Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 250.

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ट्रेक-२५० (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- शून्य क्या? एक अंक तो हुआ ही नहीं है। फिर ऊपरके शून्य क्या है? सब शून्य व्यर्थ हैं। बिना एकके सब शून्य व्यर्थ है, उसका अर्थ क्या?

समाधानः- मूल एक तो सम्यग्दर्शन है। वह यदि हो तो ही यथार्थ है। शून्य अर्थात मात्र शून्य ही हुए। मूल जो वस्तु है उसकी पहचान नहीं की और अकेले शुभभाव किये, पुण्यबन्ध हुआ। आत्माका स्वभाव तो पहचानाच नहीं। इसलिये जो अंतरमें आत्माकी प्राप्ति होनी चाहिये वह तो होती नहीं। मात्र शून्य-ऊपरके शुभभावरूप शून्य किये। बिना एकके शून्य। बिना एकके शून्य किये तो उसे एक नहीं कहते, वह तो मात्र शून्य है। वह गिनतीमें नहीं आता।

एक हो तो उसके ऊपर शून्य लगाओ तो गिनतीमें आता है। बाकी अकेले शून्य गिनतीमें नहीं आते। वैसे शुभभाव किये, पुण्यबन्ध (हुआ), देवलोक हुआ। परन्तु आत्माकी पहचान, जो स्वानुभूति होनी चाहिये, वह आत्मा प्रगट नहीं हुआ तबतक सब शून्य हैं। आत्मा प्रगट हो तो ही वह यथार्थ है और तो ही मुक्ति होती है। आत्माकी पहचान बिना कहीं मुक्ति नहीं होती।

सम्यग्दर्शन होता है तो आंशिक मुक्ति होती है। फिर आगे बढे तो अन्दर चारित्र- लीनता बढती जाय। बाहर-से चारित्र आये ऐसा नहीं, अंतरमें लीनता बढती जाय तो वीतराग दशा और केवलज्ञान प्रगट होता है। बाहर-से त्याग किया, वैराग्य किया, परन्तु आत्माको पहचाना नहीं। आत्माको पहचाने बिना सब बिना एक अंकके शून्य जैसा है। मूलको पहचाना नहीं। वृक्षकी डाली, पत्ते सब इकट्ठा किया, परन्तु मूल जो है, उस मूलमें पानी नहीं डाला। तो वृक्ष पनपता नहीं।

मूल जो है, मूल चैतन्य स्वभाव-चैतन्य है उसे पहचानकर उसमें ज्ञान-वैराग्य प्रगट हो तो ही आत्मामें-से ज्ञान एवं चारित्र सब आत्मामें-से प्रगट होते हैं। बाहर-से प्रगट नहीं होता। अतः मूलको पहचाने बिना पानी पिलाना, उसमें वृक्ष पनपता नहीं। सब ऊपरके डाली-पत्ते ही हैं। डाली-पत्तेको पानी पीलाने-से वृक्ष नहीं होता, मूलको पीलाने- से होता है। बीज जो बोया, बीजको पानी पीलाने-से होता है। परन्तु बाहर ऊपर- से पानी पीलाये, सिर्फ पानी पीलाता रहे तो कहीं वृक्ष पनपता नहीं। अन्दर भेदज्ञान


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करे तो आत्मा ज्ञानस्वभाव (है)।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- हाँ। आनन्दादि सब आत्मामें-से प्रगट होता है। सम्यग्दर्शन हो इसलिये आत्माकी स्वानुभूति (होती है)। आत्माका ज्ञान, आत्माका आनन्द, आत्माके अनन्त गुणका वेदन जिसमें होता है। सुख, जो अनन्त सुख (प्रगट होता है), जगतके कोई पदार्थमें सुख नहीं है, ऐसा अनुपम सुख आत्मामें है। बाहरका सुख उसने कल्पितरूप- से माना है। वह तो आकुलता-से भरे हैं। अंतरका जो आत्माका सुख वह कोई अनुपम है। उसे कोई उपमा लागू नहीं पडता। ऐसा अनुपम सुख और आनन्द आत्मामें-से प्रगट होता है, वह सम्यग्दर्शनमें प्रगट होता है। वह बाहर-से नहीं आता।

मुमुक्षुः- भगवान-भगवान कहकर संबोधन करते थे। तो भगवान बनने-से पहले भगवान कहकर क्यों संबोधन करते होंगे?

समाधानः- भगवानस्वरूप ही आत्मा है। आत्मा अनादिअनन्त स्वभाव-शक्ति अपेक्षा- से भगवान ही है। प्रगट होता है अर्थात उसकी पर्याय प्रगट होती है। बाकी वस्तु अपेक्षा-से आत्मा भगवान ही है। भगवानका स्वभाव है। उसकी शक्तिका नाश नहीं हुआ है। अनन्त काल गया तो भी उसमें अनन्त शक्तियाँ, ज्ञानादि अनन्त गुण उसमें भरे हैं, उसका नाश नहीं हुआ है। इसलिये आत्मा भगवान है, उसे तू पहचान। तू स्वयं शक्ति अपेक्षा-से भगवान ही है, ऐसा गुरुदेव कहते थे।

उस भगवानको तू भूल गया है, उसे तू पहचान। उसमें तू जा, उसमें लीनता कर, उसकी श्रद्धा कर-प्रतीत कर, ज्ञान कर तो वह प्रगट होगा, ऐसा कहते थे। वह प्रगह होता है, वह प्रगट भगवान होता है। बाकी शक्ति अपेक्षा-से तू भगवान ही है।

मुमुक्षुः- बिना पढे, अनपढ आदमीको भी सम्यग्दर्शन हो सकता है?

समाधानः- उसमें कहीं बाहरकी पढाईकी आवश्यकता नहीं है या ज्यादा जाने या ज्यादा शास्त्रोंका अभ्यास करे या उसे ज्यादा पढाई हो तो हो, ऐसा कुछ नहीं है। मूल आत्माका स्वभाव पहचाने कि मैं ज्ञानस्वभाव ज्ञायक हूँ और ये सब मुझ- से भिन्न है। ऐसा भेदज्ञान करके आत्माको पहचाने, मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने तो उसमें पढाई कोई आवश्यकता नहीं है।

मूल वस्तु स्वभावको अंतरमें-से पहचानना चाहिये। उसकी रुचि, उसकी महिमा, उसकी लगन अंतरमें लगे और विभावमें कहीं चैन पडे नहीं, बाहरमें (चैन) पडे नहीं। ऐसी लगनी और महिमा यदि आत्मामें लगे तो अपने स्वभावको पहचानकर अंतरमें जाय तो उसे बाह्य पढाईकी आवश्यकता नहीं है।

शिवभूति मुनि कुछ नहीं जानते थे। गुरुने कहा, मारुष और मातुष। तो शब्द भूल


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गये कि गुरुने क्या कहा था? औरत दाल दो रही थी। मेरे गुरुने ये कहा था, छिलका अलग और दाल अलग। ऐसे मासतुष-ये छिलका भिन्न और अन्दर (दाल भिन्न है)।

ऐसे आत्मा भिन्न है और ये विभाव जो रागादि हैं, वह सब छिलके हैं। उससे मैं भिन्न हूँ। ऐसा गुरुने कहा था। इस प्रकार आशय ग्रहण कर लिया। गुरुने जो शब्द कहे थे वह भी विस्मृत हो गये। परन्तु आशय ग्रहण किया कि मेरे गुरुने भेदज्ञान करनेको कहा था। राग भिन्न और आत्मा भिन्न। इसप्रकार अंतरमें मैं आत्मा भिन्न हूँ और ये विभाव भिन्न है, सब भिन्न है। ऐसा करके अंतरमें भेदज्ञान करके अंतरमें सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति कर लीन हो गये, स्वानुभूति प्रगट की। और अंतरमें इतने लीन हो गये कि उसीमें लीन होने-से केवलज्ञान प्रगट कर लिया। उसमें पढाईकी आवश्यकता नहीं है। प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने उसमें पढाईकी आवश्यकता नहीं है।

भगवानका द्रव्य, भगवानके गुण। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय और मेरे द्रव्य-गुण- पर्याय। जैसे भगवानके द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, वैसे ही मेरे हैं। इस प्रकार भगवानको पहचाने, वह स्वयंको पहचाने। और स्वयंको पहचाने वह भगवानको पहचानता है। मूल प्रयोजनभूत तत्त्वको पहचाने तो उसमें सब आ जाता है। एकको पहचानने-से सब ज्ञात हो जाता है। बाहरका सब जानने जाय और एकको नहीं जानता है तो कुछ नहीं जाना। एक आत्माको पहचाने तो उसमें सब ज्ञात हो जाता है।

मुमुक्षुः- शुभका विश्वास छोड, माने क्या? शुभका विश्वास छोडना उसका अर्थ क्या?

समाधानः- शुभमें-से मुझे धर्म होगा। शुभमें-से मुझे कुछ लाभ होगा, ऐसी जो मान्यता है, वह विश्वास छोड दे। शुभ-से धर्म नहीं होता, शुभ बीचमें आता है। परन्तु शुद्धात्मा जो आत्मा है उससे धर्म होता है। धर्म अपने स्वभावमें रहा है, विभावमें धर्म नहीं है। धर्म स्वभावमें-से (प्रगट होता है)। जो वस्तु है, उसमें-से धर्म प्रगट होता है। शुभमें-से धर्म प्रगट नहीं होता, इसलिये उसका विश्वास छोड दे। बीचमें शुभभावना आती है।

अंतर आत्माकी जहाँ रुचि प्रगट हो, उसे देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति, महिमा आती है। जिनेन्द्र देव पर भक्ति, गुरु पर भक्ति, गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया, गुरुदेव पर भक्ति, शास्त्र पर भक्ति आती है। शुभभावना आती है। परन्तु मेरा स्वभाव शुद्धात्मा, उस शुद्धात्माका स्वभाव और ये शुभभाव दोनोें भिन्न-भिन्न वस्तु है। ऐसी उसे श्रद्धा और रुचि होनी चाहिये। उसका विश्वास, उसमें सर्वस्वता नहीं मानता। परन्तु वह बीचमें आता है। देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति, महिमा बीचमें आये बिना नहीं रहती।

सम्यग्दर्शन हो तो भी देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और भक्ति होती है। और रुचिवानको


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भी देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा होती है। मुनिराज होते हैं, छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। अंतर्मुहूर्तमें स्वानुभूति और अंतर्मुहूर्तमें बाहर (आते हैं), ऐसी दशा होती है। तो भी उन्हें शुभभावना (आती है)। अभी न्यूनता है तो देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा मुनिराजको भी होती है। परन्तु उस पर वे विश्वास नहीं करते हैं कि इसमें धर्म होता है। धर्म मेरे स्वभावमें, स्वानुभूतिमें धर्म रहा है, स्वभावमें धर्म रहा है। परन्तु शुभभाव तो... देव-गुरु-शास्त्र तो साथ ही रहते हैं। देव-गुरु-शास्त्रकी भावना उसे साथमें रहती है, परन्तु पुरुषार्थ स्वयं-से करता है।

मुनिराज कहते हैं, मैं आत्मामें जा रहा हूँ। मैं दीक्षा लेता हूँ। उसमें सब पधारना। पंच परमेष्ठी भगवंतों मैं आप सबको निमंत्रण देता हूँ। मैं पुरुषार्थ करुँ उसमें मेरे साथ रहना। ऐसी शुभभावना आती है। परन्तु वीतराग दशाकी परिणति-से मुझे धर्म होता है, ऐसी मान्यता है। परन्तु भावना ऐसी आती है। उनकी लीनता, उनकी श्रद्धाकी परिणति तो विशेष है, मुनिराजकी। सम्यग्दर्शन है और स्वानुभूतिकी दशा क्षण-क्षणमें अंतर्मुहूर्तमें लीन होते हैं और अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं। तो भी शुभभावना ऐसी होती है।

मुमुक्षुः- सर्वज्ञकी स्थापना की है। जैनकुलमें जन्म लिया इसलिये सर्वको माने बिना भी नहीं चलता है। परन्तु सर्वज्ञको कैसे बिठाना, वही ख्यालमें नहीं आता है। आपने तो देखे हैं, तो कुछ..?

समाधानः- स्वयंको नक्की करना चाहिये। सर्वज्ञ तो जगतमें होते हैं। सर्वज्ञ स्वभाव आत्माका है। पूर्ण दशा जिसे प्रगट हो, उसे सर्वज्ञ-पूर्ण ज्ञान प्रगट हुए बिना नहीं रहता। पूर्ण साधना जो करे, ज्ञानस्वभावी आत्मा है। वह ज्ञान ऐसा है कि जो अनन्तको जाने। ज्ञानमें कहीं अपूर्णता नहीं होती कि इतना ही जाने और इतना न जाने, ऐसा तो नहीं होता।

यह ज्ञायक स्वभाव आत्मा पूर्णता-से भरा है। जिसे पूर्ण साधना प्रगट हुयी और पूर्ण कृतकृत्य दशा हो, उसकी ज्ञानदशा पूर्ण हो जाती है, उसमें कोई अल्पता नहीं रहती। एक समयमें लोकालोकको जाने, ऐसी साधना करते-करते ऐसी वीतराग दशा प्रगट हो, उसमें पूर्ण दशा प्रगट होती है कि जो सर्वज्ञता (है)। एक समयमें लोकालोकको जानते हैं। स्वयंको जानते हैं और अन्यको। अनन्त द्रव्यको, अनन्त आत्माको, अनन्त पुदगलको, उनका भूत-वर्तमान-भविष्य सबको एक समयमें सबको जाने, ऐसा ही ज्ञानका कोई अपूर्व अचिंत्य सामर्थ्य है।

ऐसी सर्वज्ञता जगतमें होती है और ऐसा सर्वज्ञ स्वभाव जिसे प्रगट हुआ है, ऐसे महाविदेह क्षेत्रमें तीर्थंकर भगवंत, केवली भगवान विचरते हैं। अभी इस पंचकालमें सर्वज्ञता देखनेमें नहीं आती। बाकी महाविदेह क्षेत्रमें साक्षात तीर्थंकर भगवान, सीमंधर भगवान


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आदि बीस भगवान और केवली भगवंत सर्वज्ञपने विचरते हैं। पूर्ण ज्ञान जिसे प्रगट होता है। मुनिदशामें जो पूर्ण साधना करते हैं, उन्हें केवलज्ञान प्रगट हुए बिना नहीं रहता। जिसकी साधना पूर्ण होती है, उसकी ज्ञानदशा भी पूर्ण हो जाती है।

आत्मा जब वीतराग होता है, तब पूर्ण स्वभाव प्रगट हो जाता है। अनन्त-अनन्त, जिसे कोई मर्यादा या सीमा नहीं होती। ऐसा अमर्यादित ज्ञान आत्मामें-से (प्रगट होता है) कि जो एक समयमें सब जान सकता है। स्वयंको जानता है और दूसरोंको भी जानता है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन प्रगट होने पूर्व तो सर्वज्ञको ओघे ओघे मानने जैसा लगता है।

समाधानः- ओघे ओघे अर्थात विचार-से जान सकता है। सम्यग्दर्शनमें तो वह यथार्थ प्रतीत करता है कि मैं सर्वज्ञ स्वभावी आत्मा ही हूँ और पूर्ण स्वभाव मेरे आत्माका है और वह प्रगट हो सकता है।

उसके पहले रुचिवाला भी विचार करके समझ सकता है। ओघे ओघे नहीं। जैसे आत्मा कोई अपूर्व वस्तु है। गुरुदेवने ऐसा मार्ग बताया। विचार-से ऐसा नक्की करता है कि आत्म स्वभाव कोई अलग है, सम्यग्दर्शन कोई अलग वस्तु है, ऐसे केवलज्ञानको भी वह विचार-से नक्की कर सकता है। ओघे ओघे नहीं, विचारसे, युक्तिसे, दलीलसे नक्की कर सकता है कि सर्वज्ञता जगतमें है।

मुमुक्षुः- विचार करने पर ऐसा बैठ सकता है?

समाधानः- हाँ, बैठ सकता है। शास्त्रमें दृष्टान्त आता है कि सर्वज्ञ नहीं है, ऐसा तू (किस आधार-से कहता है)? नहीं है, ऐसा कैसे नक्की किया? तुझे कोई सर्वज्ञता है? सर्वज्ञ है जगतमें।

सर्वज्ञ स्वभाव आत्माका है। जो ज्ञानस्वभावी आत्मा है, वह पूर्णको क्यों न जाने? जिसका स्वभाव ही जाननेका है, उसमें नहीं जानना आती ही नहीं। जो जाननेका स्वभाववान है, वह पूर्ण आराधना करे तो पूर्ण जानता है। उसमें नहीं जानता है, ऐसा आता ही नहीं। जो जाने वह पूर्ण जानता है। उसे सीमा, मर्यादा होती नहीं। सीमा नहीं होती, स्वभाव अमर्यादि है। जिसका जो स्वभाव हो, वह स्वभाव अमर्यादित होता है।

मुमुक्षुः- ... सर्वज्ञकी प्रतीत हो ऐसा है?

समाधानः- दर्शन करने-से प्रतीत हो वह अलग बात है। अभी सर्वज्ञके दर्शन, साक्षात दर्शन होना पंचकालमें मुश्किल है। जिनेन्द्र भगवानकी प्रतिमाका दर्शन है। साक्षात दर्शन, वह तो एक प्रतीतका कारण बने। परन्तु वह नहीं हो उस समय विचार, रुचिसे, विचारसे नक्की कर सकता है। भगवानके दर्शन, वह तो एक प्रतीतका कारण बनता है।

वह पुरुषार्थ करे तो भगवानका दर्शन तो कोई अपूर्व बात है। साक्षात सर्वज्ञदेव


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भगवानके दर्शन हो (अपूर्व है)। जो वीतराग हो गये हैं। जो जगत-से भिन्न, जिनकी ज्ञानदशा प्रगट हो गयी। वीतराग दशा, जिनकी मुद्रा अलग हो जाय, जिसकी .. अलग हो जाय, जिसकी वाणी अलग हो जाय, जो जगत-से अलग ही हैं। उनके दर्शन तो कोई अपूर्व वस्तु है। वह तो प्रतीतका कारण बनता है। वीतराग दशा, जो अंतर आत्मामें परिणमती है, जिन्हें बाहर देखनेका कुछ नहीं है। जिनकी मुद्रा अलग, जिनकी वाणी अभेद ॐ ध्वनि निकलती है। जिनकी चाल अलग हो जाती है। सबकुछ अलग। भगवान जगत-से न्यारे हो जाते हैं।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- राग हो इसलिये विचार आये। जो बनना होता है, वहाँ कोई उपाय नहीं है। जो बनना होता है वह बनता है। ऐसा हो कि ऐसा किया होता तो? ... परन्तु आयुष्य उस प्रकार पूर्ण होनेवाला था। उसमें किसीका उपाय कुछ काम नहीं आता। कोई चाहे जो करे। आयुष्य हो तो किसी भी प्रकार-से बच जाता है और यदि न हो तो किसीकी होशियारी कहीं काम नहीं आती।

मुमुक्षुः- यहाँ आकर बहुत समाधान हो गया।

समाधानः- (समाधान) किये बिना छूटकारा नहीं है। गुरुदेवने कहा है वही मार्ग ग्रहण करना। गुरुदेवने जो उपदेश दिया है, वही ग्रहण करने जैसा है। गुरुदेवने जो उपदेशकी जमावट की है, वह याद करने जैसा है।

समाधानः- ... ये जैनधर्म, जिनेन्द्र भगवानके .... इससे तो राजपदवी नहीं होती तो अच्छा था। .... भगवानका स्तोत्र आता है (उसमें आता है कि) जैनधर्मके बिना मैं जैनधर्म विहीन... जैनधर्म विहीन मेरा जीवन नहीं होता। धर्म तो मेरे हृदयमें हो। धर्म बिनाका जीवन तो ... जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्रकी भक्ति, भगवानके उत्सव, गुरुके उत्सव, शास्त्रका स्वाध्याय, वही जीवनका कर्तव्य है। और अन्दर आत्मा, आत्माका रटन, अध्यात्मकी बात, आत्माकी बातें, ऐसी अपूर्व बात, उसका स्मरण। वही जीवनका कर्तव्य है। सच्चा तो वह है।

बाकी सब बने, परन्तु वह सब भूलने जैसा है। अचानक बने इसलिये लगे, राग हो उतना, परन्तु भूलने जैसा है। राग हो इसलिये लगे। भाईको, बहनको सबको लगे, परन्तु बदलने जैसा है। शान्ति रखने जैसा है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- .. उसे कोई परिचय नहीं है, इसलिये अन्दर समाधान करनेकी शक्ति नहीं होती। गुरुका आश्रय और देवका आश्रय तो बडा आश्रय है। ... इसलिये अन्दर- से समाधान करनेका बल नहीं आया। ... कहाँ जाना? वहाँ कहीं सुख पडा है?


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वह गति ही है। कौन-सी गति मिलेगी और कहाँ जाना है? वहाँ सुख थोडा ही है। .. श्रद्धा हो तो अन्दर समाधान रहे। आत्मा जहाँ भी जाय, वहाँ आत्मा तो शाश्वत ही है। कर्म जो है, वह कहीं भी साथमें ही आनेवाला है। दूसरे भवमें जाय इसलिये यहाँ जो कर्मका उदय आया वह उदय यहाँ पूरा हो जायगा? कर्मका उदय तो साथमें ही रहनेवाला है। इसलिये कर्मका उदय यहाँ भोगना या दूसरे भवमें भोगना, सब समान है। अतः यहाँ शान्ति-से भोग लेना।

कहते हैं न? बन्ध समय जीव चेतीये, उदय समय शा उचाट? जिस समय तेरे परिणाममें बन्ध होता है, उस वक्त तू विचार करना कि यह परिणाम मुझे न हो। मुझे देव-गुरु-शास्त्रके परिणाम हो। उस वक्त तू विचार करना। परन्तु जब कर्मका उदय आता है, जब बाहरमें उसका संयोग आवे, फेरफार हो प्रतिकूलताका, तब तू बदल नहीं सकता। तब तो शान्ति और समाधानके अलावा कोई उपाय नहीं है। अब-से मुझे ऐसे परिणाम न हो उसका ध्यान रख। बाकी उदय आनेके बाद हाथमें कुछ नहीं रहता।

ऐसा जीवन होना चाहिये कि देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति एवं आराधना, आत्माकी आराधना कैसे हो, उसके साथ। आत्माकी आराधना। गुरुदेवने, शास्त्रमें जो कहा, उसे आराधना कहते हैं। ऐसा जीवन होना चाहिये। इस पंचमकालमें ऐसे गुरु मिले, ऐसा मार्ग मिले, ऐसा समझना (मिले), आत्माकी बात कोई समझता नहीं था, आत्माकी बात गुरुदेवने समझायी। गुरुदेवने भगवानकी पहचान करवायी। भगवानका स्वरूप वीतराग होता है आदि सब गुरुदेवने (समझया)। पुण्यके कारण ऐसा योग मिला। उसमें स्वयंको अपनी आत्म आराधना करने जैसी है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो!