Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 225.

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ट्रेक-२२५ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- उपयोग जब इसे जाने, उसे जाने उस वक्त भी ऐसा लेना कि मैं ज्ञायक ही हूँ और यह ज्ञात हो रहा है, वह मैं नहीं हूँ। ऐसे भेदज्ञानकी प्रक्रिया है?

समाधानः- ऐसा विकल्प नहीं होता, परन्तु यह ज्ञायक है वह मैं हूँ, यह ज्ञेय है वह मैं नहीं हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, मैं जाननेवाला हूँ। ये ज्ञेय ज्ञानमें ज्ञात हो रहा है। ये ज्ञेय परपदार्थ है, वह मैं नहीं हूँ। ज्ञेय सो मैं नहीं हूँ, ज्ञान सो मैं हूँ। ज्ञायक सो मैं हूँ।

जो ज्ञेय दिखता है वह मैं नहीं हूँ। और ज्ञान है वह तो द्रव्यका गुण है। ज्ञान गुण है और गुणीको पहचानना-ज्ञायक सो मैं हूँ। ज्ञान एक गुण है। उसमें लक्ष्य- लक्षणका भेद है। ज्ञेयको जाननेवाला ज्ञान और ज्ञान जिसमें रहा है वह द्रव्य मैं हूँ। द्रव्यके अन्दर ज्ञान रहा है। परन्तु ज्ञान जिसमें रहा है, ऐसे ज्ञायकका अस्तित्व है वह मैं हूँ। पूरा ज्ञायक ग्रहण करे। मात्र ज्ञान मैं नहीं, पूरा ज्ञायक सो मैं हूँ। ज्ञान है वह ज्ञायकका गुण है।

... अंतरमें शुद्धात्मा आवे, परन्तु उसे ऐसी भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो कि ज्ञायक है वही मैं हूँ। ऐसा बारंबार उसका अभ्यास करे तो उसे स्वानुभूति हो। ऐसा बारंबार अभ्यास, क्षण-क्षणमें ऐसा अभ्यास करता जाय कि मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायककी उसे महिमा आये। एक ज्ञानमात्रमें क्या? उसे कुछ रुखा नहीं हो जाता कि ज्ञानमें कुछ नहीं है। ज्ञायकमें ही सब भरा है। ज्ञानमात्र आत्मामें सब भरा है। ऐसी महिमापूर्वक उसे ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण हो और बारंबार उसका अभ्यास करे तो उसे स्वानुभूति होती है।

... ज्ञान सो मैं, ज्ञान सो मैं उसमें ज्ञायक सो मैं हूँ, ऐसा आना चाहिये। मात्र ज्ञान यानी सिर्फ गुण नहीं, ज्ञायक सो मैं हूँ।

मुमुक्षुः- अनन्त गुणका पिण्ड ऐसा जो ज्ञायक है वह मैं। वहाँ ले जाना।

समाधानः- वहाँ ले जाना। अनन्त गुणका उसे भेद नहीं आता है, परन्तु उसकी महिमामें ऐसा आता है कि अनन्त गुणसे भरा जो ज्ञायक है, अनन्ततासे (भरा) ज्ञायक सो मैं हूँ।


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... पीलापन है, चीकनापन है, सुवर्ण ऐसा है, अथवा हीरा ऐसा है, ऐसा उसका प्रकाश है, श्वेत है, वह सब गुण है। परन्तु पूर्ण हीरा सो मैं, पूर्ण सुवर्ण सो मैं। ऐसे ज्ञानमें एक ज्ञानगुण जाने वह मैं, ऐसा नहीं, जाननेवालेका पूर्ण अस्तित्व है वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण आया। बहुत समयसे ऐसा लगता था कि गुरुदेव आत्माका स्वभाव ज्ञान तो कहते हैं, परन्तु उसे कोई कार्यसिद्धि तो होती नहीं, परन्तु यह एक बहुत बडी भूल होती है।

समाधानः- मात्र ज्ञेयको जानने वह ज्ञान, इस तरह ज्ञान नहीं, परन्तु पूरा द्रव्य ज्ञायक। वह ज्ञान किसके आधारसे रहा है? उस ज्ञानको आधार किसका है? पूरा द्रव्य है। ज्ञान एक पूरा अस्तित्व है, ज्ञायक अनन्त गुणसे गुँथा हुआ ज्ञायकका पूरा अस्तित्व है वह मैं हूँ।

मुमुक्षुः- मात्र एक गुण मैं नहीं, परन्तु अनन्त गुणका पिण्ड ऐसा जो द्रव्य, ऐसा मेरा अस्तित्व है, वह मैं हूँ।

समाधानः- ऐसा मेरा अस्तित्व है वह मैं हूँ। पीला उतना सोना नहीं, परन्तु सोनेमें दूसरे बहुत गुण हैं, ऐसा सोनेका पूरा अस्तित्व है वह सोना है। ऐसे ज्ञायक है वह अनन्त गुणसे भरा हुआ एक द्रव्य है, वह मैं हूँ। ज्ञान कहकर गुरुदेवको, आचार्यदेवको ज्ञान कहकर ज्ञायक कहना है। ज्ञानगुण असाधारण है इसलिये ज्ञान द्वारा पहचान करवाते हैैं कि ज्ञान सो मैं। ज्ञान है वह तू है, ऐसे पहचान करवाते हैं। लक्षणसे लक्ष्यकी पहचान करवाते हैं। आचार्यदेव और गुरुदेवको यही कहना है कि ज्ञान है वह तू है अर्थात ज्ञायक है वह तू है, ऐसा कहना चाहते हैं।

मुमुक्षुः- कहनेका भावार्थ यह है कि ज्ञायक सो मैं।

समाधानः- ज्ञायक है वह तू है, ऐसा कहना चाहते हैं, ज्ञान कहकर। क्योंकि ज्ञान सबको ज्ञात हो सकता है, ज्ञान असधारण गुण है इसलिये लक्षण द्वारा लक्ष्यकी पहचान करवाते हैं। गुरुदेव ऐसा कहते थे और शास्त्रोंमें भी (ऐसा ही कहना है)। गुरुदेवने शास्त्रोंके रहस्य खोले हैं। ज्ञान कहकर ज्ञायक कहना चाहते थे।

मुमुक्षुः- बहुत सुन्दर बात आयी। ज्ञान कहकर गुरुदेव भी ज्ञायक ही कहते थे।

समाधानः- हाँ, गुरुदेव, ज्ञान कहकर ज्ञायक कहते थे। आता है, "इसमें सदा रतिवंत बन'। जितना ज्ञानमात्र है उतना तू है। उसमें सदा रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तृप्त हो। जितना ज्ञानमात्र आत्मा उतना तू। जितना परमार्थ ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह तू है। ज्ञानमात्र कहकर ज्ञायक है वह तू है, ऐसा कहना चाहते हैं।

मुमुक्षुः- उतना सत्यार्थ..


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समाधानः- उतना ही सत्यार्थ परमार्थ है, जितना ज्ञान है। उसमें तृप्त हो, उसमें संतुष्ट हो।

मुमुक्षुः- इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे। ऐसी गाथा है।

समाधानः- हाँ, "इससे ही बन तू तृप्त, उत्तम सौख्य हो जिससे तुझे।' और गुरुदेव भी यही कहते थे कि ज्ञान है वह तू है। अर्थात ज्ञायक सो तू है। ज्ञानमात्रमें सब आ गया। ज्ञानमात्रमें आचार्यदेव कहते हैं, सब आ गया। उसमें तृप्त हो, उसमें संतुष्ट हो, तुझे सुख (प्राप्त होगा)। ज्ञानमात्र कहकर ज्ञायक कहते हैं। उसमें अनन्त गुण भरे हैं, उसमें अनन्त आनन्द भरा है। सब उसमें भरा है। अतः असाधारण आत्माका ज्ञानगुण जो लक्षण तुझे पहचानमें आता है, उस लक्षण द्वारा लक्ष्यको पहचान ले। बस! उसीमें सब भरा है।

मुमुक्षुः- अकेले ज्ञानको मुख्य करके बात की है, परन्तु अनन्त गुणका पिण्ड ऐसा जो ज्ञायक, उसे दृष्टिमें लेनेके लिये वह दर्शाया है।

समाधानः- हाँ, उसे दृष्टिमें लेनेके लिये, पूरा ज्ञायक ग्रहण करनेके लिये। अनन्त गुणका अस्तित्व ज्ञायकरूप है, उसे ग्रहण कर। ज्ञायक, उसमें पूरा द्रव्य आ जाता है।

मुमुक्षुः- पहले विकल्प हो, बादमें विकल्पका अभाव हो जाता है?

समाधानः- पहले निर्विकल्प तत्त्वकी यथार्थ प्रतीति होती है कि यह ज्ञायक है वह मैं हूँ। ऐसी यथार्थ प्रतीति होती है। बीचमें विकल्प तो होते हैं, परन्तु बारंबार उसका अभ्यास करे, उसकी लीनता करे, उसकी प्रतीतिको दृढ करे तो निर्विकल्प होता है। बारंबार उसकी भेदज्ञानकी धारा उग्र करे तो निर्विकल्प हो।

मुमुक्षुः- उतावलीसे..

समाधानः- उतावलीसे नहीं। धैर्य, शान्ति, भावनासे और जिज्ञासासे। आकुलतासे नहीं, परन्तु उसकी भावना उग्र हो, जिज्ञासा हो, परन्तु धैर्यसे पुरुषार्थ करे। आकुलता करने-से नहीं होता। बारंबार गुरुदेवके उपदेशमें वही आता था।

मुमुक्षुः- कुछ भी पढे, दस पंक्ति पढे, लेकिन उसमें-से मुख्य बात यह आये, पूरा प्रवचन पढे तो भी यही बात आये। कर्तृत्वकी बात कहीं आये ही नहीं। ज्ञानकी बात आये। इसमें-से पद्धति क्या? आज बहुत अच्छा स्पष्टीकरण हुआ।

समाधानः- तू कर्ता नहीं है, परन्तु ज्ञाता है ऐसा आये। तू ज्ञानको ग्रहण कर।

मुमुक्षुः- ... वैसे तो कर्ताबुद्धि मन्द पडती है। परन्तु जानता हूँ, वह तो मेरा स्वभाव है। फिर भी कोई कार्यसिद्धि तो होती नहीं है। बहुत समयसे यह अभ्यास करते हो। लेकिन यह बात सत्य है कि गुरुदेवने ज्ञान द्वारा ज्ञायकको ही दर्शाया है। बहुत सुन्दर।


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समाधानः- ज्ञायक दर्शाया है। कर्ताबुद्धि, उसे स्थूलपने लगे कि मैं कर नहीं सकता हूँ। परन्तु अन्दरमें जबतक ज्ञायक ज्ञायकरूप नहीं हुआ है, तबतक उसे अंतरमें कर्ताबुद्धि पडी है। उसके अभिप्रायमें। जो-जो विकल्प आये, विकल्पके साथ उसकी कर्ताबुद्धि जुडी है। जब यथार्थ ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमे, ज्ञाता हो, तब उसे कर्तृत्व छूटता है। तब उसकी स्वामित्वबुद्धि यथार्थ रूपसे अंतरमें-से तब छूटती है। पहले उसे विचारसे छूटे कि मैं कर्ता नहीं हूँ। मैं जाननेवाला हूँ। परन्तु अंतरमें जब यथार्थ परिणमन हो-ज्ञायक ज्ञायकरूप हो-तब उसका कर्तृत्व छूटता है।

मुमुक्षुः- सबको जाननेवाला ज्ञान आत्माका लक्षण है?

समाधानः- वह आत्माका लक्षण तो है, ज्ञेयको जानता है वह ज्ञान तो है, परन्तु वह दृष्टिकी भूल है कि मैं ज्ञेयको जानता हूँ। दृष्टिकी भूल है। ज्ञान तो ज्ञान है, उसमें दृष्टिकी भूल है। आत्माका लक्षण तो है, लेकिन दृष्टिकी भूल है कि मैं ज्ञेयको... रागमिश्रित हो जाता है। उसमें रागको दूर करके, ज्ञेयको भिन्न करके अकेले ज्ञानको ग्रहण करे तो ज्ञान लक्षण तो आत्माका है।

मुमुक्षुः- उससे भिन्नता कैसो होगी ज्ञेयाकार ज्ञानसे? जो सामान्य ज्ञान है। आपका कहना ऐसा है कि सामान्य ज्ञान आत्माका लक्षण है। ज्ञेयाकार ज्ञेयमिश्रित जो है वह आत्माका लक्षण नहीं है।

समाधानः- नहीं। भिन्न-भिन्नतावाला ज्ञान, वह ज्ञान मेरा मूल लक्षण नहीं है। मूल लक्षण तो एक जाणक तत्त्व, जाननेवाला तत्त्व है वह मैं हूँ। उसको ग्रहण करना। जाननेवाला जो सामान्य जाननेवाला.. जाननेवाला.. जाननेवाला जो वस्तुका मूल स्वभाव है उसको ग्रहण करना, उसका अस्तित्व ग्रहण करना। उसमें इस ज्ञेयको जाना, इस ज्ञेयको जाना ऐसा नहीं। स्वतःसिद्ध जाननेवाला है। अनन्त शक्ति जिसमें जाननेकी है, वह जाननेवाला तत्त्व है वह मैं हूँ। उसको ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- जो जाननेवाला तत्त्व है, वह तो लक्ष्य हो गया।

समाधानः- हाँ, लक्ष्य।

मुमुक्षुः- और लक्षण क्या है? ज्ञानसामान्य, ज्ञेयाकार ज्ञान नहीं? ज्ञेयाकारमें जो सामान्य ज्ञान है (वह)?

समाधानः- सामान्यको ग्रहण करना। विशेष ग्रहण नहीं करके, विशेष द्वारा सामान्यको ग्रहण करना। जो दृष्टान्त आता है न? बादलमें जो प्रकाशके किरण दिखाई देते हैं, उस किरणके पीछे पूरा सूर्य अखण्ड है, उसको ग्रहण करना। क्षयोपशम ज्ञानका भेद जो देखनेमें आता है, उस भेदको ग्रहण नहीं करके मूल सूर्यको ग्रहण करना। बादलमें जो किरणें हैं, वह है तो सूर्यके किरण, परन्तु भेद-भेद किरण मात्र मूल वस्तु नहीं


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है। मूल वस्तु पूरा द्रव्य (नहीं है)। वह किरण कहाँ-से निकलता है? उस द्रव्यको ग्रहण करना।

जो बादल है, उसमें जो प्रकाशकी किरणें दिखती हैं, (वह मूल वस्तु नहीं है)। मूल सूर्यको ग्रहण करना। प्रकाशके किरण उसे छिन्न-भिन्न नहीं करते। वह प्रकाश सूर्यको दिखाते हैं। उसको दिखाते हैं। ऐसे क्षयोपशमज्ञानके भेद हैं, वह मूल वस्तुको दिखाते हैं। उसको ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- खण्ड खण्ड ज्ञान भी अखण्ड वस्तुको दिखाता है।

समाधानः- हाँ, अखण्ड वस्तुको दिखाता है, उसको ग्रहण करना।

मुमुक्षुः- तो खण्ड खण्ड ज्ञानको ना देखकरके अखण्ड आत्माको देखना।

समाधानः- अखण्ड आत्माको देखना चाहिये।

मुमुक्षुः- खण्ड खण्ड ज्ञानके द्वारा अखण्ड आत्मा देखा जा सकता है?

समाधानः- देख सकता है। दृष्टि अखण्ड पर (जाती है)। देख सकता है। उसका अभिनन्दन करते हैं, अखण्डको तोडता नहीं है, वह अखण्डको दिखा सकता है। लक्षण द्वारा लक्ष्य देखनेमें आता है।

मुमुक्षुः- खण्ड खण्ड ज्ञानके द्वारा अखण्ड आत्मा जाना जा सकता है?

समाधानः- जान सकता है। लक्षणसे लक्ष्य पहचाननेमें आता है। खण्ड खण्ड ज्ञानसे दिखनेमें न आवे तो स्वयं.. लक्षण और लक्ष्य, वह तो ज्ञानका लक्षण है। वह तो स्वतःसिद्ध अपने-से अपनेको जानना। खण्डको गौण करके जानो तो अपने आपसे अपनेको जाना। परन्तु व्यवहार-से लो तो खण्डसे अखण्ड जाना जाता है। व्यवहारसे ऐसा बीचमें खण्ड आता है।

समाधानः- ... वेदना भिन्न और आत्मा भिन्न है। आत्माका स्मरण करना। ज्ञायक आत्मा है उसका भेदज्ञानका प्रयत्न करना। यह करनेका गुरुदेवने कहा है। विकल्पसे भिन्न आत्मा है उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। वेदना शरीरमें आती है, आत्मामें आती नहीं है। आत्मा तत्त्व अत्यंत भिन्न है। देव-गुुरु-शास्त्रके सान्निध्यमें तो आप पहले- से रहे हो। और वही संस्कार (है), सचमूचमें तो वही करनेका है।

मुमुक्षुः- उनकी शरण है और आपकी शरण है।

समाधानः- ये सब वाणी मिली, वह महाभाग्यकी बात है। ऐसी वाणी मिलनी और ऐसा मार्ग बतानेवाले गुरु मिलना मुश्किल है। गुरुदेवने कहा, एक चैतन्य आत्माका आलम्बन करना। बाकी सब तो विभाव है, विकल्प है। उसका आलम्बन (छोडना)। उसमें ज्ञान, आनन्द सब भरा है।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं।


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चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

समाधानः- ... फिर उसमें लीनता हो, उसमें स्थिर हो जाय तो विकल्प टूटकर स्वानुभूति होती है। लेकिन उसका भेदज्ञान करना चाहिये। अनादि कालसे एकत्वबुद्धिका अभ्यास है। यह शरीर मैं हूँ, यह मेरा है, ऐसी एकत्वबुद्धि है। विभाव मैं हूँ, विभाव मेरा स्वभाव है, ऐसी एकत्वबुद्धि हो रही है। सब विकल्प देखनेमें आते हैं, चैतन्य देखनेमें नहीं आता है। चैतन्यको देखना चाहिये। चैतन्यकी प्रतीति और चैतन्य अपना स्वभाव, उसको ख्यालमें लेना चाहिये।

उसका-चैतन्य तत्त्वका कैसे दर्शन होवे? ऐसी प्रतीति कर, ऐसा भरोसा कर, उसमें स्थिर हो जाना तो चैतन्यतत्त्वकी स्वानुभूति और उसका दर्शन होता है। ऐसा प्रयोग है। उसकी प्रतीति करना, ज्ञान करना, भेदज्ञान करना। भेदज्ञानका बारंबार अभ्यास करना। मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ ऐसा भीतरमें-से तत्त्वमें-से पहचान करके उसका अभ्यास करना चाहिये। तो स्वानुभूति होती है।

मुमुक्षुः- विचार, विकल्पमें तो मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, जैसा आपने फरमाया, ध्यानके कालमें बैठनेके लिये करते हैं। चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ सूक्ष्म अन्दरमें वहीका वही रटन चलते रहता है। परन्तु जो अनुभूति आपने की है, ऐसा (कुछ होता नहीं)।

समाधानः- यथार्थ स्वभावमें-से होना चाहिये। विकल्प तो बीचमें आता है, परन्तु विकल्प तो स्थूल है। भीतरमें जो चैतन्यका स्वभाव है वह मैं हूँ। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करना चाहिये। मैं चैतन्यतत्त्व, उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसमें स्थिर होना चाहिये। विकल्पमात्र विकल्प-विकल्प तो बीचमें आता है, परन्तु वास्तवमें उसका अस्तित्व ग्रहण करके उसमें स्थिर होना चाहिये।

वह नहीं होवे तबतक उसका बारंबार-बारंबार अभ्यास करना चाहिये। उसके लिये तत्त्वका विचार, शास्त्र स्वाध्याय आदि सब चैतन्यतत्त्वको पहचाननेके लिये करना चाहिये। भेदज्ञानका अभ्यास। चैतन्यकी स्वानुभूति कैसे हो, उसके लिये करना चाहिये।


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मुमुक्षुः- दूसरा एक उसमें आता है, ज्ञान परको जानता है, ज्ञान स्वको जानता है और ज्ञान स्व-परको जानता है। तो तीन प्रकारका ऐसा ज्ञानका परिणमनके कालमें (होता है)। तो स्वानुभवके अन्दर जो छद्मस्थ अवस्था है, तो स्वपरप्रकाशकपना तो स्वानुभवमें नहीं बन पायगा, वह कैसे होगा?

समाधानः- पर-ओर उपयोग नहीं है। इसलिये परज्ञेयको नहीं जानता है। परन्तु अपने स्वमें उपयोग है, स्व पदार्थको जानता है। अपने अनन्त गुण और अपनी पर्यायको जानता है। इसलिये स्वपरप्रकाशक अपनेमें होता है। ज्ञेय तो बाह्य उपयोग नहीं है इसलिये नहीं जानता है। अपनेमें जो अनन्त गुण और अपनी पर्यायको जानता है। पदार्थ और अपने गुण-पर्याय, ऐसा स्वपरप्रकाशक अनुभवके कालमें ऐसा स्वपरप्रकाशक होता है।

मुमुक्षुः- उस कालमें स्व ही आया।

समाधानः- स्व आया। परन्तु गुणको और पर्यायको जानता है, इसलिये उसको स्वपरप्रकाशक कहनेमें आया। इस अपेक्षासे कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- लोकालोकका और स्वका ज्ञानचेतना अनन्त गुणमयका तो केवलज्ञानादि प्रत्यक्ष..

समाधानः- वह तो केवलज्ञानमें होता है। छद्मस्थका उपयोग बाहरमें जाय तो भीतर अंतरमें आता है। तो बाहरका उपयोग नहीं है। इसलिये परको नहीं जानता है, स्वको जानता है। परन्तु अपने गुण-पर्यायको जानता है। केवलज्ञान तो वीतराग हो गया इसलिये अपने अनन्त गुण-पर्याय और परके अनन्त गुण-पर्याय, सबको जानता है। उसको उपयोग देना नहीं पडता, वह तो सहज जानता है। सहज परिणति हो गयी, अपनेमें लीन हो गया। ज्ञानका जैसा स्वभाव है, वैसा जाननेका स्वभाव प्रगट हो गया। तो क्रम-क्रमसे उपयोग देना पडता है (ऐसा नहीं रहा), क्रम-क्रमसे उपयोग केवलज्ञानीको देना नहीं पडता। इसलिये सहज अपने स्वरूपमें रहकर सब सहज जानता है। उपयोग देना नहीं पडता। उपयोग नहीं देते हैं, तो भी जानते हैं। ऐसा प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया। क्रम-क्रम उपयोग नहीं देना पडता।

छद्मस्थको क्रम-क्रमसे उपयोग देता है, इसलिये ऐसा क्रम पडता है। बाह्यको जाने, बाहर लक्ष्य नहीं होवे तब भीतरको जानता है। छद्मस्थको उपयोग क्रम-क्रमसे होता है न। एक क्रम पडता है तो बाहरको जानता है। अंतरमें जाने तो बाहर उपयोगमें क्रम पडता है। केवलज्ञानीको क्रम नहीं पडता है। लेकिन उसका स्वभाव जो स्वपरप्रकाशक है उसका नाश नहीं होता। वह तो केवलज्ञानमें प्रत्यक्ष हो गया। परन्तु छद्मस्थ अवस्थामें स्वपरप्रकाशकका नाश नहीं होता है। बदलता है। बाहरमें जाय तो बाहरको जाना, अंतरमें जाय तो अंतरको जाना।


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मुमुक्षुः- क्रमिकरूपसे कार्य करता है। समाधानः- हाँ, क्रमरूप कार्य करता है, क्रमरूप कार्य करता है। एकसाथ कार्य करता है तो स्व-पर दोनोंका जानता है। इसमें क्रम पडता है, इसलिये नहीं जानता है। परन्तु भीतरमें अपने अनन्त गुण और अनन्त पर्याय जो स्वानुभूतिमें होते हैं गुण- पर्याय, उसको तो जानता है। उसका वेदन होता है। वह तो जानता है, स्वानुभूतिमें।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!