ओर रखनी कि ज्ञायक, ज्ञायकमें सब है। इन सबमें रुकने जैसा नहीं है। वह तो बीचमें आये बिना नहीं रहता। परन्तु श्रद्धा तो ज्ञायककी रखनी कि निर्विकल्प तत्त्व शुद्धात्मा ज्ञायक मैं हूँ। ये सब तो उसमें रह नहीं पाता हूँ, इसलिये वह सब आये बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- अंतरमें वह प्रतीति नहीं आती है। मैं परिपूर्ण हूँ, मेरेमें सब है। यह विश्वास, ना जाने क्यों विश्वास नहीं आता है। दूसरी सब वस्तुओंका विश्वास (आता है), सोनेका, झवाहरातका, फलानेका सबका विश्वास आता है, परन्तु इसी क्षणमें मेरेमें सब भरा है, (यह विश्वास नहीं आता है)।
समाधानः- दूसरा सब दिखता है, यह दिखाई नहीं देता है। (इसलिये) उसे अन्दरमें विश्वास ऊड जाता है। परन्तु उसमें सब है। स्वयं विचार करके, गुरुदेव कहते हैं, देव-गुरु-शास्त्र कहते हैं, परन्तु स्वयं विचार करके नक्की करे तो उसीमें सब भरा है।
गुरुदेव कहते थे न? छोटीपीपर घिसते-घिसते उसमें-से चरपराई निकलती है। वैसे ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ करे, उसीमें सब भरा है, उसमें-से स्वभाव प्रगट होता है। छाछको बारंबार बिलोता रहे तो उसमें-से मक्खन भिन्न हो जाता है। ऐसे बारंबार भेदज्ञान (करे)। बारंबार मैं भिन्न हूँ, भिन्न हूँ, ऐसा बारंबार करे तो, जैसे मक्खन भिन्न हो जाता है,
PDF/HTML Page 1464 of 1906
single page version
वैसे भिन्न तो है ही, परन्तु प्रगटरूपसे भिन्न पड जाता है।
मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात है। बारंबार यह अभ्यास करके भिन्न पडनेका प्रयत्न (करना), सब आगमका सार कहें तो यह एक ही है।
समाधानः- यह एक ही है।
मुमुक्षुः- प्रयोजनभूत द्रव्य-गुण-पर्यायका ज्ञान करके, ज्ञानके पहलू अधिक स्पष्ट न करे, .. ज्ञानमें हो जाती हो, सूक्ष्मपने तत्त्वज्ञानका कोई भी विषय हो उसका निर्णय न कर सकता हो अथवा उसका वह विश्लेषण नहीं कर सकता हो, परन्तु मूलभूत तत्त्वको जानकर उससे भेदज्ञान करनेका प्रयत्न करे तो हो सकता है?
समाधानः- हो सकता है। मूलभूत प्रयोजनभूत तत्त्व-मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा नक्की करके ये विभाव मैं नहीं हूँ, मैं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य अनन्त गुणसे भरा हुआ और क्षण-क्षणमें पलटे वह पर्याय, बस! इतना ज्ञान करके अपनी ओर जाय तो उसमें कोई विशेष ज्ञान न हो तो उसमें कुछ जरूरत नहीं पडती।
मुमुक्षुः- गोते ही खाते हैं न। हम वहाँ है। हम यानी हमारे सब भाई। क्षयोपशम ज्ञानमें खडे हैं, ...
समाधानः- सबका प्रयोजन एक ही है कि भेदज्ञान करना।
मुमुक्षुः- भाई कहते हैं, जूठे ही गोते खाते हैं। विषय बनाते हैं, परन्तु इतना तो गुरुदेव देकर गये हैं।
समाधानः- कितना दिया है। भेदज्ञानका प्रयोजन है।
मुमुक्षुः- वह करता नहीं है और बातें करता रहता है।
समाधानः- हाँ, ऐसा है, वैसा है, ऐसा है, ऐसा है।
मुमुक्षुः- क्रमबद्धपर्यायमें उलझ जाय। उसे उलझना है, अटकना है इसलिये कहीं न कहीं...
समाधानः- कहीं-कहीं अटक जाता है। प्रयोजन ज्ञायकको प्रगट करना वह है।
मुमुक्षुः- समय-समय उसका..
समाधानः- उसका रटन रखने जैसा है।
मुमुक्षुः- क्या बाकी है? उसमें क्या समझना है?
समाधानः- समयसारमें आता है कि ज्ञानमात्र आत्मा, ऐसी तू रुचि कर, ऐसी प्रीति कर, उसमें उसीका अनुभव कर तो उसमें-से प्रगट (होता है)। जितना ज्ञानमात्र है उतना ही मैं हूँ। जितना ज्ञानमात्र वही मैं हूँ। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।' उसमें तू संतुष्ट हो। उसीमें सब है, उसमें संतुष्ट हो। उसमें सदा संतुष्ट हो, उसीमें-से सब प्रगट होगा। "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' उसमें
PDF/HTML Page 1465 of 1906
single page version
तू तृप्त हो, उसीमें सब है।
फिर निर्णय न हो तो चारों ओरका विचार करे, परन्तु प्रयोजन तो एक ज्ञायकका है। जो होगा सब आ जायगा। उसमें शुद्धात्माकी पर्याय शुद्ध परिणमेगी। अंश परिणमेगा, उसमें भेदज्ञान होगा, उसमें आस्रव, संवर सब आ जायगा। वह तो सहज आ जायगा। परन्तु एक ज्ञायकको ग्रहण कर तो उसमें सब आयगा।
साधकदशामें जो हो वह सब आ जाता है। उसकी विशेष शुद्धि होती है, निर्जरा होती है और उसमें विशेष लीन हो तो वीतरागता केवलज्ञान होता है। उसमें मुनिदशा (आती है)। ज्ञायकमें ही सब है। स्वानुभूतिमें। और वह स्वानुभूति भी ज्ञायकको ग्रहण करने-से ही होती है। ज्ञायकको ग्रहण करके उसकी भेदज्ञानकी धारा, ज्ञायककी धारा सहज करता जाय तो उसमें स्वानुभूति भी उसी मार्गमें होती है-ज्ञायकको ग्रहण करनेसे। ग्रहण नहीं होता है, इसलिये उसके चारों ओर विकल्प दौडते रहते हैं। ज्ञायकको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- वर्तमानमें, हम सब भाई यहाँ बैठे हैं, हम जो कुछ सुनते हैं, ... सुनते हैं परन्तु ऐसे मुखसे सुनते हैं कि जो ज्ञानी नहीं है। उसमें हम दूसरे रास्ते पर चढ जायें (तो)? क्योंकि हमें सामने जो प्ररुपणा (करते हैं), हम जिनको सुनते हैं, वह प्ररूपणा करनेवाले ज्ञानी तो है नहीं, ज्ञानीके वचनामृत है, परन्तु ज्ञानीके वचनामृत सिर्फ पढते नहीं है, उसके हृदयमें जो कुछ विचार आते हैं वह हमारे सामने प्रदर्शित करता है। क्योंकि गुरुदेवकी वाणी स्वतंत्र रूपसे विचारनेकी शक्ति किसीकी होती है, सबकी नहीं होती। ... आध्यात्मिक प्ररूपणा होती हो और उसमेंसे..
समाधानः- जो सच्चा मुमुक्षु होता है, जिसे सत ग्रहण करना है वह कहीं रुकता नहीं। वह सच्चा निर्णय कर लेता है। वह सुनने आये उसमें जिसे जिज्ञासा होती है कि मुझे आत्माका (हित) करना है, ज्ञायकका भेदज्ञान करना है, वह कहीं रुकता नहीं, सत्य ग्रहण कर लेता है।
मुमुक्षुः- आपने कहा था, मुमुक्षु भले सच्चा मुमुक्षु न कहें, मैं जो बात करता हूँ, परन्तु वह मुमुक्षु ज्ञानके लोभसे, गुरुदेवने कहा है कि वह स्वयं तो नया है अथवा पुराना हो, जो भी हो, परन्तु अभी उसे ज्ञानमें पूरा पकडमें नहीं आया हो। और प्ररूपणा ऐसी आती हो कि उसे ऐसा लगे कि यह गुरुदेवकी ही वाणी है और ज्ञानका लोभ है। करने जैसा तो आपने कहा उतना ही, अधिक जाननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मुझे तो ऐसा लगता है, कुछ सुननेकी जरूरत नहीं है, गुरुदेवकी टेपके अलावा और आपने कहा कि अपने अन्दर आसपास चक्कर लगाता रह, वही काम करने जैसा है। चौबीस घण्टे एक ही काम, जितना समय मिले उसमें सतका संग अर्थात अंतरका
PDF/HTML Page 1466 of 1906
single page version
जो संग है उसीका संग करने जैसा है। ज्ञानके लोभसे अनादिकी आदत है, कुछ- कुछ नया-नया जाननेकी, नये न्याय उसमें फिसल जाता है। ... स्पष्ट कहूँ तो हम तो बन्द कर देना चाहिये। मुझे तो ऐसा होता है कि बन्द कर देना चाहिये। यदि ऐसा लगता हो तो। मुुमुक्षुमें उतनी लायकात न हो कि उसमें-से वह सत्य निकाल सके। उतना ज्ञानका क्षयोपशम भी न हो।
समाधानः- बाहरके संयोगमें मैं क्या कहूँ? स्वयं अपना समझ लेना। स्वयंको नुकसान होता है ऐसा लगे तो स्वयंको अपना समझ लेना। ऐसा लगे कि मुझे नुकसान हो रहा है, व्यक्तिगतरूपसे, तो स्वयंको नुकसान होता हो तो छोड देना। बाकी बाहरके संयोगमें सबको रुचे ऐसा करे, उसमें मैं हाँ-ना कैसे कहूँ? स्वयंको अपने लिये समझ लेना कि मुझे नुकसान होता है। सच्चा जिज्ञासु कहे कि मैं जहाँ-तहाँ रुक जाता हूँ कि यहाँ-से जानू, यहाँ-से जानू ऐसा कर-करके रुक जाता हूँ, मुझे उलझन हूँ, उसके बजाय गुरुदेवकी वाणीमें-से मैं सत्य समझु, इस तरह सिर्फ अपने लिये हो तो स्वयं छोड देना, अपने लिये।
समाधानः- ... प्रकाश और अन्धकार, कितना फर्क है। प्रकाश प्रकाश .. अग्निकी क्रिया उष्णतारूप ही होती है। बर्फकी क्रिया ठण्डकरूप होती है, दोनों एक नहीं हो सकते। पानीकी शीतलता और अग्निकी उष्णता एक नहीं होते। स्थूल दृष्टान्त है।
वैसे ज्ञान ज्ञानरूप और क्रोध क्रोधरूप (रहते हैं)। लेकिन स्वयं ही उसमें तन्मय है। परन्तु स्वयं स्वयंको जान नहीं सकता है। पर्याय ऐसी बाहर भटकती रहती है। बाहरकी परिणतिके कारण अंतरमें देखता नहीं है। डोर, ज्ञानकी डोर कहाँ-से आयी है उस मूल तलको देखता नहीं है। ... देखनेमें तन्मय हो जाता है। भले आकुलता आकुलतामें बाहरका देखता रहता है।
लोग दर्पणमें देखे न कि दर्पणमें क्या दिखता है? उसमें चित्र-विचित्रता देखते हैं। परन्तु दर्पण एकसमान है, उस एकसमान दर्पण पर दृष्टिके जानेके बजाय लोग दर्पणमें क्या-क्या दिखता है, (वह देखनेमें रुक जाते हैैं)। जीवको अनादिसे ऐसा भ्रम हो गया है कि ये ज्ञेय क्या है? परन्तु उसमें एकसमान क्या है? किसमें यह ज्ञात होता है? यह वस्तु क्या है? उसका लोग विचार करनेके बजाय, दर्पणमें दिखता क्या है? अनेक जातकी वस्तुएँ दिखती है, उन वस्तुओंको देखनेमें पड जाता है।
चिडिया उसमें देखे तो दूसरी चिडिया कहाँ-से आ गयी? चिडियाको देखने लग जाता है। लेकिन यह बीचमें दर्पण जड है, उसे नहीं देखता। चिडिया उसीमें चोँच मारता है। अन्दर क्या दिखता है, उसीमें भटकता रहता है। परन्तु किसमें दिखता है और क्या वस्तु है? उसे कोई नहीं देखता। उसमें अनेक प्रकारके ज्ञेयोंको देखनेके भ्रममें,
PDF/HTML Page 1467 of 1906
single page version
किसमें दिखता है और यह वस्तु क्या है? ऐसी कौन-सी किमती वस्तुमें दिखाई देता है? उसे नहीं देखता। ये सब दिखता है उसके भ्रमके घोटालमें पडा है।
चिडिया आये तो ये दूसरा क्या दिखता है? चिडियाकी बुद्धि काम नहीं करती है। उसके साथ झघडा कर-करके मानों दूसरी चिडिया आ गयी है, ऐसा उसे हो जाता है। वस्तु है कि जिसमें यह सब दिखाई देता है।
... जाननेका है उसे नहीं देखता है, ये सब चित्र-विचित्रतामें तन्मय हो गया है। चित्र-विचित्रतामें भले ही थक जाय, आकुलता हो, तो भी उसीमें लगा रहता है। ... लेकिन कुछ मालूम नहीं पडता है कि यह मैं। बाहर सब.... तू ही है, लेकिन तेरे ज्ञानको तू बाहर लेने जा रहा है। आनन्द तेरा है और तू लेने जा रहा बाहर, ऐसा करता है।
आदमी जितना देख सके उतना तन्मय होकर एक-एक देखे उतना देख नहीं सकता। भिन्न हुआ आदमी, न्यारा हुआ है वह ज्यादा देख सकता है। शीखर पर आदमी खडा हो वह ज्यादा देख सकता है। वैसे ज्ञानके शिखर पर खडा है, वह भिन्न हो तो ज्यादा देख सकता है, लेकिन वह जानता नहीं है। शिखर पर आ नहीं पाता। ज्ञानमें महिमा नहीं आती है। ज्ञेयकी महिमा आती है, ऐसी ज्ञानकी महिमा नहीं आती है। ज्ञान अर्थात जानना। ज्ञानकी महिमा नहीं आती है। वह विभिन्नता दिखती है उसकी महिमा आती है। विभिन्नता (देखता है), लेकिन अन्दर खडा तो रह, उसमें कैसा है? उसका तू निश्चय तो कर। उसीमें सब है, सब विभिन्नता उसमें है। लेकिन वह बाहर (जाता है), उसे विश्वास नहीं आता है। अरूपी चैतन्यद्रव्यका विश्वास नहीं आता है।
... कुछ अज्ञात नहीं रहेगा। जाननेके लिये व्यर्थ प्रयत्न करता है। अन्दरका स्वघर भी ज्ञात होगा और सब ज्ञात होगा। कुछ अज्ञात नहीं रहेगा, लेकिन उसे बाहर ही व्यर्थ प्रयत्न करना है। जाननेका स्वभाव है इसलिये सब जानना है। ज्ञेयके भेद कर- करके जानना है। इतना बाहरका जाननेका (रस है), बाहरसे जाननेको आकुल-व्याकूल (होता है)।