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मुमुक्षुः- निमित्तकारण ऐसे परिणामका सच्चा कारण नहीं है, वह तो समझमें आता है। लेकिन जीवद्रव्यको उपादानकारणके रूपसे ग्रहण करे तो जीव नित्य होनेसे नित्य राग-द्वेष होता रहै। और ऐसे राग-द्वेष परिणामका कारण जीव भी नहीं हो तो, तो फिर उसका कारण कहाँ खोजना?
समाधानः- यह प्रश्न तो बहुत चलता ही है। निमित्त और उपादान। उपादानमें तो आत्मा है, लेकिन उसकी पर्यायमें वह होते हैं, मूल द्रव्यमें नहीं होते। उसकी पर्यायमें होते हैं और पर्याय तक विभाव सिमित है। निमित्त भी है और उपादान स्वयंका है। लेकिन मूल द्रव्यमें उसके स्वभावरूप नहीं है, विभावरूप है। विभावरूप है इसलिये पलट जाता है। वह तो पर्यायमें है और पर्याय तो पलट जाती है।
अनादिका है, लेकिन वह स्वयं अकारण पारिणामिक द्रव्य है। उसकी परिणतिमें वह स्वयं निमित्तकी ओर दृष्टि देता है इसलिये होते हैं। पर्यायमें होते हैं। स्वयं द्रव्यकी ओर दृष्टि करे तो पलट जाता है। वह नित्य नहीं रहते। अनादिसे लेकिन वह स्वतः स्वयं अकारण पारिणामिक (रूपसे) परिणमते हैं। निमित्त है, निमित्त है ही नहीं ऐसा नहीं है। उपादान स्वयंका है। उपादान है, लेकिन अपने द्रव्यमें वह मूल स्वभाव नहीं है। पर्यायमें होते हैं। पर्याय पलट जाती है।
मुमुक्षुः- उपादान कारण तो उसका स्वयंका आत्मा ही है।
समाधानः- हाँ, वह स्वयं ही उपादान कारण है। लेकिन वह पर्यायमें होते हैं, उसके स्वभावमें नहीं है।
मुमुक्षुः- स्वभाव नहीं होनेसे स्वभावका आश्रय लेनेपर उसका अभाव हो जाता है।
समाधानः- पलट जाते हैं। .. निमित्त कुछ करता है, ऐसे सब प्रश्न आते थे, ऐसा कोई कहता था, तब गुरुदेव कहते थे कि वह तो अकारण पारिणामिक द्रव्य है। निमित्त बिना नहीं होता हो तो अपना स्वभाव हो जाये। स्वभाव नहीं है, लेकिन वह अपनी परिणति है। विभावरूप परिणमता है। और स्वभावरूप भी स्वयं परिणमता है, द्रव्य पर दृष्टि करे तो। वह अपना
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नित्य स्वभाव हो जाये ऐसा नहीं है, वह तो पर्यायमें होते हैं। कारण स्वयं है। स्वयंका स्वभाव नहीं है, परंतु कारण स्वयं है। लेकिन निमित्तकारण भी है। ... ऊपर है इसलिये निमित्तकारण है ही नहीं, ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- वह कुछ करता नहीं।
समाधानः- करता नहीं है, परंतु निमित्त है। एक क्षेत्रावगाहमें आकर सम्बन्ध होता है। ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है। स्वयं स्वभावरूप परिणमित हो तो वह कर्मका बन्धन स्वयं टूट जाता है, स्वयं छूट जाता है। ऐसा सम्बन्ध है। निमित्त न हो तो फिर यह बन्धन भी नहीं होता, शरीर भी नहीं होता, कर्म भी नहीं होते, कुछ नहीं होता। निमित्त है, लेकिन निमित्त स्वयं कुछ करता नहीं। लोहचुंबक हो तो सूई स्वयं (उसके पास आ जाती है)।
(निमित्त) है ही नहीं, ऐसा नहीं है। निमित्त यहाँ भले कुछ करता नहीं, लेकिन यदि हो ही नहीं तो वह द्रव्यका स्वभाव (हो जाये)। वैसे स्वभाव नहीं है, द्रव्यका स्वभाव नहीं है। उपादान है, अपनी पर्यायमे अशुद्ध उपादान स्वयंका है, लेकिन द्रव्यका मूल स्वभाव नहीं है। द्रव्यका मूल स्वभाव नहीं है, इसलिये द्रव्य पर दृष्टि करके कोई अपेक्षासे उसे परमें डाल दिया जाता है। और स्वयं पुरुषार्थकी ओर देखे तो स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे होते हैं। इसलिये स्वयं दृष्टि पलटे तो पलट जाती है।
मुमुक्षुः- पुरुषार्थकी अपेक्षासे स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे होते हैं।
समाधानः- हाँ, स्वयंके पुरुषार्थकी मन्दतासे होते हैं। उसका वेदन स्वयंको है, इसलिये स्वयंके है, स्वयं करता है। बात यह समझनी, उसमेंसे द्रव्य और पर्यायका विवेक करके आगे जा सकता है, क्योंकि बीचवाली बात है, निमित्त करता नहीं, अपने स्वभावमें नहीं है और विभावपर्याय स्वयं उपादानसे होती है। वह बीचवाली स्वयं बराबर समझे तो मूल द्रव्यमें तो नहीं है, वह पर्यायमें होते हैं। पर्यायका उपादान कारण, अशुद्ध उपादान स्वयंका है। निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध है।
मुमुक्षुः- लक्ष्य करनेके लिये दो विषय है, एक परपदार्थ और एक अपना स्वभाव है। कार्य करनेकी जिम्मेदारी अथवा कार्य करना अपने हाथमें है।
समाधानः- अपने हाथमें है। कार्य किस ओरका करना वह अपने हाथमें है। वह जबरजस्ती निमित्त नहीं करवाता। दृष्टि परकी ओर करे तो वहाँ राग होता है, दूसरेकी ओर दृष्टि करे तो, फिर बन्धन होता है। कहाँ करनी, पुरुषार्थकी गति कहाँ करनी वह अपने हाथमें है। निमित्त कुछ करता नहीं।
मुमुक्षुः- स्वयं कहनेसे त्रिकाली द्रव्य ही स्वयं है ऐसा नहीं है, लेकिन पर्यायका कारणपना भी स्वयंका है।
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समाधानः- वह स्वयंका ही है। द्रव्य स्वयं एक ओर रह गया और पर्याय करता है इसलिये पर्यायका वेदन पर्यायमें है। उसका वेदन करनेवाला कोई अन्य और द्रव्य शुद्ध रह गया वह कोई अन्य, ऐसा नहीं है। द्रव्य शुद्ध है तो पर्यायका वेदन (किसे होता है)? एक लो तो रागका, द्वेषका वेदन तो स्वयंको होता है। लेकिन मूल वस्तुमें नहीं है।
जैसे स्फटिक स्वभावसे श्वेत है, उसका श्वेतपना उसके अंतःतत्त्वमेंसे मूलमेंसे जाये ऐसा नहीं है। लेकिन ऊपर देखो तो लाल, काला ऊपर दिखाई देता है। वैसे द्रव्यके मूल अंतःतत्त्वमें शुद्धता है, लेकिन ऊपर राग-द्वेषकी कालिमा है उसका वेदन स्वयंको होता है। स्फटिक स्वयं परिणमता है। लेकिन वह ऐसे परिणमता है, उसकी मूल शुद्धता- स्फटिककी निर्मलता है उसे छोडकर नहीं परिणमता। लाल, काले रंगरूप स्वयं परिणमता है, लेकिन उसका मूल (तत्त्व) छूटता नहीं। ऐसे परिणमता है।
उसी प्रकार द्रव्य परिणमता है, उपादान उसका स्वयंका है, लेकिन वह राग-द्वेषरूप ऊपर-ऊपर परिणमता है, उसकी मूल शुद्धता है वह चली नहीं जाती। लाल, काला होनेमें उसे निमित्त बाहरका होता है। फूल आदिका निमित्त (होता है)। लेकिन वह निमित्त उसे कुछ करता नहीं। उसमें स्वयं वैसा प्रतिभास होता है। स्फटिक परिणमता है स्वयं, लेकिन लाल, काला यदि नहीं हो तो (प्रतिबिंब नहीं उठता)। वैसा निमित्त- नैमित्तिक सम्बन्ध है।
वैसे आत्मामेें वह निमित्त है, निमित्त कुछ करता नहीं। परिणमता है स्वयं। लेकिन द्रव्यमेंसे मूल शुद्धताको छोडकर नहीं परिणमता। फिर भी निमित्त है सही, निमित्त कुछ करता नहीं इसलिये निमित्त है ही ऐसा नहीं है। जैसे स्फटिकमें ऐसा कहा जाये कि निमित्त कुछ करता नहीं तो निमित्त बिना प्रयोजन है। बिना प्रयोजन नहीं है। निमित्त नहीं हो तो स्फटिक सफेद ही होता है। ऐसा सम्बन्ध है। एकक्षेत्रावगाहमें जो कर्मबन्धन है, उसमें जो विभावकी परिणति होती है, उसमें वह निमित्त है। लेकिन वह करता कुछ नहीं। परिणमता है वह स्वयं। उस जातका कोई अचिंत्य स्वभाव है। अचिंत्य है। स्फटिक दृष्टांतमें देखो तो भी अचिंत्य लगे। बाहरसे फूल कुछ करता तो नहीं है। तो भी स्फटिककी परिणति लाल और हरे आदि रूप होती है। तू वैसा परिणमन कर ऐसा भी नहीं कहता। स्फटिक स्वयं ही परिणमता है। दूर हो तो उसमें वैसी परिणति होती भी नहीं। ऐसा है। उसमें तो स्वयं दूर और पास (होता है)। इसमें तो स्वयं अशुद्धतारूप परिणमता है इसलिये एकक्षेत्रावगाहमें कर्म बन्धता है। उसे कोई लेने नहीं जाता। कर्म बन्धता है। स्वयं यदि शुद्धरूप परिणमे, मूल द्रव्यमें शुद्धता है वैसे स्वयं परिणमे तो उसे निमित्त जबरजस्ती परिणमित नहीं करवाता। छूट जाता है। उसका वह
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स्वभाव अचिंत्य है। द्रव्यका जो बीचवाला परिणति होनेका स्वभाव है वह अचिंत्य है। या तो कोई निमित्त पर चला जाता है, कोई उपादान पर। या तो ऐसा कहे कि निमित्त नहीं है, या तो ऐसा कहते हैं, निमित्त है तो निमित्त करता है। ऐसे बीचमें जो तीसरा है, उसकी परिणति कोई अचिंत्य है। अन्दर बराबर बैठे तो उसे बराबर समझमें आये।
मुमुक्षुः- स्वयंको यदि त्रिकालीमें स्थापित करे तो भी भूल है, तो एकान्त हो जाता है।
समाधानः- तो एकान्त हो जाता है। मैं तो शुद्ध ही हूँ।
मुमुक्षुः- भूल किसकी? भूल किसीकी नहीं ऐसा लगे।
समाधानः- हाँ, भूल किसीकी नहीं है, ऐसा हो जाये। परन्तु स्फटिक स्वयं मूलमें शुद्धता रखकर स्वयं लाल-पीले फूलरूप परिणमता है। वैसे चैतन्यद्रव्यकी शुद्धता तोडकर अशुद्धता नहीं होती। शुद्धता रखकर परिणमता है।
मुमुक्षुः- स्वयंका द्रव्य ही परिणमता है।
समाधानः- वह स्वयं ही परिणमता है। उसे अपना ख्याल नहीं है, परन्तु अज्ञानदशामें भी वैसे ही परिणमता है। अपनी शुद्धता टूटती नहीं। कहते हैं न, अपना घर छोडकर उसका कोई काम नहीं होता। परिणति अशुद्ध होती है, लेकिन अपना चैतन्यद्रव्य, जो उसका स्वभाव है वह टूटता नहीं।
मुमुक्षुः- जिनेन्द्र भगवानकी एक रहस्यमय बात है।
समाधानः- हाँ, रहस्यमय बात है। इसलिये वह सब ऊपर-ऊपर होता है। उसके अंतरमें-मूलमें कुछ नहीं होता। फिर भी उसे अशुद्धताका वेदन है। या तो इस ओर चला जाता है, या उस ओर चला जाता है। ऐसा होता है।
मुमुक्षुः- या तो फिर ऐसा कहे, पर्यायका कर्ता पर्याय है।
समाधानः- हाँ, तो ऐसा हो जाये। पर्यायका कर्ता पर्याय है। द्रव्य कुछ नहीं करता। द्रव्य और पर्याय दोनोंका अंश और अंशी ऐसे दो भाग करो तो ऐसा कहनेमें आये। बाकी प्रवचनसारमें आता है, द्रव्य स्वयं ही परिणमता है। पर्याय कोई अन्यकी तो है नहीं, द्रव्य स्वयं परिणमित होकर पर्याय होती है। उसका वेदन स्वयंको है। स्फटिक स्वयं परिणमता है। स्फटिककी लाल परिणति और उसकी शुद्धता, ऐसे दोनोंको अलग करो तो उसका लाल रंग और उसकी शुद्धता, स्फटिककी जो शुद्धता है वह भिन्न और लाल रंग अलग ऐसा कहनेमें आता है, परन्तु वह वस्तु भिन्न-भिन्न नहीं हो जाती। वस्तु तो एक ही है।
वैसे चैतन्यकी अशुद्धता और अन्दर शुद्धता। वैसे शुद्धता और अशुद्धता ऐसे उसके
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दो भाग करो तो वस्तु भिन्न-भिन्न नहीं हो जाती। स्फटिक वस्तु कोई भिन्न नहीं हो जाती। उसका लाल रंग कोई अलग वस्तुमें हुआ और सफेद स्फटिक कोई अलग वस्तुमें है, (ऐसा नहीं है)। दोनों एक ही वस्तु है।
मुमुक्षुः- मूल पायेकी बात है।
समाधानः- हाँ। वह एक ही स्फटिक वस्तुमें होता है। स्फटिक एक है और उसके अन्दर लाल रंग और सफेद, दोनों भाग अन्दर ही अन्दर एक ही वस्तुमें होते हैं। एकसाथ हैं।
मुमुक्षुः- एक ही वस्तुके दो अंश है।
समाधानः- हाँ, एक ही वस्तुके दो अंश हैं।
मुमुक्षुः- दो अंश मिलकर एक वस्तु बन जाये ऐसा भी नहीं है।
समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं है। वह कोई अंश नहीं, वस्तु है, स्फटिककी जो निर्मलता है वह।
मुमुक्षुः- वह क्या कहा? निर्मलता है वह वस्तु है, अंश नहीं है, यानी क्या?
समाधानः- दो अंश कहा न? अर्थात निर्मलताका अंश और अशुद्धताका अंश। अन्दर जो पडा है, वह कोई एक अंश नहीं है, वस्तु द्रव्य है। ऐसा कहा। अंश यानी वह कोई शुद्धतारूप परिणमित हुआ अंश है ऐसा नहीं है। परिणमित हुआ अंश नहीं है, वह तो शक्तिरूप है। ऐसा कहा। दो भाग है वह बराबर, लेकिन शुद्धतारूप है वह प्रगट परिणमित हुआ अंश है ऐसा नहीं है।
मुमुक्षुः- परिणमता अंश नहीं है।
समाधानः- परिणमता अंश नहीं है। शक्तिरूप है। स्वयं ही परिणमता है। वह इसप्रकार परिणमता है कि उसका मूल टिकाकर पर्याय अशुद्ध होती है।
मुमुक्षुः- नहीं तो आत्माको उसका वेदन नहीं होता। यदि वह स्वयं नहीं परिणमता हो तो उसे वेदन नहीं हो सकता।
समाधानः- वेदन ही नहीं होता। तो आकूलताका वेदन ही नहीं होता। यदि द्रव्य और पर्याय ऐसे बिलकूल भिन्न ही हो तो उसका वेदन स्वयंको होता ही नहीं। तो फिर रागका वेदन रागमें, स्वयंको उसका वेदन ही नहीं होता, तो फिर उसे छूटनेकी अपेक्षा भी नहीं है। स्वयं परिणमता हो तो उसे छूटनेकी अपेक्षा रहे। परिणमता ही नहीं हो तो छूटनेकी अपेक्षा कहाँ? रागमें, द्वेषमें, विकल्पमें स्वयं परिणमता है। इसलिये उसे ऐसा होता है कि मेरा स्वभाव निर्मल है, मैं अपनी ओर देखुँ, यह सब आकूलता है। उसका वेदन होता हो तो छूटनेका प्रयत्न है। उसका वेदन ही नहीं है तो फिर छूटनेका प्रयत्न (क्यों करे)? वस्तु ही दूसरी है, तो फिर उसे स्वयंको छूटनेका प्रयत्न
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करना नहीं रहता।
... द्रव्यका उत्पाद-व्यय .. है। लेकिन उत्पाद अलग, व्यय अलग, सब भिन्न- भिन्न नहीं पडे हैं, एक ही वस्तुके अंश हैं।
मुमुक्षुः- उत्पाद-व्यय एक सत और ध्रुव एक सत.. समाधानः- वस्तु भिन्न-भिन्न नहीं है। पर्यायके अंश हैं।