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समाधानः- ... तो भी बारंबार उसीको याद करते रहना। एकत्वबुद्धि अनादिकी है तो बाहर लग जाता है तो भी बारंबार उसे अपनी ओर दृढ करना। महिमा और लगन।
मुमुक्षुः- वैराग्य और ज्ञान दोनों साथमें (होते हैं)।
समाधानः- हाँ, ज्ञान-वैराग्य दोनों साथमें (होते हैं)।
मुमुक्षुः- वैराग्य पहले आता है न? बादमें ज्ञान होता है न?
समाधानः- दोनों साथमें होते हैं। स्वयंने अपना अस्तित्व ग्रहण किया कि मैं ज्ञायक हूँ और परसे भिन्न पडता है। ज्ञान और वैराग्य दोनों साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- शुभाशुभ तो चलते ही रहते हैं।
समाधानः- शुभाशुभ अनादिका जुडा है। उससे भिन्न पडे, भेदविज्ञान करे। मूलमें- से बादमें जाता है, पहले उसका भेदज्ञान करे। स्वभाव पहचाने कि मैं भिन्न हूँ और ये भिन्न है। अपना अस्तित्व पहचाने और मैं पर-से भिन्न, ऐसे विरक्ति। ज्ञान और वैराग्य साथमें होते हैं।
मुमुक्षुः- दृष्टि बदलनी है।
समाधानः- दृष्टि बदलनी है।
समाधानः- .. जगतमें भगवान सर्वोत्कृष्ट हैं और उनकी प्रतिमाएँ शाश्वत हैं। नंदिश्वरमें, मेरु पर्वतमें, देवलोकमें बहुत जगह (हैं)। रत्नके मन्दिर और रत्नकी प्रतिमा हैं। भगवान मानो बोले या बोलेंगे, ऐसे दिखे। ऐसे रत्नकी प्रतिमाएँ होती हैं। एक वाणी नहीं होती, बाकी सब है। मानों समवसरणमें बैठे हों।
मुमुक्षुः- अष्टाह्निकाकी पूजा करनेमें अपनेको क्या लाभ होता है?
समाधानः- भगवानकी पूजासे भगवानकी महिमा, जिनेन्द्र देवकी महिमा आये। भगवान वीतराग हैं, वीतरागी देवकी महिमा आये। आठ दिन देव करते हैं। और यहाँ मनुष्य भी करते हैं। उसमें एक जातकी जिनेन्द्र भगवानकी महिमा है। जगतमें सर्वसे जिनेन्द्र देव सर्वोत्कृष्ट हैं। इसलिये जिनेन्द्र भगवानका जितना करे उतना कम है। उसमें नित्य नियममें श्रावकोंको पूजा होती है। उसमें अष्टाह्निकामें तो आठ दिन देव करते
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हैं और मनुष्य भी करते हैं।
भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट हैं। श्रावकोंको देव, गुरु और शास्त्रकी पूजा, भक्ति गृहस्थाश्रममें होती है। स्वयं अपनेको पहचानता नहीं है, परन्तु भगवान जो सर्वोत्कृष्ट हैं, भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचानता है। भगवानका स्वरूप यदि उसके ख्यालमें आये, महिमा करते-करते, अपना ध्येय हो तो स्वयंको पहचाननेका कारण बनता है। यदि अपना ध्येय हो तो। नहीं तो पूजा,.. भगवानकी महिमा आये, भगवानका स्वरूप पहचाननेका कारण बनता है। जगतमें महिमा करने योग्य हो तो जिनेन्द्र देव हैं। प्रत्येक आदमी संसारमें सांसारिक प्रसंग और उत्सव मनाते हैं, परन्तु भगवानका उत्सव मनाये वह तो सर्वोत्कृष्ट है। गृहस्थाश्रममें अन्य प्रसंग-से भगवानका उत्सवन मनाना, वह श्रावकोंके लिये ऊँचा है, उत्तम है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- देवोंकी तो बहुत शक्ति होती है न, इसलिये..
मुमुक्षुः- अवधिज्ञान..
समाधानः- हाँ, उन्हें तो अवधिज्ञान होता है।
मुमुक्षुः- हम जाकर आ गये।
समाधानः- देवलोकमें भी समझे बिना जाकर आये। गुरुदेवने कहा न कि तू भगवानका स्वरूप पहचान। समझे बिना ओघे-ओघे किया। पुण्य बन्ध हो। जाकर आया जीव, बहुत बार जाकर आया। परन्तु समझे बिना जाकर आया। भगवान किसे कहते हैं, वह समझे बिना जाकर आया। सच्ची रुचि और सच्ची जिज्ञासा, भगवान पर जो अंतर-से भावना आये और भक्ति आये, ऐसे भावसे नहीं गया। सम्यग्दर्शन बिना गया और भावभक्ति बिना, अंतरकी रुचि बिना गया। इसलिये पुण्य बन्ध हुआ।
समाधानः- .. ध्वनि छूटनेका काल और वहाँ एक क्षण पहले तो गौतमस्वामी... वहाँ इन्द्र देवका रूप लेकर जाता है तो आश्चर्य होता है। देवलोक... कौन है? द्रव्य कितने होते हैं? आपने कहाँ-से समझा? और कौन है? उसे आश्चर्य लगा। पात्रता है न। नहीं तो स्वयं मानों सर्वज्ञ है, ऐसा मानते थे। मेरे जैसा कोई नहीं है। शिष्योंको पढाते थे। ये कौन है, ऐसा कहनेवाला? आश्चर्य लगा। थोडे प्रश्नोंमें आश्चर्य लगा। देखने आते हैं। आपके गुरु कौन हैं? मुझे दर्शन करना है। दूर-से देखा। सरल हृदय है और पात्र है, दूसरा कोई विचार नहीं आता। मानस्तंभ देखकर आश्चर्यमें डूब जाते हैं। ये कौन है? मैं तो ऐसा समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ। ये कौन है? मानस्तंभ देखकर (ऐसा लगता है), ये मानस्तंभ! ऐसे कौन भगवान है कि जिसके आगे ऐसी रचना होती है। ये क्या है? आश्चर्यमें डूब जाते हैं। उस आश्चर्यमें उन्हें आत्माका आश्चर्य
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(लगा) और उसमें भेदज्ञान हो गया। यह सब कैसा? मानते थे अद्वैत और भेदज्ञान हो गया।
मानस्तंभको देखकर सम्यग्दर्शन हो गया। एक क्षणमें पलट गया। लंबा पुरुषार्थ नहीं करना पडा। क्योंकि अन्दर तैयारी थी। विचार कर-करके सब वेदान्तका बिठाया था। रुचि इस धर्म ओरकी परन्तु बैठा था दूसरा। परन्तु हृदय इतना सरल था कि क्षणमें पलट गये। नहीं तो इस कालमें तो बैठा हो, विपरीत अभिप्राय निकालना मुश्किपल है। वे तो क्षणमें पलट गये। अभी तो भगवानकी वाणी नहीं छूटी नहीं है वहाँ हो गया। आगे-आगे समवसरणमें चलते जाते हैं पात्रता बढती जाती है। ... आगे गये वहाँ तो मुनिदशा और जहाँ भगवानकी ध्वनि छूटी तो चार ज्ञान (प्रगट हो गया)। कितनी देरमें सब परिवर्तन! कैसी आत्माकी योग्यता!
मुमुक्षुः- देवोंकी लायकात..
समाधानः- उसके लिये ध्यान करने बैठे या आराम-से बैठे, ऐसा कुछ नहीं। मात्र देखते जाते हैं और पलट जाते हैं। सबको पढानेवाले। तीन भाई थे। इन्द्रभूति, अग्निभूति और वायुभूति। उसमें मुख्य ये हैं।
मुमुक्षुः- लायकात कैसी!
समाधानः- आत्मा अंतर्मुहूर्तमें पलटता है कैसे! मैं जानता हूँ और मैं सर्वज्ञ (हूँ)। मैं मानता था वह सब जूठा है, ऐसा हो गया। मैं सर्वज्ञ हूँ ऐसा मानता था, और वह जूठा? इसलिये मेरा सब जूठा। ऐसा अन्दर विश्वास आ गया। मैं सर्वज्ञ नहीं हूँ। सर्वज्ञ भगवान कोई अलग हैैं, ऐसा लगता है। मेरे पास नहीं है। उसमें एक जूठा है तो सब जूठा है। ऐसे उनकी पात्रता बदल गयी। अन्दर लायकात है न! परिणति बदल गयी। क्षणमें मेरा जूठा है, ऐसे परिणति बदल गयी। देख-देखकर अन्दर-से पात्रता ऐसी है कि भेदज्ञान और अन्दर सब (हो गया)।
द्रव्य कितने? तत्त्व कितने? ऐसा पूछा न (तो लगा) ये सब क्या पूछा? ऐसा नहीं कहा कि तेरा जूठा है। विचारमें पड गये। कैसा परिवर्तन हो गया! लंबा विचार किया या भगवान कहते हैं और मैं विचार करुँ फिर मैं बिठाऊँ, या मैं ध्यान करुँ, चौथा आये, फिर छठवाँ-सातवाँ आया, ऐसा कुछ नहीं। वैसे तो उनको धर्म-ओर वृत्ति थी। परन्तु धर्मकी ओर हो तो अभी पंचमकालमें हो तो विपरीत अभिप्राय घुस गये हो। स्वयंको बडा मान लिया हो। ... दिव्यध्वनिका धोध बहा। ... उपादान- निमित्तका सम्बन्ध ऐसा है। ध्वनि ध्वनिके कारण (छूटी)। गौतमस्वामीकी योग्यता उनके कारण, गणधर गणधरके कारण, भगवान भगवानके कारण। आनन्दसे बरसे। वाणी नहीं छूटती थी उसमें-से वाणी छूटी तो आनन्द-आनन्द हो गया। भरतक्षेत्रमें सबको आनन्द
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हो गया। आज भगवानकी ध्वनि छूटी।
भरतक्षेत्रमें हर जगह ख्याल हो ना कि भगवान विराजते हैं, वाणी नहीं छूटती है। तृषातुर सब राह देखकर बैठे थे। भगवान कब बोले? भगवानकी वाणी कब छूटे? मुनिओं, श्रावक, श्राविका, राजा, चातक पक्षीकी भाँति भगवानकी ध्वनि... उस समय कितने ही मुनि बन गये, श्रावक, श्राविका, सब पलट गये। भगवानकी ध्वनिके साथ सम्बन्ध है।
... बीचमें ... था, इसलिये कितने समय बाद भगवानकी वाणी छूटी। पार्श्वनाथ भगवानके बाद कुछ काल गया, उसके बाद महावीर भगवान हुए। ... लेकिन ध्वनि नहीं छूटती थी। द्वादशांगकी रचना होती है। वाणीका धोध... कितने ऋद्धिधारी मुनि हो गये, किसीको मनःपर्ययज्ञान, किसीको अवधिज्ञान, किसीको चार ज्ञान,किसीको ऋद्धि (प्रगट हो गयी)। भगवानकी वाणी छूटी वहाँ उपादान-निमित्तका सम्बन्ध हो गया। कितने ही मुनि (बन गये)। चारणऋद्धिधारी, अनेक जातकी ऋद्धि आती हैं, वह सब कितनोंको प्रगट हो जाती है। ... ऐसा प्रबल निमित्त है। ऐसा उपादान-निमित्तका सम्बन्ध है।
श्वेतांबरमें ऐसा कहते हैं कि, भगवानकी ध्वनि खाली गयी, कोई गणधर नहीं था इसलिये। ऐसा नहीं बनता, भगवानकी वाणी खाली नहीं जाती। ध्वनि छूटे नहीं ऐसा हो सकता है। भगवानकी वाणी प्रबल निमित्त है, कभी खाली नहीं जाती। भगवानकी ध्वनि छूटे। सामने उतने उपादान तैयार होते हैं। कितने ही मुनि और कितने ही श्रावक (बन जाते हैं)। किसीको कोई ज्ञानकी लब्धि, ... भगवानका ऐसा निमित्त प्रबल था। ... कितनी ऋद्धि, कितने मुनिवर, कोई केवलज्ञानी, ... ये सब हुए तब शिवभूति, वायुभूति वे सब गणधर बन गये।
गौतमस्वामीने परिवर्तन किया तो सबने परिवर्तन किया। ... कितने समय-से बादल होते थे, लेकिन वर्षा नहीं हो रही थी। ... भगवानको केवलज्ञान हुआ तबसे बादल हुए, लेकिन वर्षा नहीं हुयी। इन्द्रको अवधिज्ञान (का उपयोग) रखनेका विचार आया, क्यों ध्वनि छूटती नहीं? भगवान हैं न, तीर्थंकर भगवान। छूटेगी, छूटेगी, ऐसे आशामें दिन निकालते थे। फिर एकदम विचार आया कि ये क्या कारण बना है? ... वाणी छूटती नहीं है। .... समवसरणमें श्रेणिक राजा, राजगृही नगरीमें मुख्य राजा, सब आये, वापस चले जाय। इंतजार करे। किसीको ऐसा हो जाता है न, बहुत भाविक हो, हम घर जा रहे हैं और पीछे-से भगवानकी ध्वनि नहीं छूटेगी न? ऐसा हो जाता है। ... गुरुदेवका प्रवचन समय पर चलता था। कुछ ऐसा हो तो ऐसा हो जाय। सबको बैठे रहनेका मन हो जाता था।
... केवलज्ञान प्राप्त किया है। जगतसे अलग ही लगे। इसलिये भगवानका दर्शन
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करना अच्छा लगे। लौकिकसे अलौकिक मुद्रा हो गयी है। अन्दर आत्मामें समा गये हैं। नासाग्र ... कुछ हिलना-चलना नहीं दिखता। केवलज्ञानीकी मुद्रा देखनी हो, उनके दर्शन करना हो ... अंतरमें ऊतरे हुए, ... अलौकिक, जगत-से अलग ही मूर्ति लगे। मनुष्य जैसी नहीं, वह तो अलौकिक मूर्ति! अंतरमें समा गये हैैं। सभा भरी है तो भी भगवान अंतरमें, किसीके सामने देखते नहीं। किसीका सुनते भी नहीं। भगवान बोलो। कुछ जवाब भी नहीं देते हैं और सुनते भी नहीं है। कौन कहे? भगवान बोलो, ऐसा कहे तो भी भगवान तो अंतरमें विराजते हैं। उनके दर्शन करनेमें कोई अपूर्वता लगे। बोलते नहीं है। वे कहाँ ध्यान देते हैं। ...
कोई पूजा करे, कोई ऐसा सब करते हो, परन्तु भगवानकी ध्वनि नहीं छूटती है। श्रावक आये। वाणी छूटती नहीं है। छत्र, चँवर, दुन्दुभी सब है, लेकिन दिव्यध्वनि... अष्ट प्रातिहार्यमें दिव्यध्वनि नहीं छूटती है। ... सभामें बैठे हो ... ठीक न हो और बाहर आकर बैठे हो, गुरुदेव बोलेंगे तो? बोलेंगे इसलिये किसीको घर जानेका मन नहीं होता था।
जिनके जन्म समय इन्द्र हजार नेत्र करके भगवानको देखता है। समवसरणके अन्दर आत्मामें समा गये हैं और भगवानकी मुद्रा अलग हो गयी है। ...
१५ः५० मिनट पर्यंत। (नोंधः- अवाज स्पष्ट नहीं है)।