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मुमुक्षुः- कार्य होनेमें पुरुषार्थकी क्षति है, या समझकी क्षति है, या दोनोंकी क्षति है?
समाधानः- पुरुषार्थकी क्षति है। और समझ भी जबतक यथार्थ नहीं हुयी है तबतक समझकी भी क्षति है। बुद्धि-से तो जाना है। गुरुदेवने कहा उसे बुद्धि-से तो बराबर ग्रहण किया है। परन्तु अन्दर-से जो यथार्थ समझ, यथार्थ ज्ञान जो परिणतिरूप होना चाहिये, वह नहीं हुआ है। इसलिये उस तरह ज्ञानकी परिणतिमें भी भूल है। परिणति प्रगट नहीं हुयी है। बुद्धि-से तो ग्रहण किया है, जो गुरुदेवने कहा वह। परन्तु पुरुषार्थकी मन्दताके कारण (कार्य नहीं हो रहा है)।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थ कैसे करना?
समाधानः- यदि रुचिकी उग्रता हो तो पुरुषार्थ हुए बिना रहे नहीं। रुचि अनुयायी वीर्य। रुचि जिस तरफ जाय, उस तरफ पुरुषार्थ जाय। परन्तु अपनी रुचि ही मन्द हो, वहाँ पुरुषार्थ उत्पन्न नहीं होता है। हो रहा है, होगा, ऐसा अपनेको होता है, उग्र भावना नहीं होती। इसलिये पुरुषार्थ नहीं होता है। रुचि उग्र हो तो हो।
बाहरमें रुकना (रुचे नहीं)। उसे क्षण-क्षणमें बस, आत्माकी लगन लगे, रात और दिन कहीं चैन न पडे, ऐसा उसे अन्दर हो तो अपना पुरुषार्थ आगे बढे। मन्द-मन्द रहता है इसलिये आगे नहीं बढता। उग्र नहीं हो रहा है।
मुमुक्षुः- अंतर सन्मुख पुरुषार्थ रुचिके जोरमें होता है?
समाधानः- हाँ, रुचिके जोर-से होता है।
मुमुक्षुः- रुचि उग्र हो तो अंतर सन्मुख पुरुषार्थ सहज होता है?
समाधानः- हाँ, सहज होता है। रुचि अपनी तरफ जाय तो पुरुषार्थ भी उस तरफ जाता है।
मुमुक्षुः- तो पुरुषार्थ करना नहीं रहा, रुचि करनी रही।
समाधानः- दोनोंका सम्बन्ध है, सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- दोनों साथमें होते हैं।
समाधानः- दोनों साथ होते हैं। रुचि हो तो पुरुषार्थ साथमें होता है।
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समाधानः- रुचिकी।
मुमुक्षुः- रुचि गहराईसे जागृत होनेके लिये क्या करना?
समाधानः- स्वयंको ही करनी है। स्वयं ही विभाव-से छूटकर करे कि नक्की करे कि ये स्वभाव ही आदरणीय है, ये आदरणीय नहीं है। विभाव आदरणीय नहीं है। विभावमें सुख नहीं है। उसके साथ एकत्वबुद्धि (चलती है)। सब जूठा अयथार्थ है। यथार्थ तो आत्मा तत्त्व उससे भिन्न होने पर भी एकत्व मान रहा है, वह जूठ ही माना है। स्वयंने माना है उसे, यथार्थ ज्ञान और निश्चय करके स्वयं रुचिको दृढ करता जाय। उसमें ज्ञान, रुचि, पुरुषार्थ सबका सम्बन्ध है। यथार्थ ज्ञान-से निश्चय करना चाहिये कि बाहरमें कहीं सुख नहीं है। सुख आत्मामें है। दोनों तत्त्व भिन्न है। ये तत्त्व भिन्न है, ये तत्त्व भिन्न है। ऐसे यथार्थ निश्चय करके रुचिका जोर बढाये।
मुमुक्षुः- ये सब विकल्पमें बैठनेके बावजूद रुचि जोर करे? सिर्फ विकल्पमें बैठे उतना चलेगा नहीं।
समाधानः- पहले तो विकल्प होता है। निर्विकल्प तो बादमें होता है। अतः पहले तो वह अभ्यासरूप ही होता है। विकल्परूपसे अभ्यास हो परन्तु गहराई-से हो, उसका ध्येय ऐसा होना चाहिये कि ये अभ्यास विकल्पका है, अभी अन्दर गहराईमें जाना बाकी है। इस प्रकार ध्येय ऐसा रखना चाहिये। तो गहराईमें जानेका प्रयत्न करे। विकल्पमात्रमें अटक जाय कि मैंने बहुत किया तो आगे नहीं बढ सकता। अभी गहराईमें जाना बाकी है। ये विकल्पमात्र अभ्यास है, उससे भी आगे बढना है। ऐसा यदि ध्येय रखे तो आगे बढना हो।
मुमुक्षुः- विकल्पमें ध्येय ध्रुवका रखकर अभ्यास करना?
समाधानः- हाँ, ध्रुवका ध्येय रखना चाहिये, तो आगे होता है।
मुमुक्षुः- तो ध्रुवका लक्ष्य रखकर सुननेकी जो बात है, वह विकल्पात्मक भूमिका ही है न?
समाधानः- है तो विकल्पात्मक भूमिका, परन्तु ध्येय ध्रुवका होना चाहिये। ध्येय ध्रुवका होना चाहिये। आगे बढनेके लिये। निर्विकल्प होना है। ऐसा होना चाहिये।
मुमुक्षुः- अकेला ध्रुवका ध्येय रखकर श्रवण करे तो भी कार्य होनेमें विलंब होनेका कारण क्या?
समाधानः- सबमें एक ही कारण है। अपने पुरुषार्थकी मन्दताके सिवाय..
मुमुक्षुः- रुचि कम पडती है।
समाधानः- सब अपना कारण है। अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। सबका कारण
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एक ही है। वह कारण-पुरुषार्थ नहीं करता है, इसलिये खडा है, वहीं खडा है।
मुमुक्षुः- विभावमें कहीं न कहीं अटक जाता है।
समाधानः- कहीं न कहीं अटक जाता है। मुमुुक्षुः- वह पकडमें आती है कि विभावमें मेरी अटक रह जाती है?
समाधानः- वह स्वयं पकडे कि मैं यहाँ रुकता हूँ। मेरी गति यहाँ बाहरमें रुकती है, मैं आगे नहीं बढ सकता हूँ।
मुमुक्षुः- अपने परिणामकी जाँच करनी।
समाधानः- अपने परिणाम-से पकड सकता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि कितनी ही बार तो ऐसा होता है कि इतना-इतना मिला और कार्य नहीं हुआ तो क्या होगा? ऐसा हो जाता है।
समाधानः- भावना तो ऐसी रहे न कि इतना हुआ, फिर भी आगे क्यों नहीं बढता है?
मुमुक्षुः- गुरु मिले।
समाधानः- गुरु मिले, अन्दर रुचि होती है, सत्य लगता है तो भी आगे नहीं बढता है।
मुमुक्षुः- अन्दरसे कहीं शंका नहीं होती है। इतना अन्दर-से सत्य लगता है।
समाधानः- परन्तु परिणतिका पलटना अभी बाकी है। भेदज्ञानकी परिणति प्रगट करनी, उसका पलटा हो, स्वानुभूति हो तो भी उसका चारित्र तो बाकी रहता है। चारित्र बाकी रहता है।
मुुमुक्षुः- प्रथम सीढीमें तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करना.. समाधानः- सम्यग्दर्शन। वह मुख्य है। वह मार्ग पर चढ गया, बस। वह पलट गया।
मुमुक्षुः- इतना-इतना उत्साह होने पर भी कार्य नहीं हो रहा है तो जितना भी थोडा-बहुत अन्दरमें आगे बढा है, वह भाविमें कार्यकारी हो कि न हो?
समाधानः- अपने संस्कार वैसे गहरे हो तो भाविमें हो सकता है।
मुमुक्षुः- हो ही अथवा न भी हो?
समाधानः- स्वयंने यथार्थ कारण दिया हो तो होता ही है। कारणमें फर्क हो, ऊपर-ऊपर-से हो तो नहीं होता। बाकी स्वयं अन्दर गहराई-से (करता हो), यह करना ही है और यह करने पर ही छूटकारा है, ऐसे संस्कार अन्दर दृढ हो तो भाविमें कार्य हुए बिना रहता ही नहीं।
देशना ग्रहण होती है। देशनालब्धि अन्दर यथार्थ ग्रहण हुयी हो, तो कभी भी
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अन्दरमें-से पलटे बिना नहीं रहता। वैसे गहरे संस्कार डाले तो वह पलटे बिना नहीं रहता।
मुमुक्षुः- वहाँ फिर कालका कोई कारण नहीं रहता। कभी भी हो। किसकी जल्दी हो, किसीको विलंब हो, परन्तु होता जरूर है।
समाधानः- होता जरूर है।
मुमुक्षुः- उसमें ज्यादा-से ज्यादा अमुक काल लगता है, ऐसा है?
समाधानः- जिसे रुचि हुयी, गहरी रुचि हुयी, उसे कालका माप नहीं है। लेकिन उसका काल मर्यादित हो जाता है, उसे अनन्त काल तो नहीं लगता। उसे मर्यादामें आ जाता है। गहरे संस्कार हो तो आ जाता है।
मुमुक्षुः- भूल होती हो तो हमें किसके पास हमारी भूल पकडवाने जाना, यह समझमें नहीं आता।
समाधानः- गुरुदेवने तो स्पष्ट करके बताया है, करनेका स्वयंको बाकी रह जाता है।
मुमुक्षुः- क्योंकि ज्ञानीके बिना ज्ञान गम्य नहीं है। ज्ञानियोंकी भेंट हुयी, तीर्थंकरकी हुयी तो भी ये परिस्थिति क्यों रह गयी?
समाधानः- स्वयंने ज्ञानीको, गुरुको पहिचाना नहीं है। सब मिले, भगवानको पहचाना नहीं। स्वयंने बाहर-से पहचाना है। अंतर कोई अपूर्व रीत-से ये अलग है, कुछ अलग कहते हैं, उस प्रकार-से पीछाना नहीं।
ये तो पंचम कालमें गुरुदेव पधारे और कुछ अलग प्रकार-से बात कही, इसलिये सबको ख्याल आया कि ये कुछ अलग कहते हैं। बाकी स्वयंने स्थूल दृष्टि-से हर बार पहचाना है। भगवान समवसरणमें बैठे हो, भगवानकी वाणी (छूटती है), भगवानके ये अतिशय है, भगवानके पास इन्द्र आते हैं, ऐसे बाहर-से सब ग्रहण किया है। भगवानका आत्मा क्या है और वे क्या कहते हैं? वह कुछ ग्रहण नहीं किया।
मुमुक्षुः- बाह्य विभूति देखनेमें अटक गया।
समाधानः- बाह्य विभूति देखी।
समाधानः- मनुष्योंमें ऐसी शक्ति नहीं होती, देवमें तो सब शक्ति है, सब क्षेत्रमें जानेकी। देवमें भी वही करते हैं। भगवानके पास जाते हैं। हर जगह जा सकता है। गुरुदेव भगवान-भगवान करते थे। साक्षात भगवानके पास जा सके, समवसरणमें दिव्यध्वनि सुनने। वहाँ शाश्वत मन्दिर हैं, स्वर्गमें मन्दिरोंमें पूजा, धर्म चर्चा आदि सब होता है, देवलोकमें स्वाध्यायादि सब होता है। यहाँ गुरुदेव आजीवन कोई महापुरुष बनकर रहे, वहाँ देवमें भी वही करते हैं। क्षेत्र-से दूर हुए हैं, बाकी गुरुदेव तो विराजते हैं स्वर्गमें। यहाँ बहुत साल विराजे हैं।
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मुमुक्षुः- ... कुछ प्रयोग करके आगे बढा जा सकता है?
समाधानः- ध्याता तो आत्मा स्वयं ध्येय अपना रखना है। और ध्यान साधनामें स्वयं कर सकता है। परन्तु वह पहचानकर, आत्माको पीछानकर कर सकता है। मैं आत्मा जाननेवाला एक ज्ञायकतत्त्व हूँ। ये जो विभाव, विकल्प आदि हैं, वह मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न मैं एक तत्त्व हूँ। शाश्वत द्रव्यको ग्रहण करके उस पर दृष्टि करके फिर उसमें एकाग्रता यदि हो तो ध्यान होता है। परन्तु पहले उसे बराबर आत्माको ग्रहण करना चाहिये।
ये शरीर भिन्न, अन्दर जो विकल्प आये वह विकल्प मेरा स्वभाव नहीं है, उससे भी मेरा स्वभाव भिन्न है। उसे भिन्न ग्रहण करके मैं ज्ञायक हूँ, ऐसे उसकी ज्ञायकता ग्रहण करके ज्ञायकरूप परिणति करे, उसे ध्येयमें रखे कि मैं यह चैतन्य हूँ। उसे बराबर ग्रहण करके फिर उसमें लीनता करे तो ध्यान होता है। तो एकाग्र होता है। ध्याता और ध्येय दोनों स्वयं ही है। ध्यान जो करनेका है एकाग्रता, उसमें एकाग्रता होता है। परन्तु ध्येयको बराबर ग्रहण करना चाहिये। ध्याता ध्यान करनेवाला स्वयं, परन्तु ध्येय आत्मा है, उस आत्माको बराबर ग्रहण करे तो ध्याता, ध्यान और ध्येयका भेद अंतरमें लीन होता है तो सब अभेद हो जाता है।
मुमुक्षुः- ध्यानमें लीन होता है उस वक्त द्रव्य-गुण-पर्यायकी क्या स्थिति होती है?
समाधानः- अंतरमें लीन हो तब? द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मामें है। द्रव्य और गुण। अनादिअनन्त शाश्वत द्रव्य है, उसमें अनन्त गुण भरे हैं। और परिणति जो है, वह विभाव तरफ थी, वह स्वभाव तरफ परिणति जाय तो स्वभावकी पर्याय प्रगट होती है। वह पर्याय है। स्वभाव परिणति। अनन्त गुणोंकी अनन्त पर्याय प्रगट होनी, वह उसकी पर्याय है। उसमें गुण अनन्त हैं।
सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन जहाँ तो उसके सर्व गुणोंकी पर्याय स्वरूप तरफ जाती है अर्थात सम्यकरूप-से परिणमती है। द्रव्य-गुण-पर्याय आत्माकी स्वानुभूति हो तो पर्याय स्वयं स्वरूपरूप परिणमती है। विभावमें-से पलटकर स्वभावरूप परिणमती है। द्रव्य-गुण-पर्याय उस प्रकार परिणमते हैं। द्रव्य और गुण तो अनादिअनन्त शाश्वत है।
मुमुक्षुः- प्रथम एकत्वबुद्धिका अभाव हो, उस जातका...
समाधानः- परपदार्थमें उसे इष्ट-अनिष्ट बुद्धि होती है। इसलिये रागमें वह कोई न कोई निमित्तको स्वयं ग्रहण कर ही लेता है कि ये मुझे ठीक है और ये मुझे ठीक नहीं है। इसप्रकार स्वयं ही ग्रहण करता रहता है। कोई भी निमित्तको (ग्रहण कर लेता है कि) ये ठीक है और ये ठीक नहीं है। इस प्रकार रागमें किसीको ग्रहण करके स्वयं राग और द्वेषकी वैसी परिणति करता रहता है। एकत्वबुद्धि है तबतक ऐसा
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राग होता है।
परन्तु भेदज्ञान हो तो अल्प अस्थिरता रहती है। परन्तु वह समझता है कि मेरी अस्थिरताके कारण है। वास्तविक रूप-से कोई इष्ट नहीं है, कोई अनिष्ट नहीं है। वह सब तो परपदार्थ है। इसलिये वह स्वयं पुरुषार्थकी मन्दताके कारण गृहस्थाश्रममें खडे हो, तो भी अस्थिरताको जाने कि ये सब मेरी मन्दताके कारण होता है। वास्तविक कोई इष्ट नहीं है, कोई अनिष्ट नहीं है। उसे भेदज्ञान वर्तता है।
मिथ्यात्वमें जो राग-द्वेष होते हैं, वह उसे एकत्वबुद्धिरूप (होते हैं कि) ये मुझे ठीक है और ठीक नहीं है, ठीक है, ठीक नहीं है। वह स्वयं राग ही उस जातका ग्रहण कर लेता है। कोई निमित्त मुझे ठीक है, अठीक है। उसके मिथ्यात्वके कारण, ऐसी बुद्धि-एकत्वबुद्धिके कारण ऐसा चलता ही रहता है।
उसकी एकत्वबुद्धि टूटे कि वास्तविक कोई इष्ट-अनिष्ट है ही नहीं, मैं चैतन्य भिन्न ज्ञायक हूँ। ये कोई अच्छा नहीं है, बूरा नहीं है। मात्र अपनी कल्पना-से ऐसी बुद्धि होती रहती है। मैं उससे भिन्न हूँ। इसप्रकार भिन्न होनेका प्रयत्न करे। फिर अल्प राग रहता है वह उसके पुरुषार्थकी मन्दताके कारण। एकताबुद्धिको तोडनेका प्रयत्न करे। बाहर उसे कुछ नहीं हो तो स्वयं ही अन्दर ऐसे विकल्प उत्पन्न करता है, एकत्वबुद्धिके कारण।
मुमुक्षुः- सत्य बात है, अपनेआप उत्पन्न होते रहते हैं। परपदार्थ हो भी नहीं, तो भी (उत्पन्न होते हैं)।
समाधानः- स्वयं ही अन्दर-से उत्पन्न होते रहते हैं।
मुमुक्षुः- .... उस वक्त विभावरूप क्यों परिणमता है?
समाधानः- ज्ञप्तिक्रिया, परन्तु वह ज्ञप्तिक्रिया यथार्थरूप कहाँ है? ज्ञप्ति ज्ञप्तिरूप स्वयं रहता नहीं। करोति क्रिया हो जाती है। मैं ये सब करता हूँ और मुझसे ये सब होता है। ज्ञायकरूप रहे तो ज्ञप्तिक्रिया बराबर कहें। परन्तु वह ज्ञप्तिक्रिया कहीं स्वयंको जानता नहीं है। स्वयंको जानता हो, स्वको जाननेपूर्वक पर जाने तो वह बराबर हो। परन्तु स्वको नहीं जानता है और ये पर स्थूलरूप-से जानता है। जो स्वको नहीं जानता, वह दूसरोंको यथार्थ नहीं जानता। इसलिये ज्ञप्तिक्रिया होती है, परन्तु वह ज्ञप्तिक्रिया भी उसे करोतिक्रिया है। वह साक्षी नहीं रहता है। मानों मैं उसको कर देता हूँ, इसके कारण ऐसा होता है। जानना अर्थात वह स्थूलरूप-से जानता है। वह यथार्थ नहीं जानता है।
स्वको जाने तो ही उसने यथार्थ जाना कहनेमें आये। स्वको जाने बिना जानना वह यथार्थ नहीं जानता। स्वको छोडकर सबको जाने वह कुछ जानना नहीं है। स्वपूर्वक
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यदि जाने तो उसे ज्ञप्तिक्रिया प्रगट हुयी है। नहीं तो ज्ञप्तिक्रिया नहीं है। "जो जाने सो जाननहारा'। जो जानता है वह करता नहीं और जो करता है वह जानता नहीं। परके साथ एकत्वबुद्धिके कारण मैं करुँ, मैं करुँ ऐसा होता है। यथार्थ जाने तो उसे ज्ञप्तिक्रिया यथार्थ होती है। बाकी स्थूलरूप-से तो सब जानता ही रहता है।
जाननेका उसका स्वभाव है, वह कहीं नाश नहीं जाता। जानता तो है, परन्तु स्वयंको नहीं जानता है। वह जानना यथार्थ नहीं है। अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको नहीं जानता, इसलिये वह दूसेरका भी यथार्थ नहीं जानता।
मुमुक्षुः- मोक्षार्थीको प्रयोग करना चाहिये। तो वह ध्यान यानी भेदज्ञानका अभ्यास?
समाधानः- भेदज्ञानका अभ्यास वह ध्यान। क्योंकि पहले वह अभ्यास करे। यद्यपि यथार्थ ध्यान तो ज्ञायककी धारा प्रगट हो और उसमें लीनता करे तो यथार्थ ध्यान हो। परन्तु पहले उसका अभ्यास होता है। भेदज्ञानका अभ्यासरूप ध्यान करना है। क्योंकि अपना अस्तित्व ग्रहण किये बिना कहाँ स्थिर होगा? जहाँ स्थिर होना है, वह जो द्रव्य है उस द्रव्यको ग्रहण करे। जो शाश्वत द्रव्य है उसमें स्थिर हुआ जाय। पर्याय पर स्थिर नहीं हुआ जाता। पर्याय तो पलटती रहती है। स्थिर तो द्रव्यको पहचाने तो हुआ जाता है। परन्तु द्रव्यको पीछाननेका प्रयत्न करे, उस जातके अभ्यासका प्रयत्न करे। तो उस जातका ध्यान होता है।
भेदज्ञानका अभ्यास करनेका प्रयत्न करे कि मैं भिन्न हूँ। ये विभाव मैं नहीं हूँ, शरीर मैं नहीं हूँ। उसका क्षण-क्षणमें भिन्न पडनेका अभ्यास करे। उसकी एकाग्रता करे कि मैं यह ज्ञायक हूँ। ऐसा ध्यान करे कि मैं यह ज्ञायक हूँ, चैतन्य हूँ, महिमावंत शुद्धात्मा हूँ। ऐसा भाव-से उसे यथार्थ पहिचानकर करे। विकल्परूप-से ऐसे शुष्कपने नहीं, परन्तु ज्ञायक महिमावंत है, ऐसे उसे ग्रहण करके बारंबार उसका ध्यान करे तो वह अभ्यासरूप ध्यान है। बारंबार उसीका ध्यान करता रहे।
यथार्थ परिणतिरूप तो उसे जब ज्ञायककी धारा प्रगट हो, तब उसे यथार्थ परिणतिरूप ध्यान होता है। यह ध्यान वह अभ्यासरूप करे। समझ बिनाका ध्यान तरंगरूप हो जाता है। इसलिये अपनेको ग्रहण करके, चैतन्यको पहचानकर उसमें एकाग्रता करे कि मैं यह चैतन्य हूँ, विभाव-से भिन्न हूँ। ऐसे बार-बार भिन्न पडनेका अभ्यास करे और स्वयंको ग्रहण करनेका प्रयत्न करे।
स्वयंको भिन्न करना, विभाव-से स्वयंको भिन्न करना, उसका अभ्यास करना। उसकी परिणतिरूप जिसे सम्यग्दर्शन हो, वह भी भेदज्ञान-से ही मुक्ति पाते हैं। और वह भेदज्ञान ही आखिर तक रहता है। उसे यथार्थ होता है। उस भेदज्ञानसे ही स्वानुभूति होती है। और उस भेदज्ञानकी उग्रतामें ही उसे लीनता बढानी है। फिर लीनता बढाता है,
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भेदज्ञान प्रगट होनेके बाद। परन्तु पहले-से एक ही उपाय है, भेदज्ञानका अभ्यास करना।
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन। भेदज्ञानका अभ्यास। मैं चैतन्य शाश्वत द्रव्य हूँ। शुद्धात्मा चैतन्य हूँ। ये विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। उससे भिन्न पडनेका प्रयत्न करे। उसकी महिमा, उसकी लगनी, बारंबार उसका विचार, एकाग्रता (करे)। उसमें बारंबार स्थिर न हुआ जाय तबतक बाहर श्रुतका अभ्यास करे, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करे। परन्तु बार-बार करनेका एक ही ध्येय-ज्ञायकको ग्रहण करना वह।