Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 63.

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ट्रेक-०६३ (audio) (View topics)

समाधानः- .. शांति आत्माका स्वभाव है और आत्मामें है। बाहर तो कल्पनासे सुख माना है। सुख, शांति बाहर तो नहीं है। जीव अनन्त कालसे शुभभाव करे, बाह्य क्रियाएँ करे, बाहर धर्म मानकर करता है, परन्तु अन्दरकी आकुलता टालनी, वह तो स्वयं अन्दर समझे तो होता है। शुभभाव करे, भले बहुत करे, बाहरसे बहुत करे, उपवास करे, सामायिक करे, प्रतिक्रमण करे, मन्दिर जाय, पूजा-भक्ति सब करे, लेकिन अन्दरमें शांति तो आत्माको पहचाने तो होती है। वह सब तो शुभभाव होते हैं, उन सबसे पुण्य-बन्ध होता है, देवलोक मिले, परन्तु देव तो एक गति है। देव भव अनन्त बार मिले, मनुष्यभव मिला, सब मिला, परन्तु वह सब भव है। भवका अभाव तो आत्माको पहचाने तो होता है।

वह सब शुभभाव पुण्यभाव हैं। उससे आत्मा तो अन्दर भिन्न ही है। भिन्न आत्माको पहचाने तो होता है। शरीर तो जड कुछ जानता नहीं, अन्दर जो विकल्प आये, शुभभाव आये, अशुभभाव आये, सब भाव विकल्प हैं। किसीसे पुण्य बन्धे और किसीसे पाप बन्धे। परन्तु उससे भिन्न जो आत्मा जाननेवाला है, वह ज्ञायक आत्माको पहचाने तो उसमेंसे शांति आती है। परन्तु उसे पहचाननेके लिये, आत्मा ज्ञायक है उसमें शांति है, उसमें आनन्द है, उसे पहचाननेके लिये उसकी रुचि, उसकी जिज्ञासा, उसका विचार करना चाहिये। उसका वांचन (करना चाहिये)। सत्य क्या है, वह स्वयं वांचन, विचार करके स्वयंसे नक्की करे तो होता है। परन्तु स्वयंसे समझे नहीं तो सत्संग करे, जहाँ सच्चा सत्संग मिलता हो, वहाँ वह सत्य जाननेका प्रयत्न करे कि सत्य क्या है? शांति तो अन्दर आत्मामें है, बाहर कहीं नहीं है।

मुमुक्षुः- वह समझ तो हो गयी है, उतना तो समझते हैैं कि यह बाह्य क्रिया है। अंतरकी बात अलग है। आत्माका दर्शन होना चाहिये, वह बराबर है। परन्तु ऐसा सत्संग मिलता नहीं, ऐसी ज्ञानगोष्ठी करनेके लिये विचारोंका आदानप्रदान करें, वहाँ ऐसा कोई (मिलता नहीं)। मैं पढूँ, आगे नहीं बढ पाती हूँ, अटक जाती हूँ, ऐसी सब मनकी परिस्थिति है। इसलिये अन्दर उद्वेग बहुत होता है। करना है, सत्य वस्तु प्राप्त करनी है, सत्य मार्ग पर चढ जाना है, उतनी जिज्ञासा है। सत्य क्या है और असत्य


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क्या है, उतनी समझन हुयी है, पढते-पढते, प्रयत्न करते-करते। परन्तु अभी वहाँ जाउँ तो वहाँ कुछ कमी लगे, देरासरमें जाउँ तो वहाँ कुछ कमी लगे।

समाधानः- जहाँ सत्य मिलता हो, वहाँ सत्य जाननेका प्रयत्न करना। सत्य वस्तु जाने, स्वयं जाने तो अन्दर नक्की हो कि यही सत्य है। फिर उसी रास्ते पर स्वयं प्रयत्न करे, उसका विचार करे, उसकी जिज्ञासा (आदि) सब करे। परन्तु सत्य क्या है यह नक्की करनेके लिये सत्संग, जहाँ सत्य बात मिलती हो ऐसे स्थानमें जाकरसत्संग करे तो होता है।

मुमुक्षुः- ऐसे तो बाहर जाती ही हूँ। ववाणिया जाती हूँ, वडवा जाती हूँ। पुस्तक रखे हैं। भक्तिमें मुझे विशेष रस है। आनन्दघनजीके पद, आध्यात्मिक पद अर्थ सहित मिलान करुँ। उसका पूरा मिलान करती हूँ।

समाधानः- वह है, लेकिन अन्दर सत्य ज्यादा नहीं जाने, परन्तु थोडा भी मार्ग तो उसे जानना चाहिये। सत्य जाने बिना आगे नहीं बढ सकता। एक गाँव जाना हो तो किस गाँवमें जाना है, उसका रास्ता जाने बिना (कैसे जायेगा)? भले फिर धीरे- धीरे चले, चलनेमें देर लगे, परन्तु मार्ग तो जानना चाहिये न? कि इस मार्गसे जाना होता है। सच्चे ज्ञान बिना, प्रयोजनभूत ज्ञान बिना, भले भक्ति, उत्साह आदि सब आये, महिमा आये, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आये, आत्माकी महिमा आये, परन्तु सत्य क्या है उसे जाने बिना आगे कैसे जायेगा? सच्चा ज्ञान तो (करना चाहिये)। ज्ञान बिना कैसे जाना होगा? सत्संग करना चाहिये, जो सत्य जानता हो उसे पूछना चाहिये। सच्चे शास्त्र, जहाँ सत्संग हो वहाँ समझना चाहिये। समझनेके लिये प्रयत्न करना चाहिये। मात्र अकेली भक्ति करता रहे तो भी आगे नहीं बढ सकता।

मुमुक्षुः- कमी लगती है, इसीलिये यह खोज और प्रयत्न चालू रखे हैं। इसमें कमी है, कुछ कमी है, कुछ कमी है, अभी कुछ चाहिये।

समाधानः- .. बोलनेकी जरूरत नहीं है। अपनी मान्यतामें फेरफार करना है। बाहर जाना छोड देना ऐसा कुछ उसमें आता नहीं। अपनी मान्यता बदलनी है। मान्यता बदले तो अपनेआप सब फेरफार होता है। कोई देरावासी हो वह कहे, यह मन्दिर आदि क्या? लेकिन तुम सत्य समझो तो अपनेआप सब फेरफार होंगे। गुरुदेव स्थानकवासी संप्रदायमें थे। उन्होंने सब शास्त्र देखे हैं। देरावासी, स्थानकवासी, उसमेंसे उन्होंने फेरफार करके, उनको यह सत्य लगा तो उसे ग्रहण कर लिया।

मुमुक्षुः- ऐसा कह सकते हैं क्या अभी जो धर्मकाल प्रवर्तता है, ऐसा पीछले दो हजार वर्षमें नहीं प्रवर्तता था। कारण कि कुन्दकुन्द स्वामीको प्रत्यक्ष देखनेवाले आप अकेले ही दो हाजर वर्षमें यहाँ हो। वहाँ विदेहक्षेत्रमें..।


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समाधानः- यहाँ धर्मकाल नहीं प्रवर्तता था, ऐसा कैसे कह सकते हैं?

मुमुक्षुः- व्यापकरूपसे।

समाधानः- कुन्दकुन्दाचार्य यहाँ विराजते थे तब धर्मकाल तो प्रवर्तता होगा। नहीं प्रवर्तता ऐसा कैसे कह सकते हैं? गुरुदेवने तो बहुत प्रभावना की। लेकिन कुन्दकुन्दाचार्यदेव विराजते होंगे तब भी प्रभावना हुई होगी।

मुमुक्षुः- जंगलमें थे न।

समाधानः- वह अपेक्षा अलग है। जंगलमें हो वह अपेक्षा अलग है। और अभी हम दूसरी अपेक्षासे कहते हैं। मुनि जंगलमें हो और गाँवमें आये तब हो। यहाँ गुरुदेव तो सब मुमुक्षुओंके बीच, हजारों मुमुक्षुओंके बीच यहाँ निरंतर वाणी बरसाते थे। ४५- ४५ साल तक वाणी बरसती रही। मुमुक्षुओंके बीच रहकर जो लाभ दिया, वह तो कोई अपूर्व है। वह एक अपेक्षा अलग है। बाकी कुन्दकुन्दाचार्यका तो यह शासन कहलाता है।

कितनी प्राचीन प्रतिमाएँ देखें तो सबमें कुन्दकुन्द आम्नाय, कुन्दकुन्द आम्नाय ऐसा आता है। वे तो महा समर्थ आचार्य हो गये। उस वक्त कुछ अलग हुआ होगा, इस वक्त कुछ अलग है। गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य, यहाँ गुरुदेव पधारे वह महाभाग्यकी बात है। पहले जो क्रियामें थे और अभी सबको चैतन्यकी रुचि और चैतन्यका विचार करना सीखे, यहाँ सौराष्ट्रमें ही नहीं हर जगह प्रभावना हुयी। कुन्दकुन्दाचार्य विराजते थे वह अलग था। मुनिराज यहाँसे विदेहक्षेत्रमें गये और वहाँसे वापस आये। सबको उपदेश दिया, वह काल उस समयमें कुछ अलग ही हुआ होगा। वह अलग होगा। अभी यह अलग है।

मुमुक्षुः- कुन्दकुन्दस्वामी कहीं लिखकर नहीं गये हैं कि मैं विदेहक्षेत्रमें जाकर (सुनकर यह लिख रहा हूँ)।

समाधानः- उन्होंने स्वयं भले ही नहीं लिखा हो, परन्तु शास्त्रोंमें आता है, आचार्य लिखते हैं, पंचास्तिकायकी टीकामें आता है, देवसेनाचार्य आदि सब कहते हैं। शास्त्रमें लेख आते हैं। शिलालेखोंमें आता है।

मुमुक्षुः- शिलालेख परसे कहे। आप तो साक्षात देखकर यहाँ बात करते हो।

समाधानः- वह अपेक्षा अलग है, यह अपेक्षा अलग है। दोनों अपेक्षासे समझना है। दोनों अपेक्षासे समझना। मुनिराज थे, महासमर्थ आचार्य थे। उस वक्त साक्षात उस देहमें जो विदेहक्षेत्रमें सीमंधर भगवानके साक्षात दर्शन करके, वहाँ वाणी सुनकर इस भरतक्षेत्रमें पधारे, उस समयका माहोल उस वक्त कैसा हुआ होगा? वह कुछ अलग ही हुआ होगा।


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मुमुक्षुः- एक अपेक्षासे तो गुरुदेव और आप, दोनों साक्षात वाणी सुनकर ही यहाँ पधारे हो। वे पहले गये और वापस आये। आप पहली बार यहाँ आये।

समाधानः- आपको जो अर्थ लेना हो वह लीजिये।

मुमुक्षुः- चतुर्थ काल कहते हैं, यहाँ सोनगढमें चतुर्थ काल वर्तता है।

समाधानः- जिसे हित हो, जैसा अर्थ लेना हो वैसा ले सकते हैं। बाकी सब अपेक्षाएँ समझनी है।

मुमुक्षुः- माताजी! आज गुरुदेवका परिवर्तनका दिवस है।

समाधानः- गुरुदेव तीर्थंकरका द्रव्य, तीर्थंकर जैसा कार्य किया। तीर्थंकरका द्रव्य तो हो, परन्तु यह तो तीर्थंकर जैसा गुरुदेवने अभी काम किया। इस भरतक्षेत्रमें वाणी कोई अलग ही थी। उनके जैसी वाणी किसीकी नहीं थी। पूरे संप्रदायका परिवर्तन किया। वह कोई अलग बात थी। वह कोई आसान बात नहीं थी। पूरे संप्रदायमें उनके प्रति सबको महिमा थी। संप्रदायमें लोगोंका समूह इकठ्ठा होता था, वह सब छोडकर एक ओर बैैठकर स्वयंने परिवर्तन किया। संप्रदायमें खलबली मच गयी, तो भी अकेलेने अन्दर पुरुषार्थ करके, सब सहन करनेके लिये तैयार थे। समाचार पत्रोंमें सब जगह खलबली मच गयी थी।

यहाँ एकान्त स्थानमें कोई आये, न आये, किसीकी परवाह नहीं की। भले थोडे लोग आये, हजारोंकी जनसंख्यामें बैठकर गुरुदेव व्याख्यान करते थे। उसके बदले यहाँ एकान्तवासमें आकर बैठ गये। परिवर्तन किया, ऐसा लोगोंको मालूम हुआ तो स्थानकवासीमें खलबली मच गयी। उनको ऐसा था, अन्दर जो मानता हूँ वह बात और बाहरमें भेस अलग है। इसलिये भेसका भी परिवर्तन कर दिया। परन्तु गुरुदेव पर लोगोंको इतनी भक्ति थी कि कानजीस्वामी जो कहते हैं वह सब सत्य है। और विचारपूर्वक ही सब करते हैं। कानजीस्वामीके लिये स्थानकवासी संप्रदायमें ऐसा कहते थे, उनके जैसे कोई साधु नहीं थे, वहाँ स्थानकवासी संप्रदायमें। उन्होंने जो किया होगा विचार करके किया होगा। तुरंत प्रथम पर्युषणमें ही लोगोंका समूह आया था। संप्रदायका आग्रह छोडकर बहुत लोग आने लगे।

मुमुक्षुः- परिवर्तनका दिवस भी महावीरस्वामीके जन्मजयंतिके दिन ही..

समाधानः- तेरसके दिन ही गुरुदेवने परिवर्तन किया। यहाँ छोटी पहाडी है न? यहाँ सोनगढमें छोटी पहाडी पर। स्टार ओफ इन्डिया, कहलाती है। उसका नाम ही वही था। उस बंगलेका नाम पहलेसे स्टार ओफ इन्डिया था।

मुमुक्षुः- हिन्दुस्तानका तारा।

समाधानः- हिन्दुस्तानका तारा।


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मुमुक्षुः- कुदरती कैसा मेल है! कुन्दकुन्दस्वामीके नामका अर्थ भी सुवर्ण ही होता है न?

समाधानः- हाँ, सुवर्ण होता है।

मुमुक्षुः- और यह सुवर्णपुरी।

समाधानः- यह सुवर्णपुरी। संप्रदायके सामने टक्कर झेलकर सब फेरफार किया। सत्य मार्ग है, परन्तु मात्र क्रिया नहीं, अंतरंगसे उन्होंने तो...

स्वानुभूतिका मार्ग, उस मार्गके साथ दिगंबर मार्ग आता है। उसमेंसे धीरे-धीरे उनकी प्रभावना बढती गयी। सब दिगंबर इस ओर मुडने लगे। लेकिन मात्र एक भेस धारण किया इसलिये दिगंबर ऐसा नहीं। उनका तो अंतरमेंसे भावसहित सब उपदेश उस प्रकारका था।

मुमुक्षुः- भावसहित और सब न्यायसे समझमें आये, युक्तिसे समझमें आये, इस तरह सब (समझाया)।

समाधानः- न्यायसे, युक्तिसे सबको बैठ जाय, वैसे। चारों ओरसे। ... सब आता है। कुन्दकुन्दाचार्यके शास्त्र अभी तक चले।

मुमुक्षुः- प्रभावनामें आपका जातिस्मरण भी एक उतना ही प्रबल कारण था। उन्हें भले आभासा होता था कि मैं तीर्थंकर होनेवाला हूँ। परन्तु प्रत्यक्षरूपसे जो ख्याल आ गया..

समाधानः- आप सबको जो अर्थ करना हो वह करो, बाकी तो तीर्थंकरका द्रव्य था। तीर्थंकर तो तीर्थंकर ही थे। उन्होंने तो इस भरत क्षेत्रमें वाणी बरसायी। ऐसी जोरदार उनकी आत्मस्पर्शी वाणी सबको असर करे, ऐसी। इस कारणसे सब आत्माकी ओर मुडे। हजारों मुमुक्षु हो गये। वह तो एक महापुरुष हो उनके पीछे सब होता है। तीर्थंकर भगवान जगतमें सर्वोत्कृष्ट कहलाते हैं। जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो तो तीर्थंकरदेव हैं।

मुमुक्षुः- शास्त्रोंका गुजराती भाषामें (अनुवाद हुआ)।

समाधानः- वह तो एक महापुरुष हो, तीर्थंकर द्रव्य यहाँ पधारे। तीर्थंकर जैसा ही काम किया। उनके पीछे सब कुछ होता है। भगवानका समवसरण हो, वहाँ सबकुछ होता है। .. एक भगवानकी होती है, बाकी सब तो उनके पीछे होते हैं। सब उनके दास हैं। सबकुछ होता है, परन्तु समवसरणमें महिमा एक भगवानकी होती है। उसमें सब मुनि होते हैं, गणधर, ऋद्धिधारी आदि सब होते हैं। इन्द्र, चक्रवर्ती आदि सब होते हैं। महिमा एक भगवानकी होती है। इन्द्र समवसरण रचता है, तब कहता है, हे भगवान! यह रचना हो गयी, वह आपके कारण रचना हो गयी है। स्वयं ही रचकर स्वंयको ही आश्चर्य होता है। आपका ऐसा कोई पुण्य है, ऐसा सर्वोत्कृष्ट पुण्य है,


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इस कारणसे यह सब रचना हुयी है।

मुमुक्षुः- इन्द्र उनके पुण्य देखकर आश्चर्यचकित होता है, उसमें वाणी भी ऐसी होती है कि समझनेवालेको ऐसा लगता है कि ऐसा तो हमें कभी मिला ही नहीं।

समाधानः- भगवानकी मुद्रा ऐसी, भगवानका समवसरण ऐसा, भगवानकी वाणी ऐसी, सबकुछ ऐसा ही होता है। भगवानकी दिव्यध्वनि ऐसी। यहाँ गुरुदेवकी वाणी ऐसी। ऐसी वाणी सुनकर लोग थँभ जाते थे। सब टगरटगर देखते रहते थे और क्या कहते हैं? कुछ अलग ही कहते हैं, इस प्रकार सबके हृदयका परिवर्तन हो जाता था। वाणी तो, वाणीकी तो क्या बात करनी?

मुमुक्षुः- गुरुदेवके उपदेशका मुख्य सूर, तू परमात्मा है वह या परका अकर्तापना?

समाधानः- तू परमात्मा है, वह।

मुमुक्षुः- वह मुख्य सूर था?

समाधानः- मुख्य। अपनी अस्ति ग्रहण करनी। तू ज्ञायक परमात्मा है। तू परमात्मा है, ऐसा ग्रहण कर तो उसमेंसे परमात्मपद प्रगट होगा। उसमें अकर्तापना आ जाता है। परमात्माको ग्रहण करे उसमें। उसमें सब समा जाता है। अस्ति ग्रहण करे उसमें नास्ति समा जाती है। परपदार्थका कर्ता नहीं है। तू स्वयं सर्वोत्कृष्ट परमात्मा है।

कैसा परमात्मा? ज्ञायक परमात्मा। जाननेवाला परमात्मा, कर्ता नहीं है। परमात्माका स्वरूप विचारे तो परमात्मा कैसा परमात्मा? ज्ञायक परमात्मा अनंत शक्तिओंसे भरपूर अनंत महिमावंत। ज्ञायक जाननेवाला हुआ, उसमें कर्तृत्व छूट गया। जाने सो कर्ता नहीं, कर्ता सो जाने नहीं। "करै करम सो ही करतारा, जो जाने सो जाननहारा'। जाननेवाला हो वह कुछ करता नहीं, ज्ञाता रहता है।

मुमुक्षुः- उसका उपाय, आपने सम्यक जयंतिके दिन कहा कि ज्ञाताकस डोरी लेकर उसके सन्मुख हो-स्वरूप सन्मुख हो, वह उसका उपाय।

समाधानः- ज्ञाताकी डोरी ग्रहण कर ले। ज्ञायक ही हूँ, ऐसा ग्रहण करके स्वसन्मुख जाय तो कर्तृत्व छूट जाय।

मुमुक्षुः- माताजी! उस दिन देखा कि आपने उत्तर देनेसे पहले तो गुरुदेवका कितना विनय, बहुमान (करके) आगे तो गुरुदेवको ही रखा। गुरुदेवका सब उपकार है, गुुरुदेवने ही सब दिया है, गुरुदेवका ही सब है। उसके बाद आपने उत्तर दिया। आप जहाँ भी देखो, वहाँ ऐसा लगे कि हर जगह आप पहले तो गुरुदेवको ही स्थापते हो।

समाधानः- गुरुदेवको ही स्थापना होता है। दूसरा क्या स्थापन करना? जिन्होंने मार्ग बताया, परमात्माका स्वरूप बताया, ऐसे गुरुदेवकी ही स्थापना होती है।

मुमुक्षुः- मैं तो दासानुदास हूँ। आप कैसे शब्द बोलते थे।


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समाधानः- अपना कुछ भी रखना कि मैं... वह आत्मार्थीका लक्षण ही नहीं है।

मुमुक्षुः- अदभुत विनय! बडोंको सर पर रखनेका जो आप वचनामृतमें कहते हो वह आपके जीवनमें साक्षात ऊतर गया हो, ऐसा लगता है।

समाधानः- जिसे मुक्तिके मार्ग पर जाना है, अपना स्वभाव प्रगट करना है, उसे देव-गुरु-शास्त्र साथमें ही होते हैं। स्वयं ज्ञायक परमात्मा है, लेकिन साधक दशा है। साधक दशावालेको बीचमें देव-गुरु-शास्त्र उसके साथ (होते हैं), उनकी महिमा आये बिना रहती ही नहीं। नहीं तो "मैं कुछ हूँ' उसे बीचमें आये तो उसकी साधक दशा ही नहीं रहती है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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