Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 233.

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ट्रेक-२३३ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- ... ज्ञेयरूप परद्रव्य, ऐसे जो उपाधिरूप विभावभाव..

समाधानः- उसको? मुुमुक्षुः- उसमें क्या लेना? इसका वाच्य क्या है?

समाधानः- आत्माका स्वभाव शुद्ध है। वह शुद्धता-से भरा है। शुद्धता-से भरपूर है। विभावभाव तो ज्ञेय है, वह ज्ञायक है। वह विभावभाव है। विभावभाव उपाधिरूप है। उपाधि भाव-से आत्मा भिन्न है। उसका भेदज्ञान करके और स्वभाव मैं शुद्धात्मा हूँ, ऐसी दृष्टि करके शुद्ध पर्याय प्रगट करना वह आत्माका स्वभाव है। शुद्ध दृष्टि कर, शुद्ध पर्याय प्रगट कर। और वह तो विभावभाव है, विभावसे भेदज्ञान करना।

ज्ञेयसे एकत्वबुद्धि तोडकर उसका भेदज्ञान करना। भेदज्ञान करके, अपने स्वरूपमें दृष्टि करके शुद्ध पर्याय प्रगट करना। एकत्वबुद्धि ज्ञेयके साथ है उसे तोड देना। एकत्वबुद्धि हो रही है। एकत्वबुद्धि विभावभावके साथ है। एकत्वबुद्धि हो रही है, एकत्वबुद्धिको तोडना। वह ज्ञेय है, मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक तरफ दृष्टि करके उसका भेदज्ञान करना। तो शुद्धात्मामें दृष्टि करने-से, परिणति प्रगट करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है।

मुमुक्षुः- ज्ञेयके साथ एकत्व हो गया है।

समाधानः- एकत्वबुद्धि हो गयी है। एक तो होता नहीं, एकत्वबुद्धि हो रही है। ज्ञेय मैं हूँ और मैं वह हूँ, एकत्वबुद्धि तोडना। स्वभावको ग्रहण करना। मैं चैतन्य हूँ, ये विभावभाव मैं नहीं हूँ। मैं अनादिअनन्त शाश्वत स्वरूप ज्ञायक हूँ। ज्ञायक जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। ज्ञायक है, ज्ञायकमें अनन्त गुण-अनन्त शक्ति, अनन्त-अनन्त शक्तिओं-से भरपूर मैं आत्मा हूँ और यह विभाव मैं नहीं हूँ। ऐसा भेदज्ञान करके दृष्टिकी दिशा पलट देना।

जो सिद्ध हुए वे भेदविज्ञान-से हुए हैं। जो सिद्ध नहीं हुए हैं वे भेदज्ञानके अभाव- से। जो बन्धे हैं, वे भेदविज्ञानके अभाव-से बन्धे हैं। भेदविज्ञान परसे, विभावसे भेदज्ञान और स्वभावका ग्रहण करना। स्वभावको ग्रहण और विभाव-से भेद करना। भेदज्ञान कैसे भाना? कि अविच्छिन्न धारा-से भाना। उसमें छेद न पडे। अविच्छिन्न धारा-से भेदविज्ञानको भाना वह मुक्तिका उपाय है, वह मुक्तिका मार्ग है।


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चैतन्य अखण्ड शाश्वत है, उसमें अशुद्धता नहीं हुयी है। शुद्धात्माको ग्रहण करना और विभावसे विभक्त करना। वह मुक्तिका मार्ग है। इसको मैं जानता हूँ, नहीं जानता हूँ, वह तो बीचमें जाननेकी बात हुयी, पहले विभावसे भेदज्ञान करनेकी विधि है। मुक्तिके मार्गमें भेदज्ञान करनेकी विधि है। एकत्वबुद्धि तोडे देना। मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ। (इस प्रकार) दृष्टिकी दिशा पलट देना। और विभाव, समस्त विभावभाव मैं नहीं हूँ। शुभभाव बीचमें आते हैं तो भी शुभभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है। बीचमें तो आते हैं, परन्तु मेरा स्वरूप नहीं है। उसको विभक्त करना और स्वभावमें एकत्व करना। मैं अनन्त गुण-से भरपूर ज्ञायकतत्त्व हूँ। उस ज्ञायकको ग्रहण करनआ। शरीर-से, विभाव, नोकर्म मन-वचन-काया, सबसे भिन्न मैं आत्मा हूँ। ऐसी स्वभावमें एकत्वबुद्धि करना और विभाव-से विभक्त करना। यह मुक्तिके मार्गकी विधि है।

ज्ञायक तो अनन्त जाननेवाला है। अनन्त शक्तिओं-से भरपूर है। ज्ञायक ऐसा है कि अनन्त-अनन्त पदार्थको जानता है। ज्ञायककी शक्ति अनन्त है। लेकिन उसकी दृष्टि बदल देना। पर-ओर दृष्टि है, दृष्टि स्वभावमें कर देना। वह मुक्तिका मार्ग है। शुद्धात्माको ग्रहण करके शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। उसमें दृष्टि करके, भेदज्ञान इस तरह अविच्छिन्न धारा-से भाना (कि) ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाय, ज्ञान ज्ञानमें स्थिर हो जााय, तबतक अविच्छिन्न धारासे भेदविज्ञान भाना।

स्वभावमें एकत्व और परसे विभक्त। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करके परसे विभक्त करना। यथार्थ भेदज्ञान तभी होता है, स्वभावका अस्तित्व ग्रहण करे तब पर-से विभक्त होता है। मैं आत्मा हूँ और बाकी सब उपाधि है। बाहरकी सब उपाधि है, मैं एक ज्ञायक आत्मा हूँ।

मुमुक्षुः- मैं आत्मा हूँ, यह विकल्प उपाधि है?

समाधानः- आत्मा हूँ, यह विकल्प भी उपाधि है। वह विकल्प भी राग है। बीचमें विकल्प आते हैं। ज्ञान ज्ञानको ग्रहण करे। बीचमें विकल्प आये बिना रहते नहीं। ज्ञायकको ग्रहण करनेमें विकल्पको गौण कर देना। मैं निरविकल्प तत्त्व हूँ। ज्ञान ज्ञानमें स्थिरो हो जाय, जब स्वानुभूति निर्विकल्प दशा होवे, तब विकल्प छूटता है। विकल्प पहले तो नहीं छूटता, उसका भेदविज्ञान होता है।

मुमुक्षुः- उपाधि क्यों कहा उसे?

समाधानः- उपाधि है, विभावभाव है वह उपाधि है।

मुमुक्षुः- मैं ज्ञायक हूँ, ये विभावभाव है?

समाधानः- ज्ञायक हूँ, ज्ञायकका रागमिश्रित विकल्प है वह उपाधि है। ज्ञायक उपाधि नहीं है। रागमिश्रित विकल्प जो आया वह उपाधि है। ज्ञायक है वह तो निराकुल


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है। ज्ञायक शान्तिरूप है, आनन्दरूप है। रागमिश्रित विकल्प उपाधिरूप है। विकल्पसे भेदविज्ञान करना। मैं ज्ञायक हूँ, मैं आनन्द हूँ, ये सब विकल्प उपाधिरूप है। परन्तु वह बीचमें आता है तो उससे भेदविज्ञान करना कि ये मैं नहीं हूँ।

ज्ञायक उपाधि नहीं है। सहज परिणति ज्ञानकी-ज्ञायककी उपाधि नहीं है। विकल्प उपाधि है। मैं हूँ, तो विभक्त (होता है)। मैं यह हूँ, यह नहीं हूँ। तो विभक्त यथार्थ होता है। (अन्यथा) विभक्त नहीं होता है। मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। ज्ञायक स्वभाव अनादिअनन्त है। आनन्दसे (भरा है)। ज्ञायक चैतन्य जो ज्ञायक है वह मैं हूँ। बीचमें विकल्प आता है-मैं ज्ञायक हूँ, वह विकल्प भी मेरा स्वरूप नहीं है। बीचमें आता है, वह उपाधि है, आकुलता है, विपरीत है, तो भी बीचमें आता है। परन्तु मैं तो निर्विकल्प तत्त्व हूँ। ऐसी श्रद्धा पहले तो बुद्धि-से होती है, परन्तु ऐसी परिणति हो जाये कि मैं ज्ञायक ही हूँ, ऐसी सहज परिणति होवे तब ही यथार्थ भेदज्ञान होता है। सहज परिणति होवे। क्षण-क्षणमें मैं ज्ञायक हूँ, ऐसी सहज परिणति होवे तो यथार्थ भेदज्ञान होता है। और उपयोग पलट जाय तो निर्विकल्प स्वानुभूति भी इसमें होती है। उपयोग बाहर होता है, भीतरमें... स्वानुभूतिकी दशा तो अंतर्मुहूर्तकी होती है। बाहर आवे तब तो भेदज्ञानकी धारा चलती है। ज्ञायक हूँ। परन्तु ज्ञायककी परिणतिमें उसमें शान्ति, निर्विकल्पता आनन्द वह दूसरी बात है। वह तो अपूर्व है। परन्तु आंशिक शान्ति, ज्ञायककी परिणति ऐसी सविकल्प दशामें भेदविज्ञानकी धारामें भी उसको रहती है। चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करे उसको यथार्थ भेदविज्ञान होता है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञान।

समाधानः- हाँ, अतीन्द्रिय ज्ञान होता है। वह ज्ञान, मैं ज्ञायक हूँ, उसमें अतीन्द्रिय आ जाता है। पर तरफ इससे जानता हूँ या बाहरसे जानता हूँ, ज्ञेयसे जानता हूँ, ऐसा नहीं। मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। मैं स्वयं जाननेवाला हूँ। अतीन्द्रियका वेदन तब होता है, (जब) विकल्प छूटे तब स्वानुभूति अतीन्द्रिय आनन्द आता है। उसके पहले उसकी श्रद्धाकी परिणति होती है। भेदज्ञानकी परिणति होती है। ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ऐसी परिणति होनी चाहिये। ज्ञेयसे भेदज्ञान करना। वह जाननेका छूटता नहीं है, परन्तु उससे भेदविज्ञान होता है, मैं ज्ञायक हूँ।

मुमुक्षुः- और सहज परिणति होनेके बाद भी भेदज्ञान होता है?

समाधानः- सहज परिणति तो यथार्थ होती है। उसके पहले भेदज्ञानका अभ्यास होता है। वास्तविक भेदज्ञान तो नहीं है। सहज दशा जब होवे तब यथार्थ भेदज्ञान तो तभी होता है। जिसको निर्विकल्प स्वानुभूति होती है, बादमें उसकी भेदविज्ञानकी धारा चलती है, उसको सहज परिणति भेदज्ञानकी होती है। उसके पहले भेदज्ञानका


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अभ्यास होता है, यथार्थ भेदज्ञान नहीं होता है।

विकल्प और बुद्धि द्वारा, भावना द्वारा ऐसा अभ्यास होता है। यथार्थ नहीं होता। परन्तु पहले अभ्यास होता है। बुद्धिपूर्वक विचार करता है, मैं भिन्न हूँ। ये मेरा स्वरूप नहीं है, ऐसी भावना करता है, ऐसी महिमा करता है, बीचमें ऐसा अभ्यास करता है।

मुमुक्षुः- ... यथार्थ भेदज्ञान हो जाता है।

समाधानः- अस्तित्वका ग्रहण होवे तो यथार्थ होता है। आत्मामें अपूर्वता लगे कि मैंने अस्तित्व ग्रहण किया।

मुमुक्षुः- अस्तित्वरूप परिणमित हो, उसके बाद वास्तविक भेदविज्ञान होता है?

समाधानः- अस्तित्वरूप परिणति हो जाय, मैं यह चैतन्य हूँ, तो यथार्थ होता है। नहीं तो भेदज्ञानका अभ्यास होता है। विभावकी परिणति हो रही है, उससे भिन्न पडना वह कार्य करना है। वही मुक्तिका मार्ग है। चैतन्य अनादिअनन्त शाश्वत है, उसको ग्रहण करता है तो प्रज्ञा-से जैसे भिन्न किया, वैसे प्रज्ञा-से ग्रहण करना। प्रज्ञा-ज्ञान द्वारा प्रज्ञाछैनी द्वारा उसको ग्रहण करना, तो भेद हो जाता है। स्वानुभूति उसमें होती है।

मुमुक्षुः- शुद्ध स्वरूपमें अविचलित चैतन्य परिणति, वह वास्तवमें ध्यान है। वह ध्यान प्रगट होनेकी विधि अब कहनेमें आती है। जब वास्तवमें योगी, दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक पुदगल कर्म होने-से, उस विपाकको यानी स्वयं-से भिन्न ऐसे अचेतन कमामें समेटकर, विपाकको कर्ममें समेटकर, तदनुसार परिणति-से उपयोग- से व्यावृत्त करके यानी उस विपाकके अनुरूप परिणमनेमें उपयोगको निवृत्त करके, मोही- रागी और द्वेषी नहीं होकरके, ऐसे उस उपयोगको अत्यंत शुद्ध आत्मामें निष्कंपपने लीन करता है तब, उस योगीको कि जो अपने निष्क्रिय चैतन्य स्वरूपमें विश्रांत है। वचन, मन और कायाको भाता नहीं और स्व कमामें व्यापार नहीं करता है, उसे सकल शुभाशुभ कर्मरूप इँधनको जलानेमें समर्थ होने-से, अग्नि समान ऐसा, परम पुरुषार्थ सिद्धिके उपायभूत ध्यान प्रगट होता है।

समाधानः- चैतन्य स्वरूपमें एकदम स्थिर हो गया, विकल्प छूट जाय। शुभाशुभ परिणति जो होती है, उससे व्यावृत्त करके। चैतन्यकी परिणति.. कोई अपेक्षासे उसे जड (कहते हैं), जड अर्थात होती है चैतन्यमें, कर्मका निमित्त (है), इसलिये वह मेरा स्वरूप नहीं है। उससे भिन्न होकर एकदम स्वरूपमें लीन-अपनेमें विश्रांत हो जाता है। विकल्प छूटकर अंतरमें एकदम निष्कंप हो जाता है। ऐसी निर्विकल्प दशा हो, वह ध्यानका स्वरूप है। ऐसी उग्रता, जिसमें विकल्प भी उत्पन्न नहीं होता, व्यावृत्त हो गया, विकल्प-से भी न्यारा हो गया, भिन्न हो गया, ऐसी निष्कंप ध्यान दशा योगिओंको प्रगट होती है। जो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलनेवाले मुनिवर (हैं, वे) अंतर्मुहूर्तमें निर्विकल्प


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दशामें (आते हैं) और बाहर आये तब छठवें गुणस्थानमें विकल्प आता है। सातवें गुणस्थानमें निर्विकल्प दशामें ऐसे जम जाते हैं और उसीमें लीन हो जाय तो उसमें केवलज्ञान प्रगट हो जाता है। उसीमें श्रेणि चढते हैं।

ऐसा व्यावृत्त, उससे न्यारा, श्रद्धासे तो न्यारा हो गया था, प्रतीतमें ज्ञाताकी धारारूप सम्यग्दर्शनमें न्यारा तो हो गया था, परन्तु ये तो विशेष व्यावृत्त-न्यारा हो गया। चारित्रदशा- से लीन हो गया, विशेष लीन हो गया। ऐसा लीन हो गया कि ध्यानकी उग्रता हो गयी। पहले तो सम्यग्दर्शनमें स्वरूपाचरण चारित्र था। ये तो विशेष लीन हो गया। ऐसा निष्कंप हो गया। अपने स्वरूपमें विश्रांति लेता है। सब कमा-से भिन्न पड गया। जो विभाव परिणति थी, उससे दूर हो गया और स्वरूपमें विभाव परिणति भी उठे नहीं, ऐसा स्वरूपमें लीन हो गया। ऐसा ध्यान करते-करते ऐसे योगीको केवलज्ञान प्रगट होता है। वह ध्यानका स्वरूप है। जिस ध्यानमें विकल्प भी उत्पन्न नहीं होते। वह ध्यान है।

वह सम्यग्दर्शनकी बात (थी), ये तो मुनिदशाकी बात (है)। उग्र ध्यान हो गया। मुनिदशामें छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिओंको ध्यान (होता है उसमें) उपयोग ज्यादा बाहर नहीं सकता। अंतर्मुहूर्त होते ही स्वरूपमें लीन हो जाते हैं। उपयोग बाहर जाय तो भी भेदज्ञानकी धारा तो वर्तती है, परन्तु बाहर जाय तो टिक नहीं सकते। अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें लीन (होकर) निर्विकल्प दशा प्राप्त होती है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें। ऐसा करते- करते विशेष ध्यान हो तो ऐसे जम जाते हैं कि फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसा ध्यान लगाते हैं, श्रेणि चढकर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं। ऐसा ध्यान प्रगट हुआ है। ऐसे उग्र ध्यानकी बात करते हैं।

मुमुक्षुः- ऐसा ध्यान साधकको नहीं होता है? श्रावक।

समाधानः- ऐसा ध्यान मुनिको होता है।

मुमुक्षुः- मुनिको होता है?

समाधानः- सम्यग्दर्शनका ध्यान वह अलग बात है। ये योगीका ध्यान लिया है। सम्यग्दर्शनमें ध्यान होता है। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, ज्ञायककी उग्रता करके ज्ञायकमें लीन हो जाय, विकल्प टूट जाय, निर्विकल्प दशा हो जाय, परन्तु बाहर आये तो उसको गृहस्थाश्रमके विकल्प उठते हैं। वह तो गृहस्थाश्रममें रहता है न, उसका विक्प उठता है। उसकी भूमिका गृहस्थाश्रमकी है। तो उसको ऐसा उग्र ध्यान मुनि जैसा नहीं होता है।

उसमें लिया है न? तरंग छोड देता है। सब तरंग छूट जाते हैं। मुनि तो अबुद्धिपूर्वक... निर्विकल्प दशामें सम्यग्दर्शन (होने पर) बुद्धिपूर्वक (विकल्प) छूट गया। अबुद्धिमें तो है। बाहर आवे तो गृहस्थाश्रमका विकल्प उठता है। इसलिये उसका ध्यान उग्र नहीं


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होता है, मुनिका ध्यान उग्र होता है।

मुमुक्षुः- ध्यानकी प्रक्रिया तो दोनोंकी एक ही है न?

समाधानः- प्रक्रिया उसमें उग्र है। विधि एक है, परन्तु मुनिकी ध्यानकी दशा उग्र ध्यान दशा है। उसमें एक संज्वलनका कषाय अल्प है। और इसको (-सम्यग्दृष्टिको) तो प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी सब है। इसलिये उग्र लीनता, इनको उग्र लीनता है। गृहस्थाश्रममें उतनी उग्रता नहीं है। अंतर्मुहूर्तमें बाहर आता है। और मुनिकी दशा बहुत उग्र है। उग्र है। ध्यानकी दशा... विधि एक है। भेदज्ञानकी धारा दोनोंको है। उसकी लीनता विशेष है। स्वरूपमें स्थिर होते हैं वह लीनता विशेष है। सम्यग्दृष्टिको ऐसी लीनता नहीं है। मुनिकी लीनता विशेष है। मुनि तो बाहर आवे तो एक अंतर्मुहूर्तसे ज्यादा टिक नहीं सकते। भीतरमें चले जाते हैं। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें ऐसी भूमिका कोई अलग है। (सम्यग्दृष्टि) तो बाहर आये तो टिक सकता है। (मुनिराज) बाहर आवे तो टिक नहीं सकते। भीतरमें चले जाते हैं। उनकी निरंतर ध्यानकी दशा ऐसी चलती है, चलते- फिरते बाहर आवे तो उपयोग टिकता नहीं है, भीतरमें चला जाता है। ऐसी ध्यानकी दशा निरंतर चलती है। और बादमें कोई उग्रता हो जाय तो केवलज्ञान प्रगट करे ऐसी उग्रता हो जाती है। ध्यानकी दशा उनको निरंतर चलती है। छठवें-सातवें गुणस्थानमें ... सम्यग्दृष्टिको ऐसी उग्रता नहीं है। ज्ञायककी धारा और भेदज्ञान उसको रहता है। उसकी ध्यानकी दशा मुनि जैसी उग्र नहीं होती। मुनिकी उग्रता अलग है।

मुमुक्षुः- भेदज्ञानमें इतनी ताकत है, सम्यग्दृष्टिके भेदज्ञानमें इतनी ताकत है कि उसकी श्रद्धा अविचलित बनी रहती है।

समाधानः- हाँ, श्रद्धा अविचलित बनी रहे। ज्ञायककी धारा न्यारा-न्यारा, वह सहज न्यारा रहता है। उसको विचार नहीं करना पडता। मैं न्यारा चैतन्य हूँ, वह चैतन्यकी कोई शान्ति वेदता है। ऐसी ताकत है, उसकी परिणतिमें। परन्तु मुनि जैसी लीनता नहीं है। निर्विकल्प दशा, मुनिकी भाँति अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें नहीं होती है।

मुमुक्षुः- दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयका विपाक। तो मुनिके दर्शनमोहनीय तो नहीं है, चारित्रमोहनीय है। तो दोनों विपाक क्यों लिये?

समाधानः- कोईको दर्शनमोहका विपाक... किसीको क्षायिक होवे, किसीको क्षयोपशम होवे, ऐसा है न। इसलिये दर्शनमोह, चारित्रमोह दोनों लिये। कोई सत्तामें होवे तो उसके विपाकके छोड देता है। दर्शनमोह, चारित्रमोह। पूर्ण वीतरागता .. किसीको सत्तामें होवे, किसीको क्षायिक होवे, किसीको क्षयोपशम होवे, इसलिये लिया है।

समाधानः- .. दूसरोंको कहनेके बजाय अपना कर लेना।

मुमुक्षुः- बराबर, सही बात है, बिलकूल बराबर है। उसके लिये तो है यह


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जीवन।

समाधानः- अपना मनुष्य जीवन सार्थक कर लेना।

मुमुक्षुः- बहुत मुश्किल-से मिलता है। आपके चरणोंमें, बस उसमें सार्थकता है। आपका हाथ ऊपर हो, बस! और कुछ नहीं (चाहिये)।

समाधानः- मेरी तबियत ऐसी रहती है। सब आते हैं, जाते हैं। मुमुक्षुः- इतना मिलता है वही बहुत है। समाधानः- जीवनमें आत्माका कल्याण करना, बस! वही है। एक हेतु आत्माका लक्ष्य। कैसे अंतर आत्माको पहचानूँ। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और आत्माका ध्येय रखना। भीतरमें न्यारा आत्मा कैसे पीछानूँ? और श्रुतका स्वाध्याय। साथमें वह करना। एक आत्म प्रयोजन, दूसरा कोई प्रयोजन नहीं। वही महिमावंत है, उसीमें सब भरा है। बाहरमें सब निःसार तुच्छ-तुच्छ है। आत्मामें सबकुछ भरा है। आत्माको नहीं पीछाना। अनंत कालमें सब क्रिया करी, सबकुछ किया, परन्तु आत्माको पीछाना नहीं। वह आत्मा, गुरुदेवने मार्ग बताया। पंचमकालमें कोई जानता नहीं था। कोई क्रिया करे, ऐसा करे उसमें धर्म मान लेते हैं।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!