Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 67.

< Previous Page   Next Page >


Combined PDF/HTML Page 64 of 286

 

PDF/HTML Page 408 of 1906
single page version

ट्रेक-०६७ (audio) (View topics)

मुमुक्षुः- प्रमाण .. का अभिप्राय ऐसा है कि आशय ग्रहण करना।

समाधानः- आशय ग्रहण करना। गुरुदेवका वचन प्रमाण। गुरुदेवने कहा, तू भगवान परमात्मा है। भगवान परमात्मा ऐसा कहा, वह ग्रहण किया कब कहनेमें आये? कि वास्तवमें मैं भगवान परमात्मा ही हूँ, ऐसी अंतरसे श्रद्धा आये तो वचनको प्रमाण किया, कहनेमें आये। अंतरमेंसे निःशंकता होनी चाहिये। निःशंकताके कारण आगे जा सकता है। बाहरमें गुरुदेवकी प्रतीति, जो गुरुदेव कहे वह प्रमाण। अंतरमें ज्ञायक है सो ज्ञायक है। ज्ञायककी प्रतीति दृढ होनी चाहिये। यह ज्ञायक है वही मैं ज्ञायक हूँ। उसमें चलविचलता शंका नहीं। यह ज्ञायक सो मैं ज्ञायक ही हूँ। ऐसे ज्ञायकको पहचानकर ऐसा निःशंक हो जाय तो उसमें स्थिर होनेके समर्थ होता है। ऐसा शास्त्रमें आता है। ऐसा निःशंक हो तो उसमें लीनता होती है। निःशंकताके बिना, उसे पहचाने बिना आगे नहीं जा सकता।

मुमुक्षुः- निःशंकता नहीं है तो सच्चा प्रमाण भी नहीं कह सकते।

समाधानः- निःशंकताके बिना उसे सत्य माना नहीं है।

मुमुक्षुः- गुरुदेव कहते हैं कि हाँ ही कहना, कल्पना मत करना।

समाधानः- हाँ, हाँ ही कहना, कल्पना मत करना। सब कहते हैं। हाँ ही कहना। तू ज्ञायक ही ऐसा बराबर नक्की करना। अन्दरसे हाँ कहना। हाँ कहना, तो अन्दरसे तेरी पर्याय प्रगट होगी, तो ज्ञायक तेरे हाथमें आयेगा, तो ज्ञायकदेवके दर्शन होंगे। जैसे अंजन चोरको भगवानके दर्शन हुए। अकृत्रिम चैत्यालयके (दर्शन हुए), वैसे तुझे इस चैतन्य भगवानके दर्शन होंगे। वह तो फिर अंतरमें उतर गये हैं, केवलज्ञान तक पहुँच गये हैं।

वैसे तू अन्दरमें (निःशंकता प्रगट कर) भगवानके दर्शन होंगे। गुरुदेव बताते हैं, तू अन्दर देख, अन्दर तुझे भगवाने दर्शन होंगे। चैतन्यदेवके। गुरुदेवके इस वचनको प्रमाण करके अन्दर जाय तो चैतन्यदेवके दर्शन हो।

मुमुक्षुः- आशय पकडमें नहीं आया हो और हाँ कहे तो गुरुदेवका अवर्णवाद हुआ कहनेमें आये?


PDF/HTML Page 409 of 1906
single page version

समाधानः- आशय पकडे बिना हाँ कहे तो अवर्णवाद नहीं (होता), परन्तु वह सत्य समझा नहीं। समझे बिना हाँ कहता है। समझे बिना भावनासे हाँ कहे, भक्तिसे कहे। सच्चा तो कब कहनेमें आये कि समझकर हाँ कहे तो।

मुमुक्षुः- माताजी! एक बार अनुभूति प्राप्त होनेके बाद वह जब भी चाहे तब निर्विकल्प हो सकता है?

समाधानः- जिसे स्वानुभूति प्राप्त हुयी है, उसने मार्ग जान लिया है कि किस मार्गसे इस ज्ञायकमें लीनता होती है। यह ज्ञायक है, यह सब विभाव (है)। यह परद्रव्य मेरा स्वरूप नहीं है। यह विभाव भी मेरा स्वभाव नहीं है। मैं उससे भिन्न, ऐसी उसे श्रद्धा-प्रतीत, ज्ञायककी परिणति प्रगट हुयी है, अनुभूति हुयी है। मार्ग जान लिया है कि किस मार्गसे भावनगर जाना होता है। वह सब मार्ग जान लिया है। मार्गका उसे संतोष है। परन्तु कैसे चलकर जाना, कोई चलकर जाता है, कोई धीरे-धीरे जाता है, कोई उतावलीसे जाता है।

इस प्रकार उसे स्वरूपमें लीन होना, वह वर्तमानकी शुद्धि-निर्मलता होती है उस अनुसार वह अन्दर निर्विकल्प होता है। वर्तमान उसकी भूमिकाकी निर्मलता हो, शुद्धता हो उस अनुसार उसे शुद्धउपयोगकी परिणति होती है। बाकी ज्ञायककी भेदज्ञानकी परिणति निरंतर रहती है। खाते-पीते ज्ञायक.. ज्ञायककी दशा ही होती है। भेदज्ञानकी दशा चालू ही है। खाते-पीते, जागते-सोते, स्वप्नमें भेदज्ञानकी धारा चालू है। परन्तु निर्विकल्प दशा उसकी भूमिका अनुसार होती है।

पाँचवे गुणस्थानमें उसकी भूमिका अनुसार, छठ्ठे-सातवेमें अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें होती है। चौथे गुणस्थानमें उसकी निर्मलताकी तारतम्यता चौथेवालेकी जिस प्रकारकी होती है, उसके अनुसार उसे निर्विकल्प दशा होती है। बाकी तो अपना स्वभाव है। वह स्वभाव, जैसे पानी पानीको खीँचता हुआ अपनी ओर जाता है, ऐसे स्वयं स्वभावकी ओर मुडा, स्वभाव-ओर उसकी परिणति दौड रही है, लेकिन उसे जो विरक्ति, लीनता, चारित्रमें जिस प्रकारकी लीनता होती है, उस अनुसार उसे निर्विकल्प दशा होती है। स्वरूपाचरण चारित्र चौथे गुणस्थानमें उसकी जैसी निर्मलता और तारतम्यता हो, उस अनुसार वह निर्विकल्प दशाको प्राप्त करता है।

मुमुक्षुः- चौथेवालेको रोज हो सकती है?

समाधानः- ऐसा कुछ नहीं, उसकी दशा हो उस अनुसार हो सकती है। वह कोई नियमीत नहीं होती। रोज नहीं हो ऐसा भी नहीं है, होती ही है ऐसा भी नहीं है। उसकी निर्मलता अनुसार होती है। रोज नहीं हो या अमुक दिनोंके बाद ही हो, ऐसा कोई नियम नहीं है। उसकी निर्मलता अनुसार होती है। छठ्ठे गुणस्थानमें तो अंतर्मुहूर्त-


PDF/HTML Page 410 of 1906
single page version

अंतर्मुहूर्तमें होती है। चौथेकी निर्मलता हो उस अनुसार होती है। रोज होवे ही नहीं, ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं है।

मुमुक्षुः- शुद्धोपयोगका कोई काल होता है, ऐसा कुछ नहीं है कि इस कालमें शुद्धउपयोग होता है।

समाधानः- ऐसा कोई काल नहीं होता। उसकी जैसी परिणति। वर्तमान निर्मलता, उसकी शुद्धि (हो), उस अनुसार उसे होता है। वर्तमानकी जैसी विरक्ति, शुद्धिकी परिणति हो उस अनुसार उसे निर्विकल्प दशा होती है।

मुमुक्षुः- सम्यग्दृष्टिको ऐसी इच्छा भी नहीं होती। इच्छा तो राग है, ऐसा राग भी होता नहीं कि शुद्धोपयोग हो।

समाधानः- विकल्पसे निर्विकल्प हुआ नहीं जाता। इच्छा है वह विकल्प है। उस विकल्पसे निर्विकल्प नहीं हुआ जाता। अन्दरकी सहज निर्मलताकी परिणति, शुद्धिकी परिणतिसे अंतरकी विरक्तिसे निर्विकल्प दशा होती है। भावना एक अलग बात है। परन्तु भावना या कृत्रिमतासे अंतरमें नहीं जा सकता। इच्छा-रागसे अन्दर नहीं जा सकता। वीतरागी परिणतिसे अंतरमें जाना होता है। भले शुभभाव हो, भावना है, परन्तु वह विकल्प टूटकर अन्दर जाता है। विकल्प खडा रखकर अन्दर नहीं जा सकता।

मुमुक्षुः- पूर्व भूमिकामें परपदार्थसे विरक्ति,..

समाधानः- अन्दर ज्ञायककी दशाके साथ विरक्ति होती है। स्वरूपकी लीनता, अस्तित्वमें स्वरूपकी लीनता एवं शुद्धि, अपनी निर्मलताकी परिणति, उस कारणसे जाता है। और अस्तित्व-ओर उसकी... चौथे गुणस्थानमें उसकी जैसी विरक्ति हो और स्वरूप- ओरकी लीनता, निर्मलता। बाकी दशामें उतना फर्क नहीं पडता। पाँचवे गुणस्थान जैसी दशा नहीं होती।

मुमुक्षुः- भूमिका अनुसार।

समाधानः- भूमिका अनुसार होती है।

मुमुक्षुः- फिर भी कोई प्रतिबन्ध भी नहीं है कि एक महिने पहले नहीं होती, दो महिने पहले नहीं होती, ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है।

समाधानः- ऐसा प्रतिबन्ध नहीं है। ऐसा नहीं है। कोई दिनका प्रतिबन्ध नहीं है।

मुमुक्षुः- जैसे आप कहते हो, घोडा ... छलांग लगाये, वैसे कोई बार ऐसी दशा आवे तो..

समाधानः- घोडा छलांग भी मारता है। ऐसा होता है। उसकी भूमिका पलटकर नहीं। उसकी पुरुषार्थकी डोरी कभी छलांग मारे, कभी धीमी चले, उसे किसी भी प्रकारका प्रतिबन्ध है। ज्ञायककी डोर अपने हाथमें है। जिस प्रकार उसकी निर्मलता और लीनता


PDF/HTML Page 411 of 1906
single page version

विशेष होती है, उस अनुसार होती है। कभी सविकल्प दशामें रुके, कोई बार निर्विकल्प दशामें जाता है। हठ करके विकल्पसे आगे नहीं जा सकता। उसकी निर्मलताकी परिणतिसे आगे जाना होता है।

मुमुक्षुः- हठसे होता नहीं और भूमिका विरूद्ध भी नहीं होता।

समाधानः- भूमिका विरूद्ध नहीं होता।

मुमुक्षुः- माताजी! .. शुद्धनय कहता नहीं, उसका क्या अर्थ है? साधकको .. शुद्धनयका आलंबन छूटता नहीं, वह कैसे बन सकता है? क्योंकि उपयोगमें तो चंचलता होती है।

समाधानः- गुरुदेवने, शुद्धनय किसे कहते हैं, निश्चय किसे कहते हैं, व्यवहार किसे कहते हैं, कोई जानता नहीं था। गुरुदेवने स्पष्ट कर-करके अन्दरसे रहस्य खोलकर समझाया है और स्पष्ट भी उतना किया है कि कुछ बाकी नहीं रखा। यह गुरुदेवका परम-परम उपकार है। कोई कुछ जानता नहीं था। यह सब रहस्य गुरुदेवने खुल्ले किये हैं। मैं तो उनका दास हूँ। गुरुदेवने जो स्पष्ट किया है, वह कोई अपूर्व रहस्य खुल्ला किया है, स्पष्ट किया है। गुरुदेवका ज्ञान अलग, गुरुदेवकी वाणी अलग, गुरुदेवका आत्मा अलग, सब अलग ही था। गुरुदेवने जो स्पष्ट किया है, इस भरतक्षेत्रमें जन्म लेकर जो उपकार किया है, वह उपकार कोई अपूर्व है। उनका परम-परम उपकार है।

परमात्म तत्त्वमें ध्यानावली नहीं है, ध्यानावली भी नहीं है। परमात्मतत्त्व अनादिअनन्त शुद्ध है। शुद्ध स्वरूपमें ध्यानावली एक साधकदशा है। साधकदशा मूल जो वस्तु है, पूर्ण वस्तु है, पूर्ण सामर्थ्यसे भरी हुयी जो वस्तु है, उसमें ध्यानावली साधकदशा है। साशकदशा-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सब साधक दशा है। वैसे यह ध्यानावली भी साधकदशा है।

जो पूर्ण सामर्थ्यसे भरपूर वस्तु है, उसके अन्दर ध्यानावली कहनी, यह धर्मध्यान, शुक्लध्यान, वह सब ध्यान पूर्ण स्वरूपमें नहीं है। द्रव्यका स्वरूप जानना। द्रव्य पर दृष्टि रखे। ज्ञायकके मूल स्वरूपमें यह ध्यानावली भी नहीं है। क्योंकि वह अनादिअनन्त वस्तु है। उसे यदि पहचाने नहीं, उस वस्तुका आश्रय न ले तो ध्यान भी नहीं हो सकता। इसलिये वस्तुके अन्दर ध्यानावली भी नहीं है। शुभभाव तो एक ओर रहे, अशुभभाव भाव एक ओर रहे, लेकिन यह साधनाकी पर्याय जो ध्यानावली है, वह भी आत्मामें नहीं है। ऐसा बराबर स्वरूप समझे तो ही उसकी साधकदशा होती है।

मैं ज्ञायक परिपूर्ण सामर्थ्यसे भरा, अनन्त अपूर्व महिमावंत वस्तु हूँ। पूर्ण पर दृष्टि है। अनादिअनन्त वस्तु शाश्वत है, उस पर दृष्टि है। तो भी साधकदशा बीचमें आती है, उसे गौण करता है। द्रव्यदृष्टिमें वह गौण है। तो भी ध्यान बीचमें आये बिना रहता नहीं। ध्यानावली बीचमें आये बिना रहती नहीं। परन्तु वह ध्यानावलीको द्रव्यदृष्टि निकाल


PDF/HTML Page 412 of 1906
single page version

देती है। ध्यानावलीको निकाल देती है, पाँच ज्ञानके भेद भी उसमें नहीं है, उसमें गुणस्थान भी नहीं है। कोई वस्तु उसमें नहीं है। जो अनादिअनन्त वस्तु है, वह स्थिररूप वस्तु है। जो पर्याय बदलती है, वह आश्रयका कारण नहीं बनती। आश्रय तो जो अनादिअनन्त वस्तु है, वही आश्रयरूप है। इसलिये आश्रय तो अनादिअनन्त वस्तु है वही आश्रयरूप है। इसलिये आश्रय तो अनादिअनन्त पूर्ण वस्तु है, उसीका आश्रय करने योग्य है।

दृष्टि यदि ज्ञायकको पहचाने तो ही यथार्थ साधकदशा होती है। बाकी साधकदशा होती नहीं। इसलिये ध्यानावली भी आत्मामें नहीं है। द्रव्यदृष्टिक आलम्बनमें ध्यानावली नहीं है। परन्तु वह ध्यान बीचमें आये बिना रहता नहीं। आचार्यदेव कहते हैं कि अरे..रे..! हस्तावलंबनतुल्य यह व्यवहार बीचमें आये बिना रहता नहीं। क्योंकि अभी अधूरी दशा है। इसलिये वह बीचमें आये बिना रहता नहीं।

लडाईमें खडा हो तो भी शुद्धनय छूटता नहीं। शुद्ध स्वरूपको-ज्ञायकको ग्रहण किया, उस ज्ञायकका अवल्मब लडाईमें भी छूटता नहीं। अनादिसे जो शाश्वत वस्तु है, वह निगोदमें गया, कहीं भी गया, ज्ञानकी शक्ति घट गयी, परन्तु अन्दर जो मूल शक्ति है, उसमें कुछ घटता नहीं। अनादिअनन्त वस्तुका नाश नहीं होता। चाहे जैसे विभावकी पर्याय हो तो भी। तो फिर द्रव्यदृष्टि प्रगट हुयी उसे कौन रोक सकता है? ज्ञायकका अवलम्बन लिया, वह लडाईमें खडा हो तो भी ज्ञायक है, ध्यानावलीमें हो तो भी ज्ञायक ही है। साधकदशामें पूर्ण ज्ञायक पर दृष्टि है। साधकमें भी ज्ञायक और अशुभभावमें लडाईमें खडा हो तो भी ज्ञायक है। उसे कोई रोक नहीं सकता। तो भी उसे अन्दर अशुभभावमें खडा हुआ, लडाईमें खडा है, अरे..! मैं कब साधकदशामें पूर्ण स्वरूपकी प्राप्ति करुँ? अरे..! यह अधूरी दशा है, मेरा ज्ञायक पूर्ण स्वरूप है, उसे यह अधूरी दशा शोभती नहीं। मैं कब वीतराग होऊँ? ऐसी भावना तो उसे रहती ही है।

मुमुक्षुः- ध्यानावली भी व्यवहार...

समाधानः- ध्यानावली भी व्यवहार ही है। शुक्लध्यान भी व्यवहार है। द्रव्यदृष्टिमें, द्रव्यके अन्दर बाहरसे कुछ आता नहीं। वह सब तो साधना है। अनादिअनन्त वस्तु जो है, वह सामर्थ्यसे भरपूर है। अधूरी हो तो अधूरेका आलम्बन होता नहीं। इसलिये शुक्लध्यान हो, परन्तु वह व्यवहार है। वह भी व्यवहार है। केवलज्ञानकी पर्याय प्रगट होती है, तो भी वह पर्याय है। है पूर्णता, पूर्ण, परन्तु वह भी पर्याय है। शुक्लध्यान तो साधनाकी पर्याय है, परन्तु केवलज्ञान हो तो भी वह पर्याय है। मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञानके भेद पर दृष्टि नहीं है। केवलज्ञान हो तो भी। वह भी पर्याय है। दृष्टि ज्ञायक पर और पूर्णता प्रगट करनेकी भावना, यह दोनों साथमें होते हैं। पुरुषार्थकी डोर चालू है। चारित्र-लीनता आत्माके स्वरूपमें कैसे समा जाऊँ? बाहर आऊँ नहीं,


PDF/HTML Page 413 of 1906
single page version

ऐसी भावना है और द्रव्य पर दृष्टि, ज्ञायककी दशा, ज्ञायककी डोर छूटती नहीं। चाहे जैसे बाह्य संयोगमें हो, साधनाकी पर्यायमें हो, ध्यानमें हो तो भी उसकी ज्ञायककी डोरी छूटती नहीं। और यह लडाईके प्रसंगमें हो तो भी उसकी ज्ञायककी डोरी अन्दर है। भेदज्ञानकी धारा और ज्ञायकको ग्रहण किया है, वह ग्रहण किया, जो आलम्बन लिया वह आलम्बन उसे छूटता नहीं। बाह्य कोई भी संयोग उसे तोड नहीं सकते। ऐसा आलम्बन आवे तो ही उसकी साधकदशाकी पर्यायें होती है।

आचार्यदेव कहते हैं, मैं शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हूँ। तो भी अरे..! मेरी परिणति कल्माषित- मैली हो रही है। शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति ज्ञायकका आलम्बन है। और अभी चारित्रकी दशा अधूरी है। वह भी उसे ज्ञानमें साथमें वर्तती है। ज्ञानमें सब वर्तता है। पुरुषार्थकी डोरी लीनताकी ओर जाती है और ज्ञायकका आलम्बनका बल और आश्रय भी साथमें चलता है। उसे ज्ञायक, प्रत्येक प्रसंगमें ज्ञायक। ध्यान हो, शुक्लध्यान हो तो भी वह व्यवहार है। लेकिन वह साधकदशा बीचमें आये बिना रहती ही नहीं। क्योंकि पर्याय, विभावकी पर्याय होती है। उससे भेदज्ञान हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ और स्वानुभूतिकी दशा प्रगट हुयी, फिर स्वानुभूतिकी दशा बढती जाती है, फिर भी अभी अधूरी पर्याय है, उसका कर्ता होता नहीं, तो भी अस्थिरतामें रागादि वर्तते हैं, अपने पुरुषार्थकी कमजोरीसे। उसका उसे ख्याल है। इसलिये पुरुषार्थकी डोर अपनी ओर चालू ही है। लीनता-अन्दर स्वरूपमें समा जानेकी लीनता चालू ही है।

मुमुक्षुः- परमात्मतत्त्व भी पदार्थका अंश है और ध्यानावली भी पदार्थका अंश है। यह अंश है वह आश्रयरूप है, और यह अंश गौण करना..

समाधानः- परमात्मतत्त्व है वह स्वयं पूरा द्रव्य है। अनन्त सामर्थ्यसे भरपूर द्रव्य है पूरा। सामान्य स्वभाव है। लेकिन वह पूरी वस्तुका सामर्थ्य है। अभेद है। ध्यानावली है वह साधकदशा है। उसमें शुभभाव मिश्रित है। और एकाग्रता जो अंतरमें होती है, जो अंतरमें विकल्प छूटकर होती है, एकाग्र परिणति अन्दर स्वरूपकी रमणता वह अलग बात है। वह निर्विकल्प ध्यान है। और यह विकल्पवाला ध्यान है, उसमें शुभभावका आश्रय है। तो भी एकाग्रता हो, चौथे गुणस्थानमें जो स्वरूप रमणता है, पाँचवे गुणस्थानमें जो शुद्धि प्रगट हुयी है, छठ्ठे-सातवेंमें (शुद्धि प्रगट हुयी है) वह भी अधूरी पर्याय है। अधूरी पर्याय भी पूर्ण स्वभाव, मूल स्वभाव, असल स्वरूप उसका नहीं है। अधूरी पर्याय जितना भी आत्मा नहीं है। उसे भी वह गौण करता है।

अधूरी पर्यायकी भूमिका बढती जाती है, गुणस्थानकी दशा, छठ्ठे-सातवेंमें, फिर श्रेणि मांडता है, वह सब अधूरी पर्याय है। अधूरी पर्याय और पूर्ण पर्याय, सब द्रव्यदृष्टिमें गौण होती है। सबको निकाल देती है। तो भी ज्ञानमें दोनों वस्तु उसे ख्यालमें है।


PDF/HTML Page 414 of 1906
single page version

दोनोंको जानता है। अधूरी पर्याय है, पूर्ण शुद्धि, पूर्ण पर्याय कैसे प्रगट हो? अंतरमें उसकी भावना है। पुरुषार्थकी डोर चालू है। वह कब होता है? कि ज्ञायकके आश्रयके आलम्बनसे ही होता है।

मुमुक्षुः- परमात्म स्वरूप है वह मूल आत्मा है।

समाधानः- वह मूल आत्मा है। वह मूल वस्तु है।

मुमुक्षुः- पर्यायें व्यवहार आत्मा?

समाधानः- व्यवहार आत्मा। दो आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है, एक ही है। सामान्य- विशेष, दो आत्मा भिन्न-भिन्न नहीं है। सामान्य अनादिअनन्त है, पर्याय भी वस्तुका स्वरूप है। द्रव्य-गुण-पर्याय सब वस्तु है। पर्याय एक अंशरूप, भेदरूप है। वह टिकती नहीं, बदल जाती है। गुण है, गुणभेद लक्षणभेद है। परन्तु जो पूरी सामान्य वस्तु है, वह पूरी वस्तु मूल वस्तु है, असल है। आलम्बन उसका लेना है।

मुमुक्षुः- सामान्यको पूरी वस्तु कहनी?

समाधानः- पूरी यानी उसमें पर्याय गौण होती है। पर्याय भिन्न नहीं हो जाती, गौण होती है। लेकिन सामान्य जो टिकनेवाला है, वह मूल है। वह मूल वस्तु है। यह सब उसका स्वरूप है। पर्याय है, गुण है।

मुमुक्षुः- निर्विकल्प उपयोगके वक्त जो शुद्धनयका आलम्बन है और लडाईके समय शुद्धनयका निरंतर आलम्बन है, उन दोनों शुद्धनयमें क्या अंतर है?

समाधानः- आलम्बन एक ही जातका है। परन्तु उस परिणतिमें शुद्धि निर्मलता है। अशुद्धि गौण हो गयी। उसे उपयोगमें भी नहीं है। और स्वानुभूतिमें निर्विकल्पताका वेदन है। लडाईमें निर्मलताका वेदन नहीं है। उसने आलम्बन लिया है ज्ञायकका। निर्मलताका वेदन उसे जितना भिन्न हुआ उतना है। लेकिन स्वानुभूतिकी तो पूरी अलग बात है। उसमें प्रगटरूपसे निर्मलताका वेदन है। उपयोगमें वेदन है।

मुमुक्षुः- लडाईमें भी स्वरूपाचरण चारित्र.. समाधानः- स्वरूपाचरण है, लेकिन वह वेदन अलग है, सविकल्पताका। अमुक ज्ञायक-ओरकी शांति, तृप्ति है। परन्तु स्वानुभूतिका वेदन है वह वेदन उस वक्त नहीं है। स्वानुभूतिका वेदन नहीं है। उसके वेदनमें फर्क है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
?? ?