Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 272.

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ट्रेक-२७२ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- आत्माका ज्ञानस्वभाव अनन्त है, वह तो अनन्त ज्ञेय पर-से ख्याल आता है कि एक समयमें तीन काल तीन लोकको जाने उतना परिपूर्ण सामर्थ्य भरा है। अनन्त सुख हम कहते हैं, परन्तु अनन्त यानी उसका कोई ख्याल नहीं आता है। अनन्त यानी कितना और किस प्रकार-से? जैसे ज्ञानका थोडा विचार करते हैं तो ज्ञानमें थोडा विचार लंबाता है। परन्तु सुखमें उतना लंबाता नहीं है।

मुमुक्षुः- ज्ञानकी बाहर-से कल्पना करी कि चाहे जितने ज्ञेयोंको जाने, एक समयमें जाने, वह बाहर-से निर्णय हुआ है। परन्तु वह ज्ञेय-से ज्ञान है, ऐसा नहीं है, ज्ञान तो स्वतः है। ज्ञान अनन्त-अनन्त भण्डार है। चाहे जितना तो भी खत्म नहीं होता। ज्ञेयों-से ज्ञान है, ऐसा नहीं। अनन्त काल पर्यंत परिणमे तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता और अनन्त जाने तो भी ज्ञान खत्म नहीं होता, ऐसा अनन्त ज्ञान है।

वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध है। अनन्त काल पर्यंत सुखरूप परिणमे तो भी सुख खत्म नहीं होता है। और वह सुख जो प्रगट होता है वह स्वयं अनन्त (है)। इतना सुख और उतना सुख, ऐसे नहीं, परन्तु सर्व प्रकार-से सर्व अंश-से पूरे असंख्य प्रदेशमें अनन्त-अनन्त, जिसकी कोई सीमा नहीं है ऐसा सुखका स्वभाव स्वयं ही है। उसे बाहर-से नक्की करना वह स्वतःसिद्ध वस्तु नहीं है।

जैसे ज्ञानको बाह्य ज्ञेयों-से नक्की करनेमें आये, वह तो स्वतःसिद्ध है, वह तो ज्ञेयों-से जाननेमात्र नक्की करनेके लिये है। जैसे ज्ञान स्वतःसिद्ध है, वैसे सुख भी स्वतःसिद्ध अनन्त ही है। उसके अनन्त गुण, अनन्त सामर्थ्य-से भरा हुआ, ऐसा सुख भी अनन्त काल पर्यंत खत्म नहीं होता और जो प्रगट होता है वह भी अनन्त है। उसके अनन्त- अनन्त अंशों-से भरा है। उसके अविभाग प्रतिच्छेद आदि सब अनन्त ही है। जो प्रगट हो उसके अंशमें अनन्त है और उसके अविभाग प्रतिच्छेद सब अनन्त ही हैं।

मुमुक्षुः- वर्तमानमें आकुलताका स्वाद आता है। इसलिये सुखकी एक कल्पना (करनी पडती है कि) अनाकुलता लक्षण सुख। परन्तु वास्तविक स्वाद नहीं आया है, इसलिये उसकी मात्र कल्पना होती है। ज्ञानमें तो अंश प्रगट है, इसलिये उसे तो अनुमान- से स्पष्ट (ज्ञानमें) लिया जाता है कि यह ज्ञान और ऐसा परिपूर्ण ज्ञायक वह आत्मा।


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ऐसा सुखमें ख्याल नहीं आता है।

समाधानः- ज्ञान है वह ऐसा असाधारण गुण है, वह चैतन्यका ऐसा विशेष गुण है कि उसे उस प्रकार-से नक्की किया जा सकता है। यह सुख है, वह ज्ञानकी भाँति, जैसे ज्ञेयोंको जानने-से (ज्ञान) नक्की होता है, वैसे वह सुखगुण ज्ञानकी भाँति वैसा असाधारण उस जातका गुण नहीं है। इसलिये उसे नक्की करना मुश्किल पडता है। तो भी उसका एक वेदन स्वभाव है। बाहर जहाँ-तहाँ सुखकी कल्पना कर रहा है, उस पर-से भी जिसे जानना हो, जिस मुमुक्षुको सुखका स्वभाव जानना हो, तो बाहर जो सुखकी कल्पना करनेवाला है वह स्वयं सुखस्वभावी है। इस प्रकार उसे नक्की किया जा सकता है, यदि वह करना चाहे तो।

उसका लक्षण उतना ही दिखता है कि सुखकी कल्पना बाहर कर रहा है। वह उसका लक्षण है। बाकी ज्ञानकी भाँति, जैसे ज्ञानगुण असाधारण है, वैसा वह नहीं है। तो भी जडमें कहीं सुखगुण नहीं है। सुखगुण एक चैतन्यमें ही है। जड जैसे जानता नहीं है, वैसे जडमें सुखका कोई स्वभाव भी नहीं है। सुखका स्वभाव आत्मामें ही है। इसलिये वह कल्पना कर रहा है, अतः वह सुख स्वभाव आत्माका है। ऐसे नक्की किया जा सकता है। परन्तु अंतर-से स्वयं बराबर बिठाये तो नक्की कर सकता है।

मुमुक्षुः- समयसारकी प्रथम गाथामें श्री गुरु अपने आत्मामें और श्रोताओंके आत्मामें अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करते हैं। तो श्रोताको अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करनी, उसमें क्या करनेको कहनेमें आता है?

समाधानः- जो गुरुदेव समझाये और आचार्य ऐसा कहते हैं कि मैं तेरे आत्मामें अनन्त सिद्धोंकी स्थापना करता हूँ अर्थात तू सिद्ध भगवान जैसा ही है। जैसे अनन्त सिद्ध है, वैसा ही तू है, ऐसा हम तुझे स्थापना करके कहते हैं, इसलिये तू स्वीकार कर कि तू सिद्ध भगवान जैसा ही है। और सिद्ध भगवानके स्वभाव जैसा तेरा स्वभाव है, अतः तू उस रूप परिणमन कर और पुरुषार्थ कर सके ऐसा है। ऐसा तू स्वीकार कर। ऐसा आचार्यदेव एवं गुरुदेव ऐसा कहते हैं कि हम तेरे आत्मामें सिद्ध भगवानकी स्थापना करते हैैं कि तू सिद्ध भगवान जैसा है। ऐसा तू स्वीकार कर।

ऐसा श्रोताओंको स्वयंको स्वीकार करना है। जो गुरु कहते हैं, सामने श्रोता ऐसे हैं कि स्वीकार करता है कि मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। इसलिये जो गुरु कहते हैं, उसका मैं स्वीकार करके परिणमित हो जाऊँ। ऐसा स्थापना करनी है। जैसे अनन्त सिद्ध है, वैसा ही मैं सिद्ध भगवान जैसा ही हूँ। मेरा स्वभाव वैसा ही है, इसलिये मैं उस रूप हो सकू ऐसा हूँ। मेरेमें कुछ नहीं है और मैं कैसे करुँ, ऐसा नहीं है।

गुरुदेव और आचाया सिद्ध भगवानकी स्थापना करते हैं। श्रोताके आत्मामें (स्थापना


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करके कहते हैं कि) तू सिद्ध भगवान जैसा है, तू स्वीकार कर। जैसे सिद्ध भगवान है, वैसा ही तू है। ऐसे स्थापना (करते हैं)। आचार्यदेव और गुरुदेव कृपा करके शिष्यको सिद्ध भगवान जैसा कहते हैं कि तू सिद्ध है, तू भगवान है, ऐसा स्वीकार कर। अतः यदि पात्र श्रोता हो तो वह स्वीकार कर लेता है कि हाँ, मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। उसे यथार्थ परिणमन भले बादमें हो, परन्तु पहले ऐसा नक्की करे कि हाँ, मझे गुरुदेवने कहा कि तू सिद्ध भगवान (जैसा है), तो मैं सिद्ध भगवान जैसा हूँ। ऐसा तू स्वीकार कर, ऐसा स्थापना करके कहते हैं। हम तुझे सिद्ध भगवान जैसा मानकर ही उपदेश देते हैं। तू नहीं समझेगा ऐसा मानकर नहीं कहते हैं। तू सिद्ध भगवान जैसा ही है, ऐसा तू नक्की कर। तो तेरा पुरुषार्थ प्रगट होगा।

मुमुक्षुः- अंतरमें मनोमंथन करके व्यवस्थित निर्णय करनेमें क्या-क्या आवश्यकता है?

समाधानः- वह तो अपनी पात्रता स्वयंको ही तैयार करनी है। स्वयं कहीं अटकता हो, स्वयंको कुछ बैठता न हो। मुख्य तो है, तत्त्वविचार करना। उपादान-निमित्त, स्वभाव- विभाव, क्या मेरा स्वभाव है, क्या विभाव है, मेरे चैतन्यके द्रव्य-गुण-पर्यायके क्या है, परद्रव्यके द्रव्य-गुण-पर्याय, अपने द्रव्य-गुण-पर्याय, मैं विभाव स्वभाव-से कैसे भिन्न पडूँ, सब स्वयंको अपने आप नक्की करना है। उसका मंथन करके एकत्वबुद्धि कैसे टूटे, आत्मा भिन्न कैसे हो, भेदज्ञान कैसे हो, उसका अंश कैसा होता है, उसकी पूर्णता कैसी होती है, उसकी साधक दशा कैसी होती है।

गुरुने जो अपूर्व रूप-से उपदेश दिया, गुरुको साथ रखकर स्वयं नक्की करे कि ये स्वभाव मेरा है, ये विभाव भिन्न है। ऐसा बराबर मंथन कर-करके अपने-से नक्की करे। ऐसा दृढ नक्की करे कि किसी-से बदले नहीं। ऐसा अपने-से नक्की करे। अपनी पात्रता ऐसी हो तो स्वयं नक्की कर सकता है।

मुमुक्षुः- ... स्वभावकी पहचान होती है या सीधी पहचान होती है? विस्तारपूर्वक समझानेकी कृपा कीजिये।

समाधानः- गुरुदेवने द्रव्य-पर्यायका ज्ञान बहुत दिया है, बहुत विस्तार किया है। सूक्ष्म रूप-से सर्व प्रकार-से कहीं भूल न रहे, इस तरह समझाया है। परन्तु स्वयंको पुरुषार्थ करनेका बाकी रह जाता है। बात तो यह है। पर्यायकी पहिचान, पर्यायको कहाँ पहचानता है?

जो द्रव्यको यथार्थ पहचानता है, वह द्रव्य-गुण-पर्यायको पहचानता है, वह सबको पहचानता है। पर्यायको स्वयं पीछानता नहीं है। द्रव्यका ज्ञान करनेमें पर्याय बीचमें आती है। इसलिये पर्याय द्रव्यको ग्रहण करती है। पर्याय द्वारा द्रव्य ग्रहण होता है। परन्तु


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उसमें पर्यायको नहीं देखना है, द्रव्यको देखना है।

वह पर्याय द्रव्यको ग्रहण करे ऐसी शक्ति है। ज्ञानकी ऐसी शक्ति है कि स्वयं द्रव्यको ग्रहण कर सके। लोकालोक प्रकाशक ज्ञान एक समयका ज्ञान हो, वह एक समयकी पर्याय जो ज्ञानकी है, वह एक समयमें लोकालोकको जाने। ऐसा उसका एक पर्यायका स्वभाव है। वह तो निर्मल ज्ञान हो गया है। इसका ज्ञान तो कम हो गया है। परन्तु पर्याय अपनेको ग्रहण कर सके ऐसी उसमें शक्ति है। परन्तु स्वयं अपनी तरफ देखता ही नहीं। अपनी क्षति है, स्वयं देखता नहीं है। स्वयं द्रव्यको पहचाननेका प्रयत्न नहीं करता है। मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा ज्ञायक हूँ। ज्ञानलक्षण द्वारा स्वयं अपनेको पीछान सकता है, प्रयत्न करे।

जितना ज्ञान लक्षण दिखता है, उस लक्षण द्वारा ज्ञायककी पहिचान होती है। गुण द्वारा गुणीकी पहिचान होती है। उसमें बीचमें पर्याय आती है, परन्तु पर्याय ग्रहण करती है द्रव्यको। विषय द्रव्यका करना है, ग्रहण द्रव्यको करना है। पर्याय पर-से दृष्टि छोडकर द्रव्य पर दृष्टि करनी है। भेदज्ञान करनेका है कि ये विभाव है वह मेरा स्वभाव नहीं है। ये सब विभाविक पर्यायें, उससे मैं अत्यंत भिन्न शाश्वत द्रव्य हूँ। गुणका भेद पडे या पर्यायका भेद पडे, वह भेद जितना मेरा स्वभाव नहीं है, मैं तो अखण्ड द्रव्य हूँ। उसमें अनन्त गुण है। उसकी पर्यायें हैैं। परन्तु उसके भेद पर दृष्टि नहीं देकरके एक अखण्ड द्रव्यको ग्रहण करना वही यथार्थ मार्ग है और वही सम्यग्दर्शन है। उसे यदि ग्रहण करे और विभाव-से भेदज्ञान करके ज्ञायककी परिणति प्रगट करे और ज्ञायकके भेदज्ञानकी धारा यदि प्रगट करे तो विकल्प छूटकर स्वानुभूति होती है और वही मुक्तिका मार्ग है और गुरुदेवने वही बताया है और वही करनेका है।

ग्रहण तो पर्याय द्वारा होता है, परन्तु वह स्वयं ग्रहण करे तो हो। पर्याय बीचमें आती है। पर्यायको ग्रहण नहीं करनी है। पर्याय पर दृष्टि नहीं करनी है, परन्तु दृष्टि द्रव्य पर करनी है। ग्रहण तो द्रव्यको ही करना है। अखण्ड द्रव्य ज्ञायक स्वभाव, उसको ग्रहण करना है।

उसे ग्रहण करे वही मुक्तिका मार्ग है। अनन्त कालमें जीवने सब किया लेकिन एक द्रव्यको ग्रहण नहीं किया। वह करना है। शुभाशुभ भाव भी चैतन्यका स्वभाव नहीं है। साधकदशामें वह शुभभाव बीचमें आते हैं। पंच परमेष्ठी भगवंतोंकी भक्ति, देव- गुरु-शास्त्रकी भक्ति, जिन्होंने उसे प्रगट किया उसकी भक्ति आती है। परन्तु वह शुभभाव है, उससे ज्ञायकका परिणमन भिन्न है। ऐसी श्रद्धा, प्रतीति और ऐसी ज्ञायककी परिणति प्रगट हो सकती है। वही मुक्तिका मार्ग है। फिर वीतराग दशा होती है तब वह सब छूट जाता है।


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आचार्यदेव, गुरुदेव शुद्धात्मामें परिणति प्रगट करनेको कहते हैं। शुद्धात्माको तू ग्रहण कर। परन्तु बीचमें शुभभाव आये बिना नहीं रहते। शुभभाव तो जबतक पूर्णता नहीं होती तबतक आते हैैं। परन्तु उसकी परिणति शुद्धात्मा तरफकी ही होती है, साधक दशा।

मुमुक्षुः- उपदेशमें ऐसा आये कि अपने छोटे अवगुणको पर्वत जितना गिनना और दूसरेके छोटे गुणको बडा करके देखना। ऐसा भी आये कि पर्यायकी पामरताको गौण करके स्वयंको परमात्मस्वरूप देखना। ऐसे दोनों कथनका तात्पर्य क्या है?

समाधानः- चैतन्य अखण्ड द्रव्य पूर्ण-परिपूर्ण है, शाश्वत है। उस द्रव्यकी दृष्टि करनी और पर्यायमें न्यूनता है उसका ज्ञान करना। साधक दशामें दृष्टि और ज्ञान दोनों साथमें होते हैं। मैं द्रव्यदृष्टि-से पूर्ण हूँ। मेरा जो द्रव्य है उस द्रव्यका नाश नहीं हुआ है। अनादिअनन्त परिपूर्ण प्रभुतास्वरूप मैं हूँ। आत्माकी प्रभुताको लक्ष्यमें रखकर पर्यायमें मैं अधूरा हूँ, उस न्यूनताका उसे ज्ञान रहता है।

पुरुषार्थ कैसे हो? स्वरूपमें लीनता कैसे हो? स्वानुभूतिकी विशेष-विशेष दशा कैसे हो? अन्दरमें ज्ञायककी परिणति विशेष कैसे हो? पर्यायमें पुरुषार्थ पर उसका ध्यान होता है। इसलिये पर्यायमें मैं पामर हूँ और द्रव्य वस्तु स्वभाव-से मैं पूर्ण हूँ। दृष्टि और ज्ञान दोनों साधक दशामें साथ ही रहते हैैं। उसे कोई अपेक्षा-से मुख्य और कोई अपेक्षा-से (गौण कहनेमें आता है)। साधक दशामें दोनों जातकी परिणति साथमें ही होती है।

मैं दृष्टि-से पूर्ण हूँ और पर्यायमें अधूरा हूँ। दोनों उसकी साधक दशामें साथ ही होते हैं। इसलिये दूसरे पर दृष्टि (नहीं करनी है)। जो ज्ञाता हो वह ज्ञाता तो जानता रहता है। दूसरेका गुण देखने-से स्वयंको लाभका कारण होता है। दोष देखना तो नुकसानका कारण है। इसलिये वह गुणको मुख्य करके दोषको गौण करता है। स्वयंको पुरुषार्थ करना है, इसलिये स्वयं अपने अल्प दोषको (मुख्य करके समझता है कि) मुझे अभी बहुत पुरुषार्थ करना बाकी है। इसलिये अपने दोष पर दृष्टि करके गुणको गौण करता है। स्वयंको पुरुषार्थ करना है। दूसरेका दोष देखना, उसमें अटकना वह कोई साधकका कर्तव्य नहीं है।

प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र परिणमती है। वह तो ज्ञायकरूप रहना, ज्ञायकका ज्ञाता स्वभाव है, ज्ञातारूप-से जानते रहना। परन्तु साधक दशामें अपने गुणको गौण करके जो दोष है उसको मुख्य (करता है)। अपनी अल्पताको मुख्य करके, मुझे बहुत करना बाकी है, ऐसे स्वयं देखता है, उस जातका पुरुषार्थ करता है। दूसरेके गुणको देखे उसे मुख्य करता है और दूसरेको दोषको गौण करता है। दूसरेके दोषके साथ उसे कोई प्रयोजन


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नहीं है।

स्वयं आगे बढनेके लिये गुण ग्रहण करता है। अपने स्वभाव पर दृष्टि करके मैं स्वभाव-से पूर्ण हूँ। अपने गुणको ग्रहण करता है वह दूसरेके गुण (ग्रहण करता है)। परन्तु अपने गुण तो स्वभाव दृष्टि-से (देखता है)। बाकी अपनेमें कितनी अल्पता है, उस अल्पता पर दृष्टि करके पुरुषार्थ कैसे बढे, वीतराग कैसे होऊँ, मेरी साधक दशा कैसे आगे बढे, ऐसी भावना उसे होती है। इसलिये अपने गुणको गौण करके दोषको मुख्य करता है। दूसरेके गुणको मुख्य करता है। दूसरेके दोषके साथ कुछ प्रयोजन नहीं है। दूसरेके गुण-से अपनेको लाभ होता है। इसलिये उसे मुख्य करके स्वयंको आगे बढनेके लिये साधकदशामें साधकका वह प्रयोजन है।

आत्मार्थीओंको भी वही प्रयोजन है कि दूसरेके गुण ग्रहण करना, परन्तु दोषको ग्रहण नहीं करना। आत्मार्थीको भी होता है। दूसरेके दोषको गौण करके गुण मुख्य करना। और स्वयं कहाँ भूलता है और स्वयं कहाँ अटकता है, अपने दोष पर दृष्टि करके और पुरुषार्थको आगे बढाये। स्वभाव-से पूर्ण हूँ, उसका ख्याल रखे। परन्तु अभी बहुत पुरुषार्थ करना बाकी है। ऐसी खटक उसे अन्दर होनी चाहिये।

मुनिओं भी वीतरागदशा (की भावना भाते हैं कि) वीतराग कैसे होऊँ? पंच परमेष्ठी- अरिहंत, सिद्ध, आचार्य भगवंत आदि, उनके गुण पर दृष्टि करके स्वयं आगे बढता है। मुनिराज, साधक सब। पंच परमेष्ठी जिन्होंने साधना की, जो पूर्ण हो गये, उन पर भक्ति करके स्वयं अपना पुरुषार्थ, अपने पुरुषार्थकी डोर शुद्धात्मा तरफ जोडकर आगे बढता है। इसलिये करनेका वही है।

करना एक है-शुद्धात्माको (पहचानना)। आचार्यदेव कहते हैं, हम तुझे आगे बढनेको कहते हैं तीसरी भूमिकामें। उसका मतलब तुझे अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। परन्तु तीसरी भूमिका कहकर, तू तीसरी भूमिकामें जा। आगे बढनेको कहते हैं। उसमें-से अशुभमें जानेको नहीं कहते हैं। बीचमें शुभभाव तो आते ही हैं। इसलिये वहाँ भी नहीं अटकना है। तीसरी भूमिकामें जानेको आचार्यदेव कहते हैं। तीसरी भूमिकामें निर्विकल्प दशामें स्थिर होकर बाहर आये तो शुभभाव, पंच परमेष्ठी भगवंतोंकी भक्ति, गुणग्राहीपना वह सब आता है। और अपने दोष देखने तरफ दृष्टि और अपने पुरुषार्थकी डोर बढाकर आगे जाता है। मैं पूर्ण हूँ, फिर भी पर्यायमें न्यूनता है। ऐसी उसे भावना रहती है। पुरुषार्थ-से अपनी गति विशेष लीनता तरफ जोडता है और आनन्द एवं अनुभूतिकी दशा, चारित्र दशाको विशेष वृद्धिगत करता है।

मुमुक्षुः- परमागमसारमें निम्न रूपसे बात आती है। उसमें पहले जिज्ञासुका प्रश्न है कि ज्ञान विभावरूप परिणमता है? उसके उत्तरमें गुरुदेवश्रीने ऐसा कहा कि ज्ञानमें


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विभावरूप परिणमन नहीं है। ज्ञान स्वपरप्रकाशक स्वभावी है। परन्तु जो ज्ञान स्वको प्रकाशे नहीं, सिर्फ परको ही प्रकाशे तो वह ज्ञानका दोष है। यहाँ विभाव और दोषके बीच क्या अंतर है, यह कृपा करके समझाईये।

समाधानः- वह तो श्रद्धामें उसकी भूल पडी है, वहाँ ज्ञानमें उसे भूल होती है। श्रद्धामें भूल (है)। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। जिसे अपनी ओर यथार्थ प्रतीति हुयी, उसका ज्ञान भी यथार्थ है। जहाँ श्रद्धामें भूल है इसलिये ज्ञान भी मिथ्या नाम प्राप्त करता है।

विभावकी कषायकी जो कालिमा हो रही है, वह कालिमा और इस ज्ञानमें अंतर है। ज्ञान जो स्थूल रूप-से व्यवहारमें जानता है, वैसे जाननेमें भूल नहीं है। परन्तु स्वयंको जानता नहीं है, ज्ञान स्वपरप्रकाशक (होने पर भी) वह परको यथार्थ नहीं जानता है। जो परको जानता है और स्वको नहीं जानता है, वह तो उसकी बडी भूल है। इसलिये स्वपूर्वक परको जाने तो वह ज्ञान यथार्थ है। स्वको नहीं जानता है, वह ज्ञानका दोष है, ज्ञानकी भूल है।

जैसे दर्शनकी भूल है, वैसे ज्ञानकी भी भूल है। परन्तु विभावकी जो परिणति (है), कषायकी कालिमाकी जो परिणति है वैसी ज्ञानकी परिणति नहीं है। ज्ञानकी परिणति उसे मिथ्यारूप परिणमी है। जो जाने, व्यवहारमें जो जाने वह स्थूलरूप-से जानता है, ऐसा कहनेमें आता है। परन्तु उसकी श्रद्धाके साथ उसके ज्ञानमें भी भूल है। स्वयंको नहीं जानता है, वह उसकी भूल है। उसे भी मिथ्याज्ञान कहनेमें आता है। अपने स्वपदार्थको नहीं जानता है। स्वयंको नहीं जाना, उसने कुछ नहीं जाना। और स्वयंको जाने उसने सब जाना है। परको जाने परन्तु उसे यथार्थ नहीं कहते हैं। अपनेको जाने तो वह यथार्थ ज्ञान कहलाता है।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवश्री ऐसा फरमाते थे कि, जिससे लाभ माने उसे अपना माने बिना रहे नहीं। यहाँ परपदाथामें इष्ट-अनिष्ट बुद्धि तो जीवको है। तो क्या अनिष्टपनेमें अपनत्व नहीं है? अथवा पूज्य गुरुदेवकी यहाँ क्या आशय है, उसे स्पष्टि कीजिये।

समाधानः- परपदार्थको इष्ट मानता है, अनिष्ट माने उसे अनिष्ट मान रहा है, परन्तु अन्दरमें तो, यह मुझे नुकसान करता है, नुकसान करता है, ऐसा जो उसने माना है वह जूठा है। उसने अपनत्व माना है। अनिष्ट-से मुझे नुकसान होता है, इष्ट- से मुझे लाभ होता है। वह दोनों भाव उसके यथार्थ नहीं है। इष्ट-अनिष्ट ज्ञाताकी परिणतिमें एक भी नहीं है। वस्तु स्वभाव-से इष्ट-अनिष्ट कुछ है ही नहीं। परन्तु इष्टपना माना वह कहता है, मुझे ठीक है। और अनिष्ट माना कि मुझे ठीक नहीं है, उसमें वह नुकसान करता है। ऐसा माना उसमें अपनी परिणतिके साथ उसे कुछ एकत्वपना


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हो, ऐसी भ्रान्ति अन्दर साथमें आ जाती है।

कोई नुकसान नहीं करता है और कोई लाभ भी नहीं करता है। दोनोंमें उसकी जूठी मान्यता है। विभावका कारण.... परिणतिमें जो दुःखका कारण विभाव परिणतिमें है, उसके कार्यमें उसे अनिष्ट आदि सब फलमें आते ही रहता है। उसका कारण ऐसा है। अंतरमें उन दोनोंके साथ अन्दर एकत्वबुद्धि है ही। नुकसान माने तो भी एकत्वबुद्धि है और लाभ माने तो भी एकत्वबुद्धि ही है। दोनोंके साथ एकत्वबुद्धि है।

परन्तु दोनों इष्ट-अनिष्ट-से छूटकर मैं ज्ञायक हूँ, मुझे कोई परपदार्थ इष्ट-अनिष्ट नहीं करता। मेरा ज्ञायक है वही मुझे लाभरूप है। उस तरफ परिणति जाय तो उस ओर शुभभाव आये, परन्तु शुभभाव कहीं आदरने योग्य नहीं है। आदरणीय तो एक चैतन्यतत्त्व ही आदरणीय है। इष्ट-अनिष्ट-से छूट जाना और एक ज्ञायककी परिणति प्रगट करनी वही लाभरूप है। अनिष्टमें भी अपनत्व हो गया और इष्टमें अपनत्व आ ही जाता है। दोनोंमें आ जाती है। लाभ-नुकसान दोनोंमें माना इसलिये दोनोंमें अपनत्व आ जाता है। उसने मुझे नुकसान किया, इसलिये उसमें उसे एकत्वबुद्धि हो गयी है। दोनों-से भिन्न पडकर अंतरमें ज्ञायककी परिणति प्रगट करके इष्ट-अनिष्ट मुझे कुछ नहीं है। अन्दर ज्ञायक है वही मुझे उपादेय है, ये सब त्यागने योग्य है।

साधकदशामें शुभभावना साथमें आ जाती है। ज्ञायक परिणति यथार्थ जो है सो है। यथार्थ परिणति प्रगट करके उसे शुभभावना (आती है)।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!