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मुमुक्षुः- वचनामृत बोल-४०१में विभावभावमें परदेसत्वकी अनुभूति व्यक्त की है और अनन्त गुण-परिवार हमारा स्वदेश है, उस और हम जा रहे हैं। इस प्रकार एक ही द्रव्यमें एक स्थान-से दूसरे स्थानकी गतिक्रिया, भिन्न-भिन्न अनुभव हो, ऐसा अनुभव किस तरह होता है?
समाधानः- वह तो एक भावनाकी बात है। विभाव मेरा देश नहीं है। द्रव्य पर दृष्टि है। चैतन्यदेश हमारा है। परन्तु अभी अधूरी पर्याय है। इसलिये यह विभाव हमारा देश नहीं है। इस देशमें हम कहाँ आ पडे? देश तो हमारा चैतन्य स्वदेश हमारा है। ये तो विभाव तो परदेश है, यहाँ कहाँ आ गये? वह सब तो विभाव-विभाव (है), यहाँ हमारा कोई नहीं है। हमारा सब हमारे स्वदेशमें हमारे गुण हैं वह हमारे हैं।
दृष्टि भले अखण्ड पर है, परन्तु उसके ज्ञानमें उसकी भावनामें आगे बढनेके लिये उसकी चारित्रकी पर्यायमें आगे बढनेके लिये अनेक जातकी भावना आती है। ये सब तो परदेश है, मेरा स्वदेश तो मेरे गुण हैं, वह मेरा स्वदेश है। स्वदेशकी ओर, हमारे पुरुषार्थकी गति उस तरफ हो। हमें इस विभावकी ओर नहीं जाना है। दृष्टि अपेक्षा- से तो भले स्वदेशको ग्रहण किया। परिणति अमुक प्रकार-से स्व तरफ गयी हो, परन्तु विशेष-विशेष हम स्वदेशमें जायें, हमारे पुरुषार्थकी गति स्वदेशमें जाय, ये विभाव हमारा देश नहीं है। ऐसा भावनामें आ सकता है।
साधकको सब जातकी भावना आती है। वहाँ दृष्टि रखे तो विभाव तरफ जाने- से वहाँ हमारा कोई दिखाई नहीं देता। चैतन्यके स्वदेशमें जाते हैं, वह सब हमारे हैं। ये सब तो विभाव है। विभाव परभाव हैं। ऐसा भावनामें आ सकता है।
मुमुक्षुः- तो वहाँ सब हमारा है, परिचित है, हमेशा रहनेवावले हैं, क्या लगता होगा?
समाधानः- स्वयंने जो स्वदेश देखा है, जो देखा है वह कह सकते हैं कि ये सब हमारे हैैं। ये गुण हमारे साथ रहनेवाले शाश्वत हैं, वह सब हमारे हैं। अनन्त गुणों-से भरपूर, जिसमें अनन्त शुद्धकी पर्याय-शुद्धात्माकी प्रगट होती हैं, जो अनन्त गुणों-
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से भरपूर ऐसा चैतन्यद्रव्य, उसकी स्वानुभूति होती है तो उसे ऐसा लगता है कि ये सब हमारे हैं। द्रव्य, अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि है, तो भी ये सब गुण उसके ज्ञानमें वर्तता है कि ये सब हमारा है, ये कोई हमारा नहीं है। उसकी भावनामें वह सब आता है।
दृष्टि, ज्ञान, चारित्र, अनेक प्रकारकी अपेक्षाएँ साध्य-साधक भावमें होती है। अनेकान्तमयी मूर्ति नित्यमेव प्रकाशताम। अनेकान्त स्वभाव है। एक तरफ-से देखो तो क्लेश-कालिमा दिखे। एक तरफ-से शुद्धात्मा दिखे, एक तरफ साधकदशा हो। अनेक जातकी पर्याय दिखे। अतः वह अनेकान्त स्वरूप है। अनेक अपेक्षाएँ साधक दशामेंं होती हैं। और पूर्ण हो तो भी उसमें अनन्त गुण और अनन्त पर्यायें,...
मुमुक्षुः- .. भेदज्ञान वर्तता है और संवेदनमें तो स्वभावके साथ अभेद ज्ञान होता है, तो भेदज्ञानकी व्यवस्था क्या?
समाधानः- विकल्प है वह तो अभ्यासरूप भेदज्ञान है और स्वानुभूतिमें भेदज्ञानका विकल्प नहीं है, निर्विकल्प दशा है। बीचकी साधकदशामें भेदज्ञानकी धारा, वह उसे सहज परिणतिरूप होती है। उसे विकल्परूप नहीं है। उसे, मैं भेदज्ञान करुँ, ऐसा नहीं है। परन्तु उसे सहज ज्ञायककी धारा और उदयकी धारा, दोनों भिन्न धारा साधकदशामें वर्तती है। उदयधारा और ज्ञानधारा-ज्ञायककी धारा। दोनों जातकी भेदज्ञानकी धारा उसे वर्तती ही है।
शास्त्रमें आता है कि भेदज्ञान तबतक अविच्छिन्न धारा-से भाना कि जबतक ज्ञान ज्ञानमें स्थिर न हो जाय। इसलिये अमुक अंशमें स्थिर न हो जाय और पूर्ण स्थिर न हो जाय, वीतराग दशा न हो तबतक भेदज्ञान अविच्छिन्न धारा-से भाना। उसमें त्रुटक न पडे ऐसा। ऐसी सहज भेदज्ञानकी धारा, सम्यग्दृष्टिको सहज भेदज्ञानकी धारा होती है। ज्ञायककी ज्ञायकधारा और विभावकी विभावधारा। अल्प अस्थिरता होती है वह विभावधारा है। और ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता है, वह विकल्परूप नहीं है, परन्तु सहज है। जैसे एकत्वबुद्धिकी धारा सहज अनादि कालसे चल रही है, उसमें उसे कुछ याद नहीं करना पडता या उसे धोखना नहीं पडता, एकत्वबुद्धिकी धारा (वर्तती है)। वैसे उसे भेदज्ञानकी धारा ऐसी सहज हो गयी है कि ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमता रहता है और विभाव विभावरूप। उसकी अल्प अस्थिरता है इसलिये विभावधारा और ज्ञायकधारा दोनों धारा रहती है। फिर वीतरागदशा होती है, तब दो धारा नहीं रहती। स्वानुभूतिमें दो धारा नहीं होती।
मुमुक्षुः- दोनों धारा भिन्न-भिन्न परिणमती है, वही भेदज्ञानका अस्तित्व..
समाधानः- वह भेदज्ञान है।
मुमुक्षुः- पर्यायमें द्रव्यत्व नहीं है और द्रव्यमें अर्थात ध्रुवमें पर्यायत्व नहीं है।
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तो पर्याय द्रव्यके साथ एकत्वका अनुभव कैसे करती है?
समाधानः- द्रव्यमें पर्याय नहीं है, पर्यायमें द्रव्य नहीं है। वह दृष्टिकी अपेक्षा- से कहनेमें आता है। द्रव्य पर दृष्टि करने-से दृष्टिके विषयमें एक द्रव्य आता है। बाकी सर्व अपेक्षा-से द्रव्यमें पर्याय नहीं है और पर्यायमें द्रव्य नहीं है, वह सर्व अपेक्षा- से नहीं है। पर्यायको द्रव्यका आश्रय है और द्रव्य पर्यायरूप परिणमता है। इस प्रकार दूसरी एक अपेक्षा है। सर्व अपेक्षा-से पर्याय द्रव्य नहीं है और द्रव्य पर्याय नहीं है, वह सर्व अपेक्षा-से नहीं है। पर्याय सर्वथा भिन्न हो तो पर्याय स्वयं द्रव्य बन जाय। सर्व अपेक्षा-से ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- यहाँ द्रव्य यानी ध्रुव भाव। यहाँ द्रव्य यानी ध्रुव भाव और पर्याय भाव। ऐसे दो भाव लेने हैं।
समाधानः- ध्रुव भाव तो वह अकेला ध्रुव नहीं है। ध्रुवको उत्पाद-व्ययकी अपेक्षा है। उत्पाद-व्यय बिनाका ध्रुव नहीं है। अकेला ध्रुव नहीं हो सकता। उत्पाद-व्ययकी अपेक्षावाला ध्रुव है। कोई अपेक्षा-से अंश भिन्न हैं, परन्तु एकदूसरेकी अपेक्षा रखते हैं।
मुमुक्षुः- पहले निरपेक्ष-से जानना चाहिये और फिर सापेक्षाता लगानी चाहिये अर्थात ध्रुव ध्रुव-से है और पर्याय-से नहीं है। अथवा पर्याय पर्याय-से है और ध्रुव- से नहीं है। इस प्रकार निरपेक्षता सिद्ध करके, फिर सापेक्षता अर्थात द्रव्यकी पर्याय है और पर्याय द्रव्यकी है, ऐसे लेना चाहिये? ऐसा समझनमें क्या दोष आता है?
समाधानः- पहले निरपेक्ष और फिर सापेक्ष। जो निरपेक्ष यथार्थ समझे उसे सापेक्ष यथार्थ होता है। उसमें पहले समझनेमें पहला-बादमें आता है, परन्तु यथार्थ प्रगट होता है, उसमें दोनों साथमें होते हैं। जो यथार्थ निरपेक्ष समझे, उसके साथ सापेक्ष होता ही है। अकेला निरपेक्ष पहले समझे और फिर सापेक्ष (समझे), वह तो व्यवहारकी एक रीत है। अनादि काल-से तूने स्वरूपकी ओर दृष्टि नहीं की है, इसलिये द्रव्यदृष्टि कर। ऐसे द्रव्यदृष्टि कर। पहले तू यथार्थ ज्ञान कर, ऐसा सब कहनेमें आता है।
इस प्रकार तू पहले निरपेक्ष द्रव्यको पहचान। निरपेक्ष पहचानके साथ सापेक्ष क्या है, वह उसके साथ आ ही जाता है। यदि अकेला निरपेक्ष आये तो वह निरपेक्ष यथार्थ नहीं होता।
मुमुक्षुः- अकेला निरपेक्ष है, वह एकान्त हो गया।
समाधानः- वह एकान्त हो जाता है।
मुमुक्षुः- आपका कहना यह है कि समझनेमें पहले निरपेक्ष और बादमें सापेक्ष, ऐसे समझनमें दो प्रकार पडते हैं। वास्तवमें तो दोनों साथ ही हैं।
समाधानः- वास्तवमें दोनों साथ हैं। समझनेमें (आगे-पीछे) होता है।
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मुमुक्षुः- जीवको रागके परिणामका परिचय है। ज्ञान अस्पष्टरूपसे ख्यालमें आता है। और वह भी परविषय हो, इस तरह। इस स्थितिमें आगे कैसे बढना? इस सम्बन्धित मार्गदर्शन देनेकी कृपा करें।
समाधानः- रागका परिचय अनादि-से है। ज्ञानका परिचय नहीं है। तो ज्ञानस्वरूप आत्माका परिचय ज्यादा करना। ज्ञान भले अस्पष्ट (मालूम पडे), अपनी दृष्टि बाहर है, इसलिये ज्ञात नहीं हो रहा है, परन्तु जो ज्ञात हो रहा है वह ज्ञान ही है। उस ज्ञानको विभाव-से भिन्न जानकर, अकेला ज्ञायक-ज्ञानको ग्रहण करना। ज्ञानको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। उसका परिचय करना, उसका बारंबार अभ्यास करना। उसका परिचय ज्यादा करने-से उसका स्वभाव समीप जाकर पहचानने-से वह प्रगट होता है। भले वह ज्ञान अस्पष्ट दिखाई दे या जैसा भी दिखाई दे, परन्तु वह चैतन्यका लक्षण है। इसलिये उस लक्षण-से लक्ष्यको पहचानना।
पर तरफ उसकी दृष्टि जाती है, इसलिये मानों ज्ञेय-से हो ऐसी भ्रमणा हो गयी है। तो उस भ्रमणाको छोडकर जो अकेला ज्ञान है, उस ज्ञानको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। ज्ञान भले अस्पष्ट मालूम पडे, परन्तु वह ज्ञान ही है। ऐसे ज्ञानको ग्रहण करनेका प्रयत्न करना और बार-बार प्रयत्न करना। उसका परिचय करना, उसका अभ्यास करना। जो रागका परिचय है, वह छोडकर ज्ञानका परिचय करना, ज्ञाताका परिचय करना। बार-बार उसका अभ्यास करना। वह उसका उपाय है।
मुमुक्षुः- ज्ञानपर्याय पर-से ज्ञानस्वभावका ख्याल कैसे आ जाता है?
समाधानः- पर्याय पर-से, दृष्टि तो द्रव्य पर करनी है, परन्तु पर्याय बीचमें आती है। पर्यायका आश्रय नहीं आता, परन्तु पर्याय आती है। पर्याय साथमें आती है। द्रव्यका विषय करना है, परन्तु वह विषय तो पर्याय करती है। पर्याय तो साथमें आती ही है। दृष्टिकी दिशा पलटती है। पर्याय इस ओर जाती है, उसकी दिशा पलटती है। उसका विषय द्रव्य पर जाता है। पर्याय तो बीचमें आती ही है।
मुमुक्षुः- पर्याय आती है वह बराबर, परन्तु पहले जैसे राग जाननेमें आता था, वैसे ज्ञानकी पर्याय जाननेमें आती है, फिर उसमें-से ज्ञानस्वभाव ज्ञात होता है या सीधा ज्ञानस्वभाव ज्ञात होता है।
समाधानः- ज्ञानकी पर्याय भले जाननेमें आये, परन्तु ज्ञानस्वभाव ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। पर्याय ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं करना। परन्तु ज्ञान ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। वह अंश जो दिखता है, उस अंशको ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं करना। ये जो क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें जो दिखता है वह मैं, ऐसा प्रयत्न नहीं करना, परन्तु वह जाननेवाला कौन है? ऐसी जाननेकी शक्ति धारण करनेवाला कौन है? उस द्रव्यको
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ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। जो क्षण-क्षणमें जान रहा है, जो क्षण-क्षणमें सबका ज्ञान कर रहा है, जो भाव चले गये उन भावोंका भी ज्ञान करनेवाला है, सबका ज्ञान करनेवाला है, ज्ञेयका करनेवाला शक्तिवान कौन है? उसे ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। यह जाना, वह जाना ऐसे पर्यायको ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं करके अखण्ड ज्ञान ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। पर्याय-से ग्रहण होता है, उसके लक्षण-से ग्रहण होता है। पर्याय बीचमें आती है। पर्याय पर दृष्टि छोडकर ज्ञान ग्रहण कर।
गुरुदेवने बहुत समझाया है और गुरुदेवका परम उपकार है। इस पंचम कालमें गुरुदेवका जन्म हुआ और सबको तारनेका गुरुदेवका महान निमित्तत्व था। उनकी वाणी कोई अपूर्व थी। उनकी वाणीके पीछे पूरा मुक्तिका मार्ग, आत्मा-अदभुत आत्मा दिखे ऐसी उनकी वाणी थी। सब उन्होेंने समझाया है। वस्तु स्थितिके चारों तरफके पहलू उन्होंने समझाये हैैं। आत्माकी स्वानुभूति कैसे हो? साधक दशा क्या? द्रव्यदृष्टि क्या? पर्याय क्या? गुण क्या? सब गुरुदेवने समझाया है।
समाधानः- ... ऐसा कैसा है? तत्त्वका स्वभाव कैसा है? यह सब विचारना चाहिये। ऐसा तत्त्वका विचार होना चाहिये, यह सब करना चाहिये। बारंबार-बारंबार, बारंबार-बारंबार इसका मनन, चिंतवन, आत्माके बिना उसको चैन न पडे, मैं आत्मा कैसे प्राप्त करुँ? विभावमेंं रस नहीं लगे और चैतन्य स्वभावमें रस होना चाहिये। ऐसी अंतरमें-से तैयारी होनी चाहिये। ऐसी पात्रता होनी चाहिये। तब वह स्वभाव तरफ जा सकता है।
अनादि काल-से विभावमें एकत्वबुद्धि हो रही है। उसमें सबकुछ माना है और बाह्य क्रियामें धर्म मान लिया है। और शुभभाव-से तो पुण्यबन्ध होता है, स्वर्ग होता है। आत्म स्वरूप, शुद्धात्माकी पर्याय तो नहीं होती। स्वानुभूति नहीं होती। शुभभाव- से तो पुण्यबन्ध होता है। उससे मेरा स्वभाव तो शुभभाव-से भी भिन्न है। शुभभाव बीचमें आता है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा सब आता है। परन्तु शुभ परिणाम अपना स्वभाव नहीं है। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये। ऐसी श्रद्धा, उसका चिंतवन, मनन निरंतर ऐसा होना चाहिये। तो आत्माकी प्राप्ति हो सकती है। मैं उससे भिन्न हूँ। मैं भिन्न हूँ, ऐसा भीतरमें-से होना चाहिये। पहले तो वह विचार करता है, परन्तु ऐसा भीतरमें- से होना चाहिये। स्वभावमें-से आत्माको ग्रहण करना चाहिये। प्रज्ञा-से ग्रहण करना चाहिये और प्रज्ञा-से भिन्न करना चाहिये। ऐसा होने-से उसको निर्विकल्प स्वानुभूति हो सकती है। बारंबार उसका मनन, मैं न्यारा चैतन्य हूँ, शरीर भी मैं नहीं हूँ, विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। भिन्न आत्माको पहचानना चाहिये।
मुमुक्षुः- ये सब तो विकल्पमें जायगा। ये तो विकल्पमेंं आयगा।
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समाधानः- विकल्पमें आयगा, लेकिन भीतरमें-से परिणति तो हुयी नहीं है। विकल्प तो बीचमें आता है। परन्तु ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये कि भीतरमें-से मेरा स्वभाव कैसे प्रगट होवे? ऐसी भावना होनी चाहिये। विकल्प तो बीचमें आता है। विकल्प-से होता नहीं है। विकल्प-से कुछ होता नहीं है, वह तो बीचमें आता है। परन्तु भीतरमें- से ऐसी परिणति प्रगट करनी चाहिये। परिणतिका प्रयास करना चाहिये। ऐसे विकल्प तो आते हैं। विकल्प-से होता (नहीं)। विकल्प तो है, तो क्या करना? भीतरमें तो गया नहीं है। तो विकल्प तो बीचमें आता है। विकल्प-से मैं भिन्न हूँ, ऐसी श्रद्धा करनी चाहिये। मैं भिन्न हूँ, ये भी विकल्प होता है। मेरा स्वभाव भिन्न है, ये भी विकल्प होता है। ऐसा जान लेता है कि मैं भिन्न हूँ। ऐसे भिन्न हो नहीं जाता है, विकल्प होता है। परन्तु यथार्थ भिन्नता तो ऐसी परिणति न्यारी होवे तब भिन्नता तो होती है। परिणति न्यारी हुए बिना भिन्नता हो सकती नहीं।
मैं अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य हूँ, अनादिअनन्त। ऐसा विकल्प नहीं, परन्तु ऐसी परिणति होनी चाहिये। बीचमें भावना करता है तो विकल्प तो आता है। परन्तु श्रद्धा उसकी ऐसी होनी चाहिये कि मेरी परिणति कैसे न्यारी होवे? परिणति न्यारी होवे तब भेदज्ञान होता है, तब निर्विकल्प दशा होती है। ऐसे तो नहीं होता, विकल्पमात्र-से तो नहीं होता।
पूछा न कैसा चिंतवन करना? चिंतवन तो बीचमें ऐसा आता है कि मैं चैतन्य द्रव्य हूँ। मेरा स्वभाव भिन्न है। उसकी लगन, महिमा सब भीतरमें-से होना चाहिये, तो हो सकता है। परिणति तो न्यारी होवे तब कार्य होता है। परिणति हुए बिना नहीं होता है। स्वभाव भीतरमें-से यथार्थ ग्रहण करे तब होता है। बाहर स्थूल विकल्प- से नहीं होता है। विकल्प-से तो होता ही नहीं। विकल्प-से निर्विकल्प दशा हो सकती नहीं। तो क्या करना? भावना करनी। विकल्प तो बीचमें आता है। परन्तु परिणति कैसे न्यारी होवे? अपने भीतरमें जाकर ऐसी श्रद्धा करना। भीतरमें जाकर ऐसी परिणति प्रगट करनेका प्रयास करना चाहिये।
मुमुक्षुः- निर्विकल्प दशा माने क्या? निर्विकल्प दशामें क्या होता है? विचारशून्य दशा होती है? या क्या होता है?
समाधानः- विचारशून्य नहीं होता है, शून्य दशा नहीं होती है। चैतन्यतत्त्व है, शून्यता नहीं होती। विचार शून्य हो जाय (ऐसा नहीं है)। चैतन्यतत्त्व है। चैतन्यका स्वानुभव होता है। अनन्त गुण-से भरा चैतन्य पदार्थ है, उसकी उसको स्वानुभूति होती है। उसका आनन्द होता है। ऐसे अनन्त गुण-से भरा चैतन्य पदार्थ है। जागृति होती है, शून्यता नहीं होती है। शून्यता नहीं होती, जागृति होती है।
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अनन्त काल-से जो नहीं हुआ ऐसा अनुपम तत्त्व, ऐसा अनुपम आनन्द और अनन्त गुण-से भरा चैतन्यद्रव्य, उसकी स्वानुभूति होती है। शून्यदशा नहीं होती है, जागृति होती है। विभावमें जो था, उससे उसका जीवन पलट जाता है। उसकी परिणति न्यारी हो जाती है। उसकी दशा कोई अदभुत हो जाती है। शून्यता नहीं होती। अपना चैतन्यका अस्तित्व ग्रहण करे, उसका भेदज्ञान करके भीतरमें जाय तो उसकी प्राप्ति होती है।
मुमुक्षुः- स्वानुभव तो पर्यायमें होता है। तो संपूर्ण आत्मा उस पर्यायमें आ जाता है? पर्याय तो एक समयकी है, तो संपूर्ण आत्मा उसमें कैसे आता है?
समाधानः- एक समयकी पर्याय है। परन्तु आत्मा तो अखण्ड है। एक पर्याय अंश है, वह पलट जाती है। आत्मा स्वयं अखण्ड है। वह अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है। एक पर्याय जो अंश है, उसमें पूरा अंशी नहीं आ जाता। पर्याय तो अंश है। स्वानुभूति होती है, स्वानुभूति पर्यायमें होती है, परन्तु उसमें द्रव्य अखण्ड है। पूरा द्रव्य पर्यायमें घूस जाता है, ऐसा नहीं है। पर्यायमें पूरा द्रव्य आ जाता है, ऐसा नहीं।
मुमुक्षुः- उसकी अनुभूति होती है? पर्यायमें अनुभूति होती है।
समाधानः- पर्यायकी अनुभूति होती है।
मुमुक्षुः- लेकिन समय तो बहुत ही कम रहता है। मालूम नहीं पडता होगा।
समाधानः- मालूम नहीं पडता है, ऐसा नहीं है। समय अंतर्मुहूर्त होता है। जिसकी दशा बदल जाती है, उसको वेदन-स्वानुभूति होती है। चैतन्यद्रव्य है, कोई दूसरी वस्तु नहीं है। स्वयं स्व ही है। स्वका अनुभव स्व करता है तो उसको ख्याल नहीं आता है, ऐसा नहीं होता। उसको ख्यालमें आता है, उसका वेदन होता है। पर्याय अंश है, वह अंश पलट जाता है, परन्तु द्रव्य तो शाश्वत रहता है। द्रव्य तो अनादिअनन्त शाश्वत है।
मुमुक्षुः- स्वानुभव होनेके पहले दशा किस प्रकारकी होती है?
समाधानः- उसके पहलेकी दशा तो वह भेदज्ञानका अभ्यास करता है। स्वानुभूतिके बाद भेदज्ञानकी सहज धारा रहती है। ज्ञायककी धारा, उदयधारा दोनों भिन्न रहती है। स्वानुभूतिके पहले वह अभ्यास करता है कि मैं चैतन्य भिन्न हूँ, मैं ज्ञायक हूँ। मैं अनादिअनन्त शाश्वत तत्त्व हूँ। ये पर्याय तो क्षण-क्षणमें बदलता हुआ अंश है। मैं अंशी अखण्ड हूँ। ऐसे उसकी दृष्टि द्रव्य पर रहती है। उसका-दृष्टिका विषय द्रव्य रहता है और ऐसा अभ्यास करता है। यथार्थ तो स्वानुभूतिके बाद होता है। स्वानुभूतिमें यथार्थ होता है। उसके पहले उसकी प्रतीत करता है, उसका अभ्यास करता है। बारंबार मैं चैतन्य हूँ, ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानधारा चलती है।
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समाधानः- ज्ञानधारा चलती है, लेकिन अभ्यासरूप चलती है। सहजरूप नहीं होती। उसको ज्ञानधारा कहनेमें नहीं आती है, क्योंकि अभ्यास है।
मुमुक्षुः- बुद्धिपूर्वक होता है।
समाधानः- बुद्धिपूर्वक, विकल्पपूर्वक होता है, सहज नहीं होता है। सहज नहीं होता है। एकत्वबुद्धि टूटी नहीं है, उसका अभ्यास करता है। इसलिये उसको यथार्थ कहनेमें नहीं आता, अभ्यास करता है।
मुमुक्षुः- आगे चलकर?
समाधानः- आगे चलनेके बाद यथार्थ हो सकता है। यदि कारण यथार्थ होवे तो कार्य हो सकता है। उसका कारण जो भेदज्ञानका अभ्यास यथार्थ होवे तो कार्य आ सकता है। उसका उपाय भेदज्ञानका अभ्यास है।
मुमुक्षुः- भेदज्ञानका अभ्यास? समाधानः- अभ्यास करता है। मुमुक्षुः- पहले तो बुद्धिपूर्वकका ही रहेगा। समाधानः- बुद्धिपूर्वक। विभावसे भिन्न हूँ, शुभाशुभ भाव-से भी मेरा स्वभाव भिन्न है। बीचमें शुभभाव आता है। मैं उससे चैतन्य पदार्थ भिन्न हूँ। और अनादिअनन्त तत्त्व हूँ। गुणका भेद और पर्यायका भेद होता है, वह गुणभेद भी मेरे स्वभावमें नहीं है। विकल्प बीचमें आते हैं, मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, तो भी ऐसे गुणका टूकडा और भेद, मेरेमें ऐसा गुणभेद भी नहीं है। ऐसे अखण्ड दृष्टि द्रव्य पर स्थापित करता है। उसका अभ्यास करता है। यथार्थ बादमें होता है।