Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 229.

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ट्रेक-२२९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. गुरुदेवने भवका अभाव कैसे हो उसका (मार्ग बताया)।

मुमुक्षुः- भरत क्षेत्रके जीवोंको तो .. अभी देखने नहीं मिलता, परन्तु ... देखने मिला है। ये तो महाभाग्य है। जीवंत..

समाधानः- गुरुदेव इस भरत क्षेत्रमें पधारे, भरत क्षेत्रके महाभाग्य! ऐसी वाणी बरसायी और चैतन्यदेवका स्वरूप बताया। देव-गुरु-शास्त्र कैसे होते हैं? चैतन्य कैसा है? आत्मा कैसा है? यह सब बताया। सच्चे देव-गुरु-शास्त्रका स्वरूप बताया।

समाधानः- ... भवका अभाव हो, वह करने जैसा है। गुरुदेवने मार्ग बताया है, भवका अभाव होनेका। संसारका स्वरूप ही ऐसा है। जीवने ऐसे तो अनन्त जन्म- मरण किये हैं। अनन्त जन्म-मरण करते-करते मनुष्य भव मिलता है। अनन्त भव जीवने देवके किये, नर्कके किये, निगोदके किये, तिर्यंचके किये, मनुष्यके किये। इसमें यह मनुष्य भव दुर्लभता-से मिलता है। उसमें गुरुदेव मिले तो आत्माका कर लेने जैसा है।

आत्मा भिन्न और यह शरीर भिन्न है। शरीर और आत्मा, जब उसका आयुष्य पूरा होता है तब भिन्न पडते हैं। आत्माका कहीं नाश नहीं होता है, आत्मा तो शाश्वत है। इसलिये आत्मा भिन्न है, वह भिन्न कैसे पडे? भिन्न तो उसका आयुष्य पूरा होता है तब पडता ही है, परन्तु पहले-से ही ऐसा भेदज्ञान करके आत्मा कैसे भिन्न पडे, पहले तो यह करने जैसा है।

आत्मा भिन्न और अंतर आत्मामें स्वानुभूति कैसे हो? उसका भेदज्ञान कैसे हो? गुरुदेवने वह मार्ग बताया है, वह करने जैसा है। जीवको अनन्त कालमें सब प्राप्त हुआ है, एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ है। एक जिनवर स्वामी नहीं मिले हैं। भगवान मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं है। इसलिये भगवान कैसे पहचानमें आये? गुरु कैसे पहचानमें आये? आत्मा कैसे पहचानमें आये? वह जीवनमें करने जैसा है। सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त हो? स्वानुभूति कैसे हो? उस जातका रटन, मनन वह करने जैसा है। देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्मा कैसे पहचानमें आये, वह करने जैसा है।

बाकी जन्म-मरण, जन्म-मरण तो संसारमें होते ही रहते हैं। जो मनुष्य भव धारण करता है, जो जन्मता है, उसका मरण होता है। इसलिये आयुष्य पूरा होने पर सब


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जीव चले जाते हैं। अतः आत्माको कैसे भिन्न करना और भेदज्ञान करना, आत्माका ज्ञान और आनन्द सब आत्मामें है। उसे पहचान लेना। करना वह है।

समाधानः- ... गुरुदेव राजकोट बहुत बार पधारते।

मुमुक्षुः- पूरा लाभ लेते थे, मातुश्री हमेशा लाभ लेते थे।

समाधानः- देह और आत्मा भिन्न पडते हैं। दिखता है कि आत्मा चला जाता है, शरीर पडा रहता है। इसलिये प्रथम-से ही आत्माका भेदज्ञान कर लेना कि अन्दर आत्मा भिन्न जाननेवाला है, ये विकल्प भिन्न है, उससे भी आत्मा भिन्न है, वह कैसे जाननेमें आये? उसकी पहचान कैसे हो? उसकी स्वानुभूति कैसे हो? ऐसी भावना करने जैसी है। जीवनमें यह एक अपूर्व है, बाकी कुछ अपूर्व नहीं है संसारमें।

शान्ति रखनी। ऐसे जन्म-मरण संसारमें होते हैं। राग आये उतना दुःख होता है, परन्तु मनको बदल देना, शान्ति रखनी। अनन्त भवोंमें कितनोंको स्वयं छोडकर आया है, स्वयंको छोडकर दूसरे चले जाते हैं। ऐसा कितने भवोंमें करता आया है, होता आ रहा है। इसलिये शान्ति रखनी। करनेका यह है।

मुमुक्षुः- आप कहते हो तब बराबर समझमें आता है, .. समझमें आता है। फिर एकदम जब आपत्ति आती है या दुःख आये, तब बदल जाता है।

समाधानः- करनेका वह है, भूलने जैसा नहीं है। गुरुदेवने कहा है, वही करनेका है। उसका पुरुषार्थ करने जैसा है, भूलने जैसा नहीं है। ऐसे प्रसंगोंमें अधिक स्मरण आये, आत्माकी ओर अधिक वैराग्य आये और वह करने जैसा है। वही पुरुषार्थ करने जैसा है। गुरुदेवने खूब उपदेश दे-देकर अपूर्व मार्ग बताया है।

मुमुक्षुः- गुरुदेवके प्रताप-से...

समाधानः- सबको मृत्युके समय शान्ति रखती है और सुनानेवालेको भी शान्ति रहती है। गुरुदेवके प्रतापसे छोटे-बडोंको कितनोंको ऐसे संस्कार पड गये हैं कि ऐसा प्रसंग आवे तब शान्ति रहती है।

मुमुक्षुः- सब भाईओंको-बहनोंको एक साथ भाव आया कि अपने माताजीके दर्शन कर आते हैं, उसके बाद सब बिछडेंगे।

समाधानः- गुरुदेवकी वाणी अपूर्व थी। गुरुदेव आत्मा बता रहे थे। फिर भी अन्दर जाननेवाला भिन्न है। पुरुषार्थ यह भेदज्ञान करना है।

मुमुक्षुः- आप कहते हो, हम समझते हैं, फिर भी..

समाधानः- आत्मा भिन्न जाननेवाला है उसका स्वभाव पहचानना कि यह जाननेवाला है, वह मैं हूँ और उस जाननेवालेमें ही सब भरा है। जाननेवालेमें अनन्त शक्ति और अनन्त गुण और आनन्द सब जाननेवालेमें भरा है। ये सब विकल्पकी जाल आती


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है, जो राग-द्वेषकी जाल है, वह मैं नहीं हूँ, परन्तु उसके अन्दर जाननेवाला जो आत्मा है वह मैं हूँ। वह जाननेवाला कैसे पहचानमें आये? तदर्थ उसकी भावना, रटन, महिमा, तदर्थ शास्त्र स्वाध्याय, विचार सब उसके लिये करना है। क्षण-क्षणमें उसका रटन और उसकी भावना रखनी कि यह शरीर, विकल्प आदि सबसे आत्मा अन्दर भिन्न है। चैतन्य तत्त्व, चैतन्यका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो? वह करने जैसा है।

अन्दर शाश्वत आत्मा चैतन्यदेव विराजता है। गुरुदेव कहते हैं न? जैसे भगवान हैं, वैसा तू है। ऐसा आत्मा चैतन्यदेव अनन्त महिमावंत आत्मा है। वह आत्मा अन्दर विराजता है, उसे पहचाननेका प्रयत्न करना। उसीका बारंबार विचार, वांचन, बार-बार वह करने जैसा है। विस्मृत हो जाय तो भी बार-बार वह करने जैसा है। उसीका विचार, वांचन सब वही करने जैसा है। देव-गुरु-शास्त्रमें कैसा (आता है), गुरुदेवने कैसा कहा है, भगवानने कैसा (कहा है), मुनिओं कैसी आराधना कर रहे हैं, क्यों, कैसे पुरुषार्थ करना, भेदज्ञान करना? गुरुदेवने सम्यग्दर्शनका मार्ग बताया। वह सब बारंबार स्मरणमें लाकर एक आत्मा कैसे पहचानमें आये, वह करने जैसा है। बारंबार एक ही करने जैसा है। शास्त्रमें आता है न? भेदज्ञान, प्रज्ञाछैनी द्वारा स्वयंको अंतरमें भिन्न करना।

चत्तारी मंगलं, अरिहंता मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपणत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारी लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपणत्तो धम्मो लोगुत्तमा।

चत्तारी शरणं पवज्जामि, अरिहंता शरणं पवज्जामि, सिद्धा शरणं पवज्जामि, केवली पणत्तो धम्मो शरणं पवज्जामि।

चार शरण, चार मंगल, चार उत्तम करे जे, भवसागरथी तरे ते सकळ कर्मनो आणे अंत। मोक्ष तणा सुख ले अनंत, भाव धरीने जे गुण गाये, ते जीव तरीने मुक्तिए जाय। संसारमांही शरण चार, अवर शरण नहीं कोई। जे नर-नारी आदरे तेने अक्षय अविचल पद होय। अंगूठे अमृत वरसे लब्धि तणा भण्डार। गुरु गौतमने समरीए तो सदाय मनवांछित फल दाता।

समाधानः- स्वरूपमें समा गये। जो चैतन्य स्वरूप है, अनन्त गुणसे भरपूर, उसमें भगवान ऐसे समा गये कि फिर बाहर ही नहीं आते हैं। चतुर्थ गुणस्थानमें सम्यग्दर्शन हो उसे शान्ति हो। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आवे तो बाहर उपयोग जाये। फिर उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है। परन्तु उपयोग बाहर जाता है। भगवानका उपयोग फिर बाहर नहींजाता। मुनिदशा आवे, उसमें छठवें-सातवें गुणस्थानमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूतिमें जाते हैं। अंतर्मुहूर्त बाहर आते हैं, अंतर्मुहूर्तमें अंतरमें जाते हैं। बाहर आये, अन्दर जाय, इस प्रकार छठवें-सातवें गुणस्थानमें क्षण-क्षणमें स्वानुभूति (होती है)। क्षणमें बाहर आवे,


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क्षणमें अंतरमें जाते हैं। ऐसे छठवें-सातवें गुणस्थानमें (चलता है)। ऐसा करते-करते श्रेणि लगाते हैं। छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनि झुलते हैं। ऐसा करते-करते जब श्रेणि लगाते हैं और केवलज्ञान होता है, फिर आत्मामें ऐसे स्थिर हो जाते हैं कि पुनः बाहर ही नहीं आते। आत्मामेें ऐसे जम जाते हैं।

अनन्त आनन्दका सागर जो पडा है, आनन्द सागर उछल रहा है, उसमें भगवान समा जाते हैं। और अनन्त गुण हैं, उसमें लवलीन हो जाते हैं। आत्माका कोई अपूर्व अदभुत आनन्दका वेदन करते हैं और ज्ञान ऐसा निर्मल प्रगट हो जाता है कि आत्मा तो जाननेवाला ज्ञायक है। उसमें कुछ नहीं जाने, ऐसा बनता नहीं। स्वयं अपनेमें जम जाते हैं, परन्तु उपयोग बाहर (नहीं आता)। जाननेकी इच्छा नहीं है कि ये बाहर क्या है? कुछ जाननेकी इच्छा नहीं है। इच्छा नहीं है तो भी अंतरमें सहज ज्ञात हो जाता है।

मुमुक्षुः- पर्याय तो होती ही है।

समाधानः- हाँ, पर्याय तो होती है।

मुमुक्षुः- ज्ञानकी पर्याय।

समाधानः- ज्ञानकी पर्याय ऐसी निर्मल हो जाती है कि उसमें स्वयं स्वयंको जाने, स्वयं अपना वेदन करे, अनन्त आनन्दका, अनन्त गुणको जाने और बाहरमें लोकालोकको जाने। जो अनन्त द्रव्य, जो अनन्त आत्मा है, अनन्त सिद्ध है, जो- जो भूतकालमें हो गये, वर्तमानमें हो रहे हैं, नर्कमें, स्वर्गमें जहाँ-जहाँ है, सबको जानते हैं। अनन्त परमाणुको जाने। भूतकालमें जीवने अनन्त भव किये उसे जाने। वर्तमान जाने। भविष्यमें अनन्त भव कैसे करेगा, वह जाने। ऐसा भगवान एक समयमें सब जानते हैं। उन्हें विकल्प नहीं करना पडता, उपयोग रखना नहीं पडे। निज स्वरूपमें स्थिर हो गये हों, फिर भी सहज ज्ञात हो। उनका ज्ञान ऐसा निर्मल है।

मुमुक्षुः- ज्ञान..

समाधानः- हाँ, ज्ञान उतना विशाल हो जाता है कि उपयोग रखे नहीं, क्रम पडे नहीं, खेद हो नहीं, विस्मृत नहीं हो, परन्तु सहज जाने।

मुमुक्षुः- तदर्थ बहुत प्रयत्न करना पडे।

समाधानः- हाँ, वह तो प्रयत्न करे तो जाने।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- लेकिन प्रयोजनभूत ज्ञान हो तो वह स्वरूपको पहचाने कि मैं चैतन्य हूँ और यह भिन्न है। विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो चैतन्य ज्ञानस्वरूप हूँ। ऐसे प्रयोजनभूत जानकर अपनेमें लीन हो तो लीन होते-होते जो अन्दर स्वभाव है वह


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प्रगट होते हैं। उसे लोकालोकको जाननेका प्रयत्न नहीं करना पडता, परन्तु अपनेमें स्थिर हो और स्वयंको पहचाने तो सबको (जाने)। एक स्वयंको जाने वह सबको जान सकता है। स्वयंको जाने। लेकिन जो दूसरोंको जाननेका प्रयत्न करे वह स्वयंको भी नहीं जानता और परको भी नहीं जानता। लेकिन जो स्वयंको जाने वह सब जान सकता है।

मुमुक्षुः- कितना आनन्द आता है। स्वरूप थोडी देर सुनकर कितना आनन्द आता है। सुनना अच्छा लगता है।

समाधानः- उस स्वरूपकी क्या बात! अदभुत स्वरूप है!

मुमुक्षुः- अभी बहुत आवरण हैं।

समाधानः- अभी आवरण है। परन्तु प्रयोजनभूत गुरुदेवने मार्ग बताय है। उस मार्गको पहचाने कि मैं चैतन्य भिन्न हूँ। उस चैतन्यमें स्थिर हो जाय, विकल्प टूट जाय और यदि स्वानुभूतिके मार्ग पर जाय और स्वानुभूति हो तो वह अपनेमें लीनता करते- करते, श्रद्धा, ज्ञान और लीनता करते-करते वह केवलज्ञानको प्राप्त करता है।

मुमुक्षुः- प्रथम तो शरीर-से भिन्न मानना।

समाधानः- शरीर-से भिन्न, शरीर और विकल्प-से भिन्न। शरीर स्थूल है। यह शरीर तो जड है, कुछ जानता नहीं। उससे तो भिन्न है। प्रथम ऐसा (करे)।

मुमुक्षुः- उससे तो भिन्न मानता ही नहीं।

समाधानः- वह शरीरसे भी (भिन्नता) नहीं मानता है तो विकल्प-से कहाँ माने? शरीर और मैं एक हूँ, ऐसा मानता है। शरीरसे भिन्न मैं जाननेवाला हूँ। प्रथम शरीरसे भिन्न। अन्दर गहराईमें जाय तो विकल्पसे भिन्न। जो-जो अनेक जातके विकल्प आये, आकुलता हो, वह सब विकल्प आये...

मुमुक्षुः- विकल्पसे तो अभी भी जान सकते हैं, परन्तु शरीर-से तो भिन्नता नहीं मान सकता हैं, वह कैसे?

समाधानः- विकल्प-से भिन्न मानना मुश्किल है।

मुमुक्षुः- शरीर-से तो भिन्न कहाँ मानता ही है। थोडा भी शरीरको कुछ हो तो..

समाधानः- रागके कारण। यह शरीर भिन्न है। क्षण-क्षणमें अपना भेदज्ञान तैयार रखना चाहिये कि ये जो रोग होता है, वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। एक बार धारणा कर ली, विचार कर लिया और फिर छोड दे, ऐसा नहीं। जब- जब स्वयंको प्रसंग पडे तब ज्ञान हाजिर हो कि यह शरीरमें जो होता है वह मेरा स्वरूप नहीं है, मैं भिन्न हूँ। मैं चैतन्य हूँ। ऐसी क्षण-क्षणमें अपनी तैयारी रखे तो क्षण-क्षणमें उससे भेदज्ञान निरंतर भाने जैसा है।

मुमुक्षुः- विकल्प-से तो ऐसा माने, इतना सुने तो ऐसा लगे कि शरीर-से मैं


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भिन्न हूँ, ऐसा मानता है। किसीका मरण हो तो मान लेता है कि यह जड है और चेतन आत्मा है। विकल्पसे मान लेते हैं, परन्तु शरीरसे एकत्वबुद्धि तो बहुत है।

समाधानः- रागके कारण। शरीरसे भी कहाँ छूटा है और विकल्प-से भी नहीं छूटा है। यथार्थ छूटे तो दोनों-से छूटे। विकल्प-से भी नहीं छूटा है और शरीर-से भी नहीं छूटा है। शरीर सो मैं और मैं सो शरीर, उसमें अपना ज्ञायक उसे भिन्न नहीं दिखता है। परन्तु उसका प्रयत्न करे कि ये जो जाननेवाला है, जो-जो विकल्प हुए सब विकल्प चले गये, लेकिन उनके बीच जो जाननेवाला है वह जाननेवाला मैं हूँ। वह जाननेवाला शरीरमें नहीं आता है। शरीर तो जड है, वह कहाँ जानता है। शरीरमें रोग हो तो शरीर कहाँ जानता है कि मुझे रोग हुआ है कि ये रोग अच्छा नहीं है, निरोगता अच्छी और रोग खराब, ऐसा शरीर नहीं जानता। जाननेवाला अन्दर है। उसे राग हो कि यह रोग अच्छा नहीं है, मुझे दुःखरूप है। ये निरोगता अच्छी है, मुझे सुखरूप है। जाननेवालेमें स्वयं राग-द्वेष करता है। शरीर कुछ नहीं जानता है, वह तो जड है।

मुमुक्षुः- दुःख आवे तब इसके साथ एकत्वबुद्धि हो जाती है।

समाधानः- उस वक्त तैयारी रखनी चाहिये। गुरुदेव कहते हैं न कि सुना उसे कहे कि मौके पर ज्ञान हाजिर होना चाहिये। मैं आत्मा भिन्न शाश्वत है, यह शरीर भिन्न है। इस प्रकार अंतरमें-से ऐसी भावना (हो), यथार्थ तो बादमें होता है, परन्तु पहले ऐसी भावना तैयार करे, ऐसी रुचि तैयार करे, ऐसे विचार करे। यथार्थ भेदज्ञान हो उसे तो क्षण-क्षणमें हाजिर होता है कि मैं तो भिन्न जाननेवाला हूँ। परन्तु ऐसा विचार करे, भावना करे तो भी अच्छा है। ऐसी रुचि करे।

ये शरीर बेचारा तो कुछ जानता नहीं। जाननेवाला अन्दर राग-द्वेष (करता है)। उससे भी मैं (भिन्न हूँ), राग-द्वेष भी मेरा स्वरूप नहीं है। परन्तु जाननेवाला राग- द्वेषमें जुडता है। शरीर तो कुछ जानता नहीं, वह तो जड है। लेकिन वह स्वयं मान लेता है कि ऐसा शरीर हो, ऐसा हो, वैसा हो, वह मैं हूँ। ऐसा चले, बोले, वह सब मैं हूँ, ऐसा मानता है। ऐसी भाषा निकले वह मैं हूँ। वह सब मैं-मैं मानता है। भाषा भी जड है, सब जड है, लेकिन स्वयं अन्दर एकत्वबुद्ध कर रहा है। स्वयं प्रयत्न करके विचार करना चाहिये कि मैं तो शाश्वत हूँ।

इतने साल बीत गये, उसमें जाननेवाला ऐसे ही विद्यमान है, विकल्प आकर चले गये। लेकिन मैं तो जाननेवाला भिन्न हूँ, मैं तो अन्दर भिन्न हूँ। ये शरीर तो जड बेचारा कुछ जानता नहीं। वह कुछ नहीं जानता है। सोया हो तो निंदमें अनेक जातकी जाल आती है, शरीर सोया हो तो स्वप्नमें मैं कहीं जाता हूँ और आता हूँ, वह


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सब (चलता है)। अन्दर ऐसे संस्कार है। जाननेवाला है, उसमें जो राग-द्वेष होते हैं, उससे भिन्न पडनेकी जरूरत है। शरीर तो जड है। ये हाथ-पैरा कहाँ कुछ जानते हैं। जाननेवाला अन्दर राग-द्वेखकी कल्पना खडी करता है।

मुमुक्षुः- कल्पनामें भी ज्ञान ही परद्रव्य पर..

समाधानः- हाँ, उसका लक्ष्य पर-ओर जाता है, अन्दर एकत्वबुद्धि है।

मुमुक्षुः- तीर्थंकर भगवानको ही ॐ ध्वनि छूटती है?

समाधानः- हाँ, तीर्थंकर भगवानको ॐ ध्वनि छूटती है, केवली भगवानको ॐ ध्वनि छूटती है। जिसको केवलज्ञान हो उन सबको ॐ ध्वनि छूटती है। कोई केवलज्ञानी भगवान जिसे वाणी हो उन्हें ॐ ध्वनि छूटे। कोई केवली भगवानको वाणी न निकले तो न छूटे। केवलज्ञानी भगवानको ॐ ध्वनि छूटती है। तीर्थंकर भगवानको ॐ ध्वनि छूटती है। तीर्थंकर भगवानको समवसरणकी रचना होती है, सब होता है। केवली भगवानको समवसरणकी रचना हो या न हो, परन्तु सब सभा होती है। केवली भगवानको भी ॐ ध्वनि छूटती है।

मुमुक्षुः- तीर्थंकर गोत्र.. उसके बाद..

समाधानः- हाँ, जो तीर्थंकर होते हैं, उन्हें पहले शुभभाव होता है। उसमें पुण्यबन्धता है, तीर्थंकर गोत्र। वह भी पुण्य है। लेकिन वह उन्हें हेयबुद्धि-से (होता है) कि यह आदरणीय नहीं है। सम्यग्दृष्टि हो उसको ही तीर्थंकर गोत्र बन्धता है, कोई मुनिको बन्धता है, कोई सम्यग्दृष्टिको (बन्धता है), लेकिन वह मानता है कि यह शुभराग है, मेरा स्वरूप नहीं है। उसे भावना आ जाती है कि अहो! ऐसा धर्म! ऐसा चैतन्यका स्वरूप कोई अदभुत! यह स्वरूप सब कैसे समझे? सर्व जीव करु शासन ..। सब जीव यह धर्म कैसे प्राप्त करे? ऐसा करुणा भाव उत्पन्न होता है, उसमें उसे पुण्यबन्ध हो जाता है। लेकिन यह पुण्यभाव आदरणीय नहीं है। ऐसे उसे हेयबुद्धि-से पुण्य बन्ध हो जाता है। तीर्थंकर गोत्र बान्धते हैैं और उसका उदय आता है। भगवानका जन्म होता है तब इन्द्र आते हैं, पंच कल्याणक होते हैं। केवलज्ञान होता है तब समवसरणकी रचना होती है। भगवान गर्भमें आये, भगवान जन्मे तब इन्द्र आकर उनका जन्म कल्याणक करते हैं। पंच कल्याणकमें भगवान जन्मते हैं।

मुमुक्षुः- साधारण जीव ... तो उसे ऐसा कोई भाव नहीं होता। तो फिर उसका...

समाधानः- साधारण जीव हो उसे...?

मुमुक्षुः- भव्य जीव साधारण हो, वाणी सुनकर तिर जाय। सबको तीर्थंकर गोत्रका शुभभाव नहीं होता है न?

समाधानः- सबको तीर्थंकर गोत्र नहीं बन्धता। साधारण जीव हो तो वाणी सुनकर..


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ओहो..! भगवानकी ऐसी वाणी! आत्माका स्वरूप समझमें आये, भेदज्ञान हो, मुनिदशा हो और केवलज्ञान हो जाय। सबको तीर्थंकर गोत्र बन्धे ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- मुनिदशाके बाद ही..

समाधानः- मुनिदशा अवश्य आती है, मुनि हो, केवलज्ञान हो। केवलज्ञान हो तो किसीको वाणी छूटे, किसीको नहीं छूटती। फिर मोक्ष हो जाता है। गजसुकुमाल मुनि गये, स्मशानमें गये और सर पर अग्नि रखी। उसने अग्नि रखी, उपसर्ग आया तो अंतरमें ऊतर गये। केवलज्ञान हो गया और मोक्ष हो गया।

मुमुक्षुः- अपने यहाँ चैबीसीमें अंतिम महावीर भगवान, अब आगामी चौबीसीके श्रेणिक राजा प्रथम तीर्थंकर होंगे। उन्हें दिव्यध्वनि छूटेगी?

समाधानः- हाँ, उन्हें दिव्यध्वनि छूटेगी। महावीर भगवानकी जैसी दिव्यध्वनि छूटती थी, वैसी श्रेणिक राजाकी दिव्यध्वनि छूटेगी। उन्होंने तीर्थंकर गोत्र बान्धा है। श्रेणिक राजाने तीर्थंकर गोत्र बान्धा है। ऐसे चौबीस भगवान होते हैं। वर्तमान चौबीस, भविष्यमें चौबीस, भूतकालमें चोबीस (हुए)। चौबीस भगवान, यह भरतक्षेत्र, ऐरावत क्षेत्र सबमें चौबीस-चौबीस भवगान होते हैं। और महाविदेहमें बीस विहरमान भगवान हैं। वहाँ महाविदेहमें हमेशा भगवान विराजते हैं। अच्छा काल हो उस समय विदेहक्षेत्रमें हर जगह भगवान होते हैं।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन सबको क्यों नहीं हो जाता?

समाधानः- पुरुषार्थ करे तो हो। करना स्वयंको है। प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र है, गुरुदेवने कहा न, जो पुरुषार्थ करे उसे होता है। कोई किसीको कर नहीं देता। अनन्त तीर्थंकर हुए, मुनिवर हुए, गुरुदेव जैसे जागे तो गुरुदेव कहते थे कि तू कर तो होगा। कोई किसीको कर नहीं सकता। कोई किसीको जबरन नहीं (करवा देता)। स्वयंको रुचि हो और स्वयंको रुचे नहीं कि ये विभाव अच्छा नहीं है, ये संसार महिमावंत नहीं है, महिमा तो मेरे आत्मामें है। सर्वस्व मेरे आत्मामें है, ये सब तुच्छ और निःसार है। ऐसा स्वयंको अंतरमें लगे और जीव पुरुषार्थ करे, भेदज्ञान करे उसे सम्यग्दर्शन होता है।

मुमुक्षुः- भवका दुःख लगना चाहिये?

समाधानः- हाँ, दुःख लगना चाहिये कि ऐसे जन्म-मरण करते-करते जीव अनन्त बार दुःखी हुआ। अनन्त बार नर्कमें, निगोदमें ऐसे जन्म-मरण होते रहते हैं। मैं आत्मा शाश्वत हूँ, ऐसे स्वयंको पहचाने, वैराग्य करके, तो सम्यग्दर्शन होता है।

मुमुक्षुः- दिन-रात उसीका रटन। समाधानः- वही रटन। उसका गहरा बेसब्री-से रटन होना चाहिये।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!