Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 279.

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ट्रेक-२७९ (audio) (View topics)

समाधानः- .. मन-से हो ऐसा नहीं है, संवर तो सहज है। जिसकी सहज दशा है उसे सहज संवर ही है। मनको रोकना, मनको रोकना वह तो व्यवहार-से परिभाषा है। अन्दर संवरस्वरूप जो स्वयं परिणमित हो गया है, भेदज्ञानरूप, उसे सहज संवर ही है। विग्रहगतिमें जो सम्यग्दर्शन लेकर जाय तो उसे जो सहज भेदज्ञान है, उसे मनके साथ सम्बन्ध होता है, ऐसा तो कुछ नहीं है। इसलिये उसे संवर तो साथमें होता है। ... संवर तो होता है। संवर तो विग्रहगतिमें होता है। मुनिओंको विशेष संवर (होता है)। चारित्र अपेक्षा-से संवरकी बात है। गुप्ति-से संवर होता है।

मुमुक्षुः- ... आनन्दका अनुभव क्या होगा? फिर आठ ही दिन वहाँ पर क्यों रहे?

समाधानः- आठ दिन उसे तो भगवान मिल गये। उनका शरीर अलग, विदेहक्षेत्रका शरीर अलग, वहाँ-के संयोग अलग, उनकी मुनिदशा, मुनिदशा तो अंतरमें-से पालनी है, परन्तु उनका शरीर कितना? पाँचसौ धनुषका शरीर, वहाँ महाविदेह क्षेत्रमें कितने बडे शरीर होते हैं। उन सबके साथ.. मुनिदशा पालनी वह सब मेल (नहीं बैठता)। आठ दिन-से ज्यादा रह नहीं सके। देव ही उन्हें वापस यहाँ छोड गये, ऐसा कहा जाता है।

चारित्रदशा अन्दर मुनिदशा है न। ज्यादा रहना मुश्किपल है, आहार-पानीकी दिक्कत हो जाय। एक बालक जैसे दिखे। इतने बडे शरीर होते हैं। मुनि हैं, अन्दरमें छठवें- सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं। पंच महाव्रतका पालन करना, सब दिक्कत होती है। मुनिदशाके योग्य,.. वहाँका आहार हजम होना ही मुश्किल पडे, ऐसे शरीरवालेको।

मुमुक्षुः- संवर, निर्जरा और मोक्षको पर्याय बोला है। तो पर्याय बोला है तो आत्मा तो शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव जो है, वह तो मुक्तिरूप-स्वरूप ही है, तो उसको पर्यायकी अपेक्षा-से संवर, निर्जरा, मोक्ष कहनेमें आता है?

समाधानः- शुद्धात्मा तो द्रव्यदृष्टि-से देखो तो शुद्धात्मा तो अनादिअनन्त मोक्षस्वरूप- मुक्तस्वरूप है। उसमें संवर, निर्जरा साधककी पर्याय कहनी वह व्यवहार है। परन्तु वह उसकी पर्याय है। क्योंकि संवर, निर्जरा सब साधककी पर्याय है। उसमें पहले संवर


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सम्यग्दर्शनरूप होता है, फिर चारित्रदशा आती है। उसमें विशेष निर्जरा होती है। पहले अमुक निर्जरा होती है, विशेष निर्जरा मुनिदशामें होती है। वह सब पर्याय है।

परन्तु द्रव्य अपेक्षा-से शुद्धात्मा अनादि (मुक्तस्वरूप ही है)। ऐसा द्रव्य और पर्याय दोनों वस्तुका स्वभाव ही है। जो प्रगट पर्याय होती है मुक्तिकी, उसे पर्याय कहते हैं। और अनादिअनन्त द्रव्य तो मुक्तस्वरूप है। मुक्तस्वरूप द्रव्य है, परन्तु वेदन नहीं है। उसका स्वयंको स्वानुभूतिका वेदन नहीं है, पर्याय प्रगट नहीं हुयी है। द्रव्य तो शुद्ध है, द्रव्यमें कहीं अशुद्धताका प्रवेश नहीं हुआ है। द्रव्य तो शुद्ध है। परन्तु पर्यायका वेदन नहीं है। स्वानुभूतिका वेदन कहाँ है? पर्याय प्रगट हुए बिना वेदन नहीं होता। इसलिये जब उसकी स्वानुभूतिकी दशा प्रगट होती है, स्वानुभूतिका वेदन होता है।

वह स्वानुभूति विशेष बढने पर वीतरागता होती है इसलिये उसे पूर्ण वेदन होता है। वह प्रगट मुक्त दशा है। ये शक्तिरूप मुक्त दशा है। वह व्यक्तिरूप मुक्तदशा है। इसलिये द्रव्य और पर्यायका मेल है। द्रव्य और पर्याय वस्तुका स्वरूप है। इसलिये शुद्ध पर्याय नहीं है, तबतक वेदन नहीं है। शुद्धपर्याय प्रगट हुयी, इसलिये उसे स्वानुभूति, वीतरागदशाका वेदन होता है। इसलिये वह प्रगट मुक्त दशा है, यह शक्तिरूप मुक्त दशा है।

समाधानः- .. उस वक्त यहाँ सजावट आदि की थी, स्वाध्याय मन्दिरमें बहुत सुन्दर था। गुरुदेवका जीवन-दर्शन, गुरुदेवके चरण, सब बहुत अच्छा लगता था। वहाँ देखने गयी तो वह सब सजावट देखकर ऐसा लगा कि गुरुदेव यहाँ विराजते हो तो ये सब शोभे। ऐसे विचार आते थे, भावना होती रही। उस दिन घर आकर पूरी रात ऐसा हुआ, गुरुदेव पधारो, पधारो ऐसा भावनामें रहा। फिर प्रातःकालमें ऐसा स्वप्न आया कि गुरुदेव देवलोकमें-से देवके रूपमें पधारे। सब देवका ही रूप था। झरीके वस्त्र, हार रत्नके, रत्नके वस्त्र थे।

गुरुदेवने कहा कि ऐसा कुछ नहीं रखना, बहिन! मैं तो यहीं हूँ। मैं यही हूँ, ऐसा दो-तीन बार कहा। आप यहाँ हो ऐसे आपकी आज्ञा-से मान लें, परन्तु ये सब दुःखी हो रहे हैं। उसका क्या? गुरुदेव तो मौन रहे। स्वप्न तो इतना ही था। परन्तु उस वक्त सबको इतना उल्लास था कि मानों गुरुदेव विराजते हों और उत्सव होता हो, ऐसा था। गुरुदेव देवके रूपमें पधारे। ऐसा स्वप्न था। पहचाने जाते थे, गुरुदेव देवके रूपमें भी गुुरुदेव ही है, ऐसा पहचाना जाता था।

मुमुक्षुः- मुख गुरुदेवका?

समाधानः- मुख देवका था। परन्तु पहचान हो जाय कि गुरुदेव देव हुए हैं और देवके रूपमें पधारे हैं। ऐसा कुछ नहीं रखना, बहिन! मैं तो यहीं हूँ, यहीं हूँ, यहीं हूँ। ऐसा तीन बार कहा। देवमें तो ऐसी शक्ति होती है कि जहाँ जाना हो वहाँ


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जा सकते हैं। परन्तु यह पंचमकाल है इसलिये कुछ दिखता नहीं है। मनुष्य कहीं जा नहीं सकते हैं, परन्तु देव तो जा सकते हैं।

देव तो भगवानका दर्शन करने, वाणी सुनने, भगवानका कल्याणक जहाँ होते हों वहाँ देव जाते हैं। जहाँ प्रतिमाएँ, मन्दिर हों वहाँ दर्शन करने (जाते हैं)। शाश्वत प्रतिमा है, वहाँ दर्शन करने जाते हैं।

मुमुक्षुः- माताजी! साक्षात पधारे हो तो भी आपको स्वप्न लगे और साक्षात पधारे हो, ऐसा भी हो सकता है न।

समाधानः- अपनेको तो स्वप्न लगे। गुरुदेव तो...

मुमुक्षुः- साक्षात पधारे।

समाधानः- देवके रत्नमय वस्त्र था, ऐसे थे।

मुमुक्षुः- वातावरण तो ऐसा हो गया था कि मानों गुरुदेव साक्षात पधारे हो।

समाधानः- वातावरण तो ऐसा हो गया था। उस दिन दूज थी, परन्तु सबका उल्लास ऐसा था।

मुमुक्षुः- खास तो आपको विरहका वेदन हुआ और उसी रात गुरुदेव साक्षात पधारे।

समाधानः- गुरुदेव तो मौजूद ही है, क्षेत्र-से दूर है। शरीर बदल गया, बाकी गुरुदेव तो गुरुदेव और उनका आत्मा तो मौजूद ही है। देवमें है।

समाधानः- बहुत सुना है वह करना है। आत्माकी पहचान कैसे हो? ये शरीर.. आत्मतत्त्व एक अंतरमें भिन्न है। जो ज्ञानसे भरा है, जिसमें आनन्द भरा है, अनन्त ु गुण भरे हैं, ऐसा आत्मा है। उसकी महिमा, उसकी लगन लगाने जैसा है। उसके लिये उसका वांचन, विचार सब वही करना है। उसकी अपूर्वता लाकर। बाकी रूढिगतरूप- से जीवने बहुत बार सब किया, परन्तु कुछ अपूर्वता नहीं लगी। कुछ अपूर्व करना है। इस प्रकार उसकी लगन लगाकर, उसका वांचन, विचार, अभ्यास करने जैसा है।

बाकी आत्मा, एक आत्माको लक्ष्यमें रखकर, आत्मा पर दृष्टि करके, उसे पहचानकर सब आत्मामें-से प्रगट होता है। आत्मा ही अनन्त निधि-से भरा है। जो भी प्रगट होता है वह आत्माके आश्रय-से प्रगट होता है। ज्ञान, दर्शन, चारित्रसब आत्माके आश्रय- से प्रगट होता है। उसे बाहर-से निमित्त देव-गुरु-शास्त्र होते हैं। भगवान मार्ग बताये। गुरुदेवने इस पंचमकालमें मार्ग बताया। निमित्तमें मार्ग बतानेवाले होते हैं, करना स्वयंको है। शास्त्रमें वह सब है, परन्तु शास्त्रका रहस्य भी गुरुदेवने खोला है।

मुमुक्षुः- कहीं न कहां माताजी! अटक जाते हैं। आपकी तरह धारावाही .. नहीं होता, ..


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समाधानः- उतनी स्वयंकी मन्दता है। जीवको कहीं-कहीं संतोष हो जाता है। इसलये आगे नहीं बढ सकता।

मुमुक्षुः- आगे कैसे बढना?

समाधानः- जबतक आगे नहीं बढता, तबतक उसीमें उसीका अभ्यास करना। उसका अभ्यास करते-करते तीव्रता होती है तब वह आगे जाता है।

समाधानः- गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट कर-करके मार्ग सूक्ष्म-सूक्ष्म रीत-से समझाया है। कोई अपूर्व बात समझायी है। सब बाहर-से धर्म होता है, ऐसा मानते थे। शुभभाव- से, बाह्य क्रिया करने-से धर्म होता है, ऐसा मानते थे।

गुरुदेवने अंतर दृष्टि बतायी। धर्म अंतरमें रहा है। अंतरमें आत्माको पहचाने। आत्मा किस स्वभावरूप है? आत्माका स्वरूप क्या? आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय क्या है? ये विभाव क्या? ये परद्रव्य क्या है? पुदगलके द्रव्य-गुण-पर्याय, आत्माके द्रव्य-गुण-पर्याय, उसे यथार्थ पहिचाने। और शरीर-से भिन्न, विभावस्वभाव अपना नहीं है, उससे स्वयंको भिन्न करे। भिन्न करके अंतर आत्मा एक अपूर्व अनुपम वस्तु है, उसे पहिचाननेका प्रयत्न करे। तो उसमें-से ही धर्म रहा है।

धर्म अन्दर आत्मामें है। बाहर-से देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शुभभाव आये उससे पुण्य बँधता है। परन्तु अन्दर शुद्धात्मामें धर्म रहा है। और उस शुद्धात्माके ध्येयपूर्वक शुभभावमें जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्र उनकी महिमा आये, चिंतवन करे, शास्त्र अभ्यास करे। ऐसा सब करे। परन्तु एक आत्माका ध्येय होना चाहिये कि मुझे शुद्धात्माकी पहचान कैसे हो? आत्मा कैसे भिन्न पडे? अनादिका भिन्न है, परन्तु वह परिणति-से कैसे न्यारा हो? वह कैसे हो? उसकी लगन, उसकी महिमा लगनी चाहिये। बाकी संसार तो ऐसे ही अनादिका चलता है।

गृहस्थाश्रममें रहकर भी आत्माकी रुचि हो, आत्मा कोई अपूर्व है, उसकी अनुपमता लगे तो वही करना है। गुरुदेवने कोई अपूर्व मार्ग बताया है। उनकी वाणी कोई अपूर्व थी, उनका आत्मा अपूर्व था। उन्होंने अलग प्रकार-से सबको दृष्टि दी है और मार्ग बताया है। करनेका वही है।

मुमुक्षुः- हमें ये शुभभाव यात्राके भाव आये, आपका दर्शनका भाव आये, गुरुदेव प्रत्ये अनन्य भक्ति आवे। वह तो आते ही हैं।

समाधानः- शुभभाव तो आयेंगे। शुभभाव तो आये, परन्तु ध्येय शुद्धात्माका होना चाहिये। शुभभाव तो जिज्ञासाकी भूमिकामें आवे। सम्यग्दृष्टिको शुभभाव आते हैं, मुनिओंको शुभभाव आते हैं। परन्तु सम्यग्दृष्टिको अन्दर भेदज्ञान होता है कि शुभभाव और आत्मा भिन्न है। उसकी ज्ञायककी परिणति भिन्न रहती है। मुनिओंको शुभभाव आते हैं। वे


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तो शास्त्र रचते हैं, भगवानके दर्शन करते हैं। मुनिओंको भी शुभभाव आते हैं। परन्तु वे तो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हुए आत्माकी स्वानुभूति प्रतिक्षण करते हैं। और सम्यग्दृष्टिको शुभभाव आवे तो (उसे) भेदज्ञानकी धारा वर्तती है और स्वानुभूति उसे भी होती है।

जिज्ञासाकी भूमिकामें भी शुभभाव आते हैं। जिनेन्द्र देवकी भक्ति, गुरुकी भक्ति, शास्त्र स्वाध्याय आदि तो होता है। परन्तु ध्येय एक आत्माका होना चाहिये। ये सब होता है, परन्तु पुण्यबन्ध है। उससे आत्माका स्वरूप भिन्न है। यह ध्येय होना चाहिये। परन्तु वह नहीं हो तबतक साथमें तो होता ही है। शुभभाव तो शुद्धात्मामें पूर्णरूप- से स्थिर न हो जाय, तबतक शुभभाव होते हैं। परन्तु उसे श्रद्धा ऐसी यथार्थ होनी चाहिये कि मेरा आत्मा इन सब भावों-से भिन्न है। ये सब भाव आकुलतारूप हैं, मैं शुद्धात्मा भिन्न हूँ। ऐसी श्रद्धा होनी चाहिये।

मुनिओं और आचायाको भी भगवानकी भक्ति आती है। स्तोत्रकी रचना करते हैं, शास्त्रकी रचना करते हैं। वह सब होता है। गृहस्थाश्रममें हो वहाँ अशुभभाव-से बचनेको शुभभाव तो आते हैं। परन्तु ध्येय एक आत्माका होना चाहिये-शुद्धात्माका।

गुरुदेवने जो साधना की, भगवानने जो पूर्ण स्वरूप प्राप्ति किया, शास्त्रमें जो वस्तुका स्वरूप कोई अपूर्व रीत-से आता है, उसका विचार, वांचन सब होना चाहिये।

मुमुक्षुः- हमारा ध्येय तो आत्मा है। परन्तु प्राप्त करनेके लिये कोई सरल विधि? कोई विशेष?

समाधानः- उसकी सरल विधि तो उसका ध्येय होना चाहिये। अंतरमें उसकी लगनी, महिमा, पुरुषार्थ, बारंबार उसका अभ्यास होना चाहिये। वह न हो तबतक देव- गुरु-शास्त्रकी महिमा, वह सब होता है। परन्तु उसे बारंबार पुरुषार्थ, अभ्यास होना चाहिये। आत्मा कैसे प्राप्त हो? उसकी लगनी, महिमा, खटक (लगे)। बाहरमें कहीं उसे रुचि या रस अंतरमें तन्मयपने आता नहीं। अन्दरमें आत्मा जिसे महिमारूप लगे, बाहरमें कहीं महिमा न लगे। बाहर उसे महिमा नहीं आती। अंतर आत्मामें ही कोई अपूर्वता है, ऐसी उसे श्रद्धा होनी चाहिये।

(गुरुदेवने स्पष्ट करके) बता दिया है, कहीं भूल न पडे ऐसा। तैयारी स्वयंको करनी है, पुरुषार्थ स्वयंको करना है। बारंबार उसीका अभ्यास, उसीका रटन, उसका मनन करना है।

समाधानः- .. पहले-से सातवें-से एकदम जोर-से चढते हैं, परन्तु क्षय करते हुए नहीं चढते हैं। एकदम वीतराग दशा हो जाती है। परन्तु ढका हो ऐसा। फिर वह सातवेमें आ जाते हैं। कोई चौथेमें आ जाय। ऐसे आते हैं। परन्तु वे चढ जाते हैं।


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उपशांत।

जिसे सम्यग्दर्शन है, जो छठवें-सातवें गुणस्थानमें झुलते हैं, वास्तविक भावलिंगीकी दशा है, उस वक्त भले उपशांत श्रेणि हुयी, परन्तु वह तो केवल लेनेवाले हैं, अवश्य। भले एक बार उपशम श्रेणि हो गयी, बादमें भी कोई बार क्षपकश्रेणि चढकर केवलज्ञान अवश्य उसे होनेवाला है। छठवें-सातवें गुणस्थानमें भावलिंगी मुनिदशा है तो क्षपकश्रेणी तो होती है। उस भवमें या दूसरे भवमें क्षपण श्रेणी तो होती है। जिसको भावलिंगीकी दशा है, भीतरमें मुनिदशा है, छठवें-सातवेंमें स्वानुभूति अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें जाते हैं, अंतर्मुहूर्तमें बाहर आते हैं, ऐसी स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हो गयी। उसको अवश्य केवलज्ञान होनेवाला है। जिसको सम्यग्दर्शन हुआ, उसको भी अवश्य केवलज्ञान होनेवाला है। और मुनिदशा यथार्थ हुयी उसको भी अवश्य केवलज्ञान होनेवाला है। वीतराग दशा होनेवाली है। उसका ऐसा पुरुषार्थ अवश्य-अवश्य प्रगट होता है। उसकी परिणतिकी दशा स्वरूप ओर चली गयी है, ज्ञायककी धारा है और वह तो मुनिदशा है, स्वरूपमें लीनता बहुत बढ गयी है। अवश्य वीतराग दशा होती है, केवलज्ञान होता है।

मुमुक्षुः- मुख्यपने तो क्षपकश्रेणी ही होती है न? उपशम श्रेणी तो कोई-कोईको होती है।

समाधानः- हाँ, कोई-कोईको होती है।

मुमुक्षुः- .. ज्ञायक हूँ, ऐसा खण्ड पडता है। कर्ता-हर्ता नहीं है, मैं तो स्वयंसिद्ध अपने-से ही हूँ।

समाधानः- मैं ज्ञाता हूँ, दृष्टा हूँ ये सब गुणोंका भेद पडता है।

मुमुक्षुः- विकल्प आ जाता है।

समाधानः- विकल्प गुणोंका भेद है। परन्तु दृष्टि तो जो ज्ञायक हूँ सो हूँ, मेरा अस्तित्व, ज्ञायकका अस्तित्व ग्रहण कर लिया है, बस। फिर वह तो जाननेके लिये है कि मैं ज्ञान हूँ, दर्शन हूँ, चारित्र हूँ, ये सब विकल्प है। विकल्पकी दशा जबतक निर्विकल्प दशा पूर्ण नहीं है, तबतक विकल्पकी दशा तो है, परन्तु दृष्टि चैतन्य पर स्थापित है। उसकी दृष्टि अखण्ड रहती है। सम्यग्दृष्टिकी दृष्टि चैतन्य पर जमी है।

मुमुक्षुः- ...

समाधानः- फिर लीनता होती है। स्थिरता बादमें होती है। पहले यथार्थ दृष्टि होवे, भेदज्ञानकी धारा होवे, मैं ज्ञायक ज्ञायक हूँ। उसमें स्वानुभूति होवे सम्यग्दर्शनमें, विशेष लीनता बादमें होती है।

जिज्ञासुको तो पहले दृष्टि यथार्थ करनी चाहिये। मैं चैतन्य ज्ञायक ही हूँ। जो हूँ सो हूँ। विकल्पका भेद वह मैं नहीं हूँ। निर्विकल्प तत्त्व मैं हूँ। ऐसा उसका निर्णय


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करके दृष्टि चैतन्य पर स्थापनी चाहिये। विकल्पका भेद तो जाननेके सब आता है। परन्तु दृष्टि तो चैतन्य पर होनी चाहिये।

... तो दृष्टि छूटे। बाहरमें जिसको महत्व लगे, उसकी दृष्टि भीतरमें चिपकती नहीं। भीतरमें महत्व लगे तो दृष्टि वहाँ चिपके।

मुमुक्षुः- अभी कर लेने जैसा है। देह छूटनेके बात तो कहाँ...

समाधानः- बाहरमें सब धर्म मान बैठे थे।

मुमुक्षुः- गृहीत मिथ्यात्वमें धर्म मानते थे।

समाधानः- हाँ, उसमें मानते थे। उसका अर्थ भीतरमें-से खोल-खोलकर गुरुदेवने बहुत बताया है। सूक्ष्म-सूक्ष्म करके। कोई जानता ही नहीं था। पंचास्तिकायका अर्थ कौन कर सकता था?

मुमुक्षुः- समयसारके लिये तो बोलते थे कि वह तो मुनियोंका ग्रन्थ है, गृहस्थोंका है ही नहीं।

समाधानः- गृहस्थोंका है ही नहीं ऐसा कहते थे।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!