Benshreeni Amrut Vani Part 2 Transcripts (Hindi). Track: 66.

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ट्रेक-०६६ (audio) (View topics)

समाधानः- ... मैं मेरे आत्माका करुँ। यह विभाव राग-द्वेषकी तरफ... पुरुषार्थ यानी अपनी भावनामें तो मैं कुछ करुँ, ऐसा आता है। मैं पुरुषार्थ-बल रखुँ तो राग- द्वेषकी ओर... लेकिन उसके भावमें तो ऐसा है, उसका अर्थ तो यह होता है कि आत्मार्थीके हृदयमें ऐसा आता है कि मैं मेरी तरफ मुडं। वह भले .. हो, परन्तु आत्मार्थीको तो वह भावना (होती है)। वह पुरुषार्थका अर्थ ऐसा है कि मैं कुछ करुँ। फिर उसके साथ ... स्वयंको ऐसा क्यों रखना चाहिये कि यह पुरुषार्थ .. है, सब .. है, तो मैं क्या करुँ? स्वयंको ऐसा क्यों रखना चाहिये?

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ ही अगत्य है।

समाधानः- पुरुषार्थके साथ उन सबका मेल है। पुरुषार्थ, आत्माका स्वभाव, जो होनेवाला हो वह होगा, उन सबका मेल है। अकेला क्रमबद्ध, क्रमबद्ध है सही, कोई ऐसा माने कि पुरुषार्थ भी क्रमबद्ध (है)। परन्तु पुरुषार्थका भाव ऐसा निकलता है कि मैं कुछ करुँ। करुँ ऐसी भावना यदि वह छोड दे और जो होनेवाला होगा वह होगा, ऐकान्त ऐसा ले ले, तो तो फिर अनादिका संसार भी होनेवाला है। जो होनेवाला है वह होगा, ऐसा एकान्त पकड ले, एकान्त ऐसा ही ले-ले कि जो होनेवाला है वैसे होता है। राग-द्वेष होनेवाले थे वह हुए, मैं क्या करुँ? मुझसे कुछ नहीं होगा। वह तो होनेवाला हुआ। ऐसे ले लिया तो उसे संसार ही होनेवाला है।

मुमुक्षुः- राग-द्वेषके समय भी अपने आत्मामें जुडे तो नहीं होते।

समाधानः- जुडे तो राग-द्वेष नहीं होते। ऐसा फिक्स होता है। जो आत्मा अपनी आत्मामें जुडता है, उसे राग-द्वेष नहीं होता। ऐसे फिक्स होता है। परन्तु फिक्स ऐसा नहीं है कि स्वयं जुडे नहीं और जैसा होनेवाला होगा वह होगा, ऐसे छोड दे तो संसार ही होनेवाला है। फिर राग-द्वेष कभी कम नहीं होंगे। जो होनेवाला था वैसा हुआ, मैं क्या करुँ? जो होनेवाला है वह हुआ, उसके साथ अपने आत्माके साथ जुडान करे, वह उसके साथ फिक्स जुडा है। अपनी भावनामें तो (ऐसा होता है कि), मैं कुछ बल करुँ, मैं आत्माकी ओर जाऊँ, ऐसी भावना हो, उसके साथ फिक्स जुडा हुआ है।


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मुमुक्षुः- जीव जैसे भाव करे वैसे भाव होते हैं या जैसे होनेवाले हो वैसे होते हैं?

समाधानः- जीव जैसे भाव करे वैसे होता हैं और होनेवाले होते हैं, दोनों मेलवाला है। आत्मार्थीको तो ऐसे ही लेना है कि मैं मेरे दोषके कारण अटकता हूँ। जो होनेवाला था वह हुआ, ऐसे यदि एकान्त लेगा तो वह शुष्क हो जायगा। कुछ नहीं कर सकेगा। भगवानने जितने भव देखे हैं, वैसा होगा।

भगवानने ऐसा देखा है कि तू पुरुषार्थ करेगा तो तेरे आत्माकी (ओर जायगा)। यह आत्मा पुरुषार्थ करके आत्माकी ओर मुडेगा। लेकिन पुरुषार्थ करनेवाला तो ऐसे ही लेता है कि मैं इस ओर मुडँ। ऐसा उसे आये तो ही अपनी ओर जाय। यदि उसकी भावनामें ऐसा आये कि जो होनेवाला होगा वह होगा। ऐसे एकान्त ले जाय तो संसार ही होनेवाला है।

मुमुक्षुः- एकान्त हो जाय वह जीवकी अपनी भूल है न?

समाधानः- अपनी भूल है। ऐसे एकान्त ले-ले वह अपनी भूल है।

मुमुक्षुः- सबकी योग्यता समान होती है या सब जीवकी योग्यता भिन्न-भिन्न होती है?

समाधानः- सबका स्वभाव एक समान है। योग्यता भिन्न-भिन्न होती है।

मुमुक्षुः- पुरुषार्थ करनेकी योग्यता सबकी भिन्न-भिन्न होती है?

समाधानः- सबकी भिन्न-भिन्न होती है।

मुमुक्षुः- वह कुदरती होती है?

समाधानः- कुदरती है, लेकिन स्वयं पुरुषार्थ जैसा करना चाहे वैसा कर सकता है।

मुमुक्षुः- योग्यताके कारण अटक जाय, ऐसा है?

समाधानः- नहीं, अटके नहीं। अपनी मन्दताके कारण ही अटक जाता है। मेरी योग्यता नहीं थी तो मैं अटक गया, ऐसा माननेवाला आगे नहीं जायगा। वह सब बहाने हैं। मैं नहीं कर सकता हूँ, जैसा होनेवाला है वह होता है।

मुमुक्षुः- आखरी सवाल है, ध्यान करना हो तो वह कैसे करना?

समाधानः- आत्माको पहचाननेका प्रयत्न करे। मैं द्रव्य हूँ। गहराईसे उसका स्वभाव पहचाने। पहचानकर उसकी यथार्थ श्रद्धा करे, बराबर निर्णय करके उसमें एकाग्र हो तो ध्यान होता है। सच्चे ज्ञान बिना सच्चा ध्यान नहीं हो सकता। सच्चा ज्ञान करे तो ही सच्चा ध्यान होता है।

मुमुक्षुः- ज्ञान यानी नौ तत्त्व सम्बन्धित जो ज्ञान है वह...?

समाधानः- नहीं, वह नहीं। वह सच्चा ज्ञान नहीं है। नौ तत्त्व तो एक समझनेके लिये, भेद है। अन्दर आत्माको पहचाने। मात्र नौ तत्त्व (जाने) ऐसे नहीं। मैं यह जाननेवाला आत्मा हूँ, मैं ज्ञानस्वभाव हूँ, मैं ज्ञायक शाश्वत आत्मा हूँ, मैं द्रव्यसे अनादिअनन्त


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हूँ। मेरेमें अनन्त गुण हैं। अन्दर पहचानकर। मेरेमें पर्याय (है), मैं पलटनेके स्वभाववाला हूँ। आत्माको पहचाने तो ध्यान होता है। आत्माके अस्तित्वको पहचाने बिना कहाँ खडा रहेगा? कहाँ टिकेगा? उसकी एकाग्रता कहाँ होगी? ध्यानके लिये एकाग्रता (होनी चाहिये)। उसका लक्षण पहचानकर उसमें स्थिर रहे, तो ध्यान होता है।

मुमुक्षुः- ध्यानमें ही शुद्धात्माको पकड सकता है?

समाधानः- स्वयं विचार करे। ध्यान अर्थात एकाग्रता। विचार करे तो पकड सकता है। विचार किये बिना नहीं पकड सकता। अपना लक्षण पहचाननेका प्रयत्न (करना चाहिये)। एक आदमीको पहचानना हो तो उसका लक्षण क्या है? वह आदमी कैसे पहचाना जाय? गुरुको पहचानना हो तो गुरुके लक्षणसे पहचाने। लक्षणको पहचाने बिना ध्यानसे नहीं पहचाना जाता। समझे बिना ऐसे ही ध्यान करे तो ऐसे नहीं पहचाना जाता।

मुमुक्षुः- तो पहले स्वाध्याय करना चाहिये या ध्यान करना चाहिये?

समाधानः- पहले स्वाध्याय करके सच्ची समझ करनी चाहिये। विचार करना चाहिये। तत्त्वका विचार करे फिर ध्यान होता है। समझे बिना ध्यान नहीं होता।

मुमुक्षुः- कौनसा स्टेज आये कि जब ध्यानका स्टेज शुरू हो?

समाधानः- आत्माको पहचाने तो ध्यानका स्टेज आये। मैं यह ज्ञायक जाननेवाला ही हूँ, मैं आत्मा ही हूँ, ऐसा उसे बराबर नक्की हो तो ध्यानका स्टेज आता है।

मुमुक्षुः- तब तक स्वाध्याय करना।

समाधानः- स्वाध्याय करना, विचार करना, श्रद्धा करनी। सच्ची श्रद्धा नहीं हो तो सच्चा ध्यान नहीं होता। श्रद्धा बराबर करनी। बिना श्रद्धाके डगमगाहट होती है। सच्चा ध्यान नहीं होता।

मुमुक्षुः- श्रद्धा होनेके बाद अन्दर फिक्स नहीं रहता, बाहरमके विचार आ जाते हैं।

समाधानः- लेकिन सच्चा ध्यान हो तो उसकी रुचि लगे, रस लगे तो ध्यान होता है। रुचि और रस बिना (नहीं होता)। नक्की किया, श्रद्धा की तो भी उसका रस, रुचि न हो तो भी ध्यान नहीं होता।

मुमुक्षुः- अपने मनमें इच्छा नहीं होने पर भी भूल हो जाती है। अपना मन नहीं हो, फिर भी हो जाती हो..

समाधानः- वह अपनी मन्दता है। इच्छा नहीं है, उसकी रुचि नहीं है लेकिन अपने पुरुषार्थकी मन्दता है। अनादिका अभ्यास है उसमें जुड जाता है।

मुमुक्षुः- वह पाप है?


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समाधानः- पापके भाव करे तो पापका, पुण्यके करे तो पुण्यका। जैसे भाव हो। उसमेंसे छूटनेका धीरे-धीरे प्रयत्न करना, उसका विचार करना, अन्दर जिज्ञासा करना। धीरे-धीरे बारंबार बदलनेका प्रयत्न करे। तो अनादिसे जो चल रहा है, अनादिके राग- द्वेष (अटके)।

मुमुक्षुः- नहीं होनेका कारण एक पुरुषार्थकी ही कमी।

समाधानः- आत्मार्थीको यही लेना है कि पुरुषार्थकी कमी है। सच्चा ज्ञान नहीं है, पुरुषार्थ नहीं है। ज्ञान बिना-समझ बिनाका सब ऐसा ही है, पुरुषार्थ बिनाका ऐसा ही है।

मुमुक्षुः- स्वाध्याय आदि सब करते हैं, फिर भी क्रोध भी उतना ही आता है।

समाधानः- स्वाध्याय करे इसलिये क्रोध नहीं आये, ऐसा नहीं है। स्वाध्याय करनेवाला आत्माकी रुचि, जिज्ञासा बढाये तो उसका क्रोध मन्द पडे। स्वाध्याय करे इसलिये क्रोध छूट जाय ऐसा नहीं है। मात्र ज्ञान करे तो क्रोध छूट जाय, ऐसा नहीं है। ज्ञान करके अन्दरसे स्वयं पुरुषार्थ करके अपनी ओर मुडना चाहिये, तो होता है। ज्ञान करनेवालेको भी क्रोध आता है। अन्दर शुष्क हो और हृदय भीगा हुआ न हो तो क्रोध आता है। मात्र पढ ले और अन्दर कुछ नहीं हो, ऐसा बनता है। पढता ही रहे और अन्दर कुछ उतारे नहीं तो क्रोध आता है।

समाधानः- तो .. समाधानः- ज्यादा जानना, ज्यादा पढना चाहिये ऐसा नहीं है। प्रयोजभूत आत्माको जाने तो होता है। आत्माको बराबर पहचानना चाहिये। द्रव्य-गुण-पर्यायको कुछ तो ज्ञान होना चाहिये। ज्यादा स्वाध्याय करे तो होता है, ऐसा नहीं है।

मुमुक्षुः- बहुत बार ऐसा लगता है, सब करनेके बावजूद हाथमें नहीं आता है।

समाधानः- अपनी कमी है। सब नहीं किया है। थोडेमें ज्यादा मान लिया है।

मुमुक्षुः- पूज्य गुरुदेवश्रीकी ९८ वीं जन्म जयंति महोत्सवकी जय हो। माताजी! ... सम्यग्दर्शन टिकनेमें, वृद्धि होनेमें तथा जीवको निरंतर साक्षीभावमें ...मुख्यपने काम करता है कि जीवकी अनन्त शक्ति... काम करती है?

समाधानः- जीवने जिस ज्ञायकभावको ग्रहण किया है, उस ज्ञायकभावका स्वरूप और कैसे ज्ञायकदशा टिके और कैसे श्रद्धा हो, सम्यग्दर्शन कैसे टिके, मुनिदशा कैसे आये, यह सब स्वरूप गुरुदेवने स्पष्ट करके बहुत समझाया है। गुरुदेवका तो परम- परम उपकार है। गुरुदेवने तो इतना स्पष्ट किया है कि कुछ शंका रहे ऐसा नहीं है।

श्रद्धा टिकनेमें ज्ञायककी परिणति काम करती है। ज्ञायककी परिणति, ज्ञायककी जो श्रद्धा हुयी कि मैं यह ज्ञायक हूँ, इसके सिवा जो भाव है, वह मेरा स्वरूप नहीं


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है, मैं उससे भिन्न हूँ। ज्ञायक स्वभावको जो पहचाना और जिस ज्ञायकका आश्रय लिया, उस ज्ञायकका आश्रय और श्रद्धाका जोर है। ज्ञायकके आश्रयसे ही वह काम करता है। ज्ञायकके आश्रयसे विभावसे जो विरक्ति हुयी वह विरक्ति हुयी और ज्ञायकका आश्रय लिया, ज्ञायकको पहचाना इसलिये श्रद्धाके बलसे लीनता (करके), अपने स्वरूपमें आगे बढता जाता है। श्रद्धाका बल तो एक प्रकारका है। उसमें ज्ञान और चारित्र, चारित्रकी लीनता बढती जाती है। ज्ञायकके आश्रयके जोरसे होती जाती है।

स्वभावसे एकत्व और विभावसे विभक्त, ऐसी जो न्यारी परिणति हो गयी, वह न्यारी परिणति, ज्ञायकका आश्रय, वही आगे बढनेमें काम करता है। अकर्ताका सिद्धान्त नहीं, अपितु अकर्ताकी परिणति हो गयी। ज्ञायक हुआ अर्थात अकर्ता हुआ। इसलिये परका कर्तृत्व छूट गया। अनादिकी जो जीवकी भूल है, वह कर्तृत्वकी और एकत्वबुद्धिकी है। वह एकत्वबुद्धि टुट गयी, भिन्न हो गया और ज्ञायक हो गया। ज्ञायक हुआ इसलिये कर्तृत्व छूट गया। भिन्न हुआ और अकर्ता हुआ, उसके साथ ज्ञायक हुआ। ज्ञायकका आश्रय, ज्ञायककी महिमा, ज्ञायक अदभुत आश्चर्यकारी तत्त्व है। इस आश्चर्यकारी तत्त्वकी जो महिमा आयी और उसका आश्रय ऐसा जोरदार है, इसलिये पुरुषार्थकी डोर, ज्ञायक- ओरकी डोरी बारंबार अपनी ओर जाती है और लीनता बढती है।

ज्ञायककी धारा, अपनी ओर जानेका कारण ज्ञायकका आश्रय है। अकर्ताकी परिणति साथ-साथ होती है। नास्तित्वकी ओरसे अकर्ताकी परिणति और स्वभावकी ओरसे ज्ञायकका आश्रय लिया, वही आगे बढनेमें कारण होता है। टिकनेमें एवं लीनता बढानेमें, सबमें ज्ञायककी परिणति काम करती है। स्वयं सहज स्वभावसे ज्ञायक ही है। ज्ञायक सहज है। दर्शन, ज्ञान, चारित्र सब अपने सहज स्वभावसे जो गुण हैं, वह गुण अभेदरूपसे आत्मामें है। गुणभेद पर उसकी दृष्टि नहीं है। दृष्टि तो एक ज्ञायक पर ही है। ज्ञायकका आश्रय ही उसे आगे बढनेमें काम करता है।

अनन्त शक्तियाँ हैं। उन शक्तियोंकी उसे महिमा (होती है), वह उसे ज्ञानमें आये परन्तु उसकी गुणभेद पर दृष्टि नहीं है। स्वानुभूतिमें उसकी अदभुत अनन्ता, अनुपमता लगे उसकी उसे महिमा है। लेकिन उसकी दृष्टि तो एक ज्ञायक पर है। आगे बढनेमें ज्ञायककी ओर जो बढता है, वह स्वयं ज्ञायकके आश्रयसे ही बढता है। उसमें कोई दूसरा कारण नहीं है। उसका कारण एक ज्ञायकका आश्रय है वह। और अकर्ताकी परिणति तो साथमें है ही।

मुमुक्षुः- एकान्तसे तो ज्ञायकका आश्रय है वही। अकर्तृत्वका सिद्धान्त तो इसमें है ही।

समाधानः- हाँ, वह तो उसमें है ही, साथमें है। लेकिन ज्ञायकका आश्रय वह


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मुख्य काम करता है, अकर्ता तो उसमें साथमें आ जाता है। एक निवृत्तमय दशा, ज्ञायकता। ज्ञायक स्वयं निवृत्तस्वरूप है। अकर्ता हुआ, निवृत्तमय ज्ञायककी परिणति हुयी। उसे स्वभाव-ओरकी परिणति बढती जाती है। स्वभाव-ओरकी परिणति अपनी ओर बढती जाती है और पर-ओरकी परिणति, जो प्रवृत्ति छूटकर स्वभाव-ओरकी निवृत्त दशामें आगे जाता है और स्वभावकी निर्मलता बढती जाती है।

बाहर सबका अकर्तृत्व आया इसलिये वह क्या करेगा? किसके आश्रयसे मुनिपना पालेगा? शास्त्रमें आता है। ज्ञान ज्ञानमें आचरण करता हुआ, स्वयं अपने ही आश्रयसे आगे जाता है। स्वयं अपने स्वभावमें लीन होता है, ज्ञायकके आश्रयसे। ज्ञायकका आश्रय ही उसे आगे बढनेमें काम करता है। विभावसे विरक्ति है और ज्ञायकका आश्रय है। उसे स्वभाव-ओरकी महिमा है। इसलिये उसकी परिणति स्वभावमें आगे बढती ही जाती है।

मुमुक्षुः- बहिनश्री! दो सिद्धान्त नहीं रहे, सिद्धान्त तो एक ही रहा न?

समाधानः- सिद्धान्त एक ही है। ज्ञायक और अकर्तृत्व। भिन्न कहे उसमें अकर्ता आ गया। ज्ञायक कहे उसमें अकर्ता आ गया। सब उसमें आ गया। सिद्धान्त एक ही है।

मुमुक्षुः- दो सिद्धान्त एक समान हो तो जो आसान सिद्धान्त हो, उससे आगे बढनमें सरलता रहती है? अकर्तृत्वका सिद्धान्त आसान लगता है और ज्ञायकका सिद्धान्त (कठिन लगता है)। क्योंकि ज्ञायकका भाव तो पकडमें आता नहीं।

समाधानः- ज्ञायकका सिद्धान्त अस्तित्व-ओरका है। यह तो नास्तित्व-ओरका है। यथार्थ अकर्ता हो, वह ज्ञायक हुए बिना रहता नहीं। जो ज्ञायक होता है, वह अकर्ता हुए बिना रहता नहीं। उदासीन ज्ञायक है। स्वभावमें परिणति, स्वभावकी परिणति प्रगट हो और विभावसे विरक्ति होती है। अस्तित्व-ओरसे ज्ञायक और विभाव-ओरसे विरक्ति। पर, वह नास्तित्व-ओरका है-अकर्ता। वह आसान लगे, परन्तु अस्तित्व ग्रहण हुए बिना अकर्ता हो नहीं सकता। मात्र अकर्ता, अकर्ता नक्की किया, वैसे बुद्धिसे सच्चा अकर्ता नहीं होता। ज्ञायकको ग्रहण किये बिना सच्चा अकर्ता हो नहीं सकता। ज्ञायक हो तो ही अकर्ता होता है। दोनों सिद्धान्तमें एक ही आ जाता है। अस्तित्व ग्रहण करे तो ही वह नास्तित्व-(ओरसे) अकर्ता होता है।

मुमुक्षुः- मुख्यपने सिद्धान्त तो ज्ञायकका आश्रय।

समाधानः- मुख्य सिद्धान्त ज्ञायकका आश्रय (ले) तो ही आगे जाता है। उसमें गुणभेद पर, शक्ति पर उसकी दृष्टि नहीं है। वह तो उसने ज्ञानमें जान लिया कि अनन्त शक्तिसे भरा आत्मा (है)। उसे स्वानुभूतिमें अनुपम महिमा आयी, अनन्त अनुपम गुणोंसे


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भरपूर आत्मा, उसे स्वानुभूतिमें सब परिणति अनुभूतिमें आयी। तो भी उसकी दृष्टि तो एक अभेद ज्ञायक पर है। दृष्टि तो (एक पर है)। वह एक अभेद दृष्टि और ज्ञायकके आश्रयके जोरसे और ज्ञान साथमें काम करता है कि अधूरी पर्याय है, अभी आगे जाना है, वह सब ज्ञान साथमें काम करता है। लेकिन एक ज्ञायकके आश्रयसे आगे जाता है। विभावसे विरक्त और ज्ञायकका आश्रय। अंतरमें विरक्ति बढती जाती है, लीनता बढाता जाता है। ज्ञायकका आश्रय लिया है।

मुमुक्षुः- निरंतर जो साक्षीभाव रहता है, वह इस ज्ञायकके..

समाधानः- ज्ञायकके आश्रयसे। ज्ञायक साक्षीभावरूप रहता है। कर्तृत्व छूट गया, ज्ञायक-साक्षी हो गया, उदासीन ज्ञायक। स्वभाव-ओरसे ज्ञायक उदासीन साक्षीभाव हो गया। ज्ञायकमें साक्षीभाव आ गया।

मुमुक्षुः- जो सुख पीता रहता है, वह भी ज्ञायकके आश्रयसे?

समाधानः- अन्दर तृप्ति, संतोष है वह सब ज्ञायकके आश्रयसे है। ज्ञायकमें उसे मिल गया है। स्वयं ... है। तृप्ति है, संतोष है, शांति है, सब ज्ञायकके आश्रयमें उसे वर्तता है। सविकल्प दशामें हो तो भी उसे तृप्ति और संतोष वर्तता है। एक स्वानुभूतिमें अनुपम आनन्द आये वह एक अलग बात है, बाकी सविकल्प दशामें भी उसे तृप्ति, संतोष, शांति सब वर्तता है। एक ज्ञायकके आश्रयमें।

मुमुक्षुः- परके अकर्तृत्वमें बहिर्मुख दृष्टि हो जाय और ज्ञायकके आश्रयसे अंतर्मुख दृष्टि हो जाय, ऐसा भी नहीं है।

समाधानः- ज्ञायकका आश्रय लिया इसलिये अकर्ता हुआ। विकल्पसे मैं अकर्ता, मैं अकर्ता, अकर्ता ऐसे विकल्पसे अकर्ता हो, वह यथार्थमें अकर्ता नहीं होता है। उसकी परिणतिमें अकर्ता नहीं होता है। बुद्धिसे नक्की करता है।

मुमुक्षुः- वास्तविक अकर्ता नहीं है।

समाधानः- वह बुद्धिसे होता है। ज्ञायक होता है वही अकर्ता होता है। जो जाने सो जाननहारा, करे सो करतारा। जो करता है वह जानता नहीं और जानता है वह करता नहीं। जानता है वह जानता ही है। जानता है उसे ही कर्तृत्व छूटता है। फिर अल्प अस्थिरता रहती है। सम्यग्दर्शन हुआ तो ज्ञायक हो गया। कर्ताबुद्धि छूट गयी। अल्प अस्थिरताकी परिणति रहती है। उसे, लीनता बढाता-बढाता, स्वरूपमें लीन होते-होते तोडता जाता है।

मुमुक्षुः- पूज्य माताजी! हमारा प्रश्न है, ... अंजन चोरने सेठका वचन प्रमाण मानकर सिद्धि प्राप्त की तो हम गुरुवचन प्रमाण मान ले तो सम्यग्दर्शन प्राप्त हो सकता है?

समाधानः- अंजन चोरको जो निःशंकता आयी वह तो व्यवहारसे निःशंकता आयी।


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निःशंकतासे उसे ऐसा योग बना कि भगवानके दर्शन हुए। परन्तु अंतरसे निःशंकता प्रगट करे तो सम्यग्दर्शन होता है। भगवानके दर्शन हुए, अकृत्रिम चैतालय मेरु पर्वत पर मुनि मिले। मुनिका उपदेश सुना। अंतरमेंसे निःशंकता गुण प्रगट किया। अंतर ज्ञायकको पहचाना, इसलिये वह अंतरमें उतर गया।

गुरुका वचन प्रमाण रखे। गुरुने बहुत समझाया, गुरुने उपदेश दिया। गुरुका वचन प्रमाण किया कब कहा जाय? गुरुके वचन प्रमाणसे आगे बढ सकता है। परन्तु गुरुका जो आशय है, उस आशयको ग्रहण करे। मुनिने अंजन चोरको उपदेश दिया, उस उपदेशको अन्दर ग्रहण किया। जो निःशंकतासे उपर जाता है वह तो व्यवहारसे निःशंकता है। ऐसे गुरुका वचन प्रमाण करके, गुरु क्या कहना चाहते हैं, आशय ग्रहण करे तो आगे जाता है।

गुरु ऐसा कहना चाहते हैं कि, तू तेरे ज्ञायकको पहचान। तू सबसे भिन्न (है)। यह विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। तू ज्ञायक (है)। यह शरीर तू नहीं है। अंतरमें मैं यह ज्ञायक ही हूँ। गुरुदेवने जो कहा कि तू ज्ञायक जाननेवाला (है)। ऐसा गुरुदेवने कहा, ये रहा मैं ज्ञायक। गुरुदेवने जो ज्ञायक कहा, उस ज्ञायकको स्वयं पहचाने। ज्ञायक मैं ज्ञायक ही हूँ, यह सब मुजसे पर भिन्न है। विभाव मेरा स्वभाव नहीं है। गुणभेदमें, कोई भेदमें रुकना, पर्यायभेदमें रुकना वह मेरा पूरा स्वरूप नहीं है। अखण्ड स्वरूप अनादिअनन्त अखण्ड ज्ञायक हूँ। गुणभेद, पर्यायभेद द्रव्यमें लक्षणभेदसे सब भेद है, परन्तु मैं अखण्ड शाश्वत स्वरूप, स्थायी स्वरूप मैं ज्ञायक हूँ, ऐसा गुरुदेवने कहा है, उसे ग्रहण करे। और उसमें निःशंक गुण प्रगट करे कि यह ज्ञायक ही मैं हूँ। ऐसे स्वयं अंतरमेंसे पहचाने तो उसे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है।

गुरुदेवने तो बहुत कहा है। अनन्त कालमें सब मिला है। सत्य स्वरूप समझानेवाले कोई मिले नहीं। गुरुदेव मिले तो स्वयंने पहचाना नहीं। गुरु मिलने मुश्किल है। शास्त्रमें आता है न, "यम नियम संयम आप कियो, पुनि त्याग विराग अथाग लह्यो'। सब किया, लेकिन एक आत्माको नहीं पहचाना। उसका कोई अलग स्वरूप है, सदगुरुदेव उसका स्वरूप बताते हैं। सदगुरुदेव मिलने मुश्किल है।

गुरुदेव जो बताते हैं उसे स्वयं ग्रहण करे तो वह आगे बढता है। स्वयं ग्रहण न करे तो आगे नहीं जा सकता। गुरुदेव बारंबार कहते हैं कि तू ज्ञायक, तू भगवान आत्माको पहचान। उसे स्वयं ग्रहण करे तो आगे जा सकता है। शास्त्रमें आता है कि यह तेरा पद नहीं है। यह पद तेरा नहीं है, यह तेरा पद नहीं है, इसमें रहने जैसा नहीं है। यहाँ आओ, यहाँ आओ, यह अपद है, अपद है। ऐसे तेरा पद ज्ञायक है, ऐसा गुरुदेव कहते थे। यह विभाव तेरा स्वभाव नहीं है। यह तेरा रहनेका घर


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नहीं है, रहनेका स्थान नहीं है। तू ज्ञायक है, भगवान परमात्मा है। ऐसा गुरुदेव बारंबार कहते थे। वह उसे ग्रहण करे तो सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। गुरुदेवने जो उपदेश दिया है, उस उपदेशको स्वयं ग्रहण करे, भेदज्ञान करे तो सम्यग्दर्शन होता है, तो भवका अभाव होता है।

प्रशममूर्ति भगवती मातनो जय हो! माताजीनी अमृत वाणीनो जय हो!
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