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समाधानः- .. भीतरमें आत्माको पहचाने। आत्माका स्वभाव ही धर्म है। आत्मामें दर्शन है, आत्मामें ज्ञान है, आत्मामें चारित्र है, सब आत्मामें है, आत्मासे बाहर नहीं है। आत्मा तो कोई अलौकिक वस्तु है। उसको पहचाने। उसके स्वभावकी ओर दृष्टि करे, उसका ज्ञान करे, उसमें लीनता करे। सब आत्माके आश्रयमें होता है। बाहरके आश्रयसे नहीं होता है। मात्र शुभभाव करे, नव तत्त्वकी श्रद्धा और शास्त्रका ज्ञान कर ले, द्रव्य-गुण-पर्यायका ऐसा ज्ञान करे और चारित्र-पंच महाव्रत, अणुव्रत करे तो ऐसे लौकिक धर्मकी मुख्यता नहीं रहती। अलौकिक धर्मसे मुक्ति होती है। लौकिकसे पुण्यबन्ध होता है। पुण्यबन्ध तो जीवने अनन्त कालमें किया, लेकिन उससे कोई भवका अभाव नहीं हुआ। पुण्यबन्ध हुआ, देवलोक हुआ तो चार गतिका भ्रमण तो वैसे चालू ही है।
मुमुक्षुः- जिन धर्मको दृष्टि प्रधान धर्म कहनेमें मुख्यता बराबर बनती है?
समाधानः- दृष्टि प्रधान धर्म है। आत्माकी ओर दृष्टि करे, आत्माको पहचाने, आत्माकी स्वानुभूति करे। उसकी प्रधानता रहती है। जैन धर्मकी प्रधानता स्वानुभूतिमें है। द्रव्य पर दृष्टि करनेमें प्रधानता रहती है।
गुरुदेव कहते थे न? स्वानुभूति प्रधान जैन धर्म है। स्वानुभूतिकी प्रधानता रहती है। आत्माकी यथार्थ स्वानुभूति। ध्यान करते हैं, कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि हमें अनुभूति हो गयी। ऐसा ध्यान करनेसे कल्पित अनुभूति हो जाय ऐसी अनुभूति नहीं। आत्माको पहचान करके, आत्माका अस्तित्व ग्रहण करके, ज्ञायकका भेदज्ञान करे, ज्ञायक पर दृष्टि करे बादमें स्वानुभूति होती है। वह स्वानुभूति यथार्थ है। वर्तमानमें कितने ही लोग ध्यान करते हैं, बहुत करते हैं। ऐसा ध्यान करते हैं, कल्पना करते हैं, कुछ मिलता नहीं है। इसलिये कुछ शान्ति नहीं है, ऐसा कहते हैं। मुंबईमें कोई ऐसा ध्यान करके कहते हैं, हमको शान्ति नहीं है।
आत्माको ग्रहण नहीं करते हैं। आत्माका अस्तित्व ग्रहण किये बिना ध्यान करे तो ऐसे कल्पना मात्र एकाग्रता करे। विकल्पको मन्द करे और शुभभावरूप होवे फिर (कहे), मुझे प्रकाश हुआ, ऐसी कल्पना हो जाती है। परन्तु आत्माके स्वभावको पहचाने
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और आत्माकी ओर दृष्टि करे, आत्माका यथार्थ ज्ञान करे। बादमें उसकी स्वानुभूति यथार्थ होती है। यथार्थ ज्ञानपूर्वक यथार्थ ध्यान होना चाहिये।
मुमुक्षुः- यथार्थ ज्ञानपूर्वकमें दृष्टिप्रधान होना चाहिये।
समाधानः- हाँ, दृष्टिप्रधान होना चाहिये। यथार्थ ज्ञान उसको कहते हैं कि जिसमें दृष्टिकी प्रधानता रहती हो। दृष्टिकी प्रधानता रहती है, वह मुक्तिका मार्ग है। दृष्टि द्रव्य पर दृष्टि करनेसे (होता है)।
मुमुक्षुः- ... सागर उछल रहा है। अपने चिदान्द प्रभुमें अनन्त शक्तिका सागर पडा हुआ है। वर्तमानमें ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्तिका अंश खुला हुआ है। उस वर्तमान दर्शन, ज्ञानकी शक्तिको-अंशको स्वभावका अंश, टोडरमलजी साहबने भी फरमाया है। लेकिन जब अनुभवमें अंतरकी ओर ज्ञान झुकता है, उस कालमें ज्ञान, दर्शन दोनों ही स्वरूपका स्वसंवेदन आनन्द लेता है। तो वह दर्शन लेता है या ज्ञान लेता है? वर्तमान खुला हुआ अंश।
समाधानः- दर्शन भी लेता है और ज्ञान भी लेता है और लीनता भी लेता है। दर्शनकी पर्याय.. दर्शन अर्थात प्रतीतरूप दर्शन लेना चाहिये। अवलोकनरूप दर्शन है वह तो अवलोकनरूप है। प्रतीतरूप जो दर्शन है, उसका अनुभव वेदनमें आता है। ज्ञानमें भी आता है और चारित्रमें भी आता है।
मुमुक्षुः- ज्ञानकी ही मुख्यतासे आत्मा स्वभावकी अनंत शक्तिओंके वेदनमें प्रत्यक्ष आ जाता है जाननेमें, आत्माकी अनुभूतिमें...?
समाधानः- दृष्टिके जोरसे स्वानुभूति होती है। दृष्टिका जोर होवे तो स्वानुभूती होती है। मात्र अकेले ज्ञानसे नहीं होता। दृष्टिके जोरसे स्वानुभूति होती है। दृष्टिके जोर बिना ज्ञान सच्चा नहीं हो सकता। दृष्टिका जोर होता है तो ज्ञान सच्चा होता है। दृष्टिके जोर बिना स्वानुभूतिमें ऐसी लीनता होती नहीं। दृष्टिके जोर बिना अकेले ज्ञानमात्रसे नहीं होता। ज्ञान तो साथमें रहता है।
मुमुक्षुः- लक्षण जो..
समाधानः- वह अवलोकनरूप दर्शन है और वह प्रतीतरूप दर्शन है।
मुमुक्षुः- वह प्रतीतरूप श्रद्धाकी पर्यायमें चला जाता है।
समाधानः- हाँ, श्रद्धाकी पर्याय। यह दर्शनगुणमें अवलोकनरूप है।
मुमुक्षुः- ज्ञान भी तो साथमें होता है। दर्शनका अंश खुला है, वैसे ज्ञानका अंश ज्ञानोपयोग भी खुला है। तो ज्ञानोपयोग और दर्शनउपयोगमेंसे दर्शन उपयोग अंतरमें अवलोकन करता है या ज्ञानका उपयोग अन्दर जाता है वह अवलोकन करता है?
समाधानः- दोनों अवलोकन करते हैं। प्रतीतके जोरसे भीतरमें जाता है तो सामान्यरूप
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दर्शन भी साथमें है और विशेष ज्ञान भी साथमें है। दोनों अवलोकन करते हैं। अवलोकनरूप तो दोनों होते हैं।
मुमुक्षुः- सामान्य अवलोकनमें तो वह भेद नहीं पाडता।
समाधानः- भेद नहीं पाडता, वह तो सत्तामात्र (ग्रहण करता है)। सत्तामात्र अवलोकन उसमें आता है। ज्ञानमें भेद आता है। ज्ञान सामान्यको जानता है, ज्ञान विशेषको जानता है। ज्ञान सबको जानता है। दर्शनमें सत्तामात्र आता है।
मुमुक्षुः- दर्शन स्वसंवेदन न लगाकर ज्ञानका स्वसंवेदन ऐसा बार-बार जिनागममें आता है कि यह अनुभूति ज्ञान स्वसंवेदनसे होती है।
समाधानः- ज्ञानका स्वसंवेदन.. दर्शनकी बात उसमें लेते नहीं है। सामान्य उपयोग है इसलिये ज्ञानकी बात लेते हैं। ज्ञान विशेष है इसलिये। दर्शन तो साथमें रहता है। इसलिये ज्ञानकी बात लेते हैं। ज्ञान विशेष है न। सामान्य और विशेष दोनोंको जानता है। दर्शन समान्य होता है इसलिये उसकी बात नहीं आती है, ज्ञानकी बात आती है।
... दोनों साथमें रहते हैं। परिणति तो चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाये तो भी परिणति जो स्वसन्मुख अमुक परिणति आंशिक हो वह परिणति श्रद्धाकी परिणति, स्वानुभूतिकी या बाहर आये सविकल्प दशामें तो भी अमुक परिणति चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाये। ज्ञायककी ज्ञायकरूप परिणति शुद्ध परिणति अमुक अंशमें प्रगट हुयी है, वह चलती रहती है। उपयोग भले बाहर जाय। अमुक लब्धमें, उसकी अमुक परिणति चलती रहती है।
मुमुक्षुः- दोनोंकी साथ चलती होगी? निर्विकल्प प्रतीतिरूप तो श्रद्धाकी है और निर्विकल्प दशामें जितनी शुद्धिका अंश बढा उतनी प्रतीतिरूपके साथ स्थिरतारूप...
समाधानः- प्रतीतिरूप और स्थिरतारूप परिणति चलती रहती है। उसमें ज्ञान जो अमुक उघाडरूप रहता है, उपयोगरूप भले नहीं रहता है तो भी। लब्धरूप कहते हैं न? लब्ध है यानी गुप्त है ऐसा नहीं, परन्तु लब्ध यानी अमुक उघाडरूप उसकी परिणति रहती है। उपयोग भले बाहर जाये तो भी ज्ञानकी रहती है, प्रतीतकी रहती है, चारित्रकी रहती है। शुद्ध परिणति रहती है।
मुमुक्षुः- ऐसी दशा सहजपने चलती रहती है?
समाधानः- सहजपने चलती रहती है। सहज पुरुषार्थ है। सहज यानी उसकी कृतकृत्य दशा हो गयी ऐसा नहीं, परन्तु सहज पुरुषार्थ चलता है। ऐसा सहज पुरुषार्थ स्वसन्मुख (चलता है)। अमुक परिणति तो सहजरूप चलती है, उसके साथमें पुरुषार्थ भी रहता है। साधकदशा है तो सहज पुरुषार्थ तो साथमें रहता है।
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मुमुक्षुः- सहज पुरुषार्थ लागु पडता है?
समाधानः- सहज पुरुषार्थ रहता है। द्रव्य स्वयं कृतकृत्य (है)। द्रव्य अपेक्षासे पूर्णता परन्तु अमुक अंश अभी तो पर्यायमें प्रगट हुआ। पुरुषार्थ सहज साथमें रहता है।
... शुद्ध परिणति साथमें हो, द्रव्य पर दृष्टि हो, भेदज्ञानकी धारा चलती हो तो उसे व्यवहार पूजा कहनेमें आता है। नहीं तो व्यवहार कहनेमें आये, उस प्रकारका व्यवहार कहनेमें आये। अकेला व्यवहार वह वास्तविक व्यवहार नहीं है। निश्चयके साथ व्यवहार हो वह व्यवहार है। उसे भावना है, जिज्ञासा है कि मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? द्रव्य पर दृष्टि कैसे प्रगट हो? वीतरागभावकी भावना करे, जिज्ञासा करे। ज्ञायक... और शुुभभाव साथमें आये वह तो श्रावकोंको वह व्यवहार होता है। बाकी सच्चा व्यवहार तो सम्यग्दर्शनपूर्वक होता है।
मुमुक्षुः- ... दृष्टिमें न निश्चयका व्यवहार, न पर्यायका परलक्ष्यी व्यवहार..
समाधानः- निश्चय नहीं है, व्यवहार नहीं है, द्रव्य पर दृष्टि नहीं है। निश्चय नहीं प्रगट हुआ है, व्यवहार प्रगट नहीं हुआ है।
... सम्यग्दर्शन है, उसके साथ अंतरमें स्थिर नहीं हो सकता है, इसलिये शुभभाव साथमें आता है। और शुभभावके साथ बाह्य अष्ट द्रव्य आते हैं। उससे पूजा करे, इसलिये उसे व्यवहारका आरोप आता है। वस्तुको व्यवहारका आरोप वह स्थूल व्यवहार है। अन्दर शुभभावका व्यवहार... और अन्दर शुद्ध परिणतिपूर्वक हो तो कहनेमें आये।
मुमुक्षुः- खरेखर तो अपनी ही पूजा ..
समाधानः- द्रव्य पर दृष्टि है, आत्माकी महिमा है। परन्तु बाहर शुभभावमें वीतरागताकी महिमा आती है, शुभभावमें। वीतराग जिनेन्द्र देव वीतराग हो गये, स्वरूपमें जम गये, स्थिर हो गये। अहो..! वीतरागदशा! जिनेन्द्र देव, जिन्होंने वीतरागी दशा प्रगट की है। जो आत्मामें संपूर्णरूपसे समा गये हैं। उनका जिसे आदर है कि वह दशा आदरने योग्य है। धन्य है वीतरागी दशा! जिनेन्द्र देव! इस तरह उसे भगवानके ऊपर महिमा आती है। इसलिये उसे पूजाकी भावना आती है।
भगवानका किस प्रकार आदर करुँ? इसलिये सम्यग्दृष्टिको गृहस्थाश्रममें आदरका महिमाका भाव आता है, इसलिये पूजा करता है। भगवान पर महिमा आती है। उनकी वस्तुएँ छूट गयी है और सर्वसंगपरित्याग हुआ है, इसलिये भगवानके दर्शन करते हैं। दर्शन करके भी महिमा करते हैं, स्तोत्र रचते हैं, सब करते हैं। और गृहस्थाश्रममें खडा है, सब चीज-वस्तु आदि होती है। त्यागी नहीं हुआ है। इसलिये भगवानको अमुक वस्तुएँ चढाता है। वस्तुका त्याग (करता है)। गृहस्थाश्रममेंसे त्याग करके भगवानको चढाता
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है और भगवानकी महिमा करता है। स्वयं अपने शरीरके लिये, कुटुम्बके लिये सब करता है, भगवान तो सर्वोत्कृष्ट है इसलिये भगवानकी पूजा और महिमा आती है, इसलिये पूजा करता है। उत्तम वस्तुओंसे पूजा करता है। ज्ञायककी ज्ञायकधारा छूटती नहीं है। उसमें एकत्वबुद्धि नहीं होती है। साथमें ज्ञायकता खडी रहती है। शुभभाव आता है। ज्ञायकता भेदज्ञान (चालू है)।
जो शुभभाव आता है उस क्षणमें ज्ञायककी धारा उसकी भिन्न ही है। तो भी उसे ऐसी महिमा आती है। शुभभावमें स्थिति कम पडती है, परन्तु उसे भगवान पर बहुत भावना आती है। इसलिये शुभभावमें मिथ्यादृष्टिको जो रस पडता है, उससे सम्यग्दृष्टिको जो रस पडता है, स्थिति कम पडती है। क्योंकि यदि अंतरमें समा जाये तो तुरन्त (छूट जाता है)। उसे लंबी स्थिति नहीं पडती है। मिथ्यादृष्टिको स्थिति पडती है और रस पडता है। क्योंकि उसे स्वभावकी महिमा है। आत्माका स्वरूप जाना और स्वभावकी महिमा आयी है। स्वानुभूति दशामें और प्रतीतमें जो महिमा आयी है, यह अंश जो प्रगट हुआ है, पूर्णताकी जो महिमा आयी है, वह महिमा स्वयं अन्दर स्थिर नहीं हो सकता है (तो) भगवान पर महिमा आती है। शुभभाव आता है कि भगवानने सर्वोत्कृष्ट केवलज्ञान दशा प्रगट की, वीतराग दशा प्रगट की, धन्य है वह वीतराग दशा! ऐसे शुभभावमें महिमा आती है, इसलिये भगवानकी भक्ति करता है, स्तुति करता है, पूजा करता है। परन्तु उसी क्षण अपनी ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा उसे भिन्न ही वर्तती है।
पद्मनंदी आचार्यने भगवानके स्तोत्र रचे हैं। हे भगवान! ये बादलके टूकडे क्यों हो गये? कि इन्द्रोंने जो नृत्य किया उसमें उनका हाथ (ऐसो हुआ तो) बादलके टूकडे हो गये। भगवान! मैं हर जगह आपको देखता हूँ। इस प्रकार भगवानकी स्तुति करते हैं। आप ही जगतमें सर्वोत्कृष्ट हो, आप ही आदर करने योग्य हो। इस प्रकार भगवानकी स्तुति (करते हैं)।
आपके दर्शनसे यह होता है, आपके दर्शनसे पाप नष्ट होते हैं, आपके दर्शनसे... अनेक प्रकारकी स्तुति करते हैं। परन्तु अंतरमें ज्ञायककी भेदज्ञानकी धारा भिन्न वर्तती है। वह बाहरमें दिखायी नहीं देती, परन्तु अंतरकी उसकी परिणति भिन्न वर्तती है।
मुमुक्षुः- ... धारा चालू है, इसलिये अन्दरमें उसे ज्ञायककी पकड चालू रहती है। तो उसी प्रकार जिज्ञासुको भी भगवानका बहुमान करते हुए...
समाधानः- भगवान वीतराग हो गये। उस वीतरागताका स्वयंको आदर है, स्वयंको रुचता है। उसकी रुचि अनुसार रहता है। मुझे आत्मा कैसे प्रगट हो? भगवानने जो आत्मा प्रगट किया, वैसे आत्माका मुझे आदर है। वह आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो?
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ऐसा ज्ञायक मुझे प्रगट हो, ऐसी ज्ञायककी परिणति मुझे प्रगट हो। ऐसी अंतरमें भावना (होती है)। भगवानने ऐसी दशा प्रगट की, वह दशा आदरने योग्य है।
वैसा आत्माका स्वरूप है। जैसे भगवान हैं, वैसा मैं हूँ। ऐसा आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो? ऐसी रुचि उसे साथमें (होती है)। रुचिवानको ऐसी रुचि होनी चाहिये। उसे भगवानकी वीतरागी दशाका आदर है। भगवानका अनुपम स्वरूप है, वैसा मेरा स्वरूप है। वह मुझे कैसे प्रगट हो, ऐसी भावना साथमें होनी चाहिये।
मुमुक्षुः- यानी उसमें उसकी रुचि पुष्ट होती है?
समाधानः- रुचि पुष्ट होती है। वीतराग दशाकी रुचि। आत्माकी रुचि पुष्टि होती है। जैसा भगवानका आत्मा है, वैसा मेरा आत्मा है। ऐसा आत्मा मुझे कैसे प्रगट हो? आत्माकी रुचिको पुष्ट करता है।
मुमुक्षुः- भगवानको देखकर उसे ऐसी भावना होती है कि ऐसा संपूर्णपना मैं कैसे प्राप्त करुँ।
समाधानः- हाँ, कैसे प्राप्त करुँ? ऐसा स्वरूप मुझे कैसे प्राप्त हो? भगवानने जो मार्ग अंतरमें प्रगट किया, वैसा मुझे कैसे हो? प्रारंभसे लेकर अंत तक भगवानने जो प्रगट किया, वह सब मुझे कैसे प्रगट हो? उसकी स्वयंकी रुचिको पुष्ट करे। वह स्वयं वीतरागी दशाका आदर करता है। उसे भेदज्ञानकी धारा नहीं रहती है, परन्तु अपनी भावना और रुचिको पुष्ट करता है। जिज्ञासु हो वह। बाकी तो जो ओघे-ओघे रूढिगतरूपसे करता हो, उसकी बात नहीं है। जिज्ञासु हो,.. भगवान जैसा स्वरूप मुझे कैसे प्राप्त हो?
जिन प्रतिमा जिन सारखी। जिन प्रतिमा जिन सारखी, अल्प भव स्थिति जाकी, सो ही जिन प्रतिमा प्रमाणे जिन सारखी। जिसकी भव स्थिति अल्प है वह जिन प्रतिमाको... जिनेश्वर जैसी... क्योंकि भगवानकी मुद्रा जो है समवसरणमें बैठे हों, वैसी मुद्रा जिन प्रतिमामें (होती है)। इस प्रकार भगवान याद आये। भगवानकी मुद्रा देखकर भगवान याद आये। उस प्रकार भगवानको जो स्वीकारता है कि यह भगवानकी ही मुद्रा है। मानो भगवान बैठे हों! ऐसा स्वीकारता है। अल्प भव स्थिति जाकी सो ही... अंतरमें रुचिपूर्वक।
मुमुक्षुः- वीतराग भगवानका बिंब देखकर उसे अन्दरमें चैतन्य..
समाधानः- इसे अपना चैतन्यबिंब याद आये। टंकोत्किर्ण चैतन्यबिंब भी ऐसा ही है। स्वरूपमें लीन हो जाये ऐसा है। बाहर जाना वह मेरा स्वरूप नहीं है। अंतरमें जाना वही इस चैतन्यदेवका स्वरूप है। जैसे भगवान हैं, वैसा ही मैं हूँ।
(भगवानके) द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने, अपने द्रव्य-गुण-पर्यायको जाने। भगवान कैसे
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हैं? भगवानका द्रव्य कैसा? उनके गुण कैसे? उनकी पर्याय कैसी प्रगट हुयी? इस प्रकार स्वयंको विचार आनेका एक महा... स्वयं पुरुषार्थ करे तो। भगवानका स्वरूप चारों ओरसे विचारे। क्षण-क्षणमें ज्ञायक याद आये। रुचिवानको ऐसा होता है कि भगवान मेरे हृदयमें रहे। जैसे भगवान हैं, वैसा ही मेरा आत्मा है। उसे गहराईमें ऐसी रुचि रहती है कि मुझे मेरा आत्मदेव कैसे प्रगट हो? ऐसी रुचि अन्दर साथमें रहनी चाहिये। ऐसा पुरुषार्थ मैं कब करुँ? इस प्रकार पुरुषार्थ करनेसे प्राप्त होगा। इस प्रकार समझन साथमें होनी चाहिये। श्रावक गृहस्थाश्रममें हो, उसके बजाय मन्दिरमें जाये तो एक शुभ परिणाम होनेका कारण होता है। परन्तु जिज्ञासु हो तो विचार करनेका अवकाश है। जो नहीं समझता है, (तो) रूढिगतरूपसे तो सब चलता ही है।
मुमुक्षुः- शास्त्रमें तो एक ही पहलू आये, इसमें तो मानो पूरा स्वरूप जीवंतरूपसे ख्यालमें आये उस प्रकारसे ग्रहण करनेका कारण बनता है।
समाधानः- हाँ, कारण बनता है। चारों ओरसे विचार करनेका... पुरुषार्थ करे तो विचार कर सके। विचार करनेका कारण बने। भगवान जिनेन्द्र देवकी महिमा आनेसे भी विचार करनेका कारण बनता है। साक्षात गुरुकी वाणी हो उसकी तो क्या बात करनी! ... समझा नहीं, उसमें साक्षात वाणी कारण बनती है। भगवानकी, गुरुकी वाणी साक्षात हो तो अन्दरसे चैतन्यको पलटनेका कारण बनता है। चैतन्यमूर्ति। परन्तु यह जिनेन्द्र प्रतिमाकी भी उतनी ही महिमा शास्त्रमें आती है। निद्धत और निकाचित कर्म, भगवान जिनेन्द्र देवकी प्रतिमासे छूट जाते हैं, ऐसा आता है। परन्तु उस प्रकारकी अपनी परिणति तैयार होनी चाहिये। निमित्त तो ... रूढिगतरूपसे नहीं होता है, समझनपूर्वक हो तो होता है।