PDF/HTML Page 447 of 1906
single page version
समाधानः- ... शास्त्र लिखे, उपदेश दे, स्वाध्याय करे, शास्त्रकी स्वाध्याय करे, शास्त्र लिखे, शास्त्र पढे, ऐसा सब (करते हैं)। तपमें भी ऐसे हैं, शास्त्रमें भी ऐसे हैं, शुद्धात्मामें अनुरक्त हैं, ऐसे हैं मुनिराज। उग्र साधना है न मुनिराजकी। सम्यग्दृष्टिकी साधना गृहस्थाश्रममें होती है, परन्तु वह अमुक प्रकारसे (होती है)। मुनिराजकी साधना उग्र प्रकारसे है। सम्यग्दर्शन हो, गृहस्थाश्रममें भिन्न रहते हैं, परन्तु अमुक प्रकारकी प्रवृत्ति होती है तो उनकी भूमिका अनुसार शास्त्र स्वाध्याय, ज्ञान, ध्यान आदि होता है। पूजा, भक्ति आदि होता है। सम्यग्दर्शनके आठ अंग होते हैं, सम्यग्दृष्टिको वह सब होता है। मुनिराजको सम्यग्दर्शनके अंग तो होते हैं, परन्तु पंच महाव्रतके आचार होते हैं। शास्त्रोंमें लीन हैं।
... गुणरूप मणिओंके समुदाय हैं। गुणरूपी मणि प्रगट हुए हैं। एक-एक गुण मानों मणि कैसे लगाये हों, मणि.. मणि.. मणि.. गुणके रत्न मानों। गुणरत्नोंसे शोभायमान (हैं)। चारों ओरसे गुण-गुणसे भरे हुए। अनन्त गुणसे भरा हुआ आत्मा तो है ही, परन्तु साधनामें जो गुण होते हैं, उन सब गुणरूपी मणिसे मुनिराज शोभित हैं। अनन्त गुण अंतरमें तो प्रगट हो गये हैं, स्वरूपमें लीनता करते हैं, गुणसे शोभायमान हैं। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि। सब प्रकारसे व्यवहारगुण एवं निश्चयगुण, सब गुणरूपी मणिसे मुनि शोभायमान हैं। मानों मणि.. मणि.. मणिका ढेर! रत्नोंका ढेर हो, वैसे गुणरत्नोंसे शोभायमान हैं। मुनिराजको ऐसे गुण प्रगट हुए हैं।
मुमुक्षुः- और सर्व संकल्पोंसे मुक्त हैं।
समाधानः- सब संकल्पोंसे मुक्त हैं। किसी भी प्रकारके संकल्पसे मुक्त हैं। सर्व संकल्पोंसे (अर्थात) गृहस्थाश्रमके संकल्पोंसे, सब प्रकारके विभावके संकल्पोंसे मुक्त हो गये हैं। ऐसे मुनि...
... पर्याय उन्हें प्रगट होती है। ऐसी जिनकी साधना है। उन्हें तो मुक्तिरूपी सुन्दरी प्रगट होती है। .. हो गये, आत्मामें .. हो गये। तपमें लीन हो गये। गुणरूपी मणिसे शोभित। शास्त्रमें .. हो गये। कलशमें तो संस्कृतमें सब शब्द .. आदि आते हैं।
... ऋद्धि, सिद्धि.. परन्तु भगवान जहाँ आये तो कहते हैं, मुझे पहले भगवानकी
PDF/HTML Page 448 of 1906
single page version
पूजा करने दो। अभी मुझे कोई राजाके हिसाबसे नमस्कार मत करना। श्रावकोंको तो यह है कि भगवानकी पूजा, भक्ति, प्रभावना आदि होते हैं। वर्तमानमेंे तो गुरुदेव पर सबको भक्ति बहुत है न, इसलिये सब नाचने लगते हैं। सबको ऐसा होता है कि क्या करें और क्या न करें। इसलिये दानमें भी उतने देते हैं और सब ....
मुमुक्षुः- अपने गुरुदेव ही है, ऐसा सभामें जाहिर किया। बहुत भावना..।
समाधानः- गुरुदेवका प्रताप प्रसर रहा है। गुरुदेव पर सबको वषाकी भक्ति है। वह भक्ति सबको उछल पडती है। भगवान गुरुदेवने बताये, मन्दिर, सौराष्ट्रमें कोई मन्दिर नहीं थे। गुरुदेवके हस्तकमलसे प्रतिष्ठाएँ हुयी। गुरुदेवने भगवानका स्वरूप, मन्दिरका, तत्त्वका स्वरूप सब गुरुदेवने बताया। गुरुदेवकी वाणी बरसोंसे सबने सुनी है। हृदयमें सबको संस्कार (डल गये हैं)। गुरुदेव पर सबको भक्ति उछल पडी है।
मुमुक्षुः- सूर्यकीर्ति भगवान..
समाधानः- हाँ, सूर्यकीर्ति भगवान। सब भगवानको दिखानेवाले, तीर्थंकरका स्वरूप समझानेवाले, तत्त्वका स्वरूप समझानेवाले, चारों ओर उन्होंने वर्तमान कालमें तीर्थंकर जैसा काम किया। और भविष्यके तीर्थंकर भी स्वयं होनेवाले ही हैं। महाभाग्य कि गुरुदेवकी वाणी सुनने मिली, गुरुदेवका सान्निध्य मिला और गुरुदेवको भगवानके स्वरूपमें स्थापना करनेका भाग्य मिला, वह महाभाग्यकी बात है।
मुमुक्षुः- सूर्यकीर्ति भगवानकी बोली इतनी शीघ्रतासे नहीं हुयी होगी। सिर्फ तीन मिनट। पहले पच्चीस हजार बोले, हीराभाई सीधा लाख बोले, फिर दस-पंद्रह, दस- पंद्रह बढते-बढते एक पैंसठ पर पहुँच गया। तीन मिनटमें ही पूरी उछामनी पूरी हो गयी।
समाधानः- आप सबकी बरसोंकी भावना थी।
मुमुक्षुः- चाहे जितनी बोली हो, उसमें पीछे नहीं हठना है। किसी भी प्रकारकी अशांति जैसा कुछ नहीं है।
समाधानः- ऐसा है कि, जिस प्रकारका प्रसंग हो, उस प्रकारकी उनकी वाणी आती है। वे स्वयं विराजते थे, किसीको ऐसा विकल्प आया तो वैसी उनकी वाणीमें समाधान आये। उस प्रकारका वाणीका योग था। विडीयोमें भी ऐसा हो जाता है।
मुमुक्षुः- बोलो! सूर्यकीर्ति भगवानकी जय हो! भगवती मातकी असीम कृपाकी जय हो!
समाधानः- गुरुदेव विराजे हो, तो ही गुरुदेवके भक्त हैं, ऐसा कहनेमें आये। इतने वर्ष वाणी बरसायी। ... इन्द्र ही रचना करे न। भगवानकी भक्ति तो इन्द्र भी करते हैं। देवलोकके देव भी भगवानकी भक्ति करते हैं। शाश्वत रत्नकी प्रतिमाएँ देवलोकमें
PDF/HTML Page 449 of 1906
single page version
और सब जगह है। सब देव उनकी पूजा एवं भक्ति करने जाते हैं। समवसरणमें वाणी सुनने जाते हैं। जहाँ-जहाँ जिन प्रतिमा हो, वहाँ देव भक्ति (करने जाते हैं)। यह तो पंचम काल है इसलिये कुछ दिखता नहीं, बाकी देवोंके हृदयमें भगवानकी भक्ति होती है।
भगवानका जन्म होता है तब सुधर्म इन्द्र आदि आकर भगवानका जन्म आदि महोत्सव इन्द्र करते हैं। कल्याणक। जहाँ-जहाँ प्रतिमा हो, देव और इन्द्रों आकर रक्षा करते हैं, उनकी भक्ति करते हैं, ऐसा शास्त्रमें आता है। मन्दिर ऊपरसे किसीका विमान जाता हो तो विमान थँभ जाता है। यहाँ क्यों थँभी गया? देखते हैं तो मालूम पडता है कि नीचे मन्दिर है। ऊपरसे विमान चलता हो और नीचे ऊतरकर भगवानके दर्शन करने आते हैं। तीन लोकमें भगवानका, जिनेन्द्र देवकी उतनी महिमा है।
वर्तमान, भावि भगवंत हैं, तीर्थंकर भगवंतोंकी उतनी महिमा है। तीर्थंकर द्रव्यकी उतनी महिमा है। भरत चक्रवर्तीने तीन चौबसीके बिंब करवायें। उन्हें उत्साह आ गया कि मेरे पिताजी ऋषभदेव भगवान तीर्थंकर, उनका मरिची पुत्र वह भी तीर्थंकर, महावीर भगवान चौबीसवें (तीर्थंकर) होनेवाले हैं। उन्होंने भूत, वर्तमान, भावि तीनों चौबीसीके रत्नके बिंब विराजमान किये। कैलास पर्वत पर पाँचसौ-पाँचसौ धनुषके।
मुमुक्षुः- हमारे यहाँ दादरमें भूत, वर्तमान और भावि तीनों भगवान आ गये। वर्तमान सीमंधर भगवान, भविष्यके महापद्म भगवान और सूर्यकीर्ति भगवान और आदिनाथ भूतकालके।
समाधानः- आदिनाथ भगवान। प्रथम आदिनाथ भगवान (हुए)। इस चतुर्थ कालमें चौबीस (तीर्थंकर) हुए, उसमें प्रथम आदिनाथ भगवान हुए। और यह चौबीसी पूरी हुयी, आगामी प्रथम महापद्म भगवान, श्रेणिक राजाका जीव प्रथम तीर्थंकर होंगे। सीमंधर भगवान तो विराजते हैं और भावि भगवान सूर्यकीर्ति।
गुरुदेव यहाँ पंचमकालमें पधारे। वह भी तीर्थंकरका द्रव्य था। उन्होंने पंचम कालमें, विषम कालमें इतना धर्मका प्रचार किया कि पूरे हिन्दुस्तानमें तीर्थंकर जैसा काम किया, यहाँ आकर। इसलिये उनकी भी प्रतिमाजी, भविष्यके तीर्थंकर होनेवाले हैं, उस रूपमें विराजमन (किये)।
मुमुक्षुः- ... उन्होंने की। और उनके आंगनमें-दादर उनके आंगनमें भी कहेंगे न।
समाधानः- उनके ही आंगनेमें कहलाये। यहाँ उन्होंने भगवान लिये, सब किया था। शुरूआत सब उन्होंने की। उन्होंने सभामें जाहिर किया। उनकी भावना हो, उसमें मैं क्या कहूँ? पूरे समाजकी भावना (थी)। सबकी भावनासे सब सफल हो गया। भक्ति
PDF/HTML Page 450 of 1906
single page version
तो सबके हृदयमें होती है।
मुमुक्षुः- हम सब इस निमित्तसे आये हैं। भगवानकी भक्ति, भगवानको विराजमान करनेके पीछे मूल प्रयोजन क्या होना चाहिये?
समाधानः- मुमुक्षुको ऐसा देव-गुरु-शास्त्रका आये बिना रहता ही नहीं। जगतमें सर्वोत्कृष्ट महिमावंत जिनेन्द्रदेव, गुरु एवं शास्त्र हैं। जिनेन्द्रदेवने जो आत्माको प्रगट किया है, जो आत्मा सर्वोत्कृष्ट महिमावंत आत्मा है, वह आत्मा प्रगट किया, ऐसे जो तीर्थंकर भगवान, उन्होंने जो मार्ग बताया वह मार्ग स्वयंको ग्रहण करना है। देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा करके, जो भगवानने प्रगट किया, जो गुरुदेवने साधना की, गुरुदेवने जो मार्ग बताया, शास्त्रमें जो तत्त्वका स्वरूप आता है, वह सब ग्रहण करना है।
आत्मा कैसा है? आत्माका स्वरूप-आत्मा कोई अनुपम, उसकी महिमा कोई अलग है, वह कैसे पहचाना जाये? उसे पहचाननेका स्वयंको प्रयत्न करना है। और वह जब तक पहचानमें न आये तब तक शुभभावमें श्रावकोंको जिनेन्द्र देव, गुरु, शास्त्रकी महिमा आये बिना नहीं रहती। श्रावक गृहस्थाश्रममें हैं, तब तक अशुभभावसे बचनेको जिनेन्द्रदेवके उत्सव, जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठाएँ (आदि भाव आते हैं)।
पद्मनंदि आचार्यदेव शास्त्रमें लिखते हैं कि जो श्रावक होते हैं, उन्हें जिनेन्द्रदेवके उत्सव, जिनेन्द्रदेवकी प्रतिष्ठाएँ, गुरुकी सेवा, गुरु जो मार्ग बताये उसका श्रवण, मनन, शास्त्रका चिंतवन आदि सब श्रावकोंको होता है। लेकिन उसमें हेतु (होता है कि) आत्मा कैसे पहचाना जाय? अशुभभावसे बचनेको वैसे शुभभाव आते हैं। परन्तु शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाये? अन्दर जो शुभभाव हैं, उसके साथ जो ज्ञायक है, वह ज्ञायक उससे भिन्न है। वह शुद्धात्मा कैसे पहचाना जाये? वह ध्येय और उसके अन्दर हेतु यह होना चाहिये।
मेरी जो आत्माकी साधना है, वह साधना आगे कैसे बढे? अथवा यथार्थ साधना कैसे प्रगट हो? पहले जिज्ञासा, लगनी आदि (होते हैं)। परन्तु यथार्थ साधना, आत्माकी ओर दृष्टि, द्रव्य पर दृष्टि कैसे हों? आत्माका ज्ञान कैसे हो? द्रव्य-गुण-पर्यायका स्वरूप कैसे पहचानमें आये? वह सब लगनी, जिज्ञासा लगनी चाहिये। उसके साथ-साथ, जब तक वह नहीं हो, तब तक देव-गुरु-शास्त्रकी महिमा उसे आये बिना रहती नहीं। परन्तु अन्दर हेतु यह शुद्धात्मा सर्वोत्कृष्ट महिमाका भण्डार ऐसा आत्मा, वह आत्मा कैसे पहचानूँ? उसका चिंतवन, मनन साथमें होना चाहिये।
गृहस्थाश्रममें भरत चक्रवर्ती आदि थे, उनको भी देव-गुरु-शास्त्रकी (भक्तिका भाव आता है)। जिनेन्द्र देवका उत्सव करे, प्रतिष्ठाएँ, गुरुकी सेवा, गुरुकी वाणी सुने आदि सब था। परन्तु अन्दर उन्हें आत्मा न्यारा ही न्यारा, भिन्न जानते थे और क्षण-क्षणमें
PDF/HTML Page 451 of 1906
single page version
आत्माको भिन्न (जानते थे)। ज्ञायककी धारा वर्तती थी। वैसी दशा कैसे प्रगट हो, ऐसी भावना अन्दर होनी चाहिये। (जिनेन्द्र देवने) प्रगट किया और गुरुने साधना की वह कैसे प्रगट हो? यह अन्दर होना चाहिये। आत्मार्थीको अन्दर आत्माका प्रयोजन होता है। देव-गुरु-शास्त्रका प्रताप जगतमें वर्तता है।
... अन्दरमें आत्मा कैसे (प्रगट हो)? शुद्ध निर्मल पर्याय (कैसे प्रगट हो)? गृहस्थाश्रममें देव-गुरु-शास्त्रकी भक्ति आदि होता है, परन्तु अन्दर आत्मा कैसे प्रगट हो उसकी उसे गहराईमें खटक होनी चाहिये। सब करे। भगवानकी प्रतिष्ठाएँ, पूजा आदि करे, बडे- बडे महोत्सव करे, शास्त्रकी रचना करे, गुरुकी वाणी सुने, सब करे। परन्तु हेतु एक कि मार्ग क्या बताया है? भगवानने क्या कहा है? जो भगवानको पहचाने वह स्वयंको पहचाने और स्वयंको पहचाने वह भगवानको पहचाने। भगवानके द्रव्य-गुण-पर्या/य क्या है और अपने क्या है? उसे वह स्वयं विचार करके नक्की करे कि मैं चैतन्य द्रव्य हूँ। मुझमें अनन्त गुण हैं। मेरी शुद्ध पर्याय मुझे कैसे प्रगट हो? भगवानने जो प्रगट किया, साधना की, भगवान स्वयं अंतर स्वरूपमें विराजमान हैं।
अपने तो वीतरागी बिंबकी स्थापना की। समवसरणमें साक्षात स्वरूपमें केवलज्ञानरूप विराजमान हैं। एक विकल्प भी उत्पन्न नहीं होता। वीतरागी हैं, स्वयं अंतर स्वरूपमें एकदम विराजमान हैं। अपने द्रव्य-गुणमें अन्दर अनन्त निर्मल पर्यायें भगवानको केवलज्ञानमें प्रगट हो गयी हैं। लोकालोकको जाने तो भी स्वयं स्वरूपमें विराजमान हैं। सहज जानते हैं। बाकी (तो) भगवान अन्दर स्वरूपमें विराजमान हैं। जैसे भगवान हैं, वैसा ही स्वयं है। भगवानने जो प्रगट किया वह मुझे कैसे प्रगट हो? यह हेतु और प्रयोजन होना चाहिये।
जैसा भगवानका स्वरूप है, वैसा ही स्वयंका है। स्वयं अनन्त गुण संपन्न है। ऐसी ज्ञायककी दशा कैसे प्रगट हो? उसकी जिज्ञासा, उसकी लगनी, उसकी भावना सब होना (चाहिये)। उसके लिये विचार, वांचन (होता है)। ध्येय एक आत्माका होना चाहिये।
मुमुक्षुः- सुखका यह एक ही उपाय होगा? दूसरा कोई उपाय नहीं होगा?
समाधानः- यह एक ही सुखका उपाय है। आत्माको-ज्ञायकको पहचानना, भेदज्ञान करना। यह विभाव मेरा स्वभाव नहीं है, मैं ज्ञायक स्वभाव हूँ। उससे मैं भिन्न हूँ। भेदज्ञानकी धारा प्रगट करनी, ज्ञायकको पहचानना, उसकी स्वानुभूतिकी दशा प्रगट करनी, यही एक उपाय है। उसमें बाह्य उपाय कोई नहीं है। सब शुभराग पुण्यबन्धका कारण है। परन्तु अन्दर एक ही उपाय है, शुद्धात्माको पहचानना। उसके लिये, जिन्होंने प्रगट किया उन्हें साथमें रखकर, उन पर महिमा रखकर अपना हेतु अन्दर शुद्धात्माको पहचानना (यह होना चाहिये)। शुभभावमें वह और अन्दरमें शुद्धात्मा कैसे पहचानमें आये? यह
PDF/HTML Page 452 of 1906
single page version
एक ही (ध्येय होना चाहिये)। ज्ञायककी धारा प्रगट करनी, भिन्न आत्मा है उसे पहचानना।
... जो शुद्धात्माको पहचानना है, वह बिना लगनीके पहचानमें नहीं आता। विभावमें दुःख है, स्वभावमें सुख है। सुख कहाँ है? सुखको खोजनेके लिये सुख आत्मामें है, ज्ञायकमें है, वैसे दृढता किये बिना शुद्धात्माकी और जाये कैसे? ध्येय एक शुद्धात्माको पहचाननेका (होना चाहिये)। मैं शुद्धात्मा हूँ, ऐसे रटन कर ले, तो ऐसे रटन करनेसे नहीं होता। अन्दरसे उसका स्वभाव पहचानकर होता है। स्वभाव कब पहचानमें आता है? कि अन्दर उसे लगनी लगी हो कि मुझे शुद्धात्मा ही पहचानना है। शुद्धात्माके बिना चैन पडे नहीं। बारंबार उसकी लगनी, क्षण-क्षणमें उसकी भावना हो तो उसे पहचानमें आये।
मुमुक्षुः- निर्विकल्प समाधिके समय पर्यायमें ही लीन होता है न? कारण कि आत्माका परिणमन हो गया है।
समाधानः- द्रव्य पर दृष्टि है। लीनता तो द्रव्यमें, द्रव्यके आश्रयमें लीनता होती है। पर्यायमें लीनता... उसे आश्रय द्रव्यका है। प्रगट होती है पर्याय, पर्याय प्रगट होती है, परन्तु आश्रय द्रव्यका है। द्रव्यके आश्रय बिना पर्याय अकेली नहीं है। सिर्फ एक पर्याय निराधार ऊपर-ऊपर है, ऐसा नहीं है। अनुभूति-वेदन पर्यायका है, परन्तु उसे- पर्यायको आश्रय द्रव्यका है।
मुमुक्षुः- श्रद्धानमें द्रव्य रहा कि वेदनमें?
समाधानः- दृष्टमें द्रव्य है। द्रव्यकी श्रद्धा अर्थात श्रद्धा कर ली, ऐसा नहीं है, उसका आश्रय है। यह मैं ज्ञायक वस्तु हूँ, उसका आश्रय है। तथापि द्रव्य और पर्याय अलग नहीं है। द्रव्य और पर्याय सर्व प्रकारसे भिन्न नहीं है। वह तो लक्षणसे भिन्न है और अंश-अंशीका भेद है। बाकी सर्वथा भिन्न नहीं है। कोई अपेक्षासे द्रव्यका वेदन और कोई अपेक्षासे पर्यायका वेदन कहनेमें आता है। दोनों सर्वथा भिन्न नहीं है। आत्माकी स्वानुभूति हुयी ऐसा कहनेमें आता है। पर्यायकी स्वानुभूति हुयी ऐसा नहीं कहनेमें आता। द्रव्य तो अनादिका था ही, परन्तु वेदनमें नहीं आ रहा था। स्वयंने द्रव्यको ग्रहण किया इसलिये पर्याय प्रगट हुयी, शुद्ध पर्याय हुयी इसलिये पर्यायका वेदन हुआ। परन्तु द्रव्यके आश्रय बिना पर्यायका वेदन होता नहीं। द्रव्य-पर्याय स्वर्था भिन्न नहीं है। वह तो अंश- अंशीका भेद है। पर्याय द्रव्यके आश्रयसे ही प्रगट होती है। पर्यायका वेदन हुआ (और) द्रव्य एक ओर पडा रहा, आत्मा एक ओर पडा रहा और पर्यायका वेदन हुआ, ऐसे नहीं होता।
मुमुक्षुः- परन्तु द्रव्य तो सामर्थ्यरूप ही है न?
समाधानः- सामर्थ्यरूप है, लेकिन वह अनन्त गुणसे भरा है। सर्व गुणांश सो
PDF/HTML Page 453 of 1906
single page version
सम्यग्दर्शन। सर्व गुणोंके अंश प्रगट होते हैं। एक पर्याय प्रगट हुयी, एक गुणकी एक पर्याय ऐसा नहीं है। द्रव्य अनन्त गुणसे भरा है। सर्व गुणांश सो सम्यग्दर्शन। प्रत्येक गुण के अंश उसे तारम्यरूपसे निर्मल होते हैं। द्रव्य गुण...
सब पर्याय प्रगट होने योग्य थी वह (प्रगट होती है)। सामर्थ्यरूप है भले, परन्तु प्रगट पर्याय होती है। सामर्थ्यरूप द्रव्य (है), उस द्रव्यके आश्रयसे पर्याय प्रगट होती है। सामर्थ्यरूप अर्थात एक ओर पडा है ऐसा उसका अर्थ नहीं है। एक ओर पडा रहा है और पर्याय कहीं अलग हो गयी ऐसा नहीं है। जो द्रव्य है उसमें गुण हैं, उन गुणोंकी पर्याय प्रगट होती है। द्रव्य भले सामर्थ्यरूप है। (पर्याय) भले परिणमे, परन्तु आश्रय द्रव्यका है। पर्याय परिणमती है, द्रव्यके आश्रय बिना पर्यायका परिणमन होता नहीं।
मुमुक्षुः- द्रव्यके आश्रयपूर्वक अर्थात मैं ऐसा द्रव्य हूँ, ऐसे अभ्यासरूप ही वह परिणमित हो जाती है?
समाधानः- मैं ज्ञायक हूँ, ज्ञायक हूँ। बारंबार ज्ञायकका अभ्यास करनेसे पर्यायका परिणमन हो जाता है। ज्ञायकका अभ्यास करनेसे। चारित्र चारित्रके आश्रयसे प्रगट नहीं होता, दर्शन दर्शनके आश्रयसे प्रगट नहीं होता। मैं दर्शन-सम्यक श्रद्धा प्रगट करुँ, ऐसे उसके आश्रयसे प्रगट नहीं होता। ज्ञायककी पर्याय, ऐसे विचार करते रहनेसे (नहीं होता)। पर्यायके आश्रयसे पर्याय प्रगट नहीं होती, द्रव्यके आश्रयसे प्रगट होती है।