Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 68.

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ट्रेक-०६८ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- गुरुदेव सम्यग्दर्शनके लिये बहुत कहते थे, सम्यग्दर्शन कैसे प्राप्त करना? माताजी! दूसरा प्रश्न है, स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धान साथ-साथ चलते हैं कि उसमें कोई क्रम है?

समाधानः- स्वरूपका ज्ञान और श्रद्धा, सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान दोनों साथ- साथ हैं। उसमें क्रम नहीं है। लेकिन शुरुआतमें आत्माको जाननेके लिये, मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? उसका जब निर्णय करे तब वह ज्ञान बीचमें आता है। मेरा ज्ञायक, मेरा ज्ञानस्वभाव है। तब निर्णय करे और श्रद्धा बादमें होती है, उसे क्रम कहते हैं। वह क्रम व्यवहार है। वास्तविकरूपसे श्रद्धा और ज्ञानमें क्रम नहीं है। सच्ची श्रद्धा हो तब ज्ञानको सम्यक नाम दिया जाता है। सम्यक श्रद्धा होती है तब दोनों साथमें ही है। उसमें क्रम नहीं है। दोनों साथमें है।

जिस क्षण सम्यक श्रद्धा होती है, उसी क्षण सम्यकज्ञान होता है। उसमें क्रम नहीं है। चारित्रमें क्रम पडता है। चारित्रमें क्रम है। सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान दोनों साथमें ही हैं। चारित्रमें क्रम है। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। सम्यग्दर्शन होता है तो अमुक अंशमें सर्व गुण निर्मल होते हैं। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। आत्माका-ज्ञायकका अवलम्बन लिया। ज्ञायकका अवलम्बन लिया, उसकी श्रद्धा की तो उसके साथ ज्ञान भी सम्यक होता है। श्रद्धा एक ज्ञायकको ग्रहण करती है और ज्ञान आत्माको भी ग्रहण करता है, ज्ञायकको ग्रहण करता है, पर्यायका ख्याल है, अधूरी-पूरी पर्यायका ख्याल है। लेकिन वह साथमें ही है।

कोई ऐसा माने कि सम्यक श्रद्धा और ज्ञान हुआ, पूर्ण दृष्टि हुयी तो उसके साथ चारित्र-लीनता भी आ गयी, पूर्ण दृष्टि हुयी-सम्यग्दर्शन हुआ इसलिये सब आ गया और सब निर्मलता हो गयी, ऐसा नहीं है। उसमें चारित्रका क्रम पडता है। अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान हो तो भी सम्यक श्रद्धा और ज्ञान साथमें होते हैं और चारित्रमें क्रम पडता है। चारित्रमें क्रम है। सम्यक श्रद्धा और ज्ञानमें क्रम नहीं है।

चारित्र, स्थिरता, लीनता उसके पुरुषार्थ अनुसार वर्धमान होता जाता है। लीनतामें क्रम पडता है। ज्ञान और श्रद्धा हो, इसलिये पूरा हो गया ऐसा नहीं है। अभी उसे


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अमुक निर्मलताकी श्रद्धा हुयी, परन्तु निर्मलताकी परिणति जो पूर्णरूपसे होनी चाहिये वह नहीं हुयी। उसके लिये क्रम पडता है। वह स्वरूपमें लीनता करते-करते वह आगे जाता है। आगे जाता है और उसकी भूमिका बढती जाय, चौथा, पाँचवा, छठ्ठा-सातवाँ अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें स्वरूपमें झुलता है, उसमें चारित्रका क्रम है। श्रद्धा-ज्ञानमें क्रम नहीं है। दोनों साथमें हैं।

उसे व्यवहारसे विचार करके जाने। जाने बिना आगे नहीं बढ सकता। जाननेके लिये सब ज्ञान करे, परन्तु सम्यक श्रद्धा होती है, तभी सम्यकज्ञान होता है। अंतर्मुहूर्तमें एक श्वासोश्वासमें अज्ञानी जो कर्म क्षय करता है, लाख-क्रोड भव हो, उसे ज्ञानी अंतर्मुहूर्तमें क्षय करता है। अंतर्मुहूर्तमें क्षय करे तो ज्ञान और श्रद्धा साथमें होते हैं। उसमें चारित्रका क्रम होता है। लेकिन श्रद्धा-ज्ञानमें क्रम नहीं होता। उसे अभी लीनता कम रहती है, स्वरूपाचरण चारित्र-स्वरूपमें विशेष-विशेष लीन होनेका प्रयत्न (चलता है)। श्रद्धासे जाना कि यह ज्ञायक वही मैं हूँ और कोई भी विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। रागादिका मैं कर्ता नहीं हूँ। मेरे स्वभावका कर्ता हूँ। तो भी अल्प अस्थिरतासे अस्थिरत परिणति होती है, उसमें रागादि होते हैं। इसलिये स्वयं स्वरूपकी वीतराग दशा प्रगट करनेका प्रयत्न करता रहता है। वीतराग दशा कैसे प्रगट हो? स्वानुभूतिकी दशा वर्तमान शुद्धि हो, उस अनुसार उसकी स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है।

मुमुक्षुः- सम्यक श्रद्धा और सम्यकज्ञान तो एकसाथ होते हैं, परन्तु उसके पहले पूर्वभूमिकामें ज्ञान होते-होते साथमें श्रद्धानका कुछ काम चलता है कि नहीं?

समाधानः- ज्ञानके साथ श्रद्धाका काम चले, परन्तु उसे सम्यक परिणति यथार्थ श्रद्धा हो तभी कहा जाता है। ज्ञायकका आश्रय अंतरमें यथार्थपने आया और ज्ञायकका आलम्बन लिया, तब उसे, यही ज्ञायक, तो ही उसे श्रद्धा कहा जाता है। श्रद्धाका काम चले, विचारसे नक्की करे कि ज्ञानस्वभाव मैं हूँ, यह सब मैं नहीं हूँ, ऐसे विचारसे नक्की किया करे, सच्चे देव-गुरु-शास्त्रकी श्रद्धा करे, यह ज्ञानस्वभाव सो मैं, ऐसे विचारसे नक्की किया करे, वह सब श्रद्धाका काम साथमें चलता है। परन्तु सम्यक तो ज्ञायकका अवल्बन ले तभी कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- ऐसा नहीं है कि ज्ञानका काम चलता हो और श्रद्धा तो एक समयमें फटाकसे मिथ्यात्व (छूट जाय) ऐसा नहीं है।

समाधानः- नहीं, ऐसा नहीं है। विचारमें श्रद्धा होती है। परन्तु वह सम्यक नहीं कहलाती। ज्ञायकका अवलम्बन ले तब (सम्यक कही जाती है)।

मुमुक्षुः- माताजी! दूसरा प्रश्न है। पूज्य गुरुदेवश्रीका उपदेश जिज्ञासा और भावनासे सुनकर, मैं एक ज्ञायक हूँ, शरीर नहीं हूँ, इतना ज्ञान हो तो सम्यग्दर्शन हुआ कहा


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जाय कि नहीं?

समाधानः- गुरुदेवका उपदेश सुने। गुरुदेव सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं, उसे समझना चाहिये। गुरुदेव मात्र, शरीरसे भिन्न एक ज्ञायक जाननेवाला, उतनेमें सम्यग्दर्शन नहीं कहते थे। गुरुदेव सम्यग्दर्शनका स्वरूप कोई अपूर्व कहते थे। एक शरीरसे भिन्न आत्माको जाना इसलिये उसमें सम्यग्दर्शन आता नहीं। थोडा करके आगे नहीं बढता तो थोडेमें बहुत मान ले तो उसमें कार्यसिद्धि नहीं होती। उसमें स्वयंको सुख उत्पन्न नहीं होता। हो सके तो (अच्छा ही है), नहीं हो सके तो श्रद्धा तो बराबर करना। जो गुरुदेवने कहा है कि सम्यग्दर्शन अंतरमें कोई अलग है और कोई अपूर्व है। शुभाशुभ भावोंसे भिन्न आत्मा है, उसे तू पहचान। उसमें जो स्वानुभूति होती है, उस पार मन-वचन-कायासे भिन्न आत्मा, विभाव भी उसका स्वभाव नहीं है, उससे भी भिन्न अन्दर जान। तो सम्यग्दर्शन अन्दर स्वानुभूति हो तो (होता है)। ऐसा गुरुदेवने कहा है।

तुझसे हो सके तो ध्यानमय प्रतिक्रमण करना, शास्त्रमें आता है। न हो सके तो श्रद्धा तो बराबर करना। तुझसे आगे नहीं बढा जाय, तो गुरुदेवने जो सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहा है, उसकी श्रद्धा तू बराबर करना। शरीरसे भिन्न जाना। शरीर तो जड है और आत्मा जाननेवाला है। इसलिये आत्माको जाननेके लिये, यह जाननेवाला मैं हूँ, यह शरीर कुछ जानता नहीं। इसलिये मैं शरीरसे भिन्न जाननेवाला हूँ। परन्तु अन्दरमें जो विकल्पकी जालके साथ एकत्व हो रहा है, विकल्पका-राग-द्वेषका स्वाद कलुषित आ रहा है। वह स्वाद भिन्न है। आत्मा जाननेवालाका स्वाद भिन्न है और यह स्वाद भिन्न है। विकल्पसे भिन्न स्वादभेद करता नहीं। तो उसे अभी भेदज्ञान हुआ नहीं है।

कालीजीरी और शक्कर दोनों मिश्र हो गये हो, शक्करका स्वाद और कालीजीरीका स्वाद, दोको अलग नहीं करता है तो अन्दर भेदज्ञान नहीं हो सकता है। दूध एक बर्तनमें हो तो बर्तनसे भिन्न दूध है। बर्तन बर्तन है। लेकिन दूध और पानी मिश्र है, वह दूध और पानीको भिन्न नहीं करता है तो वह वास्तविकरूपसे दूधका स्वरूप कैसा है, उसे जानता नहीं।

स्वादभेद अन्दर है, उसे भिन्न करे तो ही उसने आत्माको जाना कहनेमें आये और तो ही भेदज्ञान किया कहनेमें आता है। तो ही उसे सम्यग्दर्शन होता है। दोनों- शुभ और अशुभ, शुभभाव बीचमें आये, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा, शास्त्र अभ्यास बीचमें आता है, जो प्रयोजनभूत तत्त्वको जाननेका प्रयास, ज्यादा बहुत जाने एसा नहीं, परन्तु प्रयोजनभूत जाने। वह सब बीचमें आये, परन्तु दोनों भावोंसे स्वयं भिन्न है, शुभाशुभ भाव दोनों कलुषित आकुलतारूप है, मैं उससे भिन्न ज्ञायक हूँ, ऐसा भेदज्ञान करे तो ही उसने सच्चा जाना है। शरीरमात्रसे भिन्न जाने तो उसने भिन्न नहीं जाना है। वह


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ठीक है, शरीर जड और मैं भिन्न जाननेवाला हूँ। परन्तु अन्दर विभावोंसे भिन्न पडे तो उसने वास्तवमें भिन्न जाना है, नहीं तो भिन्न नहीं जाना है।

गुरुदेवने तो कितना उपदेश दिया है। चारों ओरसे स्पष्ट कर-करके समझाया है। उसमें कुछ बाकी नहीं रखा है। गुरुदेवने कुछ बाकी नहीं रखा है। शास्त्रमें आता है न कि, मेरे गुरुने जो उपदेशकी जमावट की है, उस उपदेशकी जमावटके आगे यह तीन लोकका, पृथ्वीका राज्य भी मुझे प्रिय नहीं है, यह तीन लोकका राज्य भी मुझे प्रिय नहीं है। सब तुच्छ है। ऐसे गुरुदेवने इस भरतक्षेत्रमें जन्म लेकर जो उपकार किया है, ४५-४५ वर्ष तक जो उपदेश बरसाया है, उस उपदेशकी जमावट स्वयं अन्दर करे। गुरुदेवने तो उपदेशका धोध बरसाया है। उस उपदेशके आगे सब तुच्छ है। यह पूरा जगत तुच्छ है। सब तुच्छ है।

एक ज्ञायक आत्माको पहचानो, वही उपदेश गुरुदेवने दिया है। इस पृथ्वीका राज्य, आचार्यदेव कहते हैं, तीन लोकका राज्य भी प्रिय नहीं है। उसके आगे बाहरके विभाव, सब तुच्छ है। लोगोंमें जाहिर होना, किसी भी प्रकारका कार्य, सब तुच्छ है। मेरे गुरुने जो उपदेश दिया, उसके आगे सब तुच्छ है। अन्दरमें गुरुदेवका उपदेश ग्रहण करे तो जो उन्होंने कहा, उसे पहचाने तो उसमें सम्यग्दर्शन (होकर) भवका अभाव हो और सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति हो।

मुमुक्षुः- ... टिकता है तो कैसे?

समाधानः- परिणमता है, स्वयं अपना स्वभाव टिकाकर परिणमता है। स्वभाव टिकता रहता है, परिणमन होता है।

मुमुक्षुः- अर्थात पूरा द्रव्य तो परिणमता है।

समाधानः- हाँ, पूरा द्रव्य परिणमता है। स्वभाव टिककर परिणमता है। दो भाग नहीं हो जाते कि आधा भाग परिणमता है और आधा भाग नहीं परिणमता है, ऐसा नहीं है। परिणमता है पूरा और स्वभावरूप सब रहता है। अपना स्वभाव टिककर परिणमता है। पूरा बदलकर फेरफार नहीं हो जाता। पूरा टिकता है और परिणमता भी है। टिकता भी है और परिणमता भी है।

मुमुक्षुः- दृष्टिका विषयभूत ऐसा जो त्रिकाल पंचमभाव सदा एकरूप रहता है। तो वह दृष्टि अपेक्षित है या परमार्थसे ऐसा है? पंचमभाव दृष्टि अपेक्षितमें लें...

समाधानः- पंचमभाव पूरा अनादिअनन्त है। वह दृष्टिकी अपेक्षासे नहीं, परन्तु वस्तु स्वभावसे वह एकरूप ही रहता है, पारिणामिकभाव तो। परन्तु दृष्टिके विषयमें वह पारिणामिकभाव आता है। अनादिअनन्त है, वह वस्तुस्वरूप है। अपेक्षित यानी पारिणामिकभाव अपेक्षित है ऐसा नहीं, पारिणामिकभाव अनादिअनन्त है। दृष्टि उसे पहचान


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लेती है। दृष्टिका विषय है। दृष्टिमें वह जान सकते हैं। वह दृष्टिका विषय है, अपेक्षित नहीं है। दृष्टि उसे विषय करती है। अपेक्षित नहीं है। दृष्टिकी अपेक्षासे पारिणामिकभाव है ऐसे नहीं, पारिणामिकभाव है और दृष्टि उसे ग्रहण करती है। परमार्थसे है।

मुमुक्षुः- आजके अलिंगग्रहणके प्रवचनमें आया था कि गुण सामान्य, द्रव्य-गुण सामान्य है और पर्याय विशेष है। हम लोग गुणको भी विशेष लेते हैं, वह किस प्रकारसे?

समाधानः- कोई अपेक्षासे द्रव्य और गुणको सामान्य कहते हैैं और पर्याय विशेष है। कोई अपेक्षासे गुणको भी विशेष कहनेमें आता है। गुणको भेद अपेक्षासे विशेष कहनेमें आता है। द्रव्यमें भेद नहीं पडता। एक-एक गुण भिन्न (है)। ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे भेदकी अपेक्षासे विशेष कहनेमें आता है। और पर्यायको भी विशेष कहते हैं। पर्यायभेद पडते हैं, पलटती पर्याय है इसलिये उसे भी विशेष कहनेमें आता है। परन्तु गुण और द्रव्य दोनोंको सामान्य भी कहनेमें आता है।

मुमुक्षुः- अनन्त गुणात्मक द्रव्य है,...

समाधानः- अनन्त गुणात्मक द्रव्य। गुण अनादिअनन्त है। पर्याय तो बदलती है। इसलिये गुणको और द्रव्यको दोनोंको सामान्य लेना और पर्यायको विशेष लेना। और भेद अपेक्षासे गुणको भी विशेष ले सकते हैैं और द्रव्यको सामान्य ले सकते हैं।

मुमुक्षुः- द्रव्य सामान्यमें अभेद...

समाधानः- द्रव्य सामान्य एक लेकर, उसमें गुण साथमें आ जाते हैं। गुणको भेद अपेक्षासे उसे विशेष ले सकते हैं। बाकी दोनों अनादिअनन्त हैं, इसलिये दोनोंको सामान्य ले सकते हैं। अभेद है, गुण द्रव्यके साथ अभेद है और अनादिअनन्त है। इसलिये द्रव्यका विषय करे उसमें सब गुण अभेदपने आ जाते हैैं और पर्याय पलटती है इसलिये पर्याय विशेष है।

मुमुक्षुः- गुणविशेष ऐसे तो प्रगट नहीं है, फिर भी भेदकी अपेक्षासे उसे विशेष (कहते हैं)।

समाधानः- वह भले प्रगट नहीं है, परन्तु वह भेदकी अपेक्षासे विशेष है। पर्याय प्रगट होती है, इसलिये विशेष कहलाती है। उसे भेद अपेक्षासे (विशेष कहते हैैं)। एक- एक गुण ज्ञान, दर्शन, चारित्र ऐसे विशेष है न? द्रव्य तो एक सामान्य लेना। गुणका भेद पडे, यह ज्ञान है, यह दर्शन है, यह चारित्र है, यह बल है, ऐसे भेद पडते हैं इसलिये विशेष है। भेद अपेक्षासे।

मुमुक्षुः- अनंत गुणात्मक कहें तब सामान्य लेना।

समाधानः- एकरूप द्रव्य है, अनंत गुणात्मक एक द्रव्य है। गुण भिन्न-भिन्न टूकडे


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नहीं है, परन्तु एक द्रव्यका ही स्वरूप है। इसलिये एकरूप है, द्रव्यके साथ गुण एकरूप है। इसलिये द्रव्य और गुणको एक लें तो सामान्य है। परन्तु लक्षण अपेक्षासे भिन्न पडता है, इसलिये उसे विशेष कहनेमें आता है।

आम लो तो उसमें उसके सब गुण हैं। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श सब उसमें समा जाते हैं, इसलिये एक अभेद। गुणको भिन्न नहीं करो तो एक आम है। परन्तु उसके रंग, रस सबको भिन्न करो तो वह गुण भी विशेष है। परन्तु उसकी पर्यायें खट्टा, मीठा, सफेद, हरा, पीला वह सब उसकी पर्यायें होती हैं। उसका परिणमन वह पर्याय है। आमका जो परिणमन है वह पर्याय है। ऐसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र उसके गुण हैं।

मुमुक्षुः- नौ तत्त्वकी श्रद्धा है या स्वपरकी श्रद्धा है या स्वकी श्रद्धा है या स्व सामान्यकी ही मात्र श्रद्धा है?

समाधानः- श्रद्धामें सब आ जाता है। एक सामान्यकी श्रद्धा, एक द्रव्य पर दृष्टि, उसमें एक आत्मश्रद्धा, तत्त्वकी श्रद्धा, एक मूल वस्तु आत्माकी श्रद्धा। वह मूल श्रद्धा (है)। उसके साथ व्यवहारमें भेद अपेक्षासे सब आता है। स्वपरकी श्रद्धा। अपनी श्रद्धा, यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, ऐसे स्वपरकी श्रद्धा आयी। उसमें नौ तत्त्वकी श्रद्धा आयी। दृष्टि अपेक्षासे एककी श्रद्धा। ज्ञान अपेक्षासे सब आता है। यह अपनी श्रद्धा और यह पर है, यह मैं हूँ, एसे स्वपरकी श्रद्धा। नौ तत्त्वकी श्रद्धा, वह सब उसमें साथमें आता है।

मुमुक्षुः- स्वकी श्रद्धामें सब..?

समाधानः- हाँ। अभेद अपेक्षासे एककी श्रद्धा। उसका विशेष ले तो सब श्रद्धा अन्दर साथमें आती है। जीवकी, अजीवकी, आस्रव.. कोई अपेक्षासे जीवको विभाव है, विभावसे छूट सकता है, आंशिक शुद्धि हुयी-संवर, ज्यादा शुद्धि हुयी-निर्जरा, कर्मकी ओरसे लें तो कर्म अटक गये-(संवर), अन्दरमें शुद्धि बढती जाय वह निर्जरा। पूर्ण शुद्धि हो गयी, केवलज्ञान मोक्ष (हुआ), वह सब श्रद्धा। साधक-साध्य सबकी श्रद्धा साथमें आ जाती है, भेद अपेक्षासे। अन्दर एक तत्त्व, अन्दर द्रव्य दृष्टिकी अपेक्षासे एक सामान्य अभेदकी श्रद्धा है। विशेषमें सब आता है।

मुमुक्षुः- अतीन्द्रियज्ञानकी प्राप्ति बिना, हम इन्द्रियज्ञानवाले भेदमेंसे अभेदमें कैसे छलांग लगाये?

समाधानः- भेद भले रहे, परन्तु अभेद स्वरूप स्वयं है ना, कोई दूसरा नहीं है। अभेद अतीन्द्रिय स्वरूप स्वयं ही है, उसकी दृष्टि बाहर गयी है। उपयोग बाहर घुमता है इसलिये यह इन्द्रिय, मन आदिका आलम्बन बीचमें आता है। परन्तु मैं निरालंबी तत्त्व हूँ, उसकी श्रद्धा करे। जूठी मान्यता हो गयी है कि यह पर मैं और मैं सो


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पर, ऐसा हो गया है। श्रद्धा बदल दे। आत्माका ज्ञानलक्षण पहचान ले, तो उसमें पलट सकता है। नहीं होता है ऐसा नहीं है। अपना ही स्वभाव है। बाहरका अवलम्नब लेनेवाला स्वयं ही, निरालंब होनेवाला स्वयं ही है। निरालंबन स्वभाव ही स्वयंका है।

मुमुक्षुः- अतीन्द्रियज्ञान नहीं है फिर भी इन्द्रियज्ञानसे भी वह.. समाधानः- हाँ, भले इन्द्रिज्ञान हो, स्वयं स्वकी ओर मुड सकता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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