Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 234.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 231 of 286

 

PDF/HTML Page 1530 of 1906
single page version

ट्रेक-२३४ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- कोई पहलू बाकी न रहे, समझानेके लिये।

समाधानः- सभी पहलूओँ-से समझाया है। शरीर-से भिन्न, विकल्पों-से, शुभाशुभ- से भिन्न, अन्दर क्षणिक पर्यायोंमें भी तू अटकना मत। तू शाश्वत चैतन्य (है) उसे तू ग्रहण कर। बीचमें शुभभाव आये लेकिन वह तेरा स्वरूप नहीं है। तू कोई गुणोंके भेद या कोई भेदमें अटकना मत। भले तेरेमें अनन्त गुण हैं, परन्तु तू कोई भेदमें अटकना मत। अखण्ड चैतन्य पर दृष्टि कर। सब ज्ञानमें ग्रहण कर (-जान), परन्तु तू एक अखण्ड चैतन्यको ग्रहण कर। चारों ओर-से समझाया है।

... जाननेवाला है। सब विकल्पके बीच जो जाननेवाला है वह मैं हूँ। उसका भेदज्ञानका प्रयत्न करना। ये सब विकल्प, कोई भी विकल्प हो, विकल्पके बीच मैं एक जाननेवाला ज्ञायक एक चैतन्य तत्त्व हूँ, शाश्वत एक आत्मा हूँ। उसे पहचाननेका प्रयत्न कर। उपयोग बाहर जाय तो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, जिनेन्द्र देव, गुरुने क्या कहा है, कोई अपूर्व मार्ग बताया, शास्त्रमें क्या कहना है? और अंतरमें जाय तो एक आत्मा। आत्माके ध्येयपूर्वक सब होना चाहिये।

चाहे जैसे ऊँचे शुभभाव हो, परन्तु शुभभाव भी आत्माका स्वरूप नहीं है। बीचमें शुभभाव आते हैं, परन्तु वह स्वरूप-आत्मा उससे भिन्न है। सिद्ध भगवान जैसे निर्विकल्प तत्त्व है, वैसा ही आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसे पहचाननेका प्रयत्त कर। उसकी लगन, महिमा, उसका विचार, उसका वांचन सब करना। उसका भेदज्ञान कैसे हो? चैतन्य अखण्ड तत्त्व है, उसे ग्रहण करना, उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करना और परके साथ जो एकत्वबुद्धि हो रही है, विभावके साथ, उस विभावसे कैसे भिन्न पडे और आत्मा ग्रहण कैसे हो, यह करने जैसा है।

आत्माका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो? और ये विभावसे विभक्त-भिन्न कैसे पडे? यह करनेके लिये विचार, वांचन आदि सब करना है। अनन्त जन्म-मरण किये लेकिन बाहर कहीं-कहीं क्रियाओंमें इससे धर्म होगा, इससे धर्म होगा (ऐसा माना)। धर्म अंतरमें रहा है। अंतर आत्माको पहचाने उसीमेंं धर्म है। धर्म आत्माका स्वभाव है, वह स्वभाव कैसे पहचानमें आये?


PDF/HTML Page 1531 of 1906
single page version

आत्माका एक ज्ञानस्वभाव है वह ऐसा असाधारण है कि वह जान सके ऐसा है। ये सब विकल्पोंके बीच जो है, सब विकल्प चले जाते हैं, परन्तु जाननेवालेका अस्तित्व विद्यमान रहता है, वह जाननेवाला मैं हूँ। उस जाननेवालेमें अनन्त आनन्दादि भरे हैं। परन्तु वह विकल्पके साथ जुडा रहता है इसलिये उसकी अनुभूति उसे नहीं हो रही है। उसका भेदज्ञान करके स्वरूपमें लीन हो तो निर्विकल्प स्वरूप आत्मा है, उसकी अनुभूति हो।

स्वभावमें-से स्वभाव प्रगट होता है। विभावमें-से स्वभाव नहीं आता है। स्फटिक स्वभाव-से निर्मल है। उसमें लाल और पीले फूल रखने-से लाल और पीला दिखता है, परन्तु वह वास्तविक रूप-से निर्मल है। ऐसे आत्मा स्वभाव-से निर्मल है। विभावकी परिणतिके कारण वह विकल्पवाला दिखता है। लेकिन उसका भेदज्ञान करके अंतरमे ं जाय तो उसकी निर्मल पर्याय प्रगट होती है।

स्वभाव-से तो वह वर्तमान द्रव्यदृष्टि-से निर्मल है। वर्तमान अवस्थामें मलिनता दिखती है। परन्तु अंतर दृष्टि करे तो निर्मलता प्रगट होती है। बारंबार उसका अभ्यास करते रहना। वह प्रगट न हो तबतक उसकी महिमा, लगनी, विचार, चिंतवन सबका बारंबार अभ्यास करते रहना। जबतक प्रगट न हो तबतक।

(छाछको बिलोते-बिलोते) मक्खन भिन्न पड जाता है। ऐसे बारंबार अभ्यास करने- से अन्दर भेदज्ञान होकर आत्मा जैसा है वैसा प्रगट होता है। परन्तु उसका अभ्यास और पुरुषार्थ पूरा हो तो होता है। अंतरमें स्वयं जितना रखे उतना होता है, बाकी बाहर तो सब वातावरण अलग होता है।

.. आत्माका कर सकता है। अन्दर पुण्य-पापके उदय अनुसार होता है। चाहे जितना करे तो वह हाथकी बात नहीं रहती। मात्र राग हो कि इसकी दवाई की, यह करे, वह करे, राग हो। बाकी उसका शरीर उसके कारण परिणमता है। आत्मा स्वयं अपना स्वभाव प्रगट कर सकता है। और वह एक अदभुत स्वरूप, अदभुत चीज आत्मा है। अंतर दृष्टि करे तो प्रगट हो ऐसा है।

... स्वानुभूति होने पर सिद्ध भगवान जैसा अनुभव उसे अंतरमें लीन हो तो आंशिकरूप होता है। फिर तो विशेष साधना करने पर आगे बढता है। पहले तो उसकी सच्ची प्रतीति और अनुभूति होती है। फिर विशेष लीनता हो तब आगे बढता है।

मुमुक्षुः- .. करनेकी सूझ आये? आपकी आज्ञा अनुसार अभ्यास और प्रयत्न करता रहता हूँ, परन्तु वह सूझ भी अंतरमें आनी चाहिये न कि अंतरमें... वह मालूम कैसे पडे कि अंतरमें दृष्टि (हुयी है)?

समाधानः- अपना यथार्थ हो तो स्वयंको आत्मामें मालूम पड जाता है कि


PDF/HTML Page 1532 of 1906
single page version

मेरी दृष्टि यथार्थ प्रगट हुयी है। मुझे आत्मा जहाँ विभाव-से भिन्न, चैतन्य भिन्न स्वयं अपनेको ग्रहण हो तो स्वयं अपने-से गुप्त नहीं रहता। स्वयं चैतन्य है और उसकी स्वानुभूति या उसका ज्ञान और उसकी प्रतीति हो वह गुप्त नहीं रहता। स्वयंको मालूम पडे बिना रहे ही नहीं। अपना आत्मा ही अन्दर साक्षी (देता है), उसे ख्याल आ जाता है कि यह यथार्थ मुक्तिका मार्ग है और यथार्थ स्वानुभूति है।

परन्तु जबतक वह न हो तबतक उसकी रुचि, महिमा, उसके पीछे लगे। जबतक न हो तबतक थके नहीं। तबतक वांचन, विचार, अन्दर महिमा, लगनी करता रहे। उसकी भावना रखे, उसका प्रयत्न करता रहे तो भी अच्छा है। उसकी दृष्टि होनेमें देर लगे तो उलझ न जाय, परन्तु अन्दर उसकी भावना करे, उसकी अपूर्वता लगे कि आत्मा कोई अपूर्व है। ये कुछ अपूर्व नहीं है, बाह्य वस्तुएँ। ऐसी अपूर्वता करे, ऐसी रुचि लगाये तो भी अच्छा है। तो उसे आगे प्रयत्न करनेका, आगे बढनेका अवकाश है।

... अपने आत्मा-से ही स्वयंको मालूम पड जाता है कि यह वस्तु यथार्थ है। नहीं तो उसे संतोष नहीं होता। और जबतक अन्दर-से स्वयंको प्रगट न हो तबतक रुचि, महिमा, विचार करता रहे तो भी अच्छा है। अपूर्व है, ऐसी अपूर्वता अंतरमें- से लगे तो उसकी महिमा बदल जाय, बाहर-से रुचि बदल जाय, तो भी अच्छा है।

.. प्रगट न हो, मन्दिरके द्वारा बन्द हो तो मन्दिरके द्वार पर तू टहेल लगाते रहना। वैसे यह चैतन्य ज्ञायक भगवान प्रगट न हो तो उसके द्वार पर टहेल लगाते रहना, तो भी अच्छा है। तो कुछ आगे जानेका अवकाश है। अभ्यास करते रहना।

समाधानः- ... उसके साथ ज्ञान काम करता है कि मैं अखण्ड शाश्वत हूँ, परन्तु पर्याय अधूरी है, शुद्ध पर्याय अभी प्रगट नहीं हुयी है। प्रमाणज्ञान... साधकदशा उसीको कहते हैं कि दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें रखे। प्रमाणज्ञान और सम्यक नय जो प्रगट हुयी,...

मुमुक्षुः- नय और प्रमाण हमेशा साथमें ही होते हैं।

समाधानः- जो परिणतिरूप है वह तो हमेशा साथमें ही है। हमेशा साथ है।

मुमुक्षुः- दोनोंके विषय भिन्न-भिन्न है।

समाधानः- विकल्पात्मक नयके विचार करे प्रमाण और.. लेकिन ये परिणतिरूप जो सहज है, उसमें क्रमभेद नहीं होता, दोनों साथ ही होते हैं। अनुभवमें जो शुद्ध परिणति प्रगट हुयी, उस अपेक्षा-से शुद्धनय कहनेमें आता है और द्रव्य-पर्याय दोनोंकी अनुभूति है इसलिये उसको प्रमाण भी कहनेमें आता है। उसे नय भी कहते हैं और प्रमाण भी कहनेमें आता है।

द्रव्य और पर्याय दोनों साथमें हैं, इसलिये प्रमाण है। प्रमाणज्ञान साथमें है। ज्ञान


PDF/HTML Page 1533 of 1906
single page version

भी काम करता है और दृष्टि भी निर्विकल्पपने अनुभूतिमेंं काम करती है। इसलिये प्रमाणज्ञान... उसे अनुभूति हुयी उसे शुद्धनय कहनेमें आता है। शुद्ध पर्याय प्रगट हुयी, शुद्धताका विषय ग्रहण किया, उस रूप परिणति है, इसलिये शुद्धनय कहनेमें आता है, शुद्ध अनुभूति है इसलिये। और उसे प्रमाण भी कहते हैं। केवलज्ञान प्रगट हुआ उसे प्रमाण भी कहनेमें आता है। केवलज्ञान पूर्ण हो गया। द्रव्य और पर्याय सब.. पर्याय पूर्ण हुयी, केवलज्ञानको प्रमाण कहनेमें आता है। और साथमें नय तो है ही, परन्तु निर्विकल्प.. अनुभूतिमें भी नय और प्रमाण साथमें होते हैं। सविकल्प धारामें जितनी परिणति प्रगट हुई, उसमें भी नय और प्रमाण साथ होते हैं।

मुमुक्षुः- माताजी! जब अनुभव हो तभी लागू पडे न, सच्चा प्रमाणज्ञान तो।

समाधानः- अनुभव हो तभी लागू पडता है। सविकल्प, उसका उपयोग बाहर है तो भी उसका ज्ञान काम करता है। जितनी द्रव्य पर दृष्टि है और ज्ञान साथमें, ये विभाव होते हैं वह मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्यरूप हूँ। यह मैं नहीं हूँ, मैं चैतन्यरूप हूँ। ऐसी जातकी भेदज्ञानकी धारा चलती रहती है। सविकल्पतामें जितनी भूमिका चौथी, पाँचवी, छठ्ठी, सातवींको ज्ञान जानता है। जाननेका कार्य तो उसका साथ ही है। द्रव्यको भी जानता है, पर्यायको भी जानता है। जाननेका काम साथ ही है।

मुमुक्षुः- वह अनुभवके बादका प्रमाणज्ञान हुआ न?

समाधानः- हाँ, वह अनुभव होनेके बादका।

मुमुक्षुः- उसके पहले तो प्रमाणज्ञान नहीं कह सकते न?

समाधानः- सच्चा प्रमाणज्ञान (नहीं है)।

मुमुक्षुः- लागू नहीं पडता है न?

समाधानः- नहीं। अनुभवके बाद ही सचमूचमें नय और प्रमाण तब लागू पडता है। अनुभवके बाद भले सविकल्पमें हो या निर्विकल्पमें हो, अनुभवके बाद, तभी सच्चा प्रमाण और सच्ची नय लागू पडती है। उसके पहले तो सब निश्चय, विचार करता है। प्रमाणकी सच्ची परिणति या नयकी सच्ची परिणति उसके पहले प्रगट नहीं हुयी है। मात्र वह अभ्यास करता है।

.. नय और प्रमाण साथमें ही होते हैं। और निर्विकल्पमें तो विकल्प रहित निर्विकल्पपने है।

मुमुक्षुः- नय और प्रमाणसे रहित है, निर्विकल्प अनुभवके कालमें।

समाधानः- हाँ, निर्विकल्प अनुभवके कालमें। उसे अपेक्षा-से शास्त्रमें शुद्धनय कहो, शुद्ध अनुभूति कहो, उसे प्रमाण कहो। वह सब कहनेमें आता है। वह निर्विकल्परूप है। गुरुदवने महा उपकार किया है। चारों ओर-से स्पष्ट कर-करके बताया है।


PDF/HTML Page 1534 of 1906
single page version

मुमुक्षुः- अब तो न करे तो अपनी ही मूर्खता है।

समाधानः- हाँ। स्वयं न समझे तो अपना ही कारण है।

मुमुक्षुः- आयुष्यके तीसरे भागमें पडे ऐसा कोई नियम है?

समाधानः- हाँ, तीसरे भागमें पडता है। आयुष्य हो उसके तीसरे भागमें पडता है। फिर न पडे तो बीचमें पडता है। आखिरमें आयुष्य पूरा होनेवाला हो उसके पहले पडे। ऐसा भी होता है।

मुमुक्षुः- उसके तीसरे समयमें।

समाधानः- हाँ, ऐसे पडता है। अष्टमी, चौदसी ऐसा नहीं।

मुमुक्षुः- आठ भव ही हो, ऐसा कोई नियम है?

समाधानः- हाँ, ऐसा नियम है।

मुमुक्षुः- लगातार आठ बार ही मिले।

समाधानः- हाँ, आठ। उससे ज्यादा नहीं होते।

समाधानः- ... एक ही करना है। उसके लिये सब (करना है)। आत्मा भिन्न, शरीर भिन्न। दो तत्त्व भिन्न हैं, अनादिअनन्त। आत्मा ज्ञानस्वभाव-से भरा ज्ञायक वस्तु है। उसमें आनन्दादि गुण भरे हैं। उस आत्माको कैसे पहचाने? ये सब विकल्प राग- द्वेष कषाय आत्माका स्वरूप नहीं है। आत्माको उससे भिन्न करना। ये शरीर तो जड कुछ जानता नहीं। उन सबका भेदज्ञान कैसे हो, वह करने जैसा है।

जैसे पानी स्वभाव-से शीतल है, परन्तु अग्निके निमित्त-से उष्ण दिखता है। परन्तु उसका शीतल स्वभाव चला नहीं जाता। वैसे आत्मा स्वभाव-से निर्मल स्वभावी है। निर्मल स्वभाव है, परन्तु विभावमें जाता है न, इसलिये उसे राग-द्वेष कलुषितता दिखती है। परन्तु अंतरमें दृष्टि करे तो आत्मा वीतरागस्वरूप निर्मल स्वभाव शीतल स्वभाव है। उसे कैसे पहचानना? बस, वह करने जैसा है।

यथार्थ ज्ञान करे, यथार्थ विचार करके उसकी महिमा लगाये, लगन लगाये, उसका भेदज्ञान करे तो अंतरमें आगे जाना होता है। उसके लिये विचार, वांचन आदि करने जैसा है। शुभभाव जीवने अनन्त बार किये हैं, पुण्य बान्धा, देवलोकमें गया। परन्तु देवमें-से वापस आया। परिभ्रमण खडा रहा। अनन्त जन्म-मरण किये चार गतिमें, लेकिन भवका अभाव कैसे हो?

भवका अभाव तो शुद्धात्माको पहचाने तो होता है। अनन्त कालमें क्रियाएँ बहुत की, मुनिपना लिया, परन्तु अंतर आत्माको पहचाना नहीं, तो बाहर-से त्याग किया, सब किया। परन्तु आत्माको पहचाना नहीं। इसलिये मात्र पुण्यबन्ध हुआ, देवलोक हुआ। शुभभाव आये तो पुण्यबन्ध होता है, तो देवलोक होता है। परन्तु परिभ्रमण छूटता नहीं।


PDF/HTML Page 1535 of 1906
single page version

पुण्यभाव है, बीचमें पुण्यभाव आता है, परन्तु वह आत्माका स्वरूप नहीं है, ऐसे श्रद्धा बराबर करनी चाहिये। फिर देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आवे, शुभभाव आवे परन्तु मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसी श्रद्धा अंतरमें होनी चाहिये।

जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है, वैसा मेरा स्वरूप है। वैसा मैं चैतन्य आत्मा हूँ। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा चैतन्यका स्वरूप है। ऐसे पहचान करनी चाहिये। उसकी पहचान करे, उसमेें लीनता करे तो मुक्तिका मार्ग प्रगट हो। अंतरमें आत्माकी स्वानुभूति हो। और वह स्वानुभूति बढते-बढते फिर मुनिदशा आती है। ऐसे ही त्याग कर दे, मुनि हो जाय, सब करे, ऐसी क्रियाएँ अनन्त बार की, लेकिन भवका अभाव नहीं होता। भवका अभाव आत्माको पहचाने तो ही होता है।

... सब किया, लेकिन सम्यग्दर्शन कोई अपूर्व है। सम्यग्दर्शन हो, अंतरमें स्वानुभूति हो, आत्माका अनुभव हो, आत्माके आनन्दका वेदन हो। जैसा सिद्ध भगवानके आत्माका स्वरूप है, वैसा आंशिक वेदन सम्यग्दृष्टिको गृहस्थाश्रममें होता है। परन्तु वह अंतर- से न्यारा हो और अन्दर-से विरक्त हो, आत्माको पहचाने तो हो।

मुमुक्षुः- इतनी-इतनी महेनत करते हैं..

समाधानः- महेनत तो अंतरमें स्वयंको करनी पडती है। अंतरमें स्वयं विभाव- से भिन्न पडे, बाहरकी एकत्वबुद्धि टूटे, बाहरका रस टूट जाय, अंतरमें ही लगन लगे तो हो। बाहर जहाँ-तहाँ एकत्वबुद्धि और बाहरमें सब सर्वस्व मान ले, बाहर कैसे अच्छा हो? शरीरका कैसे अच्छा हो? कुटुम्बका, यह-वह, सबमें एकत्वबुद्धि है। एकत्वबुद्धि टूटे, अंतरमें वीतराग... बाहरसे सब छूट नहीं जाता, परन्तु अंतरमें-से वह न्यारा हो जाता है। रस कम हो जाय।

तप, सच्चा तप तो अंतरमें आत्माका सच्चा स्वरूप है, उसे पहचाने। आत्मा जाननेवाला है उसे पहचानकर अन्दर तीक्ष्णता (करे), अन्दर लीनता और तीक्ष्णता करे तो वह तप होता है। और उसके साथ शुभभाव आवे, इसलिये मैं यह त्याग करुँ, आहार छोडूँ, ऐसा विकल्प आये, उस शुभभाव-से पुण्यबन्ध होता है। परन्तु अंतरमें स्वानुभूति होकर अंतरमें आत्माको पहचाने और आत्माकी अन्दर उग्रता हो, आत्माका स्वरूप समझमें आये और अन्दरमें लीनता हो तो वह सच्चा तप अंतरमें होता है। बाहर- से मात्र आहार छोड दे और विकल्प तो कहाँ-कहाँ भटकते हो। तो वह सच्चा तप नहीं होता है। शुभभाव, अच्छे भाव करे तो पुण्यबन्ध होता है। तो अच्छा भव मिले।

... तप किया था, वे अंतरमें ऊतर गये। आत्माकी स्वानुभूतिपूर्वक। फिर आहारका विकल्प भी नहीं आता है। आत्माके आनन्दमें ऐसे रहते हैं कि उन्हें विकल्प भी नहीं आता है। विस्मृत हो जाता है। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। आहारका भी


PDF/HTML Page 1536 of 1906
single page version

विकल्प नहीं आता है। आत्माके आनन्दमें रहे, वह सच्चा तप कहनेमें आता है। बाकी अन्दर जबरजस्ती करता रहे, क्रिया छोडता रहे तो वह तो मात्र बाहरका तप होता है। सच्चा तप नहीं होता है। ऐसे समझना चाहिये कि सच्चा तप अंतरमें है।

भगवानने जो तप किया वह, आत्माके आनन्दमें (रहकर किया)। विकल्प भी नहीं आता। शरीर भिन्न और आत्मा भिन्न। उन्हें ख्याल भी नहीं है, इस तरह आत्मामें ऊतर जाते हैं। उसका नाम अंतरमें समरस प्रगट हुआ, उसका नाम सामायिक। सब अंतरमें होता है। बाहर-से क्रिया करके बैठे और मन बाहर भटकता हो तो वह सच्ची सामायिक नहीं होती।

सामायिक तो अंतरमें भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने और अंतरमें स्थिर हो तो सच्ची सामायिक होती है। .. परिणाम हो उस पर पडता है। मन कहीं दूसरेमें भटकता हो, तो उस सामायिकका फल नहीं आता। जैसा भाव हो वैसा बन्धन होता है। परन्तु उससे भिन्न आत्माको पहचाने तो उसे मोक्ष होता है। मनुष्यभव मुश्किलसे मिले, उसमें आत्माको पहचाने तो सफल है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!