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समाधानः- ... सौराष्ट्र, गुजरात, हिन्दीमें तो सब तैयार (हो गये)। आत्माकी ओर मुड गये। आत्माकी रुचि प्रगट हुयी। अंतरमें मार्ग है, बाहर नहीं है। वह सब दृष्टि गुरुदेवने बतायी। कितने ही क्रियामें रुके थे, क्रियासे धर्म होता है, शुभभाव करे तो धर्म होता है, इससे धर्म होता है। शुभभाव-से पुण्य बन्धता है, धर्म तो होता नहीं। धर्म तो शुद्धात्मामें होता है। पूरा मार्ग गुरुदेवने बताया। स्वानुभूति अंतरमें (होती है), यह गुरुदेवने बताया।
स्वानुभूतिका स्वरूप, मुनिदशाका स्वरूप सब गुरुदेवने बताया। मुनि छठवें-सातवेँ गुणस्थानमें झुलते हो, क्षणमें अंतरमें, क्षणमें बाहर ऐसी दशा मुनिओंकी होती है। सब गुरुदेवने बताया। .. रुके थे, कोई शुद्धि-अशुद्धिमें रुके थे। अंतरमें भेदज्ञान करने-से धर्म होता है। शरीर भिन्न, विकल्प भिन्न, सबसे भिन्न आत्मा न्यारा है उसे पहचान। ज्ञायक स्वरूप आत्माको पहचान। अंतर भेदज्ञान (करके) स्थिर हो जा, अन्दर यथार्थ प्रतीति करके स्थिर हो जा। अंतरमें गुरुदेवने मुक्तिका मार्ग प्रगट किया। स्वयंने प्रगट करके दूसरोंको दर्शाया।
प्रत्येक द्रव्यकी स्वतंत्रता, प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है। कोई किसीका कुछ नहीं कर सकता। स्वयं अपना उपादान करता है। उसके साथ निमित्त-उपादानका सम्बन्ध कैसा होता है, सब गुरुदेवने बताया। पहले-से आखिर तकका, सम्यग्दर्शनसे लेकर केवलज्ञान पर्यंत सब गुरुदेवने बताया।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- शास्त्र अभ्यास तो बीचमें आता है। जबतक स्वयं अंतरमें यथार्थ जानता नहीं है कि क्या ज्ञायक स्वरूप है? भेदज्ञान नहीं होता। गुरुदेवकी वाणी अन्दर याद करता रहे। गुरुदेवने क्या मार्ग बताया है? स्वयं अन्दर विशेष स्थिर न हो सके (तो) शास्त्राभ्यास तो बीचमें आता है।
मुमुक्षुः- ... लेकिन यहाँ-से जाते हैं तब...
समाधानः- शास्त्र अभ्यास करना। गुरुदेवने शास्त्रके अर्थ कैसे किये है, उसके अनुसार शास्त्रका स्वाध्याय करना। शास्त्र स्वाध्याय तो बीचमें होता है। अंतरमें एक ज्ञायक
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भिन्न (है, उसका) भेदज्ञान कैसे हो? और बाहरमें शुभभावमें देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। श्रुतका चिंतवन, देव-गुरुकी महिमा। मुनिओंको भी श्रुतका चिंतवन होश्रता है। छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हो तो भी। स्वानुभूतिमें अंतरमें जाते हैं और अंतर्मुहूर्त बाहर आते हैं तो श्रुतके विचार होते हैं। बीचमें शास्त्रका अभ्यास होता है। लेकिन आत्माके लक्ष्य-से, आत्मा कैसे पहचानमें आये? आत्मा भिन्न है, उसका भेदज्ञान कैसे हो? यह लक्ष्य होना चाहिये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन तो नहीं हुआ है, परन्तु दृढ निश्चय किया है कि इस भवमें सम्यग्दर्शन प्राप्त करना ही है। दूसरे कोई कार्यमें रस नहीं आता। परन्तु इस भवमें यदि प्राप्त न कर सके तो यह रस, रुचि दूसरे भवमें काम (आता है)? भविष्यमें काम आता है कि नहीं?
समाधानः- अपूर्व रुचि। अंतर-से ऐसी प्रगट हुयी हो तो वह रुचि अपने साथ आती है। वह आती है। उसके संस्कार जो गहरे पडे हों, तो जहाँ जाय वह अन्दरमें- से स्फुरते हैं। आत्मा भिन्न है, वह भिन्न कैसे प्राप्त हो? ऐसी गहरी रुचि और संस्कार हो, भले दृढ निश्चय हो, परन्तु पहुँचा नहीं हो तो वह संस्कार उसे प्रगट होते हैं। यथार्थ हो तो प्रगट होते हैं।
अनन्त कालमें देव-गुरु-शास्त्रका उपदेश मिला। गुरुका उपदेश मिला, देवका मिला। अंतरमें ग्रहण हो गया कि ये कुछ अपूर्व कहना चाहते हैं। लेकिन अभी सम्यग्दर्शन नहीं हुआ हो तो उसे दूसरे भवमें भी होता है।
मुमुक्षुः- सच्ची श्रद्धा अन्दरमें दृढ की होगी तो वह भविष्यमें काम आती है?
समाधानः- हाँ, काम आती है।
मुमुक्षुः- ... ऐसा योग मिला, फिर भी अभी तक नहीं हुआ है, इसलिये...?
समाधानः- नहीं हुआ है तो अंतरमें स्वयं विचार कर लेना कि पहलेकी जो रुचि अनन्त कालमें की, परन्तु गहराई-से स्वयंने रुचि नहीं की है। सब ऊपर-ऊपरसे ग्रहण किया है। सब स्थूल-स्थूल (किया)। यथार्थ प्रकारसे देव और गुरुको स्वयंको पहचाना नहीं है। और अंतरमें जो आत्माका स्वरूप कहना चाहते हैं, उसकी अपूर्वता नहीं आयी है। इसलिये अनन्त कालमें बहुत किया है, लेकिन हुआ नहीं है। अब, स्वयंको अंतरमें कैसी रुचि है, वह स्वयं पहचान सकता है। यदि अन्दरमें गहरी रुचि हो तो भविष्यमें वह प्रगट हुए बिना रहती ही नहीं।
अन्दरमें ऐसी गहरी रुचि हो कि स्वयंको ऐसी खटक रहती है कि विभावमें कहीं चैन नहीं पडती। ये विभाव मुझे चाहिये ही नहीं। मुझे स्वभाव चाहिये। स्वभावकी महिमा अंतरमें-से रहा करे, ऐसी गहरी महिमा रहा करे तो वह साथमें आये बिना नहीं रहता।
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अनन्त कालमें कोई अपूर्व रुचिने स्वयंने नहीं की है। सुना है लेकिन अपूर्व रुचि नहीं की है। शास्त्रमें आता है न? तत्प्रति प्रीति चित्तेन, वार्तापि श्रुताः। वह वार्ता भी स्वयंने सुनी तो भावि निर्वाण भाजनम। भविष्यमें निर्वाणका भाजन (है)। लेकिन वह वार्ता कैसे सुनी? कोई अपूर्व रुचिसे सुनी होनी चाहिये। वह अपूर्व रुचि स्वयंको हो तो वह प्रगट हुए बिना नहीं रहती।
अपूर्व रुचिसे स्वयंने सुना नहीं है, इसलिये अनन्त कालमें सुना लेकिन वह चला गया। अपूर्व रुचि स्वयंकी हो, अन्दर दृढ निश्चय हो कि आत्मा प्रगट करना ही है और उतना पुरुषार्थ हुआ न हो तो वह रुचि उसके साथ आये बिना नहीं रहती। रुचि उसे काम आती है। ऐसे गुरुदेव मिले, इतनी अन्दरकी रुचि हो, ऐसे गुरुदेव मिले, ऐसा उपदेशका धोध बहाया, कोई अपूर्वता बताकर अंतरमें स्वयंको लगी हो तो हुए बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- नियमसारमें कलश है कि कारण और कार्य दोनों शुद्ध है। उसका क्या अर्थ होता है? कारण भी शुद्ध है और कार्य शुद्ध है।
समाधानः- कौन-सा कलश आता है कारण-कार्यका? कारण दृष्टि जो प्रगट हुयी वह भी शुद्ध है। यदि कारण शुद्ध है तो उसका कार्य भी शुद्ध है। कारण- कार्य दोनों शुद्ध हैं। कारण जो द्रव्य स्वरूप आत्मा वह कारण है, वह भी शुद्ध है। उसकी दृष्टिकी पर्याय प्रगट हुयी वह भी शुद्ध है। कारण अशुद्ध हो और कार्य शुद्ध हो, ऐसा नहीं बनता। कारण-कार्य दोनों शुद्ध होते हैं।
मुक्तिका मार्ग जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र है वह भी शुद्ध है और मुक्तिकी पर्याय प्रगट होती है, वह भी शुद्ध है। द्रव्य स्वरूप आत्मा है वह भी शुद्ध है। उसकी दृष्टि प्रगट होती है, विषय भी शुद्ध है, उसकी पर्याय शुद्ध है। और मुक्तिका मार्ग जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र प्रगट होता है वह मुक्तिका कारण है। तो वह भी शुद्ध है। उसकी पर्याय प्रगट होती है वह भी शुद्ध है। कारण भी शुद्ध है और कार्य भी शुद्ध है। द्रव्य अपेक्षासे भी शुद्ध है, पर्याय अपेक्षासे भी शुद्ध है। .. वह भी शुद्ध है, मुक्तिकी पर्याय होती है वह भी शुद्ध है। द्रव्यस्वरूप आत्मा भी शुद्ध है। उसकी जो दृष्टि होती है, वह भी शुद्ध है।
मुमुक्षुः- कारण-कार्य द्रव्य-पर्यायमें भी है और कारण-कार्य पर्याय-पर्यायमें भी है।
समाधानः- हाँ, पर्याय-पर्यायमें है। मुक्तिका मार्ग और मुक्ति-पूर्ण मुक्ति। वह भी कारण-कार्य। और द्रव्य कारण, पर्याय कार्य। वह भी शुद्ध है। द्रव्यमें भी द्रव्य और पर्याय उसमें भी कारण-कार्य है। पर्याय-पर्यायमेें भी कारण-कार्य होता है। ऐसा भी व्यवहार होता है। मुक्तिका मार्ग कारण और मुक्तिकी पर्याय कार्य, ऐसा भी होता है।
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व्यवहारमें मुक्तिका मार्ग भी कारण है और मुक्तिकी पर्याय कार्य है। ऐसा भी कारण- कार्य होता है।
मुमुक्षुः- कारण शुद्ध और कार्य अशुद्ध ऐसा नहीं होता।
समाधानः- ऐसा नहीं होता। मूल तो द्रव्य शुद्ध है। इसलिये द्रव्यकी दृष्टि... द्रव्य कारण और पर्याय कार्य है। वह मुक्तिका मार्ग है। बादमें व्यवहारमें मुक्तिका मार्ग कारण है और मुक्तिकी पर्याय (कार्य है)। परन्तु कारण अशुद्ध और कार्य शुद्ध, ऐसा नहीं होता है। कारण अशुद्ध नहीं होता है। पंच महाव्रत कारण होता है और उसका कार्य शुद्ध होता है, ऐसा नहीं होता। पंच महाव्रत शुभ परिणाम कारण होता है और उसका चारित्र शुद्ध होता है, ऐसा नहीं होता है। अणुव्रत, महाव्रत शुभ परिणाम है। वह तो बीचमें आता है। शुभभावका कारण-कार्य जो कहनेमें आता है वह व्यवहार है। शुभ कारण और शुद्ध कार्य, ऐसा नहीं होता। अशुद्धका कारण-कार्य नहीं होता। शुभ कारण और शुभ कार्य, ऐसा होता है। साधक पर्याय शुद्ध है, पूर्णता शुद्ध है। द्रव्य शुद्ध है, उसकी पर्याय शुद्ध, दृष्टिकी पर्याय शुद्ध है। ऐसा शुद्ध होता है।
मुमुक्षुः- द्रव्य-पर्यायमें कारण-कार्य ले (तो) कारण तो सबके पास शुद्ध है। तो कार्यमें अशुद्धता क्यों रहती है? कारण तो सबके पास शुद्ध है अनादिअनन्त, तो कार्यमें अशुद्धता क्यों रहती है?
समाधानः- कारण क्या? मोक्षका कारण क्या? द्रव्यमें अशुद्ध परिणति अनादि- से होती ही है। द्रव्य उसका कारण नहीं होता है। वह मुक्तिका कारण-कार्य कहाँ है? वह तो विभाविक पर्याय है। विभावमें उसका द्रव्यका कारण नहीं होता है। शुद्ध कारण और अशुद्ध विभाव पर्याय, ऐसा नहीं होता। पुरुषार्थकी मन्दतासे विभाव परिणति होती है। वह कारण है। मुक्तिका कारण नहीं है।
मुमुक्षुः- ज्ञानीके सारे भाव ज्ञानमय होते हैं। उसका स्वरूपका खुलासा।
समाधानः- ज्ञानीकी दिशा और दृष्टि पलट गयी। द्रव्य तरफ दृष्टि हो गयी, उसकी परिणति भी द्रव्य तरफ हो गयी। इसलिये ज्ञानीका सब कार्य ज्ञानमय होता है। विभाव अल्प होता है-अस्थिरता, तो वह गौण है। इसलिये उसका सब कार्य ज्ञानमय ही होता है।
ज्ञाताकी धारा उसको चलती है। स्वानुभूति तो होती है, परन्तु वर्तमान ज्ञाताकी धारा, भेदज्ञानकी धारा रहती है। जो-जो विभाव आवे तो क्षण-क्षणमें ज्ञाताकी धारा, ज्ञायककी धारा न्यारी रहती है। इसलिये ज्ञानीकी सब परिणति ज्ञानमय होती है, ज्ञातामय होती है, साक्षीमय होती है। विभावको गौण कहनेमें आता है। इसलिये ज्ञानीका सब कार्य, उसकी सब परिणति ज्ञानमय होती है। वह अज्ञानमय नहीं होती है, एकत्वबुद्धिरूप नहीं होती है। विभाव होता है तो उससे न्यारा रहता है। इसलिये उसका सब कार्य,
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अंतरकी जो परिणति है वह सब ज्ञानमय होती है।
ज्ञानीकी सब परिणति, सब कार्य, सब पर्याय ज्ञानमय होती है, अज्ञानमय नहीं होती है। ज्ञानमय होती है। उसकी दिशा पलट गयी। ज्ञायक जो आत्मा, उसकी तरफ उसकी दृष्टि चली गयी तो परिणति उस तरफ चली गयी। इसलिये सब परिणति ज्ञानमय होती है। एकत्वबुद्धि है वह अज्ञान है। ज्ञायककी धारा नहीं है, इसलिये उसके सब कार्य अज्ञानमय होते हैं। ज्ञायककी धारा प्रगट हो गयी, इसलिये उसके सब कार्य ज्ञानमय होते हैं। ज्ञायककी धारा चालू ही रहती है। विभाव जो-जो आये तो उसमें ज्ञायककी धारा भिन्न ही रहती है। इसलिये सब परिणति ज्ञानमय होती है।
मुमुक्षुः- .. सविकल्प होती है या निर्विकल्प?
समाधानः- ज्ञायककी धारा-ज्ञानधारा सविकल्प भी होती है और निर्विकल्पमें तो विकल्प नहीं है। निर्विकल्पमें भी ज्ञानधारा है और सविकल्पमें भी ज्ञानधारा है। दोनोंमें ज्ञानधारा होती है।
मुमुक्षुः- एक-सी होती है दोनोंमें ज्ञानधारा? सविकल्पमें भी और निर्विकल्पमें भी?
समाधानः- ज्ञायककी धारा उग्र है। निर्विकल्पमें है तो विकल्प नहीं है। ज्ञायक ज्ञायकरूप लीन हो गया है। बाहर आवे तो विकल्पके साथमें है तो भिन्न भेदज्ञानकी धारा रहती है। और स्वानुभूतिमें निर्विकल्प धारा है। सविकल्पमें विकल्पवाली धारा है परन्तु ज्ञानधारा है। उदयधारा और ज्ञानधारा भिन्न-भिन्न है।
समाधानः- .. ज्यादा शुभभाव कर लूँ या ज्यादा क्रिया कर लूँ, बहुत उपवास कर लूँ, ऐसा कर लूँ, उससे जन्म-मरण नहीं टूटता। जन्म-मरण भेदज्ञान करने-से, आत्माको पहचानने-से टूटता है। बीचमें शुभराग आता है तो पुण्यबन्ध होता है। जबतक शुद्धात्मामें लीन नहीं होता है तो शुभराग आता है, लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है। वह हेयबुद्धिसे बीचमें आता है। वह अपना स्वभाव नहीं है। उसका भेदज्ञान करे। और जब लीनता करे तो भी शुभभाव आता है, लेकिन वह अपना स्वभाव नहीं है। उससे जन्म-मरण नहीं टूटता है।
मुनिको भी पंच महाव्रत, श्रावकको अणुव्रत आता है, वह शुभभाव है। वे उसका भेदज्ञान करते हैं। सम्यग्दर्शनपूर्वक जो मुनिदशा होती है, वह मुनिदशा है। सम्यग्दर्शनपूर्वक। स्वानुभूति मुनिओंको क्षण-क्षणमें आत्मामें लीन होते हैं। ऐसे स्वरूपकी प्राप्ति होती है। चारित्र दशा वीतराग दशा केवलज्ञान होता है तब रागका क्षय, वीतराग दशा होती है।
पहले उसका भेदज्ञान होता है कि राग मैं नहीं हूँ, ऐसा श्रद्धान करना, उसका भेदज्ञान करना। सम्यग्दृष्टिको भी गृहस्थाश्रममें स्वानुभूति होती है। स्वानुभूति है वही मुक्तिका मार्ग है, जन्म-मरण उससे (टलते हैं)। बाहर रुकने-से नहीं होता है। अनन्त कालमें
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शुभभाव भी बहुत किये। परन्तु वह तो पुण्यबन्धका कारण बना।
आचार्यदेव कहते हैं कि हम तो आगे बढनेको, शुद्धात्मा तीसरी भूमिकाकोग्रहण करनेको (कहते हैं), पीछे गिरनेको नहीं कहते हैं। शुभको छोडकर अशुभ करनेको नहीं कहते हैैं। परन्तु शुभ-से (भिन्न) तीसरी भूमिका, शुभभाव-से (भिन्न) तीसरी भूमिका शुद्धात्मा, उसको ग्रहण करो। वह अमृतस्वरूप है उसको ग्रहण करो। शुभभाव शरणरूप नहीं है, बीचमें आता है।
मुमुुक्षुको देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, भक्ति, मन्द कषाय मुमुक्षुको होता है। देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है, परन्तु शुद्धात्माका ध्येय होना चाहिये। मैं शुद्धात्माको कैसे (ग्रहण करुँ)? मेरा आत्मा न्यारा है, ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! जैन धर्म ही सत्य है, ऐसा आपने किस प्रकार-से ... किया?
समाधानः- जैन धर्म ही सत्य है, क्योंकि जैन धर्ममें यथार्थ स्वरूप है। अनेकान्त स्वरूप (है)। आत्मा कोई अपेक्षासे नित्य है, कोई अपेक्षासे अनित्य है, कोई अपेक्षासे एक, कोई अपेक्षासे अनेक (है)। ये जो जैन धर्ममें जो स्वरूप है,.... जैन धर्म कोई वाडा नहीं है, यथार्थ मुक्तिका मार्ग है। वह यथार्थ मुक्तिका मार्ग बताता है। दूसरे अन्य-अन्य मतोमें कोई मात्र क्षणिक मानता है, कोई क्रियामें धर्म मानता है, कोई एकान्त नित्य, कूटस्थ मानता है, कोई ऐसा मानता है। ऐसा वस्तुका स्वरूप नहीं है।
वस्तुका स्वरूप भीतरमें विचार तो कोई अपेक्षासे आत्मा नित्य (है)। स्वभाव द्रव्य अपेक्षासे नित्य है, पर्याय अपेक्षासे अनित्य है। उसमें गुण अनेक हैं, तो गुण कहीं खण्ड-खण्ड, खण्ड-खण्ड नहीं है। एक वस्तुमें अनन्त गुण है। ऐसा जो भगवानने वीतराग मार्गमें कहा है, वैसा अन्यमें नहीं है। यही मार्ग सत्य है। आत्मामें अशुद्धता तो पर्यायमें है। वास्तविक द्रव्य तो शुद्ध है। तो कोई कहता है कि एकान्त शुद्ध है। पर्यायमें अशुद्धता है और द्रव्य अपेक्षासे शुद्ध है। ऐसा जो जैन दर्शनमें जो वस्तुका स्वरूप भगवानने बताया है, ऐसा कीधर भी नहीं है।
उसका रहस्य गुरुदेवने प्रगट किया है कि वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है। और आत्मामें स्वानुभूतिमें आत्माका अस्तित्व ग्रहण करो, उसका भेदज्ञान करो। उससे आत्मामें स्वानुभूति होती है। ऐसा जैन धर्ममें है, वैसा कीधर भी नहीं है। यथार्थ यही मार्ग है। अनेकान्त स्वरूप-द्रव्य अपेक्षासे नित्य, पर्याय अपेक्षासे अनित्य। यह जैनदर्शनमें है, ऐसा किसीमें नहीं है। कोई एक-एक, एक-एक वस्तुको कहता है। कोई क्षणिक सर्वथा, कोई सर्वथा नित्य, कोई सर्वथा अनेक, कोई कहता है, परको जानता है, अपनेको नहीं जानता है, कोई कहता है, अपनेको जानता है, परको नहीं जानता है, ऐसे अनेक मतमतांतर
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(चलते हैं)। जो वस्तु स्वरूप है, जैसा भगवानने कहा ऐसा शास्त्रमें आता है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग प्रगट किया, ऐसा कीधर भी नहीं है। ये अपूर्व स्वरूप है।
आत्मा कोई अचिंत्य अनेकान्तमयी मूर्ति, अनेकान्तमय मूर्ति आत्मा है। चारों ओर- से, सब पहलू-से देखो तो वह अनेकान्त स्वरूप है। जो अपेक्षा-से नित्य है, वही अपेक्षा-से अनित्य नहीं है। अनित्यकी अपेक्षा भिन्न और नित्यकी अपेक्षा जुदी है। द्रव्य अपेक्षा-से नित्य और पर्याय अपेक्षासे अनित्य, ऐसा है। ऐसा कोई कहता है, व्यवहार भी है, निश्चय भी है। व्यवहारकी अपेक्षा जुदी है और निश्चयकी अपेक्षा जुदी है। निश्चय वस्तु स्वरूप है और व्यवहार पर्याय अपेक्षा है। दोनों अपेक्षा भिन्न-भिन्न है। जैसा है ऐसा समझना चाहिये। तो मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। एकान्त शुद्ध मान ले तो कछ करना नहीं रहता है। (एकान्त) अशुद्ध मान ले तो अशुद्ध शुद्ध कैसे होवे? जो शुद्ध है द्रव्य अपेक्षासे, तो भी अशुद्ध सर्वथा नहीं है तो पुरुषार्थ किसका करना? इस अपेक्षासे पर्यायमें अशुद्धता है और द्रव्यमें शुद्धता है। द्रव्य पर दृष्टि करके पर्यायमें अशुद्धता है वह टूटती है। और श्रद्धा-ज्ञान करके जो स्वभावमें-से प्रगट होता है, विभावमें-से नहीं आता है। स्वभावकी दृष्टि करने-से पर्यायमें शुद्धता प्रगट होती है। ऐसे मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। अनेकान्त समझे बिना मुक्तिका मार्ग प्रगट नहीं होता। आत्मामें सुख नहीं होता है।