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मुमुक्षुः- आपको आत्मानुभूति भी है, थोडा-सा आत्मानुभूति करनेका सरलतम रीति क्या है? हम पर दया करके (बताईये)।
समाधानः- पहले मैं आत्मा चैतन्यतत्त्व हूँ, विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। विभाव आकुलतास्वरूप है, उसमें कहीं सुख नहीं है। उसकी सुखबुद्धि टूटनी चाहिये। परमें लक्ष्य जाता है, परसे एकत्वबुद्धि होती, परमें कर्ताबुद्धि होती है, ये सब तोडकर आत्मामें ज्ञायकमें, मैं ज्ञायक ही हूँ, ज्ञायकमें ही सब है, सबकुछ ज्ञायकमें है, बाहरमें नहीं है, ऐसा भेदज्ञान करना।
इसलिये बारंबार मैं भिन्न हूँ, मैं चैतन्यतत्त्त्त्व हूँ, विभाव मैं नहीं हूँ। चैतन्यको लक्षणसे पहचान लेना कि ये चैतन्यलक्षण मेरा है, रागका लक्षण भिन्न है। उसका लक्षण भिन्न है। मैं निराकूल स्वभाव हूँ, ये आकुललक्षण है। उसको भिन्न-भिन्न करके चैतन्यमें दृष्टि करना। उसका क्षण-क्षणमें भेदज्ञान करना कि मैं चैतन्य अनादिअनन्त हूँ। चैतन्यको ग्रहण करना और पर तरफ-से दृष्टि उठा लेना। ऐसा बारंबार करना। ऐसी दृष्टि स्थिर न हो तो भी बारंबार उसको ग्रहण करना चाहिये कि मैं चैतन्य हूँ, मैं चैतन्य हूँ, ऐसा बारंबार भीतरमें-से भेदज्ञान करना चाहिये। तो विकल्प टूटते हैं और स्वानुभूति होती है।
पहले तो चैतन्यको ग्रहण करना चाहिये। उसे लक्षण-से पहचानना चाहिये। जन्म-
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मरण करते-करते बाहर क्रियामें रुक जाता है, कहाँ-कहाँ रुक जाता है। मुक्तिका मार्ग तो भीतरमें है और स्वानुभूति आनन्द आत्मामें-से प्रगट होता है, बाहर-से तो आता नहीं। इसलिये भीतरमें जाता है तो भीतरमें-से चैतन्यदेव प्रकाशमान होता है, वह बाहर- से नहीं होता है।
मुमुक्षुः- मातेश्वरी! ये वचनामृतमें आया है कि रुचि अनुयायी वीर्य है और हम सब इसीलिये यहाँ आये हैं और आते रहते हैं, फिर भी हमारा सही दिशामें ... क्यों नहीं चलती है?
समाधानः- यहाँ रुचि होती है, लेकिन पुरुषार्थ नहीं होता है। रुचि तो होती है, लेकिन उस जातका पुरुषार्थ होना चाहिये। पुरुषार्थ मन्द है। रुचि, आत्माकी रुचि करना। जो आत्मा है उसको पहचानना। उसके पीछे प्रयत्न, बारंबार प्रयत्न करना चाहिये। रुचिकी तीव्रता करनी चाहिये। कहीं चैन न पडे, मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, कहीं चैन न पडे, विभावमें चैन नहीं पडना चाहिये और भीतरमें चैतन्यमें बारंबार दृष्टि, उपयोग बारंबार उस तरफ जाना चाहिये। तो पुरुषार्थ करने-से प्रगट होता है।
जैसे स्फटिक निर्मल है, जल निर्मल है, वैसे आत्मा निर्मल ही है। पर तरफ दृष्टि, उपयोग जाता है तो उसमें मलिनता दिखनेमें आती है। भीतरमें तो मलिनता है नहीं, तो भीतरमें जो जाता है कि मैं शुद्ध हूँ, तो शुद्धात्मा तरफ जाने-से शुद्ध पर्याय प्रगट होती है। बाहरमें उपयोग देने-से अशुद्ध पर्याय प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- वचनामृतमें आया है कि ज्ञायकके लक्ष्य-से तमाम लौकिक कार्य करना। खाते-पीते, उठते-बैठते ज्ञायकका लक्ष्य करना। थोडा-सा स्पष्ट कीजिये।
समाधानः- खाते-पीते (हर वक्त) एक ज्ञायकका ही (लक्ष्य रखना)। उसमें एकत्व नहीं होना। मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ, यह पहले तो अभयासरूप-से होता है। यथार्थ परिणति ज्ञान होनेके बाद ज्ञानीको यथार्थ परिणति होती है। उसको खाते-पीते उसकी भेदज्ञानकी धारा रहती है, मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। पहले तो अभ्यास रहता है खाता- पीते कि मैं ज्ञायक हूँ। ये खानेका स्वभाव मेरा नहीं है, ये शरीर भी मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा तत्त्व नहीं है, मैं तो भिन्न तत्त्व हूँ। और विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। इसलिये खाते-पीते, चलते-फिरते, सोते सबमें मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा अभ्यास करना चाहिये।
ज्ञानीकी तो ऐसी सहज दशा रहती है। खाते-पीते, सोते, स्वप्नमें ज्ञायक हूँ, ऐसी ज्ञायककी परिणति-भेदज्ञानकी धारा उसको निरंतर चलती रहती है। उसमें त्रुट नहीं पडती। पहले तो उसका अभ्यास होता है कि मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। ऐसे रटन करने मात्र नहीं परन्तु भीतरमें ऐसी तैयारी होनी चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ।
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ज्ञानमें-ज्ञायकमें सब कुछ है, सर्वस्व ज्ञायकमें है, पर बाहरमें कुछ नहीं है। पहले तो अनुभूति होवे तब उसका वेदन होता है। पहले तो मैं ज्ञायक हूँ, उसका लक्षण पहचानना चाहिये कि जो ज्ञायक जाननेवाला है, वह मैं ही हूँ। ये जो ज्ञानलक्षण है, उसको धरनेवाला ज्ञायक है। ऐसे मूल तत्त्वको ग्रहण करना चाहिये। गुणके पीछे जो गुणी है, उस गुणीको ग्रहण करना चाहिये। मात्र गुण एक लक्षणको पीछानकर गुणीको लक्ष्यमें ले लेना चाहिये कि मैं ज्ञायक हूँ। ऐसे।
एक पर्यायमात्र या बाहरको जानता है इसलिये मैं जाननेवाला नहीं, मैं स्वतः ज्ञायक हूँ, स्वतःसिद्ध ज्ञायक हूँ। ऐसे स्वतःसिद्ध तत्त्वको ग्रहण कर लेना चाहिये। उसको कोई आलम्बन-से ज्ञायक है या जानता है इसलिये ज्ञायक है, ऐसा नहीं है। वह स्वतः जाननेवाला ज्ञायक वही मैं ज्ञायक हूँ।
शास्त्रमें आता है न कि जितना ज्ञानमात्र है उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तुझे सुख और अनुभव प्राप्त होगा। जितना ज्ञान है उतना तू है। जितना ज्ञायक- जो ज्ञानस्वरूप आत्मा है वही तू है। "इसमें सदा रतिवंत बन, इसमें सदा संतुष्ट रे।' उसमें प्रीति कर, उसमें रुचि कर, उसमें संतुष्ट हो, उसमें तुझे सुख-अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। ऐसे ज्ञानमात्र-ज्ञायकमात्र आत्मामें संतुष्ट हो। उसके लिये सब विचार, वांचन, ज्ञायकका अभ्यास करनेके लिये है। उसका द्रव्य, उसका गुण, उसकी पर्याय क्या है, वह सब यथार्थ समझमें लेना चाहिये।
मुमुक्षुः- इन्द्रिय ज्ञान आत्मानुभूतिमें किस प्रकार बाधक है, थोडा-सा स्पष्ट कीजिये।
समाधानः- इन्द्रिय ज्ञान तो भीतरमें आत्मानुभवमें साथमेें आता नहीं। अतीन्द्रिय ज्ञान जो ज्ञान-से ज्ञान परिणमता है, वह ज्ञानस्वरूप आत्मा है, वही आत्माका मूल स्वरूप है। मूल स्वरूपको ग्रहण करना चाहिये। बाहर रुकने-से, बाहर रुकने-से तो सब क्षयोपशम ज्ञान है। उसमें इन्द्रियोंका निमित्त होता है। बाहर उपयोग जाता है तो बाधक होता है, परन्तु भीतरमें जो उपयोग होवे, भीतरमें जो परिणति होवे तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है।
अपनी दृष्टिका दोष है कि दृष्टि बाहरमें जाती है, दृष्टि एकत्वबुद्धि करती है तो वह बाधक होती है, एकत्वबुद्धि करने-से। परन्तु अपने स्वरूपमें दृष्टि जाय और स्वरूपमें लीनता होती है तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। बाहर उपयोग होने-से इन्द्रिय ज्ञान रहता है। एकत्वबुद्धि होने-से वह बाधक होता है। एकत्वबुद्धि टूट जाय तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। उसमें लीनता होने-से वह आगे बढता है। पहले स्वानुभूति होती है, फिर उसमें लीनता बढते-बढते दशा बढती जाती है तो मुनिओंको तो क्षण-क्षणमें स्वरूप अनुभूति होती है। ऐसे अनुभूति बढते-बढते केवलज्ञान होता है। ऐसे स्वरूपमें
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लीनता करने-से अतीन्द्रिय ज्ञान बढते जाता है। अतीन्द्रियका अनुभव बढते जाता है। बाहर एकत्वबुद्धि होने-से इन्द्रिय ज्ञान रहता है, भीतरमें उपयोग जाय तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट होता है। एकत्वबुद्धिका दोष है।
मुमुक्षुः- बहिनश्री! ये एकत्वबुद्धि तो परपदाथा-से करना नहीं चाहते, फिर भी लेकिन फिर भी उस तरफलक्ष्य क्यों बार-बार जाता है?
समाधानः- करना नहीं चाहता है तो भी परिणति तो ऐसी अनादि-से हो रही है एकत्वबुद्धि। भावना नहीं है। एकत्वबुद्धि नहीं करना, नहीं करना (ऐसा होता है, लेकिन) भीतरमें हो रही है तो उसको तोड देना चाहिये। विचार करे, सूक्ष्म उपयोग करे, प्रज्ञाछैनी तैयार करके उसको तोड देना चाहिये।
जो विकल्पकी जाल चल रही है, उस विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि हो रही है। वह एकत्वबुद्धि तोड देनी चाहिये। इच्छा नहीं होवे तो तोड देना चाहिये। सच्ची भावना उसे कहनेमें आती है कि जो उसे तोडनेका प्रयत्न करे। उसको-एकत्वबुद्धि तोडनेका प्रयत्न करना चाहिये। स्वमें एकत्व और पर-से विभक्त। स्वमें एकत्वबुद्धि करना चैतन्यमें और पर-से विभक्त हो जाना। एकत्वबुद्धिका दोष है, मिथ्यात्व, भूल है वह वही है।
स्वमें एकत्वबुद्धि नहीं की और परमें एकत्वबुद्धि की, इस भूलके कारण सब भूल चलती है। सब परिणति विभाव तरफ जाती है। अपनी एकत्वबुद्धिुहुयी तो अतीन्द्रिय ज्ञान प्रगट हुआ, लीनता प्रगट हुयी, तो ज्ञान, दर्शन, चारित्र सबकी अपनी ओर परिणति हुयी। पर तरफ दृष्टि है तो दृष्टि भी मिथ्या, ज्ञान भी मिथ्या और चारित्र भी मिथ्या। और अपनी तरफ दृष्टि गयी तो ज्ञान सम्यक हुआ और चारित्र भी सम्यक हुआ। सब सम्यक हुआ।
सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सर्व गुणोंका अंश सम्यग्दर्शनमें प्रगट हो जाता है। स्वरूप अनुभवमें। और विभावमें है तो सब विभावकी परिणति है। .. बाहरमें मान लिया कि नौ तत्त्वका श्रद्धान करते हैं या छः द्रव्यका श्रद्धान करते हैं, उसमें सम्यग्दर्शन नहीं हो जाता है। वह तो विकल्प मात्र है। भूतार्थ नय-से चैतन्यको ग्रहण करता है तो सम्यग्दर्शन होता है, तो स्वानुभूति होती है। और भेद विकल्पमें रुकने-से कहीं सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता है। वह तो बीचमें आता है। गुणका भेद विचारमें आते हैं। उसमें रुक जाय तो स्वानुभूति नहीं होती है। विकल्प टूट जाय, उसमें लीनता होवे तब स्वानुभूति होती है। चैतन्यमें लीनता, चैतन्य तरफ दृष्टि (करे) तो स्वानुभूति होती है। ज्ञान सबका होता है। गुणका, पर्यायका, सब ज्ञानमें आता है।
समाधानः- यथार्थ भावना, लगनी और पुरुषार्थ हो तो प्रगट हुए बिना रहता ही नहीं। देर लगे, लेकिन उस तरफका प्रयत्न हो और वह ऐसे ही पुरुषार्थ चालू
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रखे तो प्रगट हुए बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- लगनी आदि करने जैसा है। ऐसा पुरुषार्थ हो तो प्राप्त हुए बिना रहता ही नहीं। क्षण-क्षणमें चैन पडे नहीं अन्दर आत्माके बिना, आत्माकी प्राप्ति बिना चैन पडे नहीं। दिन और रात ऐसी लगन लगे अंतरमें तो ऐसी चैतन्यकी धारा हो तो अंतरमें प्राप्त होता है। और तो उसे स्वानुभूति होती है। वह तो स्वयंको ही मालूम पडता है। स्वयं कहीं टिक नहीं सकता हो, बाहरके कोई प्रसंगोंमें कोई विकल्पोंमें उसे कहीं चैन पडे नहीं, आकुलता लगे-दुःख लगे। वह स्वयं ही स्वयंको ग्रहण कर सके कि अंतरमें ही जाने जैसा है, बाहर कहीं सुख नहीं है। मेरा चैतन्य ज्ञायक स्वभाव, वही ग्रहण करने जैसा है। ये सब आकुलतारूप है।
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- जानना-देखना नहीं होवे तो भी वह लक्षण-से निश्चय करे कि बाहरमें तो कहीं सुख है नहीं, आकुलता है। सुख तो चैतन्यतत्त्वमें है, बाहरमें तो नहीं है। ऐसा विचार करके नक्की करना, प्रतीत करना चाहिये कि आनन्द स्वभाव तो मेरा है। आनन्द-आनन्द, सुख-सुखकी इच्छा करता है, लेकिन बाहरमें सुख तो मिलता नहीं। विकल्पमें सूक्ष्म दृष्टि-से देखे तो आकुलता है। उसमें कहीं सुख नहीं है।
शुभ या अशुभ दोनों (भावमें) आकुलता ही है। सुख तो अंतरमें है। ऐसी प्रतीत करनी चाहिये। ज्ञायक स्वभाव आत्मामें आनन्द और ज्ञान भरा है, ऐसा लक्षण-से पहचानना चाहिये। दिखनेमें नहीं आता है तो भी विचार-से नक्की करना चाहिये। नक्की करके प्रयत्न करना चाहिये। देव-गुरु-शास्त्र बताते हैं कि तेरे आत्मामें सुख है, आनन्द है। ऐसा प्रगट करके अनन्त जीव मुक्तिको प्राप्त हुए हैं। आत्मा स्वानुभूति करता है, क्षण- क्षणमें आत्मामें लीन होता है। ऐसा जो देव-गुरु-शास्त्र बताते हैं, उनकी वाणीकी प्रतीत करना। और विचार करके अपने लक्षण-से नक्की करके प्रतीत करना चाहिये। परीक्षा करके नक्की करना चाहिये कि ज्ञायक आत्मामें ही सुख है, बाहरमें नहीं है। सुख अपने स्वभावमें है, बाहरमें-से आता नहीं। ज्ञायक जो जाननेवाला है उसमें निराकूलता है। ऐसा कोई आत्मामें आनन्द गुण है, स्वतंत्रपने। ऐसा लक्षण-से नक्की करना चाहिये। दिखनेमें नहीं आता, पहले कहीं स्वानुभूति नहीं होती, पहले तो प्रतीत होती है।
ज्ञानलक्षण जाननेमें आता है, आनन्द तो जाननेमें नहीं आता है, तो भी विचार करके नक्की करना चाहिये। महापुरुष जो कहते हैं, उनके वचन पर विश्वास करके, परीक्षा करके नक्की करना चाहिये। बादमें उसका पुरुषार्थ करना चाहिये। बाहरमें तो सब आकुलता है। विकल्पमें भी, विचार करे तो सब आकुलता है। थकावट है। विश्रांति
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तो है नहीं। विश्रांति और आनन्द आत्मामें है।
जो ज्ञानस्वभाव है, जो द्रव्य है वह अनन्त स्वभाव-से भरा हुआ है। ऐसा द्रव्यका स्वभाव पहचानना चाहिये। आनन्द कोई जडमें तो है नहीं। तो आनन्द-आनन्द जो भीतरमें उठता है, वह आनन्द कोई चैतन्यतत्त्वका है, कोई जड पदार्थका तो है नहीं। तो आनन्द अपने स्वभावमें है। क्योंकि स्वानुभूति पहले नहीं होती, उसकी प्रतीत पहले होती है। तो प्रतीत-ऐसा दृढ निश्चय करके अपनी ओर प्रयत्न करना। ऐसी प्रतीत यदि दृढ होवे तो प्रयत्न होता है। रुचि, प्रतीत दृढ होती है तो प्रयत्न अपनी तरफ जाता है। रुचि और प्रतीत दृढ नहीं होती तो प्रयत्न भी नहीं होता।
मुमुक्षुः- यहाँ .. ऐसा हुआ कि पहले वेदनमें ख्यालमें आना चाहिये कि मुझे जो बाहरमें वृत्ति जाती है वह आकुलतारूप है। तो यहाँ दुःख लगे और यहाँ-से कैसे हठे और कहाँ ढूँढे? कहाँ सुख मिलेगा? ऐसी प्रक्रिया शुरू-से ही होती है?
समाधानः- आकुलता तो वेदनमें आती है, परन्तु सुख कहाँ है, ये तो उसको स्वानुभूति नहीं होती है। ये दोनों साथमें होता है। स्वरूपको ग्रहण करे और परसे छूटता है। वास्तवमें तो स्वभावको ग्रहण करते ही विभाव-से छूट जाता है। परन्तु विचार करे, आकुलता लक्षण है, ऐसा विचार करे, ख्यालमें ले, लेकिन आनन्दकी स्वानुभूति नहीं है, इसलिये ख्यालमें नहीं आता। परन्तु विचार-से नक्की करता है कि आनन्द आत्मामें है, बाहरमें नहीं है। यथार्थ स्वभावको ग्रहण करे तब आकुलता छूटती है। स्वानुभूति होती है तो विभाव-से भेद हो जाता है। वास्तवमें तो ऐसा है। परन्तु पहले ऐसा क्रम पडता है। भावना, रुचि और नक्की करता है तो ऐसा नक्की करता है कि यह आकुलता है, मेरे आत्मामें सुख है।
वास्तविकपने तो अस्तिको ग्रहण करता है तो नास्तित्व हो जाता है। यथार्थपने अस्ति ग्रहण करे तो उसको ... परन्तु ये देखनेमें नहीं आता, क्या करना? आकुलता वेदनमें आती है कि ये तो आकुलता है। आकुलतामें सुख लगे तो उसमें सुख मान- मानकर उसमें अनन्त कालसे खडा है। यथार्थपने यदि तुझे दुःख लगे तो सुख तेरेमें है, तेरी ओर प्रतीत करके मुड जा कि सुख मेरेमें ही है। ऐसा नक्की करके स्वभाव तरफ मुडकर उसमें भेदज्ञान करके उसमें स्थिर हो जा। स्वभावकी अस्तिको ग्रहण कर ले। व्यवहार-से ऐसा क्रम आता है। बाकी स्वभावकी अस्ति ग्रहण करे तो नास्ति हो जाती है। द्रव्य ज्ञायक, अखण्ड ज्ञायकको ग्रहण करता है, द्रव्य पर दृष्टि करता है। वह अस्तिको ग्रहण करता है। गुणका भेद भी नहीं, वह द्रव्य पर दृष्टि करता है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करनेके लिये दृढ प्रतीति होनी चाहिये कि मेरेमें ही सुख है। वहाँ-से...
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समाधानः- दृढ प्रतीति होनी चाहिये। सुख मेरेमें ही है, सर्वस्व मेरेमें ही है, ऐसा नक्की करना चाहिये। जितना यह ज्ञान है, उसमें संतुष्ट हो, उसमें सुख मान, उसमें तृप्त हो। तो तुझे अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। दिखता है .. ज्ञानमें ही सब है। उसमें तृप्त हो, उसमें संतोष मान, उसकी प्रतीत कर, उसमें रुचि कर। तो तुझे अनुपम सुखकी प्राप्ति होगी। वास्तवमें निश्चयमें दोनों साथमें होते हैं, परन्तु उसका क्रम आता है।
मुमुक्षुः- बहुत .. आपने कहा, पहले प्रतीति कर, तो ही पुरुषार्थ शुरु होगा।
समाधानः- तो ही शुरु होगा।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ नहीं उठनेका कारण यह है कि दृढ प्रतीति उस प्रकारकी नहीं होती है।
समाधानः- प्रतीतिमें मन्दता रहती है, दृढता नहीं आती है। मुमुक्षुः- आत्माकी तीव्र जरूरत लगे। तीव्र जरूरत लगे तो अपनेआप.. समाधानः- पुरुषार्थ उस तरफ मुडता जाता है। रुचि अनुयायी वीर्य। प्रतीति दृढ हो तो प्रयत्न भी उस ओर चलता है। मुझे इसकी की जरूरत है, इसकी जरूरत नहीं है। ऐसा दृढ हो तो प्रयत्न भी उस ओर चलता है। जगतकी मुझे कोई जरूरत नहीं है। मेरी जरूरत आत्मामें ही है। प्रयोजन हो तो सब आत्माके साथ प्रयोजन है। मुझे आत्माका प्रयोजन है। और आत्माका महान साधन ऐसे देव-गुरु-शास्त्रका प्रयोजन बाहरमें, अंतरमें आत्माका प्रयोजन।