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समाधानः- .. सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेका गुरुदेवने कितना स्पष्ट करके मार्ग बताया है। करनेका स्वयंको बाकी रहता है। अपनी पुरुषार्थकी क्षतिके कारण अटका है। स्वयं पुरुषार्थ करे तो हो सके ऐसा है। जो अटका है, वह स्वयंकी क्षतिके कारण। अपनी परिणतिकी क्षतिके कारण अटका है। बाकी मार्ग तो एक ही है, मार्ग कहीं दूसरा नहीं है। मार्ग तो एक ही है।
एक ज्ञायक आत्माको पहचानना, वही एक मार्ग है। दूसरा कोई मार्ग नहीं है। मार्ग कहीं ज्यादा नहीं है कि उसे आकुलता हो कि इस मार्ग पर जाना, इस मार्ग पर जाना या इस मार्ग पर जाना। ऐसा नहीं है। मार्ग तो एक ही है। एक चैतन्य पदार्थ है। स्वतःसिद्ध अनादिअनन्त आत्मा है, उस आत्माको पहचानना। आत्मा अपनेआपको भूल गया वह एक आश्चर्यकी बात है कि स्वयं होने पर भी स्वयंको स्वयं देखता नहीं है। स्वयं स्वयंको पहिचाने, भिन्न करके।
ये शरीर अपना स्वरूप नहीं है। उसके साथ एकत्वबुद्धि, अन्दर विकल्पके साथ एकत्वबुद्धि, सब शुभाशुभ भाव, सबके साथ एकत्वबुद्धि कर बैठा। उससे भिन्न अपना ज्ञायक स्वरूप ज्ञान लक्षण-से पूर्ण ज्ञायकको पहिचानना। उसे पहिचानकर उसका भेदज्ञान करके, उस परिणतिको दृढ करके स्वयं उसमें प्रतीति दृढ करके, ज्ञान करके, उसमें लीनता करे तो सम्यग्दर्शन होता है। परन्तु करना स्वयंको है। स्वयं करता नहीं है। स्वयं अपनी मन्दता-से रुका है।
मुमुक्षुः- इसमें श्रद्धाका दोष लें, ज्ञानका दोष लें या पुुरुषार्थका दोष लें या रुचिकी क्षति लें?
समाधानः- सब दोष है। श्रद्धाकी क्षति है, रुचिकी क्षति है, पुरुषार्थकी क्षति है। सब एकसाथ मिले हैं। ज्ञान यथार्थ कब कहा जाय? कि ज्ञान ज्ञानरूप परिणमे तब। तबतक वह बुद्धिपूर्वकका ज्ञान करता है कि वस्तु ऐसी है। फिर भी वह ज्ञान ज्ञायकरूप परिणमता नहीं है। इसलिये वह ज्ञान भी यथार्थ नहीं है। विचार करके ज्ञान करे कि यह वस्तु ऐसे ही है। परन्तु ज्ञायक ज्ञायकरूप परिणमे नहीं, तबतक ज्ञानको भी यथार्थ विशेषण लागू नहीं पडता। इसलिये सब दोष है।
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मुमुक्षुः- सब गुणोंका दोष है।
समाधानः- सबका दोष है। एक पलटने-से सब पलट जाते हैं। एक सम्यक हो तो सब सम्यक होता है। एक-से अटका है। रुचि मन्द है, पुरुषार्थ मन्द है। उस अपेक्षा-से प्रतीतिमें, ज्ञानमें सबमें क्षति है।
मुमुक्षुः- विकल्प भी सहज है, निर्विकल्प भी सहज है और मैं भी सहज हूँ। तो फिर विकल्पमें दुःख लगना चाहिये, तो सहजमें दुःख लगना चाहिये, उसमें फर्क नहीं पडा?
समाधानः- विकल्प सहज है, मतलब अपने पुरुषार्थकी परिणतिके बिना कोई जबरन करवा नहीं देता। विकल्प सहज है, वह तो अपेक्षा-से है। खुद ऐसा रखे कि विकल्प सहज है, इसलिये अपनेआप जो होनेवाला है वह होता है, तो उसकी पुरुषार्थकी गति अपनी ओर मुडेगी नहीं। जो अटका है वह अपने पुरुषार्थकी गति नहीं है, उस तरफ उसकी विपरीत परिणति जाती है, इसलिये अटका है। विकल्प सहज है, ऐसा यदि रखे, उस एक अपेक्षाको ग्रहण करे और पुरुषार्थकी मन्दताको ग्रहण नहीं करेगा तो वह आगे नहीं बढेगा।
सब कार्यमें अपने पुरुषार्थकी क्षतिको यदि देखेगा तो ही वह पलटेगा, अन्यथा पलटेगा नहीं। ... सहज है। परन्तु विकल्प सहज है, इसलिये अपनेआप होनेवाला होता है, तो-तो फिर अशुभमें-से शुभ भी नहीं होगा। वह कुछ बदल ही नहीं पायेगा। शुभमें-से शुद्ध भी नहीं होगा। जैसे होनेवाला हो, वैसा होगा। वह कोई आत्मार्थीका लक्षण नहीं है।
जहाँ आत्मार्थ है, वहाँ उसे ऐसा ही लगता है कि मेरी मन्दता-से मैं अटका हूँ। मेरी पुरुषार्थकी (क्षति है)। फिर भले ही वह उतनी आकुलता न करे, परन्तु वह समझे कि मेरी अपनी मन्दता-से मैं अटका हूँ। अपनी मन्दता उसके ध्यानमें हो तो पलटना होगा। मन्दता ही ध्यानमें नहीं है और किसी और पर डाले तो उसे बदलनेका अवकाश नहीं है।
मुमुक्षुः- मैं सहज हूँ, ज्ञायक सहज है।
समाधानः- हाँ, ज्ञायक अनादिअनन्त वस्तु सहज है। परन्तु उसकी परिणति पलटनेमें पुरुषार्थका काम है। .. अपेक्षा-से सहज है, परन्तु पुरुषार्थ पलटना अपने हाथकी बात है। जिसे ज्ञायक दशा प्रगट हुई है, जिसे भेदज्ञानकी धारा प्रगट हुयी है, उसे सहज परिणति (है)। जिसे भेदज्ञानकी सहज परिणति प्रगट हुयी है, उसे भी ऐसा रहता है कि मेरे पुरुषार्थकी मन्दता-से, मेरी लीनताकी मन्दता-से मैं चारित्रमें, वीतराग दशामें, छठ्ठी-सातवीं भूमिकामें पहुँचा नहीं हूँ। मेरी अपनी मन्दताके कारण। उसके ज्ञानमें भी
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ऐसा होता है।
यह तो अभी उससे भी पहलेकी भूमिकामें खडा है, भेदज्ञान प्रगट नहीं हुआ है और सहज दशा तो प्रगट नहीं हुयी है, और सहज मान ले तो आगे बढनेका अवकाश नहीं है। सहज दशा ही प्रगट नहीं हुयी है। और कर्तृत्वबुद्धिमें खडा है और सहज मान ले तो आगे बढनेका अवकाश नहीं है। इसे तो कर्ताबुद्धि छूट गयी है, स्वामीत्वबुद्धि छूट गयी है, ज्ञायक दशा प्रगट हुयी है, तो भी उसमें पुरुषार्थकी अपेक्षा उसके ध्यानमें रहती है कि मेरे चारित्रकी मन्दता-से लीनताकी मन्दता-से छठ्ठी-सातवीं भूमिकामें जा नहीं पाता हूँ। वह उसके ख्यालमें है। तो भी उसे ऐसा रहता है। सर्व अपेक्षा-से ऐसा ही माने कि सब सहज है, तो आगे बढनेका अवकाश नहीं रहता है।
मुमुक्षुः- इसमें क्रमबद्ध आ गया न?
समाधानः- सब सहज माने उसमें क्रमबद्ध आ गया। परन्तु क्रमबद्ध पुरुषार्थपूर्वक होना चाहिये। पुरुषार्थके साथ क्रमबद्ध जुडा है। सच्चा क्रमबद्ध तब कहा जाय कि जिसकी कर्ताबुद्धि छूट गयी, सहज ज्ञायक दशा प्रगट हुयी है तो भी पुरुषार्थके साथ वह क्रमबद्ध सम्बन्ध रखता है। पुरुषार्थकी जैसी परिणति हो उस जातका उसका क्रमबद्ध होता है। उस जातके क्रमबद्धकी रचना उसे होती है। वह पुरुषार्थके साथ जुडा है।
उसकी पुरुषार्थकी गति अपनी तरफ जाय, ज्ञायकरूप (परिणमे) तो उसका क्रमबद्ध मोक्ष तरफ जाता है। और बाहरमें खडा है, विभावमें एकत्वबुद्धि करके (मानता है कि) जैसे होना होगा वैसा होगा, उसका क्रमबद्ध उस जातका है। अपनी तरफ जाय उसका क्रमबद्ध उस जातका है।
मुमुक्षुः- ज्ञानको किस प्रकार-से धीरा करें?
समाधानः- ज्ञानको धीरा करके तू देख, ज्ञायक क्या है? वस्तु क्या है? पर क्या है? क्या स्व है? ऐसे धीरा होकर विचार तो यथार्थ ज्ञान होगा। आकुलता, रागमिश्रित ऐसे ज्ञानमें विशेष आकुलतामें यथार्थ स्वभाव तुझे ग्रहण नहीं होगा। इसलिये धीरा होकर, रागको गौण करके धीरा होकर विचार। तो यथार्थ होगा। यथार्थ वस्तु ख्यालमें आयेगी। ज्ञानको धीरा करके, राग-से भिन्न उसे गौण करके देख तो तुझे यथार्थ ग्रहण होगा।
मुमुक्षुः- विपरीत श्रद्धा हो तो ज्ञान धीरा नहीं होता है?
समाधानः- उसमें जो विशेष आकुलता हो, उस आकुलता-से धीरा पड सकता है। यथार्थमें धीरा हो, वह अलग बात है। जिज्ञासाकी भूमिकामें भी धीरा होकर देख तो सकता है।
मुमुक्षुः- विकल्पात्मक भेदज्ञान हुआ?
समाधानः- विकल्पात्मक है।
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मुमुक्षुः- दिगंबर केवलज्ञान शक्तिरूप-से स्वीकारते हैं, सत्ता और शक्तिमें क्या अंतर है?
समाधानः- सत्ता अर्थात अग्निकी भाँति अन्दर वैसाका वैसा पडा है। अग्नि अन्दर है, ऊपर-से ढक दी है। वैसे सत्ता-से केवलज्ञान (है), उस (मान्यतामें) केवलज्ञान अन्दर पडा है और ऊपर-से ढक गया है, ऐसा अर्थ है। और शक्ति-से केवलज्ञान अर्थात उसकी परिणति, उसकी परिणतिकी शक्ति कम हो गयी है। उस अर्थमें है।
स्वभाव उसका अखण्ड है। परन्तु अन्दर ढका हुआ, सूर्य पूरा प्रकाशमान है, बादलों- से ढक गया है। ऐसे केवलज्ञान तो अन्दर वैसाका वैसा भरा है, परन्तु ऊपर-से ढकम गया है, ऐसे सत्ता-से केवलज्ञान (मानता है)। दिगंबर ऐसा कहता है, अन्दर पूरा केवलज्ञानका सूर्य परिणति रूप-से वैसाका वैसा पडा है, ऐसे नहीं है। परन्त उसकी शक्ति-स्वभाव- से है। परन्तु उसकी शक्ति परिणतिरूप नहीं है। उसकी शक्ति कम है। पर्यायमें शक्ति कम हो गयी है। जबकि सत्ता अर्थात पर्यायकी परिणति भी वैसीकी वैसी है, ऐसा कहना चाहते हैं।
मुमुक्षुः- वे लोग परिणतिरूप मानते हैं।
समाधानः- हाँ, परिमतिरूप-से सत्ता मानते हैं। परिणतिरूप-से नहीं है, शक्तिरूप- से है। ऐसा अंतर है। स्वभाव है, स्वभावका नाश नहीं हुआ है, परन्तु उसे प्रगट नहीं है। जैसे छोटीपीपरमें चरपराईकी शक्ति है, परन्तु उसे घीसते-घीसते चरपराई प्रगट होती है। वैसे उसकी केवलज्ञानकी शक्ति परिपूर्ण भरी है, परन्तु उसे प्रगट पर्यायरूप नहीं है।
मुमुक्षुः- सत्तारूप नहीं है।
समाधानः- हाँ, शक्तिरूप-से है, सत्तारूप-से नहीं है। अन्दर वैसाका वैसा भरा है अर्थात वेदन मानो प्रगट पडा हो, ऐसा सत्तामें अर्थ होता है। प्रगट पडा हो वैसे। प्रगट नहीं पडा है, शक्तिमें है। सत्ताका अर्थ ऐसा है कि मानों प्रगट कैसे पडा हो। वैसे प्रगट नहीं है।
... होनेकी शक्ति है, परन्तु वह कहीं वृक्षरूप नहीं है। वैसा है। केवलज्ञानकी शक्ति है, परन्तु उसे परिणतिरूप-से प्रगट करे तो वह प्रगट होता है। बीजमें जैसे वृक्ष होनेकी शक्ति है। ... ऊपर ढका हुआ हो, पूरा है।
मुमुक्षुः-
समाधानः- स्वभावको पहिचाने तो हो। श्वेतांबर-दिगंबर... अपना स्वभाव पहिचानना चाहिये।
मुमुक्षुः- स्वभाव तो दिगंबर शास्त्रमें ही यथार्थ बताया है।
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समाधानः- यथार्थ मार्ग तो दिगंबर शास्त्रोंमें ही है। वह तो यथार्थ है ही कहाँ? उसमें यथार्थ नहीं है। उसमें कितने ही जातके फेरफार है। वह यथार्थ नहीं है। .. कितने ही फेरफार है। यथार्थ मार्ग तो दिगंबरमें ही है। प्रारंभ-से लेकर पूर्णता पर्यंतका दिगंबरमें ही है। श्वेतांबरमें तो बहुत फेरफार है। सत्ता और शक्तिके अलावा भी दूसरे बहुत फेरफार है। बहुत फेरफार हैं। (गुरुदेवने) कितना अभ्यास करके, खोज-खोजकर, विचार करके परिवर्तन किया था कि यह मार्ग सत्य है।
मुमुक्षुः- श्रीमदजीने उतनी स्पष्टता नहीं की है। अन्दरमें थी, परन्तु लिखावटमें उतनी स्पष्टता (नहीं है)। गुरुदेवने जितनी की है उतनी नहीं है।
समाधानः- गुरुदेवने तो पूरा मार्ग प्रकाशित कर दिया। सूक्ष्म रूप-से भी कहीं किसीकी भूल न रहे ऐसा कर दिया है।
मुमुक्षुः- जन्म-मरण करते-करते मुश्किल-से मनुष्यभव मिला, उसमें ऐसा सुनने मिला। उसमें ऐसा मार्ग गुरुदेवने बताया। उसमें आत्मा भिन्न है, उसका क्या स्वभाव है, उसे पहचानना है। ये विभावस्वभाव तो दुःखरूप और आकुलतारूप है। वह कहीं अपना स्वभाव नहीं है, आकुलता है। शुभाशुभ भाव आकुलता है। अन्दर सुखरूप एक आत्मा है। उसे कैसे पीछानना, उसका प्रयत्न करना। उसके लिये उसके विचार, वांचन, सब करना। और देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा। एक शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, उस ध्येयपूर्वक। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा-शुभभावनामें वह। जिनेन्द्र देव, गुरु और शास्त्र। और अंतरमें शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो, वह करना है। जीवनमें उसके लिये यह सब प्रयत्न, उसके लिये अभ्यास, सब उसीके लिया करना है।
बाकी सब तो अनादिकाल-से सब किया है। जीवको सब प्राप्त हो चूका है। वह कहीं अपूर्व नहीं है। देवलोकका भव और देवलोककी संपत्ति प्राप्त हुयी, और बाहरकी संपत्ति भी जीवको अनन्त बार मिली है। अपूर्व तो सम्यग्दर्शन अपूर्व है। इसलिये गुरुदेवने अपूर्व वस्तु बतायी। वह कैसे प्राप्त हो, वह करना है।
जीवको अनन्त कालमें सब प्राप्त हुआ है। एक जिनेन्द्र देव नहीं मिले हैं उसका अर्थ स्वयंने पहिचाना नहीं है। अनन्त कालमें मिले हैं, परन्तु पहिचाना नहीं है। इसलिये नहीं मिलने बराबर है। और एक सम्यग्दर्शन अपूर्व है। वह कैसे प्राप्त हो, उसकी भावना, लगन, महिमा आदि सब करने जैसा है। उसका विचार, वांचन सब करना है।
अंतरमें कोई अपूर्व वस्तु है, अनुपम वस्तु है। सुखरूप वस्तु है। उसकी प्रतीत, उसका ज्ञान, उसमें लीनता, वह सब कैसे प्राप्त हो, उसका प्रयत्न करने जैसा है। ऐसा मानते थे, इतना शुभभाव किया अथवा इतनी क्रियाएँ की तो धर्म हो जाय, ऐसा माना था। ऐसेमें गुरुदेवने अंतर दृष्टि बतायी कि अंतरमें धर्म है। बाहर-से कुछ
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नहीं आता है। जब तक शुद्धात्मा प्रगट न हो, तो उसका ध्येय रखे। तबतक देव- गुरु-शास्त्र तरफखे शुभभाव आये। बाकी धर्म तो आत्माके स्वभावमें रहा है। वह मार्ग पूरा गुरुदेवने बताया है।
मुमुक्षुः- माताजी! आपके निमित्त-से जो स्पष्टीकरण हो वह भी उतना सुन्दर होता है कि लोगोंको जो कुछ अस्पष्ट हो, वह स्पष्ट हो जाता है।
समाधानः- अंतरमें शीघ्रता-से पुरुषार्थ उत्पन्न हो... उत्पन्न न हो तो उसका संस्कार डाले। एकत्वबुद्धि तोडकर मैं चैतन्य ही हूँ, ऐसे बारंबार दृढ अभ्यास करता रहे। उसका विचार, उसका वांचन, देव-गुरु-शास्त्रने जो बताया है, वह सब स्वयं बारंबार उसका मंथन कर-करके उसके संस्कार डाले तो भविष्यमें भी संस्कार गहरे तो वह प्रगट होनेका कारण बनता है। जो पुरुषार्थ करे, उग्र करे तो उसे अंतर्मुहूर्तमें होता है, उससे भी उग्र करे तो उसे छः महिनेमें होता है। न हो तो उसका अभ्यास बारंबार करता रहे। अभ्यास करे तो भी भविष्यमें उसे प्रगट होनेका कारण बनता है। यदि अन्दर यथार्थ गहरे संस्कार डाले तो।
वह आता है न, तत्प्रति प्रीति चित्तेन वार्तापि ही श्रुताः। प्रीति-से भी तत्त्वकी- आत्माकी बात सुनी है कि आत्मा कोई अपूर्व है, ऐसा गुरुदेवने बताया है। अंतरकी गहरी रुचि-से सुने तो वैसे संस्कार यदि उसे दृढ हो जाय तो भविष्यमें उसे वह प्रगट हुए बिना नहीं रहते। वैसा पुरुषार्थ भविष्यमें फिर-से उत्पन्न होनेका उसे कारण बनता है। अतः ऐसा कारण डाले, यदि प्रगट न हो तो बारंबार ऐसा अभ्यास करता रहे। अभ्यास करता रहे तो भी अच्छा है।
मैं चैतन्य हूँ, चैतन्य हूँ, ये सब मैं नहीं हूँ। जो एकत्वबुद्धि अनादिकाल-से दृढ हो रही है, क्षण-क्षणमें शरीर-से भिन्न मैं हूँ, वह तो उसे मालूम नहीं है, वह मात्र विचार-से नक्की करता है। परन्तु क्षण-क्षणमें मैं भिन्न ही हूँ। ये विकल्प हो वह भी मेरा स्वरूप नहीं है। ऐसे क्षण-क्षणमें उसे भिन्न करनेका, अंतर-से महिमापूर्वक (करे)। रुखे भाव-से नहीं। आत्मा कोई अपूर्व और अनुपम वस्तु है। ऐसी उसको महिमा आकर अंतरमें-से बारंबार मुझे यही ग्रहण करने योग्य है और यही वस्तु सर्वस्व है। इसप्रकार वह बारंबार परिणति दृढ करता रहे। उसका विचार, उसका वांचन सब करता रहे तो वह अभ्यास करने जैसा है।
गुरुदेव कहते थे, छोटीपीपरको घिसते-घिसते चरपराई प्रगट होती है। वैसे बारंबार अभ्यास करने-से अंतरमें-से प्रगट होनेका कारण बनता है। छाछमें मक्खन होती है। उसे बिलोते-बिलोते मक्खन बाहर आता है। वैसे बारंबार यदि यथार्थ अभ्यास हो, अपना अस्तित्व ग्रहण करके कि मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे बारंबार अभ्यास करे तो भेदज्ञान प्रगट
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होनेका कारण बनता है। यथार्थ कारण हो तो कार्य आता ही है। बाकी आत्मा भिन्न है।
जैसे स्फटिक स्वभाव-से निर्मल है, वैसे आत्मा स्वभाव-से-वस्तु-से तो निर्मल है। उसमें लाल-पीला प्रतिबिंब उत्पन्न होता है, वह तो बाहरके फूलका उठता है। ऐसे कर्मके निमित्त-से जो विभाव भाव होता है, उसमें परिणति अपनी होती है, पुरुषार्थकी मन्दता-से। वह जड नहीं करवाता। अपनी परिणतिकी मन्दता-से होती है। परन्तु उसे वह पलट सकता है कि मैं तो चैतन्य हूँ और यह मेरा स्वभाव नहीं है। इसप्रकार परिणतिको भिन्न करके, मैं तो एक शुद्धात्मा हूँ, ये सब विभावभाव है, उसे प्रयास करके अंतरमें उसका भेदज्ञान करे। बारंबार उसकी दृढता करे।
आत्मामें ज्ञान और आनन्द भरा है, वह अपनेमें-से प्रगट होता है, बाहर-से कहीं- से नहीं आता है। बाहरमें-से कुछ आ जाता है या बाहरमें-से आनन्द या ज्ञान नहीं आते। देव-गुरु-शास्त्र मार्ग बताये। वह ज्ञान प्रगट होनेका कारण बनता है। परन्तु पुरुषार्थ स्वयंको करना रहता है।
अनादिकाल-में जो देशनालब्धि होती है (उसमें) कोई गुरु मिले, कोई देव मिले तो अंतरमें स्वयं ग्रहण करता है। परन्तु ऐसे गुरुके उपदेशका निमित्त बनता है। उपादान अपना है। परन्तु ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है कि गुरुके उपदेशका निमित्त बनता है। पुरुषार्थ स्वयंको करना पडता है। ज्ञायकको ग्रहण करना। ज्ञायकको ग्रहण कैसे करना? उसका मार्ग भिन्न-भिन्न नहीं है। एक ज्ञायकको ग्रहण करना। वस्तु-मार्ग एक ही है। उसकी प्रतीति, उसका ज्ञान, उसकी लीनता। उसके लिये सब लगनी, महिमा, उसका अभ्यास बारंबार वही करनेका है।
मुमुक्षुः- पहले ज्ञानलक्षण-से, ये जो पंद्रहवी गाथामें आया कि ज्ञानलक्षण-से..
समाधानः- ज्ञानलक्षण-से आत्माकी पहिचान होती है। ज्ञानलक्षण-से पूरे ज्ञायकको ग्रहण करना। ज्ञानलक्षण एक सामान्य आत्माका लक्षण कि जिसमें भेद नहीं है, ऐसा ज्ञायक। कोई पर्यायका भेद, पर्यायके भेद पर भी दृष्टि नहीं रखकर मैं पूर्ण ज्ञायक हूँ, उस ज्ञायकको ग्रहण करे तो ज्ञायक ग्रहण होता है।
इतना जाना, इतना जाना, इतना जाना वह मैं, ऐसा नहीं। परन्तु ज्ञायक जो जाननेवाला है, वही मैं हूँ। उसे ग्रहण करना। ज्ञानकी अनुभूति-ज्ञायककी अनुभूति है वही मैं हूँ। विभावकी जो अनुभूति हो रही है वह मैं नहीं हूँ। ज्ञायककी अनुभूति है वही मैं हूँ। रागमिश्रित जो स्वाद आये वह मैं नहीं। परन्तु मैं एक ज्ञायक, अकेला ज्ञायक, जिसमें अकेला ज्ञायक ही है, चारों ओर ज्ञायक ही है, वह मैं हूँ। .. मैं स्वयं ज्ञायक हूँ। ऐसे ज्ञायकको ग्रहण करना वही (उपाय है)। रागमिश्रित जो ज्ञान होता है-विकल्पमें, वह विकल्प मैं नहीं हूँ, अपितु मैं ज्ञान हूँ। इसप्रकार ज्ञानको ग्रहण करना।