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मुमुक्षुः- गुरुदेवको कोई बार प्रवचन देते समय मानोंकी निर्विकल्प दशा हो गयी हो, तो हम जो बाहर प्रवचनमें बैठे हों, उन्हें ख्याल आ सकता है?
समाधानः- आ सके और न भी आ सके, दोनों बात हैं। देखनेवाला चाहिये। अपनी वैसी दृष्टि हो तो मालूम पडे, नहीं तो नहीं।
मुमुक्षुः- ऐसे दिखाव पर-से तो ख्याल न आये न?
समाधानः- अपनी ऐसी देखनेकी शक्ति चाहिये न।
मुमुक्षुः- बाहरमें कुछ ख्याल आ सकता है?
समाधानः- जो देख सके वह देख सकता है, सब नहीं देख सकते। उसकी परीक्षक शक्ति होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- बीचमें थोडा समयका अंतर रहता होगा?
समाधानः- पडे, लेकिन बाहर पकडना मुश्किल पडे। एक आदमी कुछ काम करता हो, तो काम करते वक्त उसके विचारोंका परिणमन कहाँ चला जाता है। हाथकी क्रिया कहीं चलती है, तो बाहरका मनुष्य कहीं पकड नहीं सकता कि उसके विचारकी परिणति कहाँ जाती है। एक आदमी किसीके साथ बातचीत करता हो, धीरे-धीरे शान्ति- से करता हो, उसकी परिणति कहाँ जाती हो वह बाहरका मनुष्य पकड नहीं सकता। वह तो स्थूल विभावकी परिणतिमें भी ऐसा होता है। कोई काम करता हो, कुछ करता हो और उसके विचार कहीं चलते हैं और काम कुछ होता हो।
मुमुक्षुः- दृष्टान्त तो बराबर है। उस प्रकार वांचन करते-करते उनके परिणाम हो जाय तो ख्यालमें न आये।
समाधानः- ऐसी परिणति पकडनी मुश्किल है। योगकी क्रियामें कुछ दिखे तो मालूम पडे, नहीं तो पकडना मुश्किल पडे।
मुमुक्षुः- योगकी क्रियामें कुछ फर्क तो पडता होगा।
समाधानः- देखनेवालेकी दृष्टि पर (निर्भर करता) है।
मुमुक्षुः- माताजी! वाणीमें कुछ फेरफार होता है?
समाधानः- वाणीकी सन्धि चलती है।
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मुमुक्षुः- अत्यंत आश्चर्य हो ऐसी बात है। हमने तो आपसे सविकल्प दशाका वर्णन सुना तो ऐसा होता है कि अभी तक तो बाहरके राग-द्वेषके परिणाम-से ही माप निकालनेका प्रयत्न करते थे। जबकि ज्ञानीका परिणमन तो पूरा भिन्न है।
समाधानः- जगत-से भिन्न परिणमन है। कोई व्यक्तिके प्रश्न पूछनेके बजाय समुच्चय प्रश्न पूछना। छठवें-सातवें गुणस्थानमें मुनिराज अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें झुलते हैं। बाहर आये तो मुनिराजको सब सन्धि होती है। शास्त्र लिखते हों तो भी सन्धि तो ऐसे ही चलती है। अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें भी बहुत फेरफार होते हैं। कौन-सा अंतर्मुहूर्त, कैसा अंतर्मुहूर्त... ज्ञानीकी दशा क्षण-क्षणमें भेदज्ञानकी वर्तती है। ज्ञायकदशाकी परिणति पूरी भिन्न होती है।
मुमुक्षुः- मुनि महाराजको ऐसा विकल्प नहीं होता है कि मैं श्रेणि लगाऊँ। उनकी तीव्रता इतनी बढ गयी है कि सहज ही श्रेणि लगाते हैं।
समाधानः- विकल्प नहीं होता है, मैं श्रेणि लगाऊँ ऐसा विकल्प नहीं होता। उनकी परिणतिकी गति ही ऐसा हो जाती है कि बार-बार स्वरूपमें लीनता (हो जाती है)। अंतरमें लीनताके अलावा बाहर टिक नहीं सकते हैं। ऐसी तो दशा है कि अंतर्मुहूर्तसे ज्यादा तो बाहर नहीं सकते हैं। अंतर्मुहूर्त बाहर जाय उतनेमें अंतरमें परिणति पलट ही जाती है। उससे ज्यादा देर वे बाहर टिक नहीं पाते। परिणति उतनी अपने स्वरूपकी ओर चली गयी है कि अपनेमें इतनी लीन परिणति है कि बाहर टिक नहीं सकते।
ऐसा करते-करते उनकी परिणति इतनी जोरदार स्वरूप ओर जाती है कि उसमें- से उनको श्रेणि लगती है। ऐसा विकल्प नहीं करते हैं कि मैं श्रेणि लगाऊँ। स्वरूपमें इतनी लीनता बढ जाती है, निर्विकल्प दशामें इतनी लीनता हो जाती है कि उसमें- से उन्हें श्रेणि लग जाती है। वह अंतर्मुहूर्तकी दशा है। ऐसी दशा हो जाय कि विकल्प तो निर्विकल्प दशामें बुद्धिपूर्वक हो जाय, परन्तु उन्हें स्वरूप लीनताकी ऐसी जोरदार परिणति हो जाती है कि उसमेंसे श्रेणि लगाकर और वह लीनता ऐसी होती है कि फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसी क्षपक श्रेणि लगा दे तो अन्दर लीनता हुई सो हुई, सर्व विभावका क्षय हो जाता है। विभाव परिणतिका क्षय हो जाता है इसलिये कर्मका भी क्षय हो जाता है। और अंतरमें परिणति गई सो गई, फिर बाहर ही नहीं आते। ऐसी लीनता हो जाती है कि अंतर्मुहूर्त भी बाहर आ जाते थे, वे उतना भी बाहर टिक नहीं सकते। अन्दर ऐसी लीनता हो गयी। सादिअनन्त (काल) उसमें-ही टिक गये। उसमें टिक गये, परिणति टिक गयी तो सादिअनन्त आनन्द दशा प्रगट हुई। और ज्ञानकी निर्मलता हो गयी। ज्ञानकी परिणतिमें एक अंतर्मुहूर्तमें जाना जाता था, वह ज्ञान एक समयमें सब जान सके ऐसी परिणति, वीतराग दशा हुई इसलिये ज्ञान भी वैसा निर्मल हो गया।
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उसका स्वभाव जो है एक समयमेें जाने, ज्ञान दूसरेको जानने नहीं जाता, परन्तु अपनेमें ज्ञानकी परिणति स्व तरफ ही मुड गयी। स्वयं अपनेको जानते हुए पर सहज ही ज्ञात हो जाता है। पूर्ण लोकालोक और स्वयं आत्मा, आत्माके अनन्त गुण-पर्याय और दूसरेके स्वयंको जानते हुए सब ज्ञात हो जाता है। ऐसी सहज परिणति (हो जाती है)। विकल्प नहीं होता कि मैं श्रेणि लगाऊँ, केवलज्ञान नहीं हो रहा है। मुझे वीतराग दशा हो, मेरे स्वरूपमें लीनता करुँ, मुझे बाहर कहीं नहीं जाना है। विभाव परिणति सुहाती नहीं। इसलिये स्वरूपमें ऐसी लीनता हो गयी। आत्माके अलावा मुझे कहीं चैन नहीं है। आत्मामें उतनी लीनता हो गयी कि फिर बाहर ही नहीं आते। अन्दर गये सो गये, स्वरूपमें समाये सो समाये, बाहर ही नहीं आये। ऐसी परिणति होती है इसलिये वीतराग दशा और केवलज्ञानकी दशा प्रगट हो जाती है।
मुमुक्षुः- कोई भी दशाकी इच्छा नहीं करी, आत्मामें ही लीनता की।
समाधानः- कोई दशाकी इच्छा नहीं है। एक आत्माकी लीनता, आत्म स्वरूपमें स्थिर हो जाऊँ, स्वरूपके अलावा कहीं नहीं जाना है। विभावमें कहीं नहीं जाना है। एक स्वरूपमें ही रहूँ। परिणति ऐसी जम गयी कि उसमें केवलज्ञान हो गया।
सम्यग्दर्शनमें उसकी प्रतीति इतनी जोरदार है कि इसीमें लीनता करुँ। परन्तु वह लीनता अमुक प्रकार-से टिकती है और थोडा बाहर आते हैं। वह लीनताका जोर बढते-बढते उसकी भूमिका बढती है। और भूमिका बढते-बढते मुनिदशा आकर फिर श्रेणि लगाते हैं।
ज्ञायककी धारा, भेदज्ञानकी धारा सहजपने वर्तती है। उसमें उन्हें स्वरूपमें लीनता निर्विकल्प दशा होती है, ऐसा करते-करते उसकी भूमिका बढ जाती है। स्वरूपकी लीनता बढते-बढते उसकी भूमिका चौथेमें-से पाँचवी हो जाती है। लीनता बढती है इसलिये। उसके अनुकूल जो जातके शुभभाव होते हैं, वह भाव आते हैं। उसमें अमुक व्रतादिके आते हैं। ऐसा करते-करते लीनताकी-स्वरूपमें रहनेकी भूमिका बढती जाती है इसलिये छठवां-सातवां गुणस्थान और मुनिदशा हो जाती है। फिर ऐसी दशा हो जाती है कि अंतमुूर्हर्त-से ज्यादा बाहर टिक नहीं सकते हैैं। इसलिये मुनिदशा आती है। और मुनिदशामें रहते-रहते बाहर ही नहीं जाय ऐसी लीनता हो जाती है इसलिये श्रेणि लगाते हैं।
मुमुक्षुः- चतुर्थ गुणस्थान-से आखिर तक लीनताका एक ही पुरुषार्थ है।
समाधानः- बस, वह लीनताका पुरुषार्थ है। पहले सम्यग्दर्शनकी प्रतीति का बल होता है। उस प्रतीतिके बलपूर्वक लीनताकी परिणति होती है। लीनता अर्थात चारित्रकी दशा प्रगट होती है। सम्यग्दर्शनपूर्वक स्वरूपका आलम्बन है, प्रतीतमें स्वरूपका-द्रव्यका
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आलम्बन है। उस आलम्बनपूर्वक लीनताका जोर बढता जाता है।
मुमुक्षुः- अज्ञानीको भी ऐसा द्रव्यका जोर आता है, अज्ञान दशामें?
समाधानः- सम्यग्दृष्टिको जैसा जोर आता है, ऐसा जोर-द्रव्यका आलम्बन नहीं होता है। परन्तु उसकी भावनापूर्वक होता है। वह अभ्यास करता है।
जो सम्यग्दर्शनका जोर होता है वह तो यथार्थ है। उसे द्रव्यका आलम्बन बराबर होता है। अपने अस्तित्वको ग्रहण करके यथार्थपने जो आलम्बन लिया, भेदज्ञान होकर आलम्बन लिया, विभाव-से भिन्न पडकर मैं यह ज्ञायक हूँ, ऐसा आलम्बन यथार्थपने आ गया, उस आलम्बनका बल उसे अलग होता है। वह आलम्बन ऐसा होता है कि पूरा जगत डोल उठे तो भी उसका आलम्बन अन्दर-से टूटता नहीं। सदाके लिये वह आलम्बन टिका रहता है, ऐसी उसकी भेदज्ञानकी दशा हो जाती है।
(मुमुक्षुको) तो अभ्यासपूर्वक है। इसलिये ऐसा आलम्बन उसे नहीं होता। आलम्बनका अभ्यास करता है। आलम्बन ले, फिर छूट जाय, ऐसा सब होता है।
मुमुक्षुः- ये तो धारावाही और उत्तरोत्तर वृद्धिगत होता है।
समाधानः- वृद्धि पामता है, धारावाही आलम्बन है। जैसी विभावकी एकत्वबुद्धि (होती है), ऐसा जोरदार उसे छूटता ही नहीं। सदाके लिये ऐसा (रहता है)। उसे द्रव्यके आलम्बनका खण्ड नहीं है। ज्ञायककी परिणतिका खण्ड नहीं है। सब विकल्पमें, क्षण- क्षणमें, सब कायामें, जागते-सोते द्रव्यका आलम्बन सदाके लिये छूटता नहीं। ऐसा उसे सहज आलम्बन होता है। सहज प्रतीति, सहज आलम्बन, सहज ज्ञायककी धारा, चैतन्यकी महिमा उसे ऐसी सहज हो गयी कि उसे छूटता ही नहीं। चैतन्यके अलावा कुछ नहीं, बस, एक उसका ही आलम्बन दृढपने हुआ है। और उसमें लीनता बढता जाता है।
चैतन्य एक महा पदार्थ आत्मा कोई अपूर्व अनुपम है। वह उसे ग्रहण हो गया। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति हो गयी। वह सदाके लिये चालू ही है। जो च्यूत हो गये उसकी कोई बात नहीं है। जिसकी सहज धारा वर्तती है, जो आगे जानेवाला है, उसे सदाके लिये आलम्बन होता है। और वही उसकी दशा है। तो ही वह सम्यग्दृष्टिकी दशा है। भेदज्ञानकी धारा हो तो ही वह दशा है। और भेदज्ञानकी धाराके कारण, उसे स्वानुभूति भी उसी कारण-से होती है। भेदज्ञान ज्ञायककी धारा हो तो स्वानुभूति होती है। स्वानुभूतिकी दशा उसीमें प्रगट होती है।
मुमुक्षुः- समकितीको शरीर-से भिन्न, ऐसा तो धारावाही लगता ही होगा न?
समाधानः- सहज है। विकल्प-से भिन्न वह सहज है तो शरीर-से भिन्न तो उससे भी ज्यादा सहज है। शरीर तो स्थूल है। स्थूल शरीर-से भिन्न (लगता ही है)। विकल्प- से भिन्न, जो क्षण-क्षणमें विकल्प आते हैं, विकल्प और विभाव परिणतिकी धारा जो
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क्षण-क्षणमें होती रहती है, अन्दर जो एकके बाद एक विकल्पकी जाल चलती है, उससे क्षण-क्षणमें भिन्न, धारावाही रूप-से भिन्न रहता है तो उसमें शरीर-से भिन्न तो आ ही जाता है। शरीर-से भिन्नता वह तो एक स्थूल है। उससे भी ज्यादा सूक्ष्म विकल्प-से भिन्नता है।
मुमुक्षुः- मानों कोई दूसरा विकल्प कर रहा हो, उतना भिन्न लगता है?
समाधानः- विकल्प-से मेरा स्वभाव भिन्न है। पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है, परन्तु यह मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न भेदज्ञान, ज्ञाताकी परिणति वर्तती है।
मुमुक्षुः- स्वभावमें एकत्व है इसलिये..
समाधानः- स्वभावमें एकत्व है, विभाव-से विभक्त है। जो विभाव-से विभक्त हुआ, वह शरीर-से विभक्त हो ही गया है। द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म। भावकर्म- से भिन्न वर्तता है, वह द्रव्यकर्म, नोकर्म-से भिन्न ही वर्तता है। स्थूलता-से शरीर- से भिन्न, भिन्न ऐसा करे, और अन्दर-से भिन्न नहीं पडा तो वह वास्तविक भिन्न ही नहीं हुआ। कोई स्थूलता-से ऐसा कहे कि मैं शरीर-से भिन्न-भिन्न (हूँ)। परन्तु यदि विकल्प-से भिन्न नहीं परिणमता है तो शरीर-से भिन्न, वह मात्र अभ्यासरूप है।
मुमुक्षुः- तो चारित्रके दोषको अन्दर थोडा भी नहीं गिनना? समकित प्राप्त होनेमें श्रद्धानका ही दोष है?
समाधानः- सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेमें श्रद्धाका ही दोष है। चारित्रका दोष तो उसके साथ-श्रद्धान सम्बन्धित स्वरूपाचरण चारित्र है वह आ जाता है। परन्तु उसे चारित्रमें गिननेमें नहीं आता है। वह श्रद्धामें ही कहनेमें आता है। चारित्रका दोष श्रद्धाको नहीं रोकता। श्रद्धाको श्रद्धाका दोष ही रोकता है। अनन्तानुबन्धी जो कषाय है, उस कषायको श्रद्धाके साथ सम्बन्ध है। वह श्रद्धा जिसकी बदले, उसे अनन्तानुबन्धी कषाय टल ही जाता है। उसे श्रद्धाके साथ सम्बन्ध है। इसलिये अनन्त काल-से श्रद्धाका दोष है।
मुमुक्षुः- तो संयम और नीतिको बिलकूल बीचमें लाना ही नहीं?
समाधानः- जिसे आत्माकी रुचि लगे, जिसे आत्मा ही चाहिये दूसरा कुछ नहीं चाहिये, उसे नीति आदि सब होता ही है। अमुक पात्रता तो उसे होती है। जिसे श्रद्धा पलट जाती है उसे अमुक जातका श्रद्धाके साथ जिसे सम्बन्ध है, ऐसी पात्रता तो होती है। पात्रताके बिना नहीं होता।
मुमुक्षुः- अविनाभावी कहें तो उसमें क्या दिक्कत है?
समाधानः- अविनाभावी तो है, परन्तु वह अनन्तानुबन्धी कषायके साथ सम्बन्ध है। उसे अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानीके साथ सम्बन्ध नहीं है। अनन्तानुबन्धी कषायके साथ सम्बन्ध है। इसलिये अमुक जातकी उसे पात्रता होती है। उसकी रुचि जहाँ पलटती
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है, कि एक आत्मा ही चाहिये, जहाँ आत्मार्थीता होती है, एक आत्माका ही प्रयोजन है, उसके कषाय मन्द होते हैं। उसे विषय कषायोंकी लालसा टूट जाती है। एक आत्मा चाहिये, दूसरा कुछ नहीं चाहिये। ऐसी उसकी अंतर-से परिणति हो जाती है। उसका नीति, न्यायके साथ सम्बन्ध होता है।
मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन होनेके बाद नीति ज्यादा बढती है, ऐसा है?
समाधानः- नीतिका सम्यग्दर्शनके साथ जितना सम्बन्ध है उतनी होती है। व्यवहार- से अयोग्य हो ऐसी अनीति उसको नहीं होती। सम्यग्दर्शनके साथ भी नीतिका सम्बन्ध है। सम्यग्दर्शन होने पूर्व भी नीतिका सम्बन्ध होता है। सम्यग्दर्शन होनेका बाद कहीं अनीतिके कार्य करे ऐसा नहीं होता। सम्यग्दर्शन होनेके बाद चाहे जैसा आचरण करे तो कोई दोष नहीं है, ऐसा नहीं है। उसे चाहे जैसा आचरण होता ही नहीं।
जिसे स्वरूप मर्यादा हो गयी है, स्वरूप-से जो बाहर नहीं जाता है, स्वरूपको छोडकर विभावके साथ एकत्वबुद्धि नहीं करता है, जो स्वरूपकी मर्यादामें ही रहता है, अंतरमें उतनी मर्यादा आ गयी है, उसे स्वरूपाचरण चारित्र और भेदज्ञानकी धारा वर्तती है, ज्ञायककी धारा (वर्तती है), जो कर्ता नहीं होता, स्वरूपमें इतनी मर्यादा आ गयी, उसे बाहरकी मर्यादा, उसे विभावमें मर्यादा आ ही जाती है। जो स्वरूपमें- से बाहर नहीं जाता है, उसे अमुक मर्यादा होती है। तो उसे विभावकी, रागकी सबकी मर्यादा है। उसे नीतिके अमुक कार्य होते ही हैं। उसे सबमें मर्यादा आ जाती है।
जिसे अन्दरमें मर्यादा हो गयी, ज्ञायकको छोडकर कहीं जाता नहीं, ज्ञायककी धाराके अलावा उसकी परिणति कहीं एकत्व नहीं होती, तो उसके प्रत्येक कार्यमें मर्यादा होती है। मर्यादा रहित नहीं होता। उसकी भूमिकाके योग्य उसे सब होता ही है।
मुमुक्षुः- सिंहके भवमें महावीर भगवानको जो समकित प्राप्त हुआ, तो मुँहमें तो अभी मांस था।
समाधानः- वह छूट जाता है। फिर तो उसने छोड दिया। मुँहके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। अंतर-से परिणति पलट गयी और छूट गया, आहार-पानीका त्याग कर दिया है। जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ, वहाँ सिंहने आहारका त्याग कर दिया है। त्याग करके संथारा किया है और देवलोकमें गया है। उसने छोड दिया, आहार ही छोड दिया है। जहाँ सम्यग्दर्शन, स्वानुभूति हुयी, परिणति पलट गयी वहाँ आहार छोड दिया।
मुमुक्षुः- मेरा कहना ऐसा है कि जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है, उसके पहले हेय और उपादेयका विवेक करने जाय कि उसके पहले आत्माका स्वसंवेदन करनेका प्रयत्न करे?
समाधानः- जो स्वसंवेदन ओर मुडा उसमें हेय-उपादेय साथमें ही होता है। सब
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साथमें हो जाता है। सिंहके भवमें सब साथमें आ गया। परिणति एकदम नर्म हो गयी, अन्दर पात्रता प्रगट हो गयी, अरे..! ये मैं क्या कर रहा हूँ? ऐसा हो जाता है। अंतर स्वरूप ओर मुड जाता है। सब साथमें हो जाता है। अरे..! ये विभावदशामें मैं कहाँ आ गया? स्वभाव ओर परिणति पलट जाती है। सब साथमें (हो जाता है)।
यथार्थ पलटना कब कहा जाय? कि अन्दर भेदज्ञान हुआ तब। और उस यथार्थ पलटनेके साथ सबका अविनाभावी सम्बन्ध है। उसके पहले उसे पात्रताके अमुक भाव आते हैं, अरे..! ये मैं क्या कर रहा हूँ? ऐसा विकल्प आये। परन्तु यथार्थ प्रकार- से जब छूटता है तब एकसाथ छूट जाता है।
मुमुक्षुः- आपने कहा कि तीखा और उग्र पुरुषार्थ करना पडेगा। उसमें ज्यादा वांचन करना? ज्यादा सत्संग करना? ज्यादा ध्यान करना?
समाधानः- अंतर परिणतिका ज्यादा पुरुषार्थ करना। उसमें जहाँ उसकी रुचि लगे, उसे वांचनमें परिणतिको ज्यादा लाभदायी दिखे तो वांचनमें जुडे, विचारमें ज्यादा लाभ लगे तो उसमें जुडे, उसे सत्संगमें लाभ होता हो तो उसमें जुडे। उसे जहाँ लाभ होता हो वह करे। परन्तु अन्दर पुरुषार्थ, अन्दर ज्ञायककी उग्रता कैसे हो, ज्ञायकधाराकी और मैं कैसे मेरे चैतन्यकी ओर मेरी परिणति दृढ हो, मेरी प्रतीति दृढ हो, मैं चैतन्य ही हूँ, यह मैं नहीं हूँ, उसके पुरुषार्थका ध्येय एक ही है। उस ध्येयके साथ जहाँ-जहाँ उसके परिणामको ठीक पडे, जहाँ उसके परिणाम टिक सके और वृद्धि हो, ऐसे कायामें जुडे।
ध्यानमें उसे ठीक लगे तो ध्यानमें जुडे। परन्तु ध्यानके साथ यथार्थ ज्ञानके विचार, यथार्थ ज्ञानपूर्वक ध्यान होता है। अपने स्वभावको पहचाने विचार करके कि यह ज्ञायक है वही मैं हूँ। फिर उसमें एकाग्र होनेका प्रयत्न करे। वह एकाग्रता उसका ध्यान है। उसमें ध्यान-से उग्रता होती हो तो ध्यान करे। परन्तु वह ध्यान ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। बिना समझे ध्यान करे या विकल्प छोडे, कहाँ खडे रहना? अपना अस्तित्व ग्रहण किये बिना, समझ बिना ही ध्यान करे तो कोई लाभ नहीं है। समझकर ध्यान करे कि मैं यह चैतन्य हूँ और यह मैं नहीं हूँ। फिर उसमें एकाग्र होनेका तीखा पुरुषार्थ करे तो लाभ हो। लेकिन वह यथार्थ समझपूर्वक होना चाहिये।
एकाग्रताकी उग्रता करके विभाव-से भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। परन्तु उसको यथार्थ ज्ञान करनेके लिये विचारके साथ वांचन, सत्संग, यथार्थ ज्ञान करनेके लिये वह होता है। फिर एकाग्रता करनेके लिये वह ध्यान करे, परन्तु समझपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये।
मुमुक्षुः- जो वांचन करने-से, जो विचार करने-से आत्मा विभावसे, विभावके
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कायासे भिन्न नहीं हुआ वह वांचना, पढना मिथ्या है। तो हमारी समझके साथ-साथ हेय और उपादेयका विवेक क्यों प्रगट नहीं होता है? या हम सिर्फ दिखाव करनेके लिये यहाँ आते हैं या फिर आत्मप्राप्तिकी कुछ इच्छा नहीं हो रही है? भवभ्रमणका त्रास नहीं लगता है?
समाधानः- पुरुषार्थकी मन्दता है। मुमुक्षुः- आप ज्ञानी हों इसलिये आपके पास बैठते हैं। समाधानः- दिखानेके लिये नहीं परन्तु अपनी रुचिकी मन्दता है, पुरुषार्थकी मन्दता है। अन्दर उतनी लगी नहीं है कि यह छूटकर अन्दर जाना है। उतनी उग्रता नहीं है। उतनी उग्रता नहीं होती है तबतक विचार, वांचन, सत्संग करता रहे, परन्तु अंतरमें करना वही है। भेदज्ञानकी परिणति करना वह है, उसकी एकाग्रता करनी। चारित्रपूर्वकका ध्यान बादमें मुनिदशामें हो, परन्तु ये सम्यग्दर्शन सम्बन्धित ध्यान, या भेदज्ञान हो ऐसा ध्यान पहले होता है। परन्तु वह ध्यान ज्ञानपूर्वकका ध्यान होना चाहिये। यथार्थ ज्ञान हो तो वह ध्यान यथार्थ होता है। परन्तु उतनी स्वयंकी मन्दता है। विचार, वांचन, सत्संग करके बारंबार नक्की करे, उसे दृढ करे। जबतक न हो तबतक सत्संग, विचार, वांचन करता रहे। नहीं हो रहा है उसका कारण अपनी मन्दता है। दिखानेके लिये करता है ऐसा नहीं, परन्तु मन्दता है।