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समाधानः- .. आत्माका मोक्षका मार्ग जिसको प्रगट हुआ उसकी वाणी उसको निमित्त होती है।
मुमुक्षुः- ...
समाधानः- वह वाणी निमित्त नहीं होती।
मुमुक्षुः- इसलिये जेनी-तेनी पासे धर्म सांभळवो ते पात्रता नथी।
समाधानः- जिसकी जिज्ञासा हो वह सच्चे गुरुको पहचान लेता है। इस गुरुका उपदेश मेरे आत्माका कल्याण करेगा। यदि सच्ची जिज्ञासा हो तो अपनेआप पहचान लेता है। ..
मुमुक्षुः- जो प्रत्यक्षमें दिख रहा है कि इस उपदेश देनेवालेको आत्मानुभूति नहीं है, तो उसके उपदेशको नहीं सुनना चाहिये।
समाधानः- वह तो कोई अपेक्षासे बात है। अपने निमित्त होता है तो सच्चे गुरु मिलते हैं। जिसको नहीं मिलता है.... जिज्ञासु, जिसने गुरुके पास सुना है, अपनी पात्रता प्रगट हुई है, ऐसा कोई
मुमुक्षु-सच्चा मुमुक्षु हो तो समझनेके लिये वह समझता है, परंतु उसको गुरु नहीं मानता। वह तो समझनेके लिये समझता है। सच्चा गुरु नहीं मानना। स्वाध्याय करता है, सच्चा गुरु नहीं मानना। ... बाहरमें सब लालच हो, उसे पात्रता नहीं है।
मुमुक्षुः- उसका उपदेश सुनना नहीं।
समाधानः- उसका उपदेश... सच्चे गुरुसे लाभ होता है। शास्त्रमें आता है, सच्चे गुरुसे लाभ होता है। ऐसे गुरु नहीं मिलते हैं तो साधर्मी एकदूसरेके साथ चर्चा करे, स्वाध्याय करे, विचार करे, ऐसा तो करते ही हैं आपसमें। .. पहचानना और शरीरादि भिन्न है उसे पहचानना। ऐसा कहनेवाले गुरु कौन है, वह ...
मुमुक्षुः- ..
समाधानः- ... यथार्थमें कौन है वह समझना। व्यवहारसे वक्ता, श्रोता ऐसा चलता है?
मुमुक्षुः- ... वहाँ-से लक्ष्य छूटता नहीं। स्वभावके प्रति लक्ष्य होता नहीं।
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समाधानः- पुरुषार्थ करनेसे होता है। अनादिकी एकत्वबुद्धि है। शरीर सो मैं और मैं सो शरीर हूँ, ऐसा अभ्यास चलता है। उस अभ्यासको तोडना चाहिये। ... मैं तो भिन्न ज्ञायक हूँ, यह शरीर तो जड है, कुछ जानता नहीं। मैं तो भिन्न चैतन्यतत्त्व महिमावंत पदार्थ अनादिअनन्त (हूँ)। बारंबार उसका विचार, वांचन, प्रतीत, दृढता करना चाहिये। मैं तो एक ज्ञायकतत्त्व हूँ। मैं तो ज्ञायकदेव हूँ, यह शरीर तो जड है। शरीर और आत्मा दोनों भिन्न हैं। अनादिसे भिन्न ही है। पुरुषार्थ करना चाहिये।
मुमुक्षुः- .. कभी किया नहीं है तो उसका स्वरूप समझमें आता नहीं।
समाधानः- नहीं किया है तो भी अपना स्वभाव है इसलिये हो सकता है। पुरुषार्थ करके अनन्त (जीव) मोक्ष गये हैं और अनन्त (जीवोंको) भेदज्ञान हुआ है। आत्मा है तो कर सकता है। अपनी अनादिकी भूल चली आती है इसलिये प्रमादके कारणसे नहीं होता है।
गुरुदेव कहते थे, अपनी भूलसे अपनेको पहचाना नहीं। "निज नयननी आळसे, निरख्या न हरिने।' अपने नेत्रकी आलसके कारण आत्माको स्वयं पहचानता नहीं। चैतन्यप्रभुको पहचानता नहीं।
मुमुक्षुः- अपनेको पहचाननेका आपने कहा, तो अपनेको पहचाननेकी किस तरहकी प्रक्रिया अपनायी जाती है?
समाधानः- अपनेको पहचाननेकी क्रिया-ज्ञानस्वभाव है वह सबको जान लेता है। वह जानता है। परको जाननेके लिये वह सब करता है, अपनेको जाननेका प्रयत्न नहीं करता। जाननेका प्रयत्न करना चाहिये। गुरुदेवने बहुत बताया है। शास्त्रमें भी आता है। प्रमाद करता है, रुचि नहीं है, जिज्ञासा नहीं है, परमें एकत्वबुद्धि है, (परमें) सुख मानता है, परकी महिमा आती है, आत्माकी महिमा भी नहीं आती। आत्माकी महिमा करनी चाहिये, आत्माका स्वभाव पहचानना चाहिये, उसका विचार करना चाहिये। बारंबार उसकी रुचि बढानी चाहिये। यह सब करना चाहिये।
मुमुक्षुः- आत्मा दिखता नहीं, माताजी! बाहरका सब दिखता है तो बाहरकी महिमा आती है।
समाधानः- अनादिसे दृष्टि बाहर है इसलिये बाहरका दिखता है। अंतरमें दृष्टि देखे तो अपनेआप दिखाई देता है। दृष्टि बाहर ही बाहर है। दृष्टिको स्वभावकी ओर ले जानी है। आत्मा ऐसा नहीं है कि दिखनेमें नहीं आये। ज्ञानस्वभाव किसको नहीं जाने? सबको जाने। पर जानता है, स्वको नहीं जानता है।
स्वपरप्रकाशक ज्ञान है। ज्ञान तो सबका अनन्त है। स्वपरप्रकाशक है तो सबको जानता है। पुरुषार्थ नहीं करता है तो नहीं जाननेमें आता। अनादिसे परको जाना, आत्माको
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जाना नहीं। आत्माको जाननेका प्रयत्न करना चाहिये, तो जान सकता है। भेदज्ञान करना चाहिये। शरीर मैं नहीं, विभावस्वभाव मेरा नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा प्रयत्न करना चाहिये।
मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! हम हिन्दीभाषी मुमुक्षुओंका यह परम सौभाग्य है कि हम पूज्य गुरुदेवश्रीकी ९७ मंगल जन्म जयंति महोत्सव मनानेका पवित्र अवसर मिला है। यह मंगल महोत्सव हम मुमुक्षुजीवोंमें आत्मार्थीता विकसाकर मोक्षमार्गमें लगाए, ऐसा मंगल आशीर्वाद चाहते हैं।
पूज्य माताजी! पूज्य गुरुदेवश्री निश्चयनयको सदा मुख्य फरमाते थे। और आगममें कभी निश्चयको मुख्य तो कभी व्यवहारको मुख्य दर्शाते हैं, तो दोनों भिन्न-भिन्न प्रकारके कथनके पीछे ज्ञानी धर्मात्माओंका मर्म क्या है, यह कृपा करके समझाइये।
समाधानः- गुरुदेवने तो बहुत स्पष्ट किया है, गुरुदेवका परम उपकार है। निश्चयनय सदा... साधकजीवको द्रव्य पर दृष्टि तो निश्चय सदा मुख्य ही रहता है। साधकदशामें द्रव्यदृष्टि मुख्य ही होती है। इसलिये निश्चयनयको गुरुदेव मुख्य कहते थे। और वस्तु स्वरूप ऐसा है। जो गुरुदेव कहते थे वैसा ही है। परन्तु जो शास्त्रमें आता है कि कभी व्यवहार मुख्य और कभी निश्चयकी बात आये तो उसमें समझानेके लिये होता है। जीवोंको जो अनादिका अभ्यास है, विभावका अभ्यास है इसलिये व्यवहारकी बाहरमें स्थूल दृष्टि है, समझ नहीं सकते। इसलिये समझानेके लिए व्यवहारकी बात करनेमें आये। लेकिन उसमें कहनेका आशय-वस्तु और मुक्तिका मार्ग क्या है, निश्चय पर दृष्टि कर ऐसा कहनेका आशय होता है। जो आत्मार्थी है वह उसमेंसे आशय समझ लेता है। जिसे आत्मार्थीता नहीं होती, वह मात्र व्यवहारको पकड लेता है।
आचार्यका आशय तो निश्चयनय यानी आत्माको ग्रहण करानेका ही होता है। लेकिन जो समझते नहीं, वह मात्र व्यवहार ग्रहण कर लेते हैैं। आचार्यका कथन तो व्यवहारको छोडकर आत्माको ग्रहण करानेका ही आशय होता है। साधकको निश्चय मुख्य और व्यवहार गौण होता है। लेकिन उसे समझानेके लिये व्यवहारसे ऐसा कहनेमें आता है कि "भाषा अनार्य विना समझावी शकाय न अनार्यने।' अनार्यको समझा नहीं सकते। उसकी भाषामें उसे समझानेमें आता है। शास्त्रमें आता है कि आत्मा शब्द कहा। अब, आत्मा किसे कहते हैं, इसका जिसे ज्ञान नहीं है, वह समझ नहीं सकता। इसलिये दर्शन, ज्ञान, चारित्रको प्राप्त हो, हमेशाके लिये प्राप्त हो, वह आत्मा। ऐसा कहनेमें आता है, तब उसे समझमें आता है। इसलिये व्यवहारसे कथन करनेमें आता है। उसे समझानेके लिये। समझाना है आत्मा, ग्रहण आत्मा कराना है। लेकिन व्यवहारका कथन बीचमें आये बिना नहीं रहता। इसलिये व्यवहारसे कथन करनेमें आता है। ग्रहण तो
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एक आत्मा ही कराना है। और स्वानुभूतिका मार्ग बताना है, वस्तुका स्वरूप बताना है।
इसलिये निश्चय दृष्टिमें मुख्य होता है। लेकिन द्रव्य और पर्याय दोनोंका ज्ञान करानको और समझानेके लिये वस्तु स्वरूप और आत्माको ग्रहण करानेके लिये व्यवहारको भी आचार्य बीचमें कहते हैं, समझानेके लिये कहनेमें आता है। वस्तु स्वरूप तो आत्माको ग्रहण करानेका ही होता है। निश्चय सदा मुख्य ही होता है।
अभेद आत्माको ग्रहण करना, उसमें गुणभेद हो, पर्यायभेद हो, उसका ज्ञान करना होता है। वह समझे उसमें व्यवहार बीचमें आये बिना नहीं रहता। लक्षणभेद, ज्ञानका लक्षण, लक्षणसे आत्माको ग्रहण करना, ज्ञानस्वभाव आत्मा, इसप्रकार गुण द्वारा गुणीको ग्रहण करानेमें आता है। ऐसा व्यवहार भी बीचमें आता है। वह स्वयं आगे बढेे उसमें भी गुणभेद, पर्यायभेद बीचमें आते हैं। इसलिये कथनमें भी आचार्यदेव उसे समझानेके लिये, आत्माको ग्रहण करानेके लिये बीचमें आये बिना नहीं रहता। इसलिये कभी व्यवहारकी बात करते हैं, कभी निश्चयकी बात करते हैं। आगममें आता है। लेकिन दृष्टि तो उसे सदाके लिये मुख्य रहती है। और ज्ञानमें द्रव्य किसे कहते हैं, पर्याय किसे कहते हैं, साधकदशा किसे कहते हैं, साध्य क्या है, ग्रहण क्या करना है और बीचमें साधकदशा कैसी होती है, यह सब बीचमें आता है। इसलिये आचार्यदेव सब बातका उसे ज्ञान कराते हैं। ग्रहण एक आत्माको करना है। वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है।
मुमुक्षुः- दृष्टिमें आत्मा ही रहता है अर्थात क्या? पूरा दिन वहीं उपयोग रहता है?
समाधानः- उपयोग वहाँ नहीं रहता। लेकिन उसकी दृष्टि वहाँ रहती है। उपयोगमें ज्ञानमें उसे सब जाननेके विचार आये। गुणभेद, पर्यायभेद आदि सब जाननेके लिये आता है। उपयोग वहाँ नहीं रहता, लेकिन उस पर दृष्टि, परिणति उस प्रकारकी होती है। द्रव्य पर दृष्टि सदाके लिये होती है। मैं ज्ञायक हूँ, मैं आत्मा हूँ। अपना अस्तित्व- जो चैतन्यका अस्तित्व है उस उसकी दृष्टि सदाके लिये होती है। मैं ज्ञायक, ऐसी ज्ञायककी परिणति (निरंतर रहती है)। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, गुणभेद, पर्यायभेद वास्तविकरूपसे मेरेमें नहीं है। उसका स्वरूप है, उसके गुण अनन्त है, लेकिन उसके भेद पर उसकी दृष्टि नहीं है। दृष्टि एक आत्मा पर है। उपयोग नहीं, लेकिन दृष्टि ही उस पर थँभ गई है।
श्रद्धा और ज्ञान, दोनों गुण भिन्न हैैं। दृष्टि उस पर थँभ गई है। उपयोगमें सब आता है। जाननेमें सब आता है। लेकिन दृष्टि एक ज्ञायक पर होती है। उस पर दृष्टि ऐसी स्थिर हो रहती है कि कहीं भी उपयोग जाये तो भी भेदज्ञानकी धारा तो छूटती
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ही नहीं। मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा विकल्प नहीं, परन्तु सहज परिणति ही होती है। ज्ञायकता- ज्ञायकता, उसे सदाके लिये ज्ञायकताकी परिणती चालू रहती है। स्वानुभूतिमें हो तो भी ज्ञायक पर जो दृष्टि है वह छूटती नहीं। गुणभेद, पर्यायभेद स्वानुभूतिमें उसके ज्ञानमें आते हैं, उसके वेदनमें आता है। गुण, पर्याय उसके वेदनमें आते हैं, परन्तु दृष्टि आत्मा परसे छूटती नहीं। दृष्टि सदाके लिये उस पर ही थँभी हुई रहती है।
मुमुक्षुः- दृष्टिमें निश्चयनय ही मुख्य है और जाननेमें निश्चय और व्यवहार दोनों होते हैं?
समाधानः- दोनों होते हैं। दृष्टिमें एक द्रव्य ही मुख्य होता है और जाननेमें गुण, पर्याय, द्रव्य सब आता है। निश्चयनय, व्यवहारनय, निश्चयका स्वरूप, व्यवहारका स्वरूप जाननेमें सब आता है।
मुमुक्षुः- हम ऐसा समझे तो उससे आत्माकी तीखी रुचि कैसे हो? निश्चयसे दृष्टि अपेक्षासे ऐसा है और निश्चय-व्यवहार ज्ञानमें इसप्रकार होते हैं, उससे आत्माकी रुचि कैसे हो?
समाधानः- जाननेसे आत्माका स्वरूप ऐसा है, बाहरमें कहीं नहीं है, यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मेरा स्वभाव एक ज्ञायक ही है, यह सब आकूलता है, यह सब विभाव है, मेरा स्वभाव नहीं है। मैं चैतन्य एक अनादिअनन्त हूँ। उसे दुःख लगे, भवभ्रमणकी थकान लगे और अंतरमें एक आत्मामें शान्ति और आनन्द है, ऐसी उसे प्रतीत हो, रुचि हो तो उस ओर रुचि होती है कि वस्तुका स्वरूप ऐसा है। सब मेरेमें है, बाहर कुछ नहीं है। सबकुछ मेरेमें है, यह कैसे ग्रहण हो, कैसे प्रगट हो? सब अनन्त। आनन्द अनन्त, ज्ञान अनन्त, ऐसे अनन्त गुण सब मेरेमें भरा है। बाहरमें कुछ नहीं है। और उस पर-अभेद चैतन्य पर दृष्टि करनेसे, स्वयंका अस्तित्व ग्रहण करनेसे यह प्रगट होता है। इसप्रकार निश्चय-व्यवहारको जाननेसे स्वयंके चैतन्य पर दृष्टि पर जाये। जिसे जिज्ञासा हो, इस भवभ्रमणकी थकान लगी हो, विभावसे थक गया हो, आकूलता लगती हो, उसे उसमेंसे उपाय मिल जाता है कि एक चैतन्य पर दृष्टि करनेसे आत्माका सुख और आनन्द प्रगट होता है। स्वानुभूति प्रगट होती है। यह निश्चय है, यह व्यवहार है। उसमें साधकदशा बीचमें आती है। उसमें साध्य एक आत्माको ग्रहण करके बीचमें यह साधकदशा होती है। इसप्रकार निश्चय-व्यवहारकी संधिको जाने तो उसे मुक्तिका मार्ग मिलता है। उसे उस ओर रुचि जागृत होती है कि बस, अपूर्व आनन्द और अपूर्व आश्चर्यकारी तत्त्व यही है, इसलिये उसे ग्रहण करने जैसा है। इसप्रकार ग्रहण हो, उसकी रुचि हो, ऐसा सब होता है।
मुमुक्षुः- उसमें साथ-साथ उपकारी सत्पुरुषकी महिमा इसीमें आ जाती है?
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समाधानः- हाँ, उसमें आती है। जिसे आत्माका स्वरूप समझना है, ऐसे देव- गुरु-शास्त्र जो समझाते हैं, आत्माका स्वरूप जो अनादिसे नहीं समझा है, उसे समझानेवाले ऐसे सत्पुरुष-ज्ञानी के प्रति महिमा आये बिना नहीं रहती। क्योंकि जो आत्माका स्वरूप समझाये उस पर उसे महिमा आती है। क्योंकि अनादिसे जो मार्ग प्राप्त नहीं हुआ है, वह जो समझाये उस पर महिमा आये बिना रहती ही नहीं। आत्माका स्वरूप ऐसा है, अनन्त आनन्दसे भरा अपूर्व अनुपम तत्त्व है, ऐसा मार्ग जो दर्शाते हैं, ऐसे गुरु पर, देव पर उसे महिमा आये बिना रहती ही नहीं। क्योंकि अनादिका अनजाना मार्ग, जो स्वयंको जिज्ञासा है, वह मार्ग गुरुदेव बताये और उस भूमिकामें स्वयं खडा है, उस भूमिकामें अमुक प्रकारकी भक्तिकी भूमिकामें खडा हो तो उसे महिमा आये बिना रहती ही नहीं।
जब तक स्वयंने आत्माको जाना नहीं, इसलिये जो समझाते हैं उस पर भक्ति आये बिना रहती ही नहीं। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा तो सम्यग्दर्शन प्राप्त करे तो भी उसकी वह भूमिका है तो देव-गुरु-शास्त्र पर उसे भक्ति आये बिना रहती ही नहीं। क्योंकि वीतरागदशा नहीं होती तबतक बीचमें प्रशस्त रागकी भूमिकामें खडा है इसलिये उसे आये बिना रहता ही नहीं। उसे वह रोकते नहीं, लेकिन बीचमें आये बिना नहीं रहता।
मुनि हो तो मुनिको भी बीचमें आती है। मुनि शास्त्र लिखे तो प्रारंभमें जिनेन्द्र भगवानको नमस्कार करते हैं, सिद्ध भगवानको नमस्कार करते हैं। मुनिओंको भी आये बिना नहीं रहती। वह तो बीचमें आता ही है। तो जिसकी जिज्ञासुकी भूमिका है, जिसने मार्ग जाना नहीं है, उसे तो आये बिना रहती ही नहीं। क्योंकि एक तो स्वयं कुछ समझता नहीं और जो अनादिका मार्ग गुरुदेवने बताया तो उन पर भक्ति आये बिना रहती नहीं। क्योंकि अनादिका ऐसा अनजाना मार्ग कि जो स्वयं कुछ समझता नहीं, ऐसा मार्ग जिसने समझाया उस पर उसे महिमा आती ही रहती है।
ऐसे पंचमकालमें गुरुदेव पधारे और ऐसा मार्ग बताया तो महिमा आये बिना उसे नहीं रहती और आत्माका ध्येय उसे साथमें रहता है कि ऐसा आत्मा है, वह आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो? प्रगट होनेका निमित्त जो गुरुदेव पर, देव-गुरु-शास्त्र पर भक्ति आये बिना नहीं रहती।
मुमुक्षुः- उसमें कोई विरूद्धता नहीं है।
समाधानः- विरूद्धता नहीं है। भक्तिके साथ आत्माकी जिज्ञासाको विरूद्धता नहीं है। दोनोंका सम्बन्ध है। विरूद्धता नहीं है। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें भी वह होती है- देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति। और मुनिओंको भी होती है। उसकी भूमिका अनुसार होती
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है। पूजा आदि कार्य नहीं होते परन्तु उन्हें भक्ति होती है। सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें उसे कोई विरूद्धता नहीं है कि वह रागकी भूमिका है और आत्मा वीतराग है, इसलिये उसे वह आये ... वीतरागदशा प्रगट होती है, तब वह छूट जाता है। परन्तु वीतरागस्वरूप आत्माका है, लेकिन उसे दृष्टिमें ग्रहण किया, आत्मा निर्विकल्प तत्त्व है, उसे दृष्टिमें ग्रहण किया लेकिन उस प्रगट नहीं हुआ है तब तक बीचमें आये बिना नहीं रहती। जो स्वयंको जानना है, वह दर्शानेवाले मिले उन पर भक्ति आये बिना नहीं रहती। उसे विरूद्धता नहीं है कि अब अन्दर आत्माका करना है, बाहरका कुछ नहीं। लेकिन वह रागकी भूमिकामें आये बिना रहता ही नहीं। नहीं आये तो स्वयं बराबर समझा नहीं है। स्वयं समझा नहीं है। अन्दर आत्माका ही करना है, बाहरका (क्या काम है)? लेकिन बाहरके विकल्प उसे आये बिना रहते ही नहीं। दूसरा बाहरका कैसे आता है? विभावकी भूमिकामें दूसरे विभावके भाव उसे अप्रशस्त आते हैं तो प्रशस्तमें पलटे बिना नहीं रहता। जिसे आत्माकी रुचि जागी, उसके भाव प्रशस्तमें पलट जाते हैं।