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समाधानः- ... आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है। विभावस्वभाव अपना नहीं है। उनसे भिन्न आत्मा है। उससे भेदज्ञान करना और आत्माको ग्रहण करना। ... आत्माका लक्षण पहचानकर उसकी श्रद्धा-प्रतीत और उसमें लीनता करना वही मुक्तिका मार्ग है। बाहरमें क्रिया और शुभभाव तो पुण्यबन्धका कारण है। बीचमें आता है तो पुण्यबन्ध होता है, भवका अभाव नहीं होता। देवलोक होता है। भवका अभाव तो शुद्धात्माको पीछानने-से होता है। शुद्धात्माकी श्रद्धा, उसका ज्ञान, उसमें लीनता और स्वानुभूति करने-से मुक्तिका मार्ग प्रगट होता है। जन्म-मरण टालनेका वही उपाय है।
जन्म-मरण करते-करते अनेक दुःख संसारमें (भोगे)। भीतरमें आत्माका स्वभाव ग्रहण करना चाहिये। वह करने लायक है। और सब तो तुच्छ है। सर्वस्व साररूप तो आत्मा ही है। वही कल्याणस्वरूप है, वही मंगलस्वरूप है। और जीवनमें सर्वस्व साररूप आत्म पदार्थ है। उसके लिये वांचन, विचार सब आत्माको पहचाननेके लिये करना चाहिये।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन कैसे करना?
समाधानः- वह भी भेदज्ञान करने-से होता है। जो देव-गुरु-शास्त्रने जो मार्ग बताया है, वह मार्ग ग्रहण करके आत्माको पहचानना। जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा अपना स्वरूप है। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्यायको पीछानता है, वह अपनेको पीछानता है। अपनेको पीछानता है, वह भगवानको पीछानता है। अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको पीछानना। मैं द्रव्य अनादिअनन्त शाश्वत हूँ। उसमें शुद्धता भरी है। अनन्त काल गया तो भी उसमें- मूल पदार्थमें अशुद्धता हुयी नहीं, पर्यायमें अशुद्धता है। इसलिये मेरा आत्मस्वभाव अनादिअनन्त शुद्ध है। इसमें अनन्त गुण हैं। उसकी पर्यायमें अशुद्धता है तो उसका भेदज्ञान करके और मैं शुद्धात्मा हूँ, उसकी दृष्टि-प्रतीत करके विभाव-से अलग होना। उसका भेदज्ञान करके शुद्धात्माकी पर्याय प्रगट करना। बारंबार उसकी लगन, महिमा लगाना। वही जीवनका कर्तव्य है।
आत्मा अनादिअनन्त शुद्ध है। उसमें कोई अशुद्धता भीतरमें नहीं आयी। पर्यायमें अशुद्धता हुयी है। जैसे पानी स्वभाव-से शीतल है। अग्निके निमित्त-से उसकी उष्णता
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पर्याय होती है। ऐसे आत्मा स्वभाव-से शीतल ही है। उसका ज्ञान करना, वही स्वानुभूतिका उपाय है। उसकी प्रतीत करना, ज्ञान करना, लीनता करना वही स्वानुभूति करनेका उपाय एक ही है।
स्वभावमें-से स्वभाव आता है, विभावमें-से स्वभाव नहीं आता है। सोनेमें-से सोनेके गहने बनते हैं और लोहेमें-से लोहोके गहने बनते हैं। ऐसे स्वभावमें-से स्वभावकी पर्याय होती है, विभावमें-से विभाव होता है। शुभभाव करे तो भी पुण्यबन्ध होता है, स्वभाव नहीं प्रगट होता। पुण्य तो बीचमें आता है। और स्वभावको ग्रहण करने-से स्वभावकी पर्याय (प्रगट होती है), शुद्धात्माको ग्रहण करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। वह ग्रहण करने योग्य है।
पहले नक्की करना कि अनादि काल-से अगृहित भी एकत्वबुद्धि है। गृहीत तो छोडना। सच्चे देव-गुरु-शास्त्र कैसे होनो चाहिये, यह नक्की करना चाहिये। जिनेन्द्र देव और गुरु जो यथार्थ आत्माकी साधना करते हैं और शास्त्रमें जो मार्ग बताया है, ऐसे देव-गुुरु-शास्त्र यथार्थ है, उसको ग्रहण करना चाहिये। उसका स्वरूप समझना। और उसमें जो विपरीत मान्यता है वह छोड देना। यह गृहीत मिथ्यात्व छूटनेका उपाय है।
ऐसा नक्की करना चाहिये कि सच्चे वीतरागी देव ही देव है। सच्चे आत्माकी साधना मुनिराज करते हैं वे गुरु हैं, शास्त्रमें जो स्वानुभूतिका मार्ग बताया वही शास्त्र यथार्थ है। उसको बराबर नक्की करना चाहिये। जिसको आत्माकी लगी, आत्माका कल्याण करना है, उसको गृहीत मिथ्यात्व छूट जाता है। आत्माका कल्याण करना है, भवभ्रमण- से छूटना है तो उसको गृहीत मिथ्यात्व छूट जाता है। भीतरमें जिसको अगृहीत भी छोडना है तो गृहीत तो छूट ही जाता है। अगृहीत अनादिका है वह छोडने लायक है। वह छूटे तब स्वानुभूति होती है।
सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करके उसका यथार्थ व्यवहार करना, वह तो स्थूल है। वह तो-गृहीत मिथ्यात्व तो-आसानी-से छूट जाता है। अगृहीत छूटना मुश्किल है। बाहर-से सच्चे देव-गुरु-शास्त्रको ग्रहण करना चाहिये। वह तो स्थूल है, वह छूटना तो (आसान है)। अनन्त कालमें जीवने वह भी छोडा है। अगृहीत नहीं छूटा है।
समाधानः- .. ग्रहण करनेकी रुचि लगे। उसकी लगन, उसकी महिमा, वस्तुका विचार होना चाहिये। मैं चैतन्यद्रव्य अनादिअनन्त हूँ। .. द्रव्य है, उसके गुण कैसे हैं, उसकी पर्याय कैसी है? ऐसा विचार, मंथन भीतरमें होना चाहिये। दिन और रात उसकी लगन लगनी चाहिये। बारंबार-बारंबार मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा स्वरूप नहीं है, मैं उससे भिन्न हूँ। ऐसा अभ्यास होना चाहिये। बारंबार क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें, क्षण-क्षणमें चैतन्यका अभ्यास होना चाहिये। सच्चा भेदज्ञान तो परिणतिरूप तो बादमें
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होता है, पहले उसका अभ्यास होता है। इसलिये इसका अभ्यास होना चाहिये।
मैं चैतन्य हूँ, ज्ञायक हूँ। ये सब विभाव है। मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। परिणति, अपनी विभाव परिणति चैतन्यकी पुरुषार्थकी कमजोरी-से होती है। लेकिन वह मेरा स्वरूप नहीं है। मैं चैतन्य अनादिअनन्त शुद्धात्मा हूँ। शुद्ध स्वरूपमें दृष्टि करने-से ज्ञान, उसकी लीनता करने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। इसके लिये बारंबार उसका अभ्यास करना चाहिये। बारंबार-बारंबार।
मुमुक्षुः- ... विचार या भावना.. ये कैसा पता लगे कि ... या मन्द रागका स्वरूप है? ये पता कैसे लगेगा?
समाधानः- मन्द राग, विकल्प मन्द होवे तो भी शुभभाव आकुलतारूप है। विशेष सूक्ष्म दृष्टि-से देखना चाहिये, उसका लक्षण पहचानना चाहिये कि ये विकल्पका लक्षण है, ज्ञानका लक्षण नहीं है। शुभभाव होवे तो भी आकुलतारूप है।
मुमुक्षुः- मैं तो.. विकल्प पकडमें नहीं आता है तो निर्विकल्प या ... ऐसा कुछ है? कैसे पता लगे? समझमें नहीं आता है कि विकल्प है या कोई राग है, ऐसा पकडमें नहीं आता। तब ... आनन्द या शान्तिका वेदन जो होता है, वह आत्मिक है या रागका है, ...
समाधानः- जिसको सच्चा निर्विकल्प होता है, वह ग्रहण कर लेता है कि यह निर्विकल्प है। उसको विकल्प टूट जाता है। विकल्प, शुभभाव भी टूटकर निर्विकल्प स्वभावमेें लीन हो जाता है। उसके आत्माका भेदज्ञान हो जाता है। उग्रपने पुरुषार्थ करके वह स्वरूपमें ऐसा लीन हो जाता है कि उसे बाहर विकल्पका ख्याल भी नहीं रहता। उपयोग बाहर-से हट जाता है और स्वरूपमें ऐसा लीन हो जाता है कि अपने स्वरूपमें अनन्त ज्ञान और आनन्दादि अनन्त गुणोंका वेदन स्वानुभूति हो जाती है, अपने आप उसे ख्यालमें आ जाता है। जैसा सिद्ध भगवानका स्वरूप है, ऐसा आंशिक रूपसे उसको वेदनमें आता है। उसका उग्रपने ज्ञान करने-से, उग्रपने निर्विकल्प स्वानुभूति हो जाती है। उसका आत्मा उसको जवाब दे देता है कि यह स्वानुभूति ही है, यह विकल्प नहीं है। उसको शंका भी नहीं रहती है। उसको भेद पड जाता है और स्वरूपमें लीन हो जाता है। बाहर उपयोग रहता ही नहीं।
कोई अपूर्व दुनियामें चला जाता है, चैतन्यकी दुनियामें चला जाता है, उसको ख्याल... उसका आत्मा नक्की कर देता है कि यह स्वानुभूति है और यही मोक्षका पंथ है। भीतरमें-से ऐसा निश्चय और वेदन हो जाता है। यह स्वानुभूति है, यथार्थ है। यह स्वानुभूति और भगवान कहते हैं, एक ही स्वरूप है, दूसरा नहीं है। ऐसा आत्मामें-से ऐसा जोर और ऐसी प्रतीति उसको आ जाती है।
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मुमुक्षुः- अनुभूति पूर्व उमंग, उल्लास, रोमांचित होना यह घटता है? या नहीं घटता है?
समाधानः- वह तो शुभभावका रोमांच आता है। पूर्वभूमिकामें गुणका भेद, मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ ऐसे भेद पर उसका लक्ष्य नहीं है। दृष्टि तो शाश्वत चैतन्य पर है। परन्तु भीतरमें जो रोमांच होता है, वह शुद्धात्माका रोमांच नहीं है। वह तो शुभभावका है। शुद्धात्माका रोमांच नहीं आता, वह तो अपने स्वरूपमें लीन हो जाता है। स्वानुभूतिमें तो भीतरमें-से अपूर्व आनन्द होता है। पहले-से धीरे-धीरे आनन्द आता जाय, बादमें विशेष आनन्द आवे, ऐसा नहीं है।
जिस क्षण वह स्वरूपमें लीन होता है, जिस क्षण विकल्प टूटता है, उसी क्षण आनन्द आता है। पहले रोमांच होता है वह रोमांच आत्माका नहीं है। वह रोमांच तो शुभभावका है। वह रोमांच आत्मा तरफका नहीं है। उल्लास आता है कि मैं भीतरमें जाता हूँ, वह शुभभावका है।
पहले आनन्दकी शुरूआत हो जाती है वह भीतरका नहीं है। जब विकल्प टूटता है, उसी क्षण आनन्द आता है। जिस क्षण विकल्प टूट गया और स्वरूपमें लीन हुआ, उपयोग स्वरूपमें जम गया तो उसी क्षण आनन्द आता है। पहले-से आनन्द शुरू हो जाता है, ऐसा नहीं होता। वह तो शुभभावका आनन्द है। और उल्लास आता है वह शुभभावका है, वह शुद्धात्माका नहीं है। उसी क्षण आनन्द आता है।
मुमुक्षुः- शान्ति और आनन्द... शीतलता और शान्तिका वेदन कुछ प्रदेशोंमें ...
समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं। सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। ऐसा होता है तो मनके द्वारा कहनेमें आता है। क्योंकि मनका निमित्त वहाँ होता है। परन्तु उसको आनन्द तो असंख्य प्रदेशमें खण्ड नहीं पडता। पूरे चैतन्यमें आनन्द होता है। उसको ऐसा ख्याल नहीं रहता कि इधर-से आनन्द आया, इधरस-से (आया)। वह तो अपने स्वरूपमें लीन हो जाता है। अखण्ड प्रदेशमें उसको आनन्द होता है। मनका निमित्त तो जो विकल्प टूटता है, मन इधर है इसलिये उसको ऐसा लगता है कि इधरसे आया या शुरूआत इधर-से हुयी। परन्तु अखण्ड आत्मामें आनन्द (आता) है।
द्रव्यमन है न, वह ऐसा निमित्त बनता है। विकल्प इधर-से उठता है तो विकल्प भी टूटता है, इसलिये उसको ऐसा लगता है कि इधर-से आया। उसका निमित्त है। बाकी असंख्य प्रदेशमें आनन्द आता है। जब अन्धकार होता है उसमें प्रकाश होता है तो यह अन्धकार जब टूटा तो उसी क्षण प्रकाश हुआ। जब प्रकाश हुआ, विकल्प टूटा उसी क्षण आनन्द आता है।
जबतक शुभभावना है, विकल्प मन्द है तबतक तो वह अन्धकार ही है। जब
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स्वरूपमें गया तो प्रकाश (हुआ)। प्रकाशका तो दृष्टान्त है, परन्तु वह प्रकाश कोई बाहरका प्रकाश नहीं है। वह तो चैतन्यस्वरूप है। काली जिरी होती है वह कडवी- कडवी होती है। शुभभावना आकुलता.. आकुलता.. आकुलता उसका भाव है। काली जिरी ऐसी होती है। जो शक्करका स्वभाव है वह पूरा मीठा है। विकल्प टूटता है उसी क्षण आनन्द आता है।
समाधानः- ... सर्वांग आनन्द। चैतन्य स्वरूपमें चैतन्यघनमें चला गया। चैतन्य स्वरूपमें चला गया। बाहर दृष्टि, बाह्य उपयोग छूट गया, अंतरमें उपयोग चला गया। अंतरमें स्वानुभूति असंख्य प्रदेशमें होती है। मनका द्वार कहनेमें आता है, परन्तु मन निमित्त है। बाकी पूरे प्रदेशमें (आनन्द आता है)।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- पहले नक्की करे। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान द्वारा नक्की करता है कि मैं यह आत्मा ही हूँ। ये विभाव है वह मैं नहीं हूँ। मैं आत्मा ही हूँ, ऐसा नक्की करता है। मैं आत्मा ही हूँ, ये सब मुझ-से भिन्न है। ऐसा निर्णय करके अंतरमें स्थिर होता है। जिस क्षण विकल्प टूटे, उसी क्षण स्वानुभूति होती है। दोनों एक ही क्षणमें हैं। पहले विकल्प टूटता-टूटता जाता है, बादमें स्वानुभूति होती है, ऐसा नहीं होत। सूक्ष्ममें सूक्ष्म विकल्प और ऊच्च-से उच्च विकल्प, वह विकल्प ही है। मन्द या तीव्र, वह सब विकल्प है। जिस क्षण वह टूटता है, उसी क्षण निर्विकल्प (होता है)। यहाँ निर्विकल्प होता है, उसी क्षण टूटता है। उसी क्षण आनन्द और उसी क्षण स्वानुभूति। सब साथमें ही है।
मुमुक्षुः- विकल्प टूटे तब एकका ध्यान रहता होगा न?
समाधानः- अकेला चैतन्य, अनन्त गुणसे भरा अकेला चैतन्य। ज्ञान अर्थात अकेला गुण नहीं, पूरा ज्ञायक।
मुमुक्षुः- उपयोग अंतरमें रखा तो एकका ही ध्यान रह जाता है न? राग छूट जाय तो।
समाधानः- राग छूट जाये तो अकेला ज्ञायक रहता है। ज्ञानस्वरूप आत्मा। समाधानः- ... दृष्टि पर तरफ है इसलिये विभाव दिखनेमें आता है। दृष्टि और उपयोग दोनों पर तरफ है, इसलिये विभाव दिखनेमें आता है। अनादि ऐसी विभावकी परिणति हो रही है। आत्मा तरफ दृष्टि नहीं है। अनादि काल-से दृष्टि हुयी नहीं। विभाव.. विभाव, विभावमें एकत्वबुद्धि (हो रही है)। विभाव मेरा और विभाव मैं हूँ, ऐसी एकत्वबुद्धि मिथ्या भ्रम हो रहा है। निर्मल है, निर्मल है तो भी देखनेमें नहीं आता। उसका स्वानुभव नहीं है। देखनेमें भी नहीं आता, प्रतीत भी नहीं है। कुछ नहीं है,
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इसलिये परपदार्थ तरफ दृष्टि, पर मैं, पर मेरा, ऐसी प्रतीत, ऐसा ज्ञान और ऐसा आचरण सब ऐसा हो रहा है। दृष्टि, ज्ञान और सब (विपरीत है)। दृष्टि विपरीत है इसलिये ज्ञान भी ऐसा हो गया और आचरण भी ऐसा हो गया। सब ऐसा अनादि काल- से विभाव हो रहा है। स्वभाव तरफ दृष्टि करे तो निर्मलता ही भरी है। निर्मलता तरफ दृष्टि नहीं देता।
जैसे स्फटिकके भीतरमें देखो तो निर्मल ही है। ऊपर-ऊपर सब लाल, काला दिखनेमें आता है। तो सब ऐसा देखनेमें आता है। भीतरमें निर्मलता भरी है। भीतरमें दृष्टि दे, मैं निर्मल स्वभावी अनादिअनन्त शाश्वत चैतन्य हूँ, द्रव्य शाश्वत है, उसमें कोई बिगाड नहीं होता है। विभाव परिणतिमें सब होता है, पर्यायमें होता है, द्रव्यमें तो होता ही नहीं है। ऐसी दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे तो शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। अनादि कालमें ऐसा किया ही नहीं।
मुमुक्षुः- सुननेमें तो उपयोग लगता है, पर अन्दरमें उपयोग लगता नहीं। विकल्प ही विकल्प (चलते हैं)।
समाधानः- किसमें उपयोग लगता है? बाहरमें?
मुमुक्षुः- सुननेमें।
समाधानः- सुननेमें उपयोग (लगता है)। भीतरमें अनादि काल-से दृष्टि नहीं दी। बाहरमें तो उपयोग स्थूल है तो स्थूल कर लेता है। परन्तु सूक्ष्म करनेमें उसको बहुत प्रयत्न लगता है। प्रयत्न करता नहीं, उसकी लगन नहीं है, महिमा नहीं है। उपयोग सूक्ष्म करे तो अपनी ओर दृष्टि जाती है। उपयोग सूक्ष्म करता नहीं है। स्थूल-स्थूल उपयोग बाहर भटकता है। अशुभमें-से शुभमें आता है। परन्तु शुद्धात्मा तरफ दृष्टि करनी है। वह सूक्ष्म दृष्टि करे तो अपना चैतन्यस्वरूप ग्रहण होता है, तो पकडमें आवे। दृष्टि बाहर ही बाहर रहती है। उपयोग सूक्ष्म, धीरा करके अंतर दृष्टि तो पकडमें आता है। सूक्ष्म दृष्टि करता नहीं।
मुमुक्षुः- सूक्ष्म दृष्टि करनेके लिये ...
समाधानः- सूक्ष्म दृष्टि करनेके लिये उसकी लगनी, महिमा, वह सर्व सुखरूप है, बाकी सब दुःखरूप है, दुःख लगे और अपनेमें सुखकी प्रतीति होवे कि भीतरमें ही सुख है, सर्वस्व भीतरमें है, बाहरमें कुछ नहीं है। ऐसी यदि प्रतीत करे, ऐसा निर्णय करे तो भीतरमें उपयोग जाता है, तो दृष्टि सूक्ष्म होती है।
बाहरमें अच्छा नहीं लगे, चैन नहीं पडे, ये सब मेरे स्वभाव-से विपरीत है, यह मेरा स्वभाव नहीं है। स्वभाव नहीं है इसलिये आकुलतारूप (है), आकुलताका वेदन होता है। सुख न लगे, धीरा होकर देखे तो सब आकुलतारूप है। निराकुल स्वरूप
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आत्मा यदि लगे, उसमें आनन्द लगे तो अपनी तरफ जाय। उसकी महिमा लगे। जगतमें सर्वस्व होवे तो मैं आत्मा ही हूँ। ऐसा अनुपम तत्त्व, जिसमें किसीक उपमा लागू नहीं होती। ऐसा अनुपम तत्त्व मैं हूँ। बाहरकी कोई वस्तु अनुपम नहीं है। महिमा नहीं आवे तो भीतरमें जाये कैसे? भले यथार्थ महिमा तो जिसकी परिणति यथार्थ हो, उसे यथार्थ महिमा होती है। परन्तु पहले उसका अभ्यास तो हो सकता है। अभ्यास करे कि मैं चैतन्य महिमावंत हूँ। ये कोई महिमावंत नहीं है। ऐसा पहले भी हो सकता है। ऐसा कारण तैयार होता है, बादमें कार्य आता है।
भेदज्ञानका अभ्यास करे, यथार्थ भेदज्ञान तो बादमें होता है, परन्तु पहले उसका प्रयास होता है। उसकी महिमा, लगन, उसका भेदज्ञानका अभ्यास होता है। क्षण-क्षणमें मैं चैतन्य ज्ञायक हूँ, ये सब मेरा नहीं है, मैं चैतन्य हूँ, मेरे चैतन्यमें सर्वस्व भरा है, ऐसा भेदज्ञानका अभ्यास पहले होता है। भेदज्ञान बादमें होता है, परन्तु पहले अभ्यास होता है। पहले महिमा, अभ्यास सब हो सकता है।
मुमुक्षुः- माताजी! विचार करने-से अभ्यास होता है?
समाधानः- विचार करे, विचारके साथ अंतरमें लगन होनी चाहिये। मात्र विचार- विचार नहीं, परन्तु चैतन्यकी लगन और चैतन्यकी महिमा लगे, महिमापूर्वक विचार करे तो आगे बढे। उसे जरूरत लगे कि करने योग्य तो बस, एक आत्मा ही है। जगतमें तो करने योग्य हो तो एक आत्माका स्वरूप ही प्राप्त करने योग्य है। ऐसी जरूरत लगनी चाहिये। तो जरूरत पूर्वक यदि विचार करे, यथार्थ समझन करे, उसकी जरूरत लगे तो वह विचार करे। तत्त्व विचार साधन है, परन्तु रुचिपूर्वक होना चाहिये।
प्रथम भूमिका विकट लगती है, परन्तु अपना स्वभाव है, वह तो सहज है। तो सहजपने प्रगट हो तो ज्ञायककी धारा सहज (हो जाती है)। फिर परिणति उसके स्वभाव तरफ ही, साधककी परिणति स्वभाव तरफ दौडती रहती है। उसका पुरुषार्थ उस ओर जाता है। अपना स्वभाव (है)।
प्रथम भूमिकामें अभ्यास करे तो उसे कठिन लगता है। बाकी तो अपना स्वभाव है इसलिये सहज है और सुगम है। जिसे स्वभाव प्रगट हो, उसे सहज धारा प्रगट हो जाती है। ज्ञायककी धारा, स्वानुभूति, उसकी पुरुषार्थकी धारा सहजपने, सुगमपने प्राप्त होती है। स्वभाव है इसलिये वह दुर्लभ नहीं है। दुर्लभ अनादि कालमें स्वयं पर तरफ गया है इसलिये उसे दुर्लभ हो गया है। परन्तु स्वभाव तरफ दृष्टि करे और स्वभाव तरफ प्रयास करे तो वह सुगम और सरल है। आचार्यदेव कहते हैं न, तू उग्रता- से छः महिने पुरुषार्थ कर। फिर यदि प्राप्त न हो (ऐसा नहीं है), उसे प्राप्त हुए बिना रहता ही नहीं। परन्तु स्वयं प्रयास नहीं करता है। प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!