Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 268.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 265 of 286

 

PDF/HTML Page 1757 of 1906
single page version

ट्रेक-२६८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- राग और ज्ञानको भिन्न करके, एक ज्ञायक है वही मैं हूँ, ऐसा देखना?

समाधानः- रागको भिन्न करता है वहाँ ज्ञान भिन्न पड ही जाता है। इसलिये मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा ग्रहण करे तो राग भिन्न पड जाता है। वास्तविक रूप-से दोनों साथमें ही है। अपना अस्तित्व ग्रहण करे कि मैं ज्ञान हूँ, इसलिये राग भिन्न पड ही जाता है।

मुमुक्षुः- मैं ज्ञान हूँ अर्थात मैं ज्ञायक हूँ?

समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ। ज्ञान अर्थात मात्र जानपना इतना ही नहीं, परन्तु मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। मैं ज्ञायक हूँ, सर्व प्रकार-से ज्ञायक ही हूँ।

समाधानः- ... आत्माको पहचानना। विभाव भिन्न और आत्मा भिन्न, प्रयोजन तो वह सिद्ध करनेका है। अध्यात्म पद्धतिमें भेदज्ञान करना है। भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है। उस प्रयोजनको देखना। प्रयोजन वह है। उसमें रुकना नहीं कि इसका यह अर्थ है या वह अर्थ है, भाव-आशय ग्रहण कर लेना। जहाँ निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध हो, परकी मुख्यता हो उसमें विभावकी गौणता आ ही जाती है। विभावकी बात हो उसमें निमित्तकी अपेक्षा आ जाती है। इसलिये जो भेदज्ञान, विभाव-से भेदज्ञान करना है, वह एक ही प्रयोजन है। उसमें जड-चैतन्यको गौण करके विभाव-से भेदज्ञान करना, एक ही बात है। उस प्रकार-से विचार करना है।

आचार्य भी ऐसा कहते हैं, ऐसा कहकर यह कहना चाहते हैं कि तू भेदज्ञान कर। गुरुदेव भी ऐसा कहते हैं कि तू भेदज्ञान कर। विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। निमित्तकी अपेक्षा-से निमित्तका है, निमित्तकी अपेक्षा-से निमित्तका है और तेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है इसलिये तेरा है। उसमें भी निमित्तकी अपेक्षा है। और निमित्तकी मुख्यता-से बात करके जडमें डाल दे तो वह एकान्त जड है, उसमें तेरी विभावकी अपेक्षा साथमें आ जाती है। और तुझ-से होता है ऐसा कहे, उसमें निमित्तकी अपेक्षा आती है। और तुझ-से होता है ऐसा कहनेमें निमित्तकी अपेक्षा आती है। निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध क्या है उसका विचार करके भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है।

शास्त्रमें अध्यात्म दृष्टि-से प्रयोजन है, उस प्रयोजनको सिद्ध करना है। बाहर नहीं।


PDF/HTML Page 1758 of 1906
single page version

उसमें रुकनेका कोई प्रयोजन नहीं है। भेदज्ञान कर, ऐसा गुरुदेवका कहनेका है। आचायाको यह कहना है। सब विभाव तेरा स्वभाव नहीं है, तू उससे भिन्न है। विभाव निमित्तकी अपेक्षा-से होता है। निमित्त-की अपेक्षा-से निमित्तका है। तेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से तेरेमें होता है। एक ही (बात है कि) तू उससे भिन्न पड जा। विभाव पुरुषार्थकी मन्दता- से होता है और तेरा स्वभाव नहीं है। स्वभावभेद-से उसका भेद है। इसलिये उसका भेदज्ञान कर, ऐसा कहना है।

मुमुक्षुः- किसी भी प्रकार-से आत्माकी मुख्यता (रखनी)।

समाधानः- आत्माकी मुख्यता रखनी। भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है।

मुमुक्षुः- या तो तेरा स्वभाव नहीं है ऐसे तू ले अथवा निमित्तमें डाल दे। प्रयोजनकी सिद्धि..

समाधानः- हाँ, प्रयोजनकी सिद्धि वह है। तू भिन्न है और जो विभाव होता है उसे निमित्तमें डाल दे। अथवा तेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से तेरेमें होता है। उस अपेक्षा- से चेतनमें होता है। इसलिये तू उसे पुरुषार्थ करके टाल। तू भिन्न है, भेदज्ञान करके जो अस्थिरता रहे उसे भी तुझे तोडनी है। इसलिये पुरुषार्थ करनेका, भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है।

मुमुक्षुः- प्रयोजनको मुख्य रखना।

समाधानः- प्रयोजनको मुख्य रखना है। कोई अपेक्षा-से निमित्तकी मुख्यता-से और जडकी अपेक्षा-से जडके कहनेमें आता है। चेतनकी अपेक्षा-से चेतनका कहनेमें आता है। अपने पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। चेतनकी अपेक्षा-से चेतनमें होता है (ऐसा कहनेमें) निमित्तकी गौणता होती है और जड तरफ, निमित्त तरफकी बात आये उसमें गौणता होती है। दोनोंमें निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है ही। इसलिये तू उससे भिन्न पड। भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है।

मुमुक्षुः- जूठे वादविवादमें अटकना नहीं, प्रयोजनको..

समाधानः- जूठे वादविवादमें अटकना नहीं, प्रयोजनको सिद्ध करना। अध्यात्म दृष्टिमें एक भेदज्ञान करनेका प्रयोजन है। आचार्यको यह कहना है कि तू भेदज्ञान कर, गुरुदेवका ऐसा कहना है, तू भेदज्ञान कर। एकान्त जडका हो तो फिर पुरुषार्थ करना कहाँ रहता है? परन्तु तेरा स्वभाव नहीं है, इसलिये जड तरफ जाता है। और जड तरफ जाय, परन्तु तेरेमें नहीं होते हो तो तुझे कुछ करना नहीं रहता। इसलिये उस अपेक्षा-से तेरेमें होता है। दोनों अपेक्षाका मेल करके निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध कैसे है (यह समझ लेना)।

कोई अपेक्षा-से किसीकी मुख्यता और किसीकी गौणता होती है। प्रयोजन भेदज्ञान


PDF/HTML Page 1759 of 1906
single page version

करनेका है। उसके वादविवादमें अटकना नहीं। भेदज्ञान करके आत्मा अन्दर चैतन्य अनन्त गुणोंसे भरा है उसको प्रगट करना है। वह करना है। विपरीत स्वभाव है, दुःखरूप है, दुःखका फल है, उसे छोडकर आत्मा (भिन्न है), उससे भेदज्ञान करना है। जडसे भी भेदज्ञान करना है और विभाव-से भी भेदज्ञान करना है। विभाव भी तेरा स्वभाव नहीं है। दुःख है, दुःखका फल है। उससे भिन्न पड। अकेले ज्ञानमें ज्ञान ही दिखता है, क्रोधमें क्रोध दिखता है। दोनों भिन्न हैं। दोनोंका स्वभावभेद है।

मुमुक्षुः- ..

समाधानः- पुरुषार्थ स्वयंको करना है। मैं चैतन्य हूँ। वह कहीं रोकता नहीं है, कर्म या अन्य कोई रोकता नहीं है। चैतन्य आत्मा, मैं ज्ञायक हूँ। वह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। ऐसे पुरुषार्थ करना, रुचि करना, लगनी, महिमा आत्माकी करना, पर तरफ-से रुचि हटाकर आत्माकी रुचि करनी चाहिये। उसकी तरफ पुरुषार्थ करना। उसका विचार, सब उसका करना चाहिये। आत्माका भेदज्ञान कैसे प्रगट हो और स्वानुभूति कैसे हो, ऐसा पुरुषार्थ करना चाहिये। शुभभाव बीचमें आता है, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा और शुद्धात्मा कैसे प्रगट हो, ऐसा ध्येय होना चाहिये। शुद्धात्मा कैसे प्रगट होवे?

मुमुक्षुः- ज्ञान लक्षण द्वारा आत्माको ग्रहण करना, ऐसा शास्त्रमें आता है। ज्ञान अंतरमें वेदनपने रहा है, फिर भी वह वेदन पकडमें नहीं आता है, यह ज्ञात होता है, यह ज्ञात होता है, ऐसा ख्यालमें आता है। परन्तु अंतरमें जो ज्ञानका परिणमन हो रहा है, जबतक वह ज्ञानमें ग्रहण न हो तबतक आगे कैसे बढना?

समाधानः- ज्ञेय-से ज्ञान ग्रहण होता है, परन्तु ज्ञान-से ज्ञान ग्रहण नहीं होता है? ज्ञान-से ज्ञान ग्रहण हो, करना वह है। उसीका अस्तित्व ग्रहण करना। वह नहीं हो तबतक उसका प्रयत्न करते रहना। ज्ञेय तरफ दृष्टि (जाती है), ज्ञेयको जाननेवाला जो ज्ञान है, उस ज्ञानका अस्तित्व कैसे ग्रहण हो, उसका प्रयत्न करना। ज्ञानगुण एक नहीं, परन्तु ज्ञानका अस्तित्व एक चैतन्यद्रव्यने धारण किया है, उस चैतन्यद्रव्यको ग्रहण करना है। जबतक न हो तबतक प्रयास करना।

मुमुक्षुः- माताजी! चैतन्यद्रव्यको ग्रहण करना, परन्तु अभी तो उसका लक्षण ही अज्ञानमें ग्रहण नहीं हो रहा है, तो फिर द्रव्यको तो (कैसे ग्रहण होगा)?

समाधानः- प्रयत्न करना, लक्षण भी ग्रहण करनेका प्रयत्न करना। एक ही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है। आत्माका लक्षण ग्रहण करना। ज्ञान लक्षण कैसे ग्रहण हो? और उस लक्षण-से ज्ञायक कैसे ग्रहण हो, वह एक ही उपाय है, दूसरा कोई उपाय नहीं है।

मुमुक्षुः- विचारकी युक्तिमें विचार करें कि ये सब ज्ञेय किसको प्रसिद्ध करते


PDF/HTML Page 1760 of 1906
single page version

हैं? कि ज्ञानको प्रसिद्ध करते हैं। वह ज्ञान देहप्रमाण आत्मा है तो वहाँ परिणमन हो रहा है। परन्तु जिस प्रकार-से स्पष्टपने उसके स्वरूप-से ख्यालमें आना चाहिये कि जो ख्यालमें आने-से सीधा ज्ञायक भावभासनरूप हो, ऐसा नहीं होता है।

समाधानः- उसका प्रयत्न करना। युक्ति-से, विचार-से नक्की करे लेकिन उसमें जो अस्तित्व है, वह कैसे ग्रहण हो, उसका विचार, प्रयत्न, मंथन सब उसीका, उसकी लगनी, महिमा सब वही करना है। बाहर-से कुछ नहीं होता है। अंतरमें अंतर दृष्टि करनी। गुरुदेवने बहुत कहा है। अंतर-से ही वह ग्रहण कैसे हो? उसे ही ग्रहण करना है। सबको गुजराती भाषामें ख्याल आता है? गुरुदेवने तो चारों ओर-से प्रचार किया है।

मुमुक्षुः- पर्यायें प्रगट हुयी हैं, उसके साथ ततपना है या अततपना?

समाधानः- अपनी पर्यायोंके साथ? कोई अपेक्षा-से तत है, कोई अपेक्षा-से अतत है। अपनी पर्यायके साथ तन्मय है और पर्याय तो क्षणिक है। इसलिये उसे अतत भी कहनेमें आता है। पर्याय पलटती है। और पर्याय तो द्रव्यके आश्रय-से होती है। इसलिये पर्याय उसके साथ ततरूप है और कोई अपेक्षा-से अतत भी है।

मुमुक्षुः- ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी परिणति उसका स्वभाव होने-से उसे सहज कहा।

समाधानः- वह सहज है। उसका स्वभाव है।

मुमुक्षुः- और पुरुषार्थपूर्वक प्राप्त होता है, इसलिये पुरुषार्थ-से प्राप्त होता है ऐसा कहनेमें आता है।

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ-से प्रगट होता है। जगतमें जो कुछ वस्तुके स्वभावमें नहीं है ऐसा कुछ उत्पन्न नहीं होता है। उसके स्वभावमें है वह उत्पन्न होता है। परन्तु वह पुरुषार्थ-से प्रगट होता है। परिणति जो अनादि-से विभावमें है, वह अपनेआप स्वभावमें आ जाती है, पुुरुषार्थके बिना, ऐसा नहीं है। पुरुषार्थ-से अपने स्वभाव तरफ आती है। परन्तु जो स्वभाव है पलटनेका और उसका स्वभाव है ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि उसके स्वभावमें-से प्रगट होता है, इसलिये सहज है।

ऐसा हो कि जैसे होना होगा वैसे होगा, तो ऐसे प्रगट नहीं है। करनेवालेकी दृष्टि, जिसे स्वभाव प्रगट करना है, उसके ख्यालमें तो (ऐसा होता है कि) मैं पुरुषार्थ करके पलटा करुँ। मैं ज्ञायक तरफ दृष्टि करुँ, उसकी भावना वैसी होता है। करनेवालेको ऐसा नहीं होता कि जैसे होना होगा वैसे होगा। जैसे परिणति होनेवाली होगी वैसे होगी, ऐसा करनेवालेके लक्ष्यमें नहीं होता।

ज्ञायकको ग्रहण करके परिणति अपनी तरफ आती है तो ज्ञायकमें जो स्वभाव है वह उसे प्रगट होता है। वह सहज है। उसका स्वभाव प्रगट होता है, स्वभावकी परिणति प्रगट होती है।


PDF/HTML Page 1761 of 1906
single page version

मुमुक्षुः- सहजका अर्थ ऐसा नहीं है कि पुरुषार्थ किये बिना प्राप्त हो जाय।

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ किये बिना प्राप्त हो, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करे तो सहज है।

समाधानः- पुरुषार्थ करे तो सहज होता है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दर्शन पहले पात्रता प्रगट करनेके लिये भी उसे अपेक्षित पुरुषार्थ करना पडता है?

समाधानः- हाँ, पुरुषार्थ करना पडता है। भावना करे, अभ्यास करे। उसे ऐसी भावना हुए बिना रहती ही नहीं। जिसे अपनी लगनी लगती है, विभावमें जिसे सुख और शान्ति नहीं है, उसे अपनी ओर पुरुषार्थ आये बिना रहता ही नहीं। वह आता है। भले यथार्थ बादमें हो, परन्तु भावनामें उसे वह कारण प्रगट करनेके लिये उसे भावना आती ही है।

मुमुक्षुः- माताजी! पात्रतामें अशुभको टालकर शुभके परिणाम उसे होते हैं। उसमें कर्तृत्वबुद्धि नहीं आ जाती?

समाधानः- कर्तृत्वबुद्धि तो मैं परपदार्थका कर्ता हूँ। परद्रव्यका मैं कर्ता हूँ, ऐसा आये तो कर्तृत्वबुद्धि होती है। वास्तविक रीत-से कर्तृत्वबुद्धि कब छूटती है? जब ज्ञायकता प्रगट हो, तब उसकी कर्ताबुद्धि छूटती है। तब उसकी कर्तृत्वकी परिणति वास्तविक रूप-से छूटती है। जबतक ज्ञायकता-साक्षी भाव अंतरमें-से सहज जो ज्ञाताकी-साक्षीकी दशा है, वह दशा प्रगट नहीं हुयी है तबतक उसे कर्तृत्वकी परिणति खडी है। परन्तु वह बुद्धिमें नक्की करे कि मैं परपदार्थका तो कर नहीं सकता। पर पदार्थके द्रव्य- गुण-पर्यायको मैं कर नहीं सकता।

अब जो विभाव होता है, विभावकी रागकी परिणतिमें मैं मेरे पुरुषार्थकी मन्दता- से जुडता हूँ। उस जातके पुरुषार्थको मैं बदलूँ, उस प्रकारकी कर्तृत्वबुद्धि आती है। परन्तु वास्तविकरूप-से कर्ताबुद्धि अभी छूटी नहीं है। जिसे अंतरमें-से छूटे उसे परद्रव्यमें- से छूटे, विभावमें-से भी छूटे, सब छूट जाता है। वास्तविक छूटी नहीं है, परन्तु स्थूलबुद्धि- से मैं परपदार्थको कर नहीं सकता, जैसे होना होता है वैसे होता है। अन्दर अपने परिणामको पलटे उसमें तो पुरुषार्थका कर्तृत्व आये बिना वह पुरुषार्थ पलटता नहीं।

लेकिन ज्ञायकदशामें राग मेरा स्वभाव नहीं है, इसलिये मैं रागको कर नहीं सकता। ऐसे उसकी कर्ताबुद्धि ज्ञायक दशामें छूट जाती है। मैं उसकी उत्पत्ति कर नहीं सकता हूँ, परन्तु मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से वह होता है। उसकी कर्ताबुद्धि वास्तविक रूप- से ज्ञातृत्वमें छूटती है। ज्ञायकदशा नहीं है तबतक कर्ताबुद्धि खडी ही है। जहाँ भी, शुभ या अशुभमें जहाँ उसकी परिणति जाय, वहाँ हर जगह उसकी कर्ताबुद्धि खडी


PDF/HTML Page 1762 of 1906
single page version

है। जबतक ज्ञायकता नहीं है, तबतक कर्ताबुद्धि खडी ही है।

मुमुक्षुः- कर्ताबुद्धि अशुभ परिणाममें भी है और शुभ परिणाममें भी है।

समाधानः- दोनोंमें है, दोनोंमें कर्ताबुद्धि खडी है।

मुमुक्षुः- उसे समझकर अशुभको टालकर शुभके पुरुषार्थमें आत्मार्थी जीव ऐसी पात्रता प्रगट करनेका भाव भी लाता है?

समाधानः- हाँ, उसे भाव आता है, आते रहते हैं। अशुभमें या शुभमें दोनोंमें कर्ताबुद्धि खडी है। एकमें खडी है उसे दोनोंमें खडी है। ज्ञायकता हो, सहज भेदज्ञान दशा हो तब उसे ऐसा होता है कि ये जो परिणति होती है, वास्तविक रूप-से स्वभाव- से मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। ये राग-द्वेषके परिणाम जो होते हैं, वह होते हैं। परन्तु वह समझता है, मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। कर्मके उदयकी जबरजस्ती-से यानी मुझे जबरन करवाता है, ऐसा नहीं है। वह जानता है कि पुरुषार्थकी मन्दता-से होता है। परन्तु वास्तविक रूप-से मेरी ज्ञायकता छूटकर उस जातकी उसकी कर्ताबुद्धि नहीं होती। ज्ञायकता उसके साथ ही रहती है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थकी मन्दता भी पुरुषार्थपूर्वक है, ऐसा वह जानता है।

समाधानः- वह जानता है। पुरुषार्थकी मन्दता है।

मुमुक्षुः- उस प्रकारका ऊलटा पुरुषार्थ...

समाधानः- ऊलटा पुरुषार्थ भी उसमें है ऐसा समझता है। बाकी जहाँ सहज नहीं है, वहाँ तो सबमें कर्ताबुद्धि खडी है। बुद्धिपूर्वक नक्की करे कि मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। पर पदार्थका कर्ता नहीं हूँ, राग-द्वेषका वस्तु स्वभाव-से मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, ऐसा बुद्धि-से नक्की करे, बाकी कर्ताबुद्धि खडी है।

मुमुक्षुः- कर्ताबुद्धि खडी है। बुद्धिपूर्वक ऐसा नक्की करता है फिर भी उसे सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग प्राप्त करना है, इसलिये अशुभको टालकर शुभमें भी आता है।

समाधानः- शुभमें जुडता है, आत्माका लक्ष्य करनेका प्रयत्न करता है, ऐसा करता है। ... दशा प्रगट हो, वस्तु अनादिअनन्त सहज है। और उसकी ज्ञायकता जो सहज है, वह सहजकी परिणति जब उसे स्वभावदशा प्रगट हो, ज्ञायकता हो तब कर्ताबुद्धि छूटी ऐसा कहनेमें आता है। जब सहजता प्रगट हो, तब कर्तृत्व छूटा ऐसा कहनेमें आये।

अन्दर सहज दशा, सहज ज्ञायक परिणति नहीं है, तबतक कर्ताबुद्धि छूटी नहीं है। फिर उसे अल्प पुरुषार्थकी मन्दताकी परिणति रहती है। ज्ञानीके लिये ऐसा कहनेमें आता है कि वह होता है, वह करता नहीं है, अपितु होता है।

मुमुक्षुः- और फिर भी वास्तविक रूप-से देखा जाय तो उतनी पुरुषार्थकी मन्दता


PDF/HTML Page 1763 of 1906
single page version

है, वह भी अपने-से हुयी है।

समाधानः- हाँ, करने-से हुयी है।

मुमुक्षुः- वह भी ज्ञानमें साथ-साथ है।

समाधानः- ज्ञानमें जानता है।

मुमुक्षुः- और फिर भी वह सहज है, इसलिये उसे आकुलता भी नहीं होती है।

समाधानः- आकुलता नहीं होती।

मुमुक्षुः- उस पहलूका भी उसे ज्ञान है।

समाधानः- अपने स्वभावकी सहज दशा खडी रखकर वह होता है। और अपनी मन्दताके कारण (होता है)। ... उससे स्वयं भिन्न पड गया है इसलिये मैं उसका कर्ता नहीं हूँ। उसका चैतन्यका अस्तित्व जो है, वह अपनी परिणति-से भिन्न कर दिया है। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे अपने सहज स्वभावको भिन्न कर दिया है। एकत्वबुद्धि टूट गयी है, इसलिये मैं उसका कर्ता नहीं हूँ, परन्तु वह होता है। मेरी मन्दताके कारण वह होता है।

मेरी ज्ञायकदशा सहज है, मेरी मन्दताके कारण यह होता है। मेरी ज्ञायक दशाकी न्यूनता है और पुरुषार्थकी मन्दता है इसलिये होता है। उसके ख्यालमें उसकी मुख्यता रहती है। पुरुषार्थकी परिणति उठे तो सब छूट जाय ऐसा है। तो अंतरकी दशा प्रगट होकर सब विभाव टल जाय, ऐसा है। पुरुषार्थकी मन्दताके कारण ही वह खडा है। कोई काललब्धि उसे रोकती है या दूसरे कोई समवाय उसे रोकता है, कोई उसे रोकता नहीं है। अपनी मन्दताके कारण वह सब खडा है, ऐसा वह बराबर जानता है। परन्तु उतनी स्वयंकी पुरुषार्थकी डोर उठती नहीं है, ऐसा वह जानता है।

अमुक समय चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें रहकर फिर भावना भाकर मुनि होते हैं। जब पुरुषार्थ उत्पन्न होता है तब सब छूट जाता है। ऐसी परिणति है कि कर्ता दिखे, फिर भी उसे ज्ञाता कहते हैं। उसे होता है, होता है ऐसा कहते हैं और कर्ता नहीं है। ऐसा किया, ऐसा बोले। उसकी बोलनेकी भाषामें ऐसा आये। फिर भी कहते हैं कि ज्ञाता है। ऐसी कर्ता, ज्ञाताकी परिणति (है)।

(अज्ञानीको) तो एकत्वबुद्धि है इसलिये वह करता ही है। वह छोडकर बैठा हो तो भी उसे कर्ता कहनेमें आता है। (ज्ञानी) गृहस्थाश्रममें हो तो भी उसे ज्ञाता कहनेमें आता है। समयसारमें आता है न कि, मुनि हो गया, परन्तु अन्दर कर्ताबुद्धि खडी है तो कर्ता ही है। छोडा तो भी कर्ता है। (ज्ञानी) गृहस्थाश्रममें है तो भी ज्ञाता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!