Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 269.

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ट्रेक-२६९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. जिसका अस्तित्व अनादिअनन्त है, वह त्रिकाल वस्तु है।

मुमुक्षुः- वही त्रिकाल वस्तु है?

समाधानः- वही त्रिकाल (वस्तु है)। जो जाननेवालेका अस्तित्व है, वह त्रिकाल वस्तु है। और वह जाननेमात्र नहीं, अनन्त शक्तिओं-से भरा है। असाधारण ज्ञान (गुण) है, इसलिये ज्ञान द्वारा ग्रहण होता है। वह जाननेवाला है अनन्त शक्तियों-से भरा है।

मुमुक्षुः- ... कभी आये तब बहुत आता है।

समाधानः- कोई बार उग्र हो जाय तो सहज ऐसा हो जाय। परन्तु है अभी अभ्यासरूप, सहजरूप नहीं है। कोई बार उसे प्रयत्न कर-करके भी कृत्रिमता-से (करता है), वह तो पुरुषार्थकी गति उस जातकी है न। हानि-वृद्धि, हानि-वृद्धि होती रहती है।

मुमुक्षुः- उस वक्त क्या करना? जब बहुत प्रयत्न करते हैं लानेका, उस वक्त नहीं होता हो तो?

समाधानः- समझना कि कुछ मन्दता है इसलिये (नहीं हो रहा है)। फिर-से भावना उग्र हो जाय तो सहज आवे।

मुमुक्षुः- न आये उस वक्त पढना या ऐसा कुछ करना?

समाधानः- हाँ, वह न आये तो एक जगह उपयोग स्थिर न हो तो वांचनमें उपयोग जोडना, विचारमें जोडना, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमामें, इस प्रकार अलग-अलग प्रकार-से उपयोगको जोडना। एक जातका कार्य अंतरमें न हो सके तो अनेक प्रकार- से उपयोगको शुभभावमें जोडे। परन्तु वह समझे कि यह शुभ है। तो भी जबतक अंतरमें शुद्धात्मा प्रगट नहीं हुआ है, तो उसे शुभभाव आये बिना नहीं रहते। इसलिये शुभके कायाको, शुभकी भावनाओंको बदलता रहे। परन्तु ध्येय एक (होना चाहिये कि) मुझे शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो? ध्येय तो एक होना चाहिये।

भेदज्ञान हो तो भी शुभभाव तो खडे रहते हैं। परन्तु वह समझता है कि य ह मैं नहीं हूँ। ऐसे भेदज्ञानकी धारा उसे सहज चलती है। एक ही जगह उपयोग टिक नहीं पाता, अतः उपयोगको बदलता रहे। पूरा दिन भेदज्ञान करता हो और कृत्रिम जैसा


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हो जाता हो तो वांचन करना, विचार करना। अनेक प्रकार-से उपयोगको बदलते रहना।

मुमुक्षुः- आपकी वाणी बहुत मीठी और सरल लगती है। इतनी सरल लगती है कि अन्दरमें सब समझमें आता है।

समाधानः- कोई बार उग्र हो, कोई बार धीरे हो, जिज्ञासुको ऐसा होता रहता है। ... बीचमें होता है। निमित्त-उपादानका ऐसा सम्बन्ध है। इसलिये जितना सत्समागम हो उस प्रकारका प्रयत्न करना। और अपनी तैयारी करनी। करनेका स्वयंको ही है। उसका स्वभाव है वह सहज है। परन्तु परिणतिको पलटना वह पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ और सहज, ऐसा है।

मुमुक्षुः- अभी तक गुरुदेवश्रीको सुनते थे, सब करते थे, परन्तु उसमें अपेक्षा ज्ञान, गुरुदेवका हृदय गांभीर्य क्या है, वह हमें बराबर समझमें नहीं आता था। इसलिये गुरुदेव बहुत अपेक्षाएँ लेतेे थे। परन्तु हम शब्दोंमें ही ले जाते थे और समझमें नहीं आता था। आपके प्रताप-से हमें थोडा समझमें आने लगा। महिमा भी आती है, लगता है कि अहो! यही सत्य है। ऐसा मार्ग है, पहले ... जैसे आपने कहा, जिसे लगी है उसीको लगी है, पिहू पिहू पुकारता है। उसके लिये वैसी उत्कंठा जागृत नहीं होती है, तो उसमें हमारी क्या भूल होती होगी? अथवा हमें किस प्रकार-से वैसा लगे, आप दर्शाईये।

समाधानः- अंतरमें उतनी पुरुषार्थकी मन्दता रहती है, बाहरमें अटक जाता है इसलिये। अंतरमें बस, यही करनेका है, सत्य यही है। स्वभावमें ही सुख है, सब स्वभावमें भरा है। बाहर कहीं नहीं है। उतनी अंतरमें रुचिकी तीव्रता नहीं है। इसलिये पुरुषार्थकी मन्दता है। रुचि है, परन्तु रुचिकी मन्दताके कारण, पुरुषार्थकी मन्दताके कारण वह तीव्रता नहीं हो रही है। तीव्रता हो तो पुरुषार्थ उत्पन्न हुए बिना रहे नहीं। मन्दता रहती है, अपनी ही मन्दता रहती है। उसका कारण अपना है, अन्य किसीका कारण नहीं है। अपनी रुचि मन्द है और अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। इसलिये उसमें रुक गया है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि सूक्ष्म उपयोग करके ज्ञायकको पकडना। सूक्ष्म उपयोगमें क्या गूढार्थ है? प्रयोगात्मक पद्धति-से सूक्ष्म उपयोग (करना)?

समाधानः- उपयोग बाहरमें स्थूलरूप-से बाहर वर्तता रहता है। स्वयं स्थूलता- से बाह्य पदाथाको जाननेका प्रयत्न करे, विकल्पको पकडे वह सब स्थूल है। परन्तु अन्दर आत्माको पकडना वह सूक्ष्म है।

आत्माका जो ज्ञानस्वभाव, ज्ञायकस्वभावको पकडना वह सूक्ष्म उपयोग हो तो पकडमें आता है। क्योंकि वह स्वयं अरूपी है। वह कहीं वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शवाला नहीं


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है। अरूपी आत्माको पकडना। उपयोग सूक्ष्म करे तो पकडमें आता है। ये विकल्प, जो विभावभाव है, उससे भी आत्मा तो सूक्ष्म है। ज्ञानस्वभाव-ज्ञायकस्वभाव, उस ज्ञानमें पूरा ज्ञायक समाया है। उस ज्ञायकको स्वयं सूक्ष्म उपयोग करे तो पकडमें आता है। सूक्ष्मताके बिना पकडमें (नहीं आता)। स्थूलता-से और रागमिश्रित भावों-से पकडमें नहीं आता। परन्तु उससे भिन्न होकर पकडे तो पकडमें आये ऐसा है।

मुमुक्षुः- भिन्न पडकर माने क्या?

समाधानः- भिन्न पडकर अर्थात अन्दर ज्ञायकको ग्रहण करके विकल्पके भावों- से भिन्न पडे तो वास्तविक पकडमें आता है। पहले शुरूआतमें तो उसे विकल्प साथमें होता है। विकल्प-से भिन्न पडे तो अंतरमें निर्विकल्प दशा हो जाय, वह तो वास्तविक पकडमें आता है। शुरूआतमें, प्रथम भूमिकामें तो विकल्प साथमें होता है। वास्तविक पकडमें आये तो विकल्प-से भिन्न पडता है। परन्तु पहले शुरूआतमें विकल्पको गौण करके और आत्माको अधिक रखकर यदि पकडे तो पकडमें आता है। विकल्प-से बिलकूल भिन्न तो निर्विकल्प दशा हो तो वह विकल्प-से भिन्न पडता है। विकल्पको गौण करके और अंशतः आत्माको मुख्य करके पकडे तो पकडमें आता है।

भेदज्ञानकी धारा हो तो उसमें विकल्प-से भिन्न पडे। भिन्न पडे अर्थात विकल्प है ऐसा उसे ख्याल रहता है कि परन्तु परिणतिको भिन्न करता है। वह सब तो वास्तविक है। शुरूआतकी भूमिकामें विकल्प साथमें होता है, परन्तु विकल्पको गौण करके आत्माको मुख्य रखकर, यह मैं ज्ञायक हूँ और यह विकल्प है, इस तरह पकड सकता है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि आत्माको मुख्य रखना। परन्तु कायाकी गिनती करने जैसा नहीं है। फिर भी परिणामोंमें कार्यकी गिनती हो जाती हो तो वहाँ मुख्य कारण क्या बनता होगा? और उससे बचने हेतु प्रयोगात्मक पद्धति-से क्या करना?

समाधानः- कायाकी गिनती नहीं करना, आत्माको मुख्य रखना। कायाकी गिनती तो उसे बाहरमें उस जातका उसे राग है इसलिये गिनती होती है। उसके लिये एक आत्मा तरफकी ही लगन लगाये, दूसरेकी महिमा टूट जाय कि दूसरे कायाकी क्या महिमा है? आत्मा ही मुझे सर्वस्व है और आत्मामें ही सर्वस्व है। तो आत्माको मुख्य रखे, आत्माकी महिमा आये तो वह सब उसे गौण हो जाता है। उसे किसी भी प्रकारकी गिनती नहीं होती। मेरा आत्मा ही सर्वस्व है। आत्माकी ही महिमा, आत्माकी लगन, आत्मा ओर ही उसे सर्वस्वता लगे और दूसरेका रस टूट जाय। दूसरेकी महिमा टूट जाती है।

मुमुक्षुः- इतना पढता हूँ, इतनी भक्ति करता हूँ, मैं इतने घण्टे ऐसा करता हूँ। इतना-इतना मैं करता हूँ, ऐसा गिनती (होती है)।


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समाधानः- मैंने इतना किया तो भी कुछ होता नहीं है। इतने विचार किये, इतना स्वाध्याय किया, इतना वांचन किया, इतनी भक्ति की। उसे आत्मा मुख्य रहता है। उसे गिनती नहीं होती, मुझे आत्मा ही सर्वस्व है। बाहर-से जो भी हो, उसके बजाय अंतरमें मुझे भेदज्ञानकी धारा प्रगट हो, मैं ज्ञायकको ग्रहण करुँ, ज्ञायकमें लीनता हो, उस पर उसकी दृष्टि होती है।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि शुद्ध द्रव्य स्वभावकी दृष्टि करके तथा अशुद्धताको ख्यालमें रखकर पुरुषार्थ करना। वहाँ ख्याल माने उपयोगात्मक ज्ञानगुणकी पर्याय लेनी या लब्धात्मक ज्ञान लेना?

समाधानः- आत्मा शुद्ध है। बाहर उपयोग है वह उसे लब्धात्मक, ख्यालमें रहता है। ज्ञानमें लब्धात्मक ख्याल नहीं उसे उपयोगात्मक ख्याल रहता है। लब्धात्मक ख्याल तो है, परन्तु उपयोगमें उसे ख्याल रहता है कि यह अशुद्ध है, यह शुद्ध है। उपयोगमें भी रहता है और लब्धमें भी रहता है।

मुमुक्षुः- इतनी अशुद्धता है, यह है, वह है।

समाधानः- हाँ, इतनी अशुद्धता है, इतनी शुद्धता है। लब्धमें रहता है कि इतना ज्ञायक है, यह विभाव है। परन्तु उपयोगमें भी उसे ख्यालमें रहता है कि इतनी अशुद्धता है, यह शुद्धात्मा है, ऐसा उपयोगमें रहता है। जबतक उसका उपयोग बाहर है, तबतक सब ख्यालमें रहता है। यह अशुद्धता है, यह शुद्ध है ऐसा।

मुमुक्षुः- निर्विकल्पताके समय नहीं होता।

समाधानः- निर्विकल्पताके समय नहीं होता। वह तो एक स्वरूपमें जम जाता है। आनन्द दशामें बाहरका कुछ ध्यान नहीं है। एक आनन्द, अनन्त गुण-से भरा आत्मा आनन्दस्वरूप अनुपम है। वहीं उसकी लीनता है, इसलिये दूसरा कुछ ख्याल नहीं है। सब अबुद्धिपूर्वक हो जाता है। उसे ख्याल ही नहीं है, अपने स्वरूपका ही वेदन है।

मुमुक्षुः- ज्ञायकको परिणाममें पकडना, ऐसा वचनामृतके प्रवचनमें पूज्य गुरुदेवश्रीने फरमाया कि परिणाममें ज्ञायकपने अहंपना करना। जैसे शास्त्रज्ञान धारणाज्ञानमें अहंपना है, उसके बदले ज्ञायकमें अहंपना करना। और बहुत बार ऐसा भी आता है कि ज्ञायकको रुचिगत करना। तो पर्यायमेंं ज्ञायककी महिमा आनी, इन दोनोंमें क्या अंतर है? अहंपना करना, महिमा करनी, रुचि करनी उसमें क्या अंतर है?

समाधानः- यह ज्ञायक है वह मैं हूँ। अहंपना अर्थात यह ज्ञायक है वह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ। शास्त्रका अहंपना, ये शास्त्र पढा वह नहीं, ये ज्ञायक वह मैं हूँ। यह मैं हूँ, उसमें उसकी रुचि भी आ जाती है और उसकी उस जातकी प्रतीति भी आ जाती है। उस जातका ज्ञायकमें अहंपना, मैं ज्ञायक हूँ। ऐसे।


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मुमुक्षुः- यानी वही महिमा हुयी, वही रुचि हुयी, सब हो गया।

समाधानः- हाँ, सब उसमें आ गया। रुचि, महिमा सब उसमें आ जाता है। यह ज्ञायक है सो मैं हूँ। ज्ञायकका अहंपना करना। विभावका अहंपना-एकत्वबुद्धि तोडकर विभावके कोई भी कायामें एकत्वबुद्धि करे, उसके बजाय मैं उससे भिन्न ज्ञायक हूँ। भले अभी विकल्पात्मक है, परन्तु ज्ञायकमें अहंपना करना। वह अहंपना नहीं करना कि ये शास्त्र इत्यादिकी एकत्वबुद्धि तोडकर ज्ञायकका अहंपना करना। अभी वास्तविक- रूप-से उसे टूटा नहीं है, परन्तु मैं ज्ञायक हूँ, इस प्रकारसे भी उसे विकल्पात्मक है, तो भी मैं ज्ञायक हूँ, उस जातकी परिणति दृढ करनी। प्रतीतमें लाना, रुचिमें लाना, महिमामें लाना।

मुमुक्षुः- वचनामृतमें आता है कि अनुभूतिके लिये स्वयंको परपदार्थ-से भिन्न पदार्थ नक्की करे, अपने ध्रुव स्वभावकी महिमा लाये और सम्यग्दर्शन प्रगट करनेका प्रयास करना चाहिये। वहाँ परद्रव्य-से भिन्नता विचार करने पर लगता है कि स्वयं परद्रव्य- से भिन्न है। परन्तु स्वयं ध्रुव ज्ञायकस्वभावी महिमावंत है, ऐसा लगता नहीं है। तो प्रयोगात्मकपने क्या करना चाहिये?

समाधानः- परद्रव्य-से भिन्न है तो उसका अस्तित्व ग्रहण करना है कि ये चैतन्यका अस्तित्व ध्रव स्वरूप है वह मैं हूँ, यह मैं नहीं हूँ। यह मैं नहीं हूँ, परद्रव्य सो मैं नहीं हूँ, मेरा स्वरूप नहीं है, तो मैं कौन हूँ? अपनी महिमा आये बिना वास्तविक परद्रव्य तरफकी एकता टूटती ही नहीं। इसलिये मैं कौन हूँ? उसका विचार करे। मेरा अस्तित्व क्या है? मैं एक ध्रुव ज्ञायकस्वरूपी अनादिअनन्त एक वस्तु हूँ और ये जो विभाव पर्याय है वह मेरा वास्तविक स्वरूप नहीं है। मेरा वास्तविक स्वरूप ज्ञायक स्वरूप है। इस प्रकार अपना अस्तित्व ग्रहण करके नास्तित्व आये तो वह बराबर होता है। अकेला नास्तित्व आये कि परद्रव्य मैं नहीं हूँ, अकेला नास्तित्व वास्तविक नहीं होता। अस्तित्वपूर्वकका नास्तित्व हो तो वह बराबर होता है। इसलिये अस्तित्व तरफका (प्रयत्न करना)।

ये सब मैं नहीं हूँ, ये सब अच्छा नहीं है, परन्तु अच्छा क्या है? ज्ञायक स्वभाव महिमावंत है। उसका अस्तित्व ग्रहण करके नास्तित्व आये तो उसे वास्तविक भेदज्ञान होनेका उसमें अवकाश है।

मुमुक्षुः- उसकी विशेष महिमा कैसे आये?

समाधानः- ध्रुवमें, ज्ञायकतामें-ज्ञायकस्वभावमें ही सब भरा है। उसका विचार- से, उसका स्वभाव पहिनकर नक्की करे कि ये कुछ महिमावंत नहीं है तो महिमावंत कौन है? मैं चैतन्य ज्ञायक महिमावंत स्वरूप हूँ। उसे विचार-से, उसका स्वभाव पहिचानकर


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नक्की करे कि ये ज्ञायकता है वह अनन्त ज्ञायकता है। वह ज्ञायकता, इतना जाना इसलिये ज्ञायक है, ऐसा नहीं। स्वतःसिद्ध ज्ञायक जिसमें नहीं जानना ऐसा आता ही नहीं, ऐसा अनन्त-अनन्त ज्ञायकता-से भरा जो स्वभाव और जो सुखको बाहरमें इच्छता है, वह सुखका स्वभाव, सुखका समुद्र स्वयं ही है। ऐसा अनन्त स्वभाववाला, अनन्त आनन्द जिसमें भरा है, अनन्त ज्ञान जिसमें भरा है और अनन्त स्वभाव-से जो भरा है ऐसा मैं चैतन्य हूँ। उस चैतन्यकी महिमा विचार करके लावे कि वह वस्तु अनन्त धर्मात्मक और महिमावंत कोई अनुपम है। उसका विचार करके महिमा लाये। शास्त्रोंमें आता है, आचार्यदेव कहते हैं, गुरुदेव कहते हैैं कि ये वस्तु कोई अनुपम महिमावंत है। जो अनुभवी हैं, गुरुदेव कहते हैं, मुनि कहते हैं कि आत्मा कोई अनुपम है। तो स्वयं विचार करके नक्की करे।

स्वयंको तो एक ज्ञानस्वभाव ही दिखता है, दूसरा कुछ दिखता नहीं है। तो स्वयं विचार करके अन्दर-से स्वतःसिद्ध अनन्त धर्मात्मक है, अनन्त अचिंत्य महिमा-से भरी है, उसका विचार करके नक्की करे तो स्वयंको प्रतीत आवे। देव-गुरु-शास्त्र जो कहते हैं कि कोई अपूर्व वस्तु है, तेरी वस्तु अपूर्व है, तू उसमें जा। तो वह अपूर्व कैसे है? उसका विचार करके स्वयं प्रतीत करे तो हो। उसका लक्षण तो अमुक दिखता है, परन्तु स्वयंसे नक्की करना पडता है।

बाहरमें सब जगह आकुलता है। तो निराकुलता और आनन्द-से भरा एक आत्मा है। ऐसा गुरुदेव कहते हैं, आचार्य कहते हैं, सब कहते हैं। अंतरमें है वह किस प्रकार- से है, वह स्वयं विचार करके, स्वभावको पहिचानकर नक्की करे कि उसीमें सब है। तो उसे महिमा आये।

मुमुक्षुः- अनन्त गुणात्मक है वह सब विचार द्वारा नक्की हो सकता है?

समाधानः- विचार द्वारा नक्की हो सकता है। उसे दिखता नहीं है, परन्तु नक्की हो सकता है। जो अनादिअनन्त वस्तु हो वह मापवाली नहीं हो सकती। वह अनन्त अगाध स्वभाव-से भरी है। विचार-से नक्की कर सकता है। उसकी महिमा ला सकता है।

मुमुक्षुः- मुमुक्षुके नेत्र सत्पुरषको पहिचान लेता है। वहाँ मुमुक्षुके नेत्रका अर्थ सत्पुरुषकी वाणीमें आ रही आत्माकी सहज महिमा और अन्यकी उसी शब्दोंमें आ रही कृत्रिम महिमा, उसके बीचका भेद करता है, ऐसा कह सकते हैं?

समाधानः- उसके नेत्र ऐसे ही हो गये हो। पात्रता अंतरमें-से उसे सत्य ही चाहिये। सत्पुरुषकी वाणीमें कोई अपूर्वता रही है, कोई आत्माका स्वरूप बता रहे हैं। दूसरेकी वाणी और उनकी वाणीका भेद कर सकता है। उसका हृदय ही ऐसा हो गया है कि मुझे जो चाहिये, कोई अपूर्व वस्तु, ये कुछ अपूर्व बता रहे हैं। वह भेद


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कर सकता है। सच्चा मुमुक्षु हो वह भेद कर सकता है। सच्चा मुमुक्षु हो वह भेद कर सकता है। उनके परिचय-से, उनकी वाणी-से भेद कर सकता है। परीक्षा करके भेद कर सकता है।

मुमुक्षुः- देव-गुरु-शास्त्रकी महिमाके वक्त आत्माकी खटक रखनेका आप फरमाते हो, तो वह दोनों एक परिणाममें प्रयोगात्मक रूप-से कैसे करना?

समाधानः- देव-गुरु-शास्त्रकी महिमाके समय आत्माकी (खटक होनी चाहिये)। उस महिमाका हेतु क्या है? देव-गुरु-शास्त्र, जिनेन्द्र देवने आत्मा प्रगट किया है, वे केवलज्ञान स्वरूप, पूर्णरूप-से विराजमान हो गये, गुरुदेव साधना करते हैं, शास्त्रोंमें भी वह आता है, इसलिये उसकी महिमाका हेतु क्या है कि उन्होंने जो चैतन्यका स्वरूप प्रगट किया, इसलिये उनकी महिमा आती है। उसका अर्थ वह है कि उन्होंने वह स्वरूप प्रगट किया इसलिये उनकी महिमा आती है। तो उस स्वरूपकी स्वयंको रुचि है और वह रुचि वैसी होनी चाहिये कि वह स्वरूप मुझे प्रगट हो।

अतः रूढिगतरूप-से वह अच्छा है ऐसे नहीं। उन्होंने जो प्रगट किया वह आदरने योग्य कोई अनुपम वस्तु प्रगट की है। और वह वस्तु मुझे चाहिये। इसलिये उसमें रुचि और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा दोनों साथ होते हैं। जिसे महिमा, ऐसी समझपूर्वक महिमा आये उसे आत्माकी रुचि साथमें होती ही है। ओघे ओघे करता हो (ऐसा नहीं)। समझपूर्वक जिसे महिमा आती है उसे रुचि साथमें होती ही है कि यह स्वरूप मुझे चाहिये। ये विभाव अच्छा नहीं है, परन्तु स्वभाव अच्छा है। अतः जो देव- गुरु-शास्त्रने प्रगट किया है, उसकी उसे महिमा आती है और वह मुझे चाहिये। ऐसा अन्दर-से समाया है। ऐसी रुचि साथमें होती ही है। ऐसी समझपूर्वक जिसे महिमा आये, उसे आत्माकी रुचि साथमें होती ही है।

आत्माकी रुचि साथमें न हो और अकेली महिमा करे तो वह सब समझे बिनाका है। अनादि काल-से जो मात्र रुढिगतरूप-से किया वैसा। देव-गुरु-शास्त्र आदरने योग्य क्यों है? कि उन्होंने आत्माका स्वरूप कोई अपूर्व प्रगट किया है, इसलिये। इसलिये उनका स्वयंको आदर है। अंतरमें अपना आदर अन्दर आ जाता है।

मुमुक्षुः- आत्माकी खटक रहती हो और महिमा आती हो, वही सच्ची महिमा है?

समाधानः- वही सच्ची महिमा है। उसे खटक रहती ही है। जिसे सच्ची महिमा आये उसे आत्माकी खटक साथमें होती ही है। तो सच्ची महिमा है।

गुरुदेवने मार्ग कितना स्पष्ट किया है। प्रश्न पूछे उसका उत्तर देती हूँ। मुमुक्षुः- गुरुदेवके शब्द बहुत गंभीर, इसलिये कुछ समझ ना सके। उनका गंभीर आशय समझ न सके, आपने गुरुदेवका हृदय खोला इसलिये हम बच गये।


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समाधानः- गुरुदेवने बताया है। यही करने जैसा है। जीवनमें अपूर्व वस्तु कैसे प्राप्त हो और वह अपूर्वता कैसे प्राप्त हो? अपूर्व पुरुषार्थ, आत्मा अपूर्व, उसका अभ्यास कोई अपूर्व। बाकी सब रूढिगत रूपसे बहुत बार किया है। अपूर्व प्रकार-से प्राप्त हो वह करना है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!