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समाधानः- ... कहाँ लोंच, कहाँ मुनिदशा, कहाँ... आंतरिक मुनिदशा अन्दरकी। उन्हें तो सहज लोंच होता है। कहाँ वह सब...
मुमुक्षुः- ऐसा शुभभाव आया हो तो उसका अमलीकरण करना या नहीं?
समाधानः- पहले तो सुधार अंतरमें सम्यग्दर्शन प्रगट हो, फिर भवका अभाव हो तो होता है। बाह्यसे क्रिया मात्र करनेसे क्या होता है? शुभभाव अनन्त कालमें बहुत बार किया। पुण्य बाँधकर देवलोकमें गया। फिर वहीं का वहीं। अन्दर शुभभावना रहे तो। "मुनिव्रत धार अनंत बैर ग्रैवेयक उपजायो'।
अन्दर स्वयं सर्व प्रथम शुद्धात्माको पहचाने, बादमें सच्ची मुनिदशा आती है। मुनिदशा अंतरमें आये, फिर बाहरसे उसे सहज होता है। लोंच आदि सब सहज होता है। कोई बाह्य प्रवृत्ति रुचति नहीं। उसे अंतरमें आत्माकी लीनताके बिना,... आत्माकी स्वानुभूति क्षण-क्षणमें होती है। कहीँ अटक नहीं सकता, कोई विकल्पमें रुक नहीं सकता, गृहस्थके कोई विचारमें (नहीं)। अंतरमें बारंबार स्वानुभूतिमें क्षण-क्षणमें (आते हैं)। कोई विकल्पमें अटकता नहीं, क्षण-क्षणमें स्वानुभूतिमें जाता है। ऐसी दशा हो जाती है इसलिये उसे सब बाह्य प्रवृत्ति सहज छूट जाती है। शुभभाव होते हैं, उसमें भी एक अंतर्मुहूर्त होते ही अंतरमें चला जाता है। शुभभावनामेेंसे अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्तमें अन्दर चला जाता है। ऐसी मुनिओंकी दशा होती है। शास्त्र लिखते हों, उपदेश देते हों। आहारादिमें क्षण- क्षणमें अन्दर चले जाते हैं। ऐसी मुनिकी दशा होती है। मुनिदशा यानी केवलज्ञानकी तलहटी।
मुमुक्षुः- सहज शुभभाव आता हो तो अभी अमलमें नहीं रखना ऐसा है? अभी अपनी भूमिका नहीं है, फिर भी सहज कोई शुभभाव आता हो...
समाधानः- प्रथम तो मार्ग क्या है, वह समझना चाहिये न। भवका अभाव कैसे हो, ऐसा आत्मार्थीका प्रयोजन पहले (होना चाहिये)। उसका कारण क्या, उसका कुछ विचार करना चाहिये। बिना विचारके सब ऐसा ही है। अयथार्थ है। सब त्याग करके फिर खेद (होता है)। कितने तो खेदमें रहते हैं। बहुत-बहुत प्रकार होते हैं। .. अन्दरकी दशा बिना बाहरका कुछ फलवान नहीं होता।
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मुमुक्षुः- कुछ बलवान नहीं होता?
समाधानः- फलवान, उसका कोई फल नहीं आता। बिना अंतरकी दशाके। मात्र अंतरकी जो शांति चाहिये, अंतरमेंसे शांति... मात्र बाह्य त्याग करनेसे अंतरमें जो शांति होती है, वह शांति बाह्य त्यागसे नहीं आती।
मुमुक्षुः- अभी मात्र वैसा शुभभाव करनेसे ...
समाधानः- अंतरमेंसे शुभभाव.... सम्यग्दर्शनकी भूमिकामें और सच्ची मुनिदशामें उसके साथ शुभभाव है। वह शुभभाव हेयबुद्धिसे आते हैं। वह शुभभाव अलग है और यह शुभभाव (अलग है)।
आत्मार्थीको, मुझे आत्मा कैसे प्राप्त हो? भवका अभाव कैसे हो? ऐसी भूमिकाके साथ शुभभाव होता है, परन्तु उसका ध्येय एक (होता है कि), मुझे शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? वह एक ध्येय होता है। वांचन, विचार आदि सब शुभभाव हैं। आत्मा कैसे पहचानमें आये? पहले सच्चा ज्ञान हो बादमें सच्चा होता है। पहले त्याग होता नहीं। ऐसा क्रम नहीं है। पहला क्रम - सच्चा ज्ञान होना वह क्रम है, बादमें त्याग (होता है)।
सच्चा ज्ञान आदि सब... उसके साथ उसे उसकी भूमिकामें कषायकी मन्दता होती है, आत्मार्थीता होती है, उसे कहीं गृद्धिपना नहीं होता, आत्मार्थीता हो, आत्माका प्रयोजन हो, यह सब उसे (होता है)। अमुक अंशमें उसके रस छूट जाते हैं। उसे सब हो जाता है। जिसे आत्माकी लगनी लगी है, उसे सब हो जाता है। रस छूट गये होते हैं, बाह्य सांसारिक सब रस उसे ढीले पड जाते हैं। उसे यथाशक्ति त्याग भी आता है, सब आता है। उसकी शक्ति अनुसार सब आता है।
बाहरसे सब कर ले और अन्दर कुछ नहीं हो। बडा त्याग ले ले और अन्दर कुछ नहीं होता। शुभभाव तो जिज्ञासाकी भूमिकाके साथ अमुक शुभभाव तो होते हैं। उसे त्याग भी होता है, सब होता है।
.... जीवने सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया है। जो सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेसे भवका अभाव होता है, आत्माकी स्वानुभूति होती है और जिससे केवलज्ञान तक आत्माकी पूर्णता प्राप्त होती है, ऐसा जो सम्यग्दर्शन वह जीवने प्राप्त नहीं किया है। सब अनन्त बार कर लिया है। बाह्य क्रियाएँ की, त्याग किया, व्रत लिये, पच्चखाण लिये, अभिग्रह धारण किये, उपवास किये, मासखमण किये, सब किया। अभी सब बाहरसे करते हैं वैसा नहीं। शुभभाव आत्माके लिये करता हूँ, ऐसा मानकर किया। परन्तु अन्दर एकत्वबुद्धि (छूटी नहीं)।
आत्मा भिन्न और यह शरीर भिन्न और अन्दर शुभाशुभ भाव होते हैं वह मेरा
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स्वरूप नहीं है। इसप्रकार आत्माको नहीं पहचाना। आत्माको पहचाना नहीं। सब पुण्यबन्ध हुआ, ग्रैवेयक गया, लेकिन भवका अभाव नहीं हुआ। देवलोकमें अनन्त बार गया, मनुष्यमें अनन्त (बार जन्म लिया), चारों गतिमें अनन्त बार गया।
(सब) प्राप्त हुआ, लेकिन एक सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ। अनादि कालसे आत्मा प्राप्त नहीं हुआ। उसकी रुचि नहीं की है, उसकी भावना नहीं की है। कुछ नहीं किया। उसका परिचय नहीं किया है, कुछ नहीं किया। कोई श्रवण करवानेवाले गुरु मिले तो स्वयं समझा नहीं, आदरपूर्वक सुना नहीं। अनन्त कालमें कुछ नहीं किया।
(तप तो) ऐसा किया कि कोई बार पर्वत पर प्रखर धूपमें ध्यान करे, दरिया किनारे सर्दीमें ध्यान करे, चौमासामें वृक्षके नीचे ध्यान करे। ऐसे तो तप किये। उपसर्ग परिषह आये तो क्रोध करे नहीं, शान्ति रखे, सब करे परन्तु आत्मा भिन्न है ऐसी पहचान नहीं की। ऊपर-ऊपरसे आत्माके लिये करता हूँ, (ऐसा मानता है)। अन्दर आत्माका स्वभाव क्या? आत्मा कौन उसे पहचाना नहीं। मैं आत्माके लिये करता हूँ, आत्माके लिये करता हूँ, ऐसा करता रहा। मोक्षके लिये (करता हूँ), परन्तु मोक्ष किसे कहते हैं (यह समझा नहीं)। अन्दरमें रुचि शुभ-पुण्य-ओरकी रुचि रह जाती है। अंतरमें आत्माकी रुचि नहीं की। सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं किया। (स्वभावका) आश्चर्य नहीं लगा है। आत्माकी महिमा नहीं आयी है।
जो श्रवण करनेवाले गुरु मिले, उनकी वाणीमें गुरु क्या कहते हैं उसमें कोई आश्चर्य नहीं लगा है। आत्माका आश्चर्य नहीं लगा। अपूर्वता लगनी चाहिये। आत्माका स्वरूप कुछ अलग कहते हैं, मुक्तिका मार्ग कुछ अलग कहते हैं, स्वानुभूतिका स्वरूप कुछ अलग कहते हैं, अंतरमें ऐसी अपूर्वता नहीं लगी है। वाणीमें अपूर्वता (नहीं लगी)। अन्दरमें आत्माकी अपूर्वता नहीं लगी। जो कुछ करता है, वह उसी दिशामें खडा है। दिशा नहीं बदलता। शुभभावकी दिशामें उसी दिशामें खडा है। अंतरकी ओर दिशा होनी चाहिये कि आत्मा भिन्न कैसे है, उसका आश्चर्य लगना चाहिये। वह दिशा नहीं बदलता और वही दिशामें खडा है। चक्कर लगाये तो वहीं के वहीं उतनेमें चक्कर लगाता रहता है।
मुमुक्षुः- बाह्य पदाथामें ही उसका आश्चर्य..
समाधानः- बाहर ही आश्चर्य लगा है। अंतरमें आश्चर्य नहीं लगा। अशुभभाव उसे रुचे नहीं इसलिये शुभभावमें आता है। फिर शुभभावमें ही रहता है। शुभभावसे भी भिन्न मेरे आत्माका स्वरूप है, उसे पहचानता नहीं। शुभभाव तो बीचमें आते हैं। आत्माका स्वरूप पहचाननेका प्रयास करे, रुचि करे, सम्यग्दर्शन (प्रगट करे)। बीचमें शुभभाव होते हैं, परन्तु वह हेयबुद्धिसे होते हैं। सम्यग्दर्शन होनेके बाद भी शुभभाव
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होते हैं, देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा आदि सब होता है, परन्तु वह सब उसे हेयबुद्धिसे (होता है)। उसे भेदज्ञानकी धारा वर्तती है।
मुमुक्षुः- ... ऐसा ख्यालमें आता है। जानना अरूपी भावसे और वेदनात्मक भावरूप है, ऐसा भी ख्यालमें आता है। वह स्वयंकी शक्ति है अथवा जानना मुझमेंसे हो रहा है, उसमें किस प्रकारसे (आगे बढना)?
समाधानः- जानना वह स्वयंका अस्तित्व है। जाननेवालेको ग्रहण करना कि जाननेवाला है वही मैं हूँ। जाननेवालेसे कोई भिन्न मैं नहीं हूँ। जाननेवाला पूरा तत्त्व है। जाननेवालेको ग्रहण करे, विभावसे भिन्न पडे।
पूर्ण तत्त्व जाननेवाला (है)। एक गुण है ऐसा नहीं, वर्तमान एक जाननेवाली अवस्था है ऐसे नहीं, अन्यको जाने वह मैं, ऐसा नहीं। में स्वयं जाननेवाला हूँ। ऐसा स्वयं जाणक तत्त्व है, वह जाननेवाला तत्त्वका उसे आश्चर्य लगे, उसकी महिमा आये, उसे ग्रहण करे। उस पर दृष्टि करे, दृष्टिको थँभावे और विभावसे भिन्न पडे। भेदज्ञान करे। विभावकी एकत्वबुद्धि रखकर मैं जाननेवाला हूँ, जाननेवाला हूँ करे तो जाननेवालेको उसने बुद्धिसे जाना है। एकत्वबुद्धि टूटनी चाहिये और ज्ञायकको भिन्न करके भेदज्ञानकी धारा होनी चाहिये, तो ज्ञायकको पहचाना है। एकत्वबुद्धिमें खडा रहकर मैं जाननेवाला हूँ, ऐसा करते हैं। विचारसे नक्की करता है।
मुमुक्षुः- जाननेवाला हूँ, इस भावमें उसे अन्य पदार्थसे सम्बन्ध नहीं है और अन्य पदार्थका खीँचाव भी उसमें नहीं है, ऐसी वह वस्तु है।
समाधानः- ऐसा वह स्वयं जाननेवाला है, उसे भिन्न करके जाने। महिमावंत (है)। जानना यानी उसमें एक गुण नहीं है, अनन्त महिमासे भरा हुआ, अनन्त गुणोंसे भरा हुआ महिमावंत पदार्थ है। जाननेवालेकी उसे महिमा आनी चाहिये। जाननेवालेको विभावसे भिन्न करके जाननेवालेको ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- उस प्रकारसे जाननेमें आता है।
समाधानः- स्वयंके साथ सम्बन्ध है, दूसरेके साथ नहीं है। जाननेवालेको स्वयंके द्रव्यके साथ सम्बन्ध है, स्वयंके साथ सम्बन्ध है। दूसरेके साथ सम्बन्ध नहीं है। अन्यसे अत्यंत भिन्न है। परद्रव्यसे अत्यंत भिन्न है। विभावसे भी वह भिन्न है। विभाव स्वभाव उसका नहीं है। उसका स्वभाव ज्ञायक है। जाननेवालेका अस्तित्व भरपूर भरा है। मात्र जानना ऐसा गुण नहीं, अपितु पूर्ण तत्त्व अपना अस्तित्व ग्रहण करना।
मुमुक्षुः- दृष्टिके विषयमें दृष्टि मुख्य रहती है और उसकी महिमा
समाधानः- दृष्टि मुख्य रहती है। ज्ञायक पर दृष्टि करे। ज्ञायक मुख्य रहता है, परन्तु उसकी महिमा दृष्टिमें भी रहती है, ज्ञानमें भी रहती है और चारित्रमें भी रहती
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है। दृष्टिकी डोर, दृष्टिका विषय द्रव्य है। उसकी मुख्यता होकर ज्ञानमें भी बराबर ख्याल है। ज्ञान भी, जैसी दृष्टि है वैसा ज्ञान है। ज्ञान दोनोंको जानता है, द्रव्य और पर्यायको। दृष्टि एक द्रव्य पर होती है और ज्ञान एवं चारित्रमें लीनता होती है। महिमा तो तीनोंमें होती है। दृष्टि मुख्य रहकर ज्ञान-ज्ञायक मुख्य रहता है। महिमा तीनोंमें रहती है।
मुमुक्षुः- तीनोंकी पूर्णतामें तो परिपूर्णताकी महिमा पूरी होनी चाहिये तीनोंमें। दृष्टि पूर्ण हो जाती है तो पूर्ण महिमाके कारण होती है। वैसे ज्ञान भी परिपूर्ण केवलज्ञानरूप दशा लेवे तो महिमामें परिपूर्ण होना चाहिये।
समाधानः- महिमा आये इसलिये परिपूर्ण हो जाय, ऐसा नहीं है। महिमा तो होती है। दृष्टिका विषय पूर्ण है। अखण्ड द्रव्य पर दृष्टि की है, परन्तु ज्ञान भी उसको जानता है। ज्ञानमें महिमा आवे इसलिये पूर्ण हो जाय, ऐसा नहीं होती। महिमा दूसरी वस्तु है, पुरुषार्थकी मन्दता होनेसे पूर्णता धीरे-धीरे होती है। दृष्टिमें पूर्णता आ गयी, परन्तु चारित्रमें पूर्णता नहीं आती। महिमा आये इसलिये पूर्ण पर्याय हो जाय, ऐसा नहीं होता।
मुमुक्षुः- ज्ञानकी परसन्मुखता रहती है अस्थिरताके कारण, तो कारण तो यही रहा कि ज्ञानको भी अपने द्रव्य स्वभावकी परिपूर्ण महिमाके साथ लीनता न बनी।
समाधानः- लीनता कम रहती है। ज्ञानकी लीनता नहीं, चारित्रकी लीनता कम रहती है। लीनता तो चारित्रमें होती है, ज्ञान तो जानता है। ज्ञान जानता है। ज्ञान तो, मैं द्रव्य ऐसा हूँ, पर्याय ऐसी है, ऐसा सब जानता है। लीनता चारित्रमें होती है। जाने इसलिये लीनता हो जाय, ऐसा नहीं हो सकता। पुरुषार्थकी कमजोरीके कारण लीनता कम रहती है तो भी पुरुषार्थ होता जाता है। उसका पुरुषार्थ किसीको जल्दी अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है। किसीको धीरे-धीरे होता है।
भरत चक्रवर्ती गृहस्थाश्रममें कितने वर्ष रहते हैं। बादमें लीन होते हैं। किसीको तुरन्त उसकी भावना उठती है तो चारित्र हो जाता है तो मुनि बन जाता है। तो एकदम पुरुषार्थ करके केवलज्ञान हो जाता है। किसी-किसीको लीनता जल्दी होती है, किसीको धीरे-धीरे होती है। दृष्टि-प्रतीत द्रव्य पर जोरदार हो गयी कि मैं यही हूँ, यह मेरा स्वभाव (है)। आदरने योग्य स्वभाव है। परन्तु पुरुषार्थ कम रहता है इसलिये जल्दीसे नहीं हो सकता है। किसीको जल्दी होता है, किसीको धीरे-धीरे होता है। ... मुनिको अंतर्मुहूर्तमें केवलज्ञान हो गया। किसीको अंतर्मुहूर्तमें हो जाता है। ... दशामें कितने साल रहते हैं। कोई एक-दो भव करके फिर केवलज्ञान प्राप्त करते हैं।
मुमुक्षुः- लीनतामें अंतर पड जाता है।
समाधानः- लीनतामें अंतर पडता है। ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा बराबर चलती
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है। मैं ज्ञायक हूँ, यह (विभाव) मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक हूँ ऐसे बोलनेमात्र नहीं, ऐसी सहज परिणति चलती रहती है। प्रत्येक कार्यमें क्षण-क्षणमें उसको याद नहीं करना पडता है, सहज चलता है। खाते-पीते, स्वप्नमें, निंद्रामें ज्ञायककी धारा चलती है। लेकिन लीनता कम होती है, इसलिये गृहस्थाश्रममें रहते हैं। स्वरूप सन्मुख स्थिर हो जाय तो साथमें लीनता होती है।
एक द्रव्यमें सर्व गुण हैं। परस्पर एक दूसरेको... उपयोग स्वसन्मुख जाय तो चारित्रकी लीनता भी स्वरूपमें होती है। साथमें सब होता है। उपयोग स्थिर हो जाता है तो लीनता-चारित्र भी होता है। गृहस्थाश्रममें स्वरूपाचरण चारित्र होता है। वह होता है। उपयोग स्थिर हो जाय। उपयोग बाहर जाता है। उपयोग स्वरूपकी ओर जाय तो उपयोगमें स्थिरता है, चारित्रगुणमें लीनता भी साथमें है। एक गुण, दूसरा गुण सब साथमें रहते हैं।
मुमुक्षुः- स्वतंत्र है।
समाधानः- सब स्वतंत्र है, फिर भी दृष्टि स्वसन्मुख गयी तो सर्वगुणांश सो सम्यग्दर्शन (हुआ)। सर्व गुणका अंश-अंश निर्मल प्रगट होता है। ज्ञान स्वसन्मुख जाता है तो चारित्रकी लीनता भी होती है। चारित्रकी लीनता होती है तो ज्ञानका उपयोग भी स्वरूपमें जाता है।
मुमुक्षुः- अंतर्मुख होता है। समाधानः- अंतर्मुख होता है। सब गुण साथमें काम करते हैं। मुमुक्षुः- होता है सब अपने-अपने उपादानसे। समाधानः- अपने-अपने उपादानसे होता है। सब स्वतंत्र होकरके भी ऐसा भेद नहीं है, टूकडे नहीं है। एक द्रव्यके सब गुण हैं। लक्षणभेद है। सब स्वतंत्र है, फिर भी एक गुणके साथ (सर्व गुण परिणमते हैं)। दृष्टिकी डोर दृष्टिके विषय पर गयी तो वहाँ सर्व गुणकी पर्याय उस ओर (जाकर) निर्मल हो जाती है। सब स्वतंत्र हो तो भी। एक दृष्टि इस ओर आयी और ज्ञान उस ओर बाहर गया, ऐसा नहीं होता। चारित्र स्वरूपमें आये तो ज्ञान बाहर गया, ऐसा नहीं होता। एक गया तो सब जाते हैं स्वस्वरूपमें। सर्व अंश तारतम्यतारूप परिणमित हो जाते हैं।